द्वंद्व

15-12-2022

द्वंद्व

राहुलदेव गौतम (अंक: 219, दिसंबर द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

जीता हूँ, 
मैं तुम्हें, अपने उम्र की पूर्वदीप्तियों में
अब तुम्हारे बिना
जीवन के जिजीविषा में आपातकाल है! 
 
एक दीये की तरह जले हो तुम
मेरे अन्तहीन अँधेरों की जागीर में
मैं कैसे भूल सकता हूँ! 
 
तुम्हारी ग़ैरमौजूदगी में
साँसें तो चल रही हैं मेरी
मगर, 
अब हर एक सफ़र मेरा
थका थका सा रहता है! 
 
तुम शामिल होती हो मुझमें, 
जैसे रोशनी शामिल होती है
अँधेरे में! 
 
मैं अँधेरों में ढक जाता हूँ, 
एक क़ब्र की तरह . . . 
और तुम आते हो, 
मेरे सिरे पर एक सुबह की तरह! 
 
चलो जैसे तुम हो
उसी तरह मिलो, 
जैसा मैं हूँ, 
उसी तरह मिलता हूँ, 
आओ देखते है, 
हमारे बीच बदला क्या है! 
 
जो चाहता हूँ, 
वो तुम इंतज़ार हो! 
बस निकल आओ एक बार फिर . . .
मेरे ज़ेहन से तस्वीर बनकर! 
मेरी थकन भरी साँसें, 
बुला रही है तुम्हें! 
 
तुम्हारे प्रेम का कोई मूल्यांकन
न कर सके, 
इसलिए मैं ख़ुद को मूल्यहीनता से
परिभाषित करता हूँ! 
 
एक सुनसान सी सड़क निकलती है, 
मेरे मन से . . . 
जिसकी तुम! 
सिर्फ़ तुम, राहगीर हो! 
 
मेरे विकृतियों से
खंडित जीवन में, 
एक तुम्हीं निर्मित स्वीकृति हो! 
 
चलो एक बार फिर, 
एक-दूसरे को स्वीकारते हैं
जीवन और मृत्यु की तरह! 
 
सब सही थे अपनी अपनी जगह
बस मैं ग़लत था! 
ग़लत रहूँगा अपनी जगह
जब तक वह कह न दे, 
शायद तुम सही थे अपनी जगह! 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
नज़्म
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में