अन्तहीन
राहुलदेव गौतमजी तो मैं तभी गया था।
जब आधी रात में मेरी नींद टूटी थी,
यह सोचते हुए,
कि तुमने कहा था!
मेरे बारे में तुम कब सोचते हो!
मैं तो मिट तभी गया था।
जब हाथों पर लिख कर मेरा नाम,
तुमने उसे मिटा दिया था।
भ्रम तो मेरा तभी टूट गया था।
तुम्हारे और मेरे दिशाहीन लगाव का,
जब दिन और रात में,
एक पल भी तुम याद न आये मुझे।
अन्तहीन तो मैं तभी हो गया था।
जब तुम्हारे एहसासों की अन्तहीन सुरंग में,
जज़्बातों का एक चिराग़ लेकर,
मैंने क़दम रखा था।
अजनबी तो मैं तभी हो गया था।
जब तुम्हारी और मेरी बातों का सिलसिला,
किसी वक़्त में थम सा गया था।
मैं निःशब्द तो तभी हो गया था।
जब तुम्हारी साँसें,
मेरी आख़िरी साँस में घुट सी गईं थीं।
मैं हालात से तभी दूर हो गया था।
जब तुम्हारे अनसुलझे,
हालात का कुछ अनुभव हो चला था।
मैं उम्मीदों के ज़ंजीर से
तभी मुक्त हो गया था।
जब तुमने सम्बलहीन,
संवेदनाओं से बाँधा था मुझे।
अपरचित हूँ अपरचित पहले भी था।
तुम्हारे परिचय के बंधन से,
उसकी गाँठ ना जाने कहाँ,
सरक कर चली गई थी।
जल तो मैं तभी गया था
जब तुमने अनमने मन से,
मुझे सांत्वना की चिंगारी दी थी।
जिसमें मैंने स्पर्शहीन प्रेम की,
कितनी बार चितायें जला दी थीं।
जिसकी राख बार-बार,
मेरी हथेलियों में सन जाती है।
और बार-बार मैं उसे,
आँसुओं से धोता चला जाता था,
चला जाता था
चला जाता हूँ।
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