मैं अख़बार हूँ!
राहुलदेव गौतममैं अख़बार हूँ।
मुझे तरह-तरह के लोग
मुझे तरह-तरह से पढ़ते हैं।
कोई मुँह बिचका लेता है,
कोई मुँह उठा लेता है।
कोई चुप होकर भौहें तान लेता है,
कोई अनेक शब्दों में बड़बड़ा लेता है।
क्योंकि मैं अख़बार हूँ।
हर कोई अपने हिसाब से थाम लेता है।
अख़बार बन जाना अपने आप में सभ्यता है।
कि यहाँ तरह-तरह के लोग है,
क़िस्म-क़िस्म के विचार
अजीबो-अजीब वाद-विवाद
और नस्ल-नस्ल के झगड़े।
कुछ उटपटांग जीवन शैली
कुछ अल्हड़ रीति-रिवाज़
कुछ बेपरवाह मान्यताएँ-धारणाएँ।
कुछ ख़ौफ़नाक वारदातें
कुछ भेद, कुछ अभेद
कुछ हद, कुछ बेहद
कुछ शोहरतें,
कुछ गुमनामी
कहीं भूख,कहीं सदमे
कहीं रंग, कहीं बिरंगे
कहीं संस्कृति, कहीं नस्लवाद
कहीं सौम्य, कहीं उग्रवाद
कहीं बहुत कुछ,
कहीं कुछ भी नहीं।
कहीं सियासत, कहीं बग़ावत
कहीं प्रेम, कहीं धोखा
कहीं उम्मीद, कहीं टूटना।
कहीं सोना, कहीं जागना
कहीं हँसना, कहीं रोना
कहीं शब्द, कहीं निःशब्द।
कहीं शोर, कहीं ख़ामोशी
कहीं ख़ून, कहीं लाश
कहीं त्याग, कहीं लूट
कहीं सवेरा, कहीं अँधेरा।
और इन्हीं से मिलकर बनता हूँ,
मैं हर रोज़ एक नया अख़बार।
एक नहीं, दो नहीं,
सत्रह-अट्ठरह पृष्ठों की
सत्रह-अट्ठरह जीवन जीता हूँ।
जितनी उँगुलियाँ हैं,
उतने में फँस जाता हूँ
और दो अँगूठों में दब जाता हूँ।
मुझ जैसे अख़बार की,
एक विशेषता रही है दोस्तो!
कितनी बार पढ़ा जाता हूँ,
कितनी बार मोड़ा और दोहरा जाता हूँ।
मेरी एक दिन की ज़िन्दगी,
समाप्त हो जाती है जब,
किसी आलमारी की रद्दी कोने में,
मैं बेपरवाह फेंक दिया जाता हूँ।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
-
- अधूरा
- अनंत पथ पर
- अनकही
- अनकही
- अनसुलझे
- अनुभव
- अनुभूति
- अन्तहीन
- अपनी-अपनी जगह
- अब कोई ज़िन्दा नहीं
- अब लौट जाना
- अस्तित्व में
- आँखों में शाम
- आईना साफ़ है
- आज की बात
- आजकल
- आदमी
- आदमी जब कविता लिखता है
- आयेंगे एक दिन
- आवाज़ तोड़ता हूँ
- इक उम्र तक
- उदास आईना
- उस दिन
- एक किताब
- एक छोटा सा कारवां
- एक तरफ़ा सच
- एक तस्वीर
- एक तारा
- एक पुत्र का विलाप
- एक ख़ामोश दिन
- एहसास
- कल की शाम
- काँच के शब्द
- काश मेरे लिए कोई कृष्ण होता
- किनारे पर मैं हूँ
- कुछ छूट रहा है
- कुछ बात कहनी है तुमसे
- कुछ ख़त उसके
- कुछ ख़त मेरे
- कोई अज्ञात है
- कोई लौटा नहीं
- गेहूँ और मैं
- चौबीस घंटे में
- छोटा सा सच
- जलजले
- जागे हुए
- जीवन इधर भी है
- जीवन बड़ा रचनाकार है
- टूटी हुई डोर
- ठहराव
- तराशी हुई ज़िंदगी
- तहरीर
- तालाब का पानी
- तुम्हारा आना
- तुम्हारा एहसान
- दर्द की टकराहट
- दिन की सूनी पुरवाइयाँ
- दीवार
- दीवारों में क़ैद दर्द
- दो बातें जो तुमसे कहीं थीं
- द्वंद्व
- धरती के लिए
- धार
- धारा न० 302
- धुँध
- निशानी
- पत्नी की मृत्यु के बाद
- परछाई
- पल भर की तुम
- पीड़ा रे पीड़ा
- फोबिया
- बनकर देखो!
- बस अब बहुत हुआ!!
- बारिश और वह बच्चा
- बाज़ार
- बिसरे दिन
- बेचैन आवाज़
- भूख और जज़्बा
- मनुष्यत्व
- मरी हुई साँसें – 001
- मरी हुई साँसें – 002
- मरी हुई साँसें – 003
- मशाल
- माँ के लिए
- मायने
- मुक्त
- मुक्ति
- मृगतृष्णा
- मेरा गुनाह
- मेरा घर
- मैं अख़बार हूँ!
- मैं किन्नर हूँ
- मैं डरता हूँ
- मैं तुम्हारा कुछ तो सच था
- मैं दोषी कब था
- मैं दोषी हूँ?
- रास्ते
- रिश्ता
- लहरों में साँझ
- वह चाँद आने वाला है
- विकल्प
- विराम
- विवशता
- शब्द और राजनीति
- शब्दों का आईना
- संवेदना
- सच चबाकर कहता हूँ
- सच बनाम वह आदमी
- सच भी कभी झूठ था
- सपाट बयान
- समय के थमने तक
- समय पर
- समर्पण
- साॅ॑झ
- सफ़र (राहुलदेव गौतम)
- हँसो हँसो
- हम जान नहीं पाते
- हादसे अभी ज़िन्दा हैं
- ख़ामोश हसरतें
- ख़्यालों का समन्दर
- ज़ंजीर से बाहर
- ज़िन्दा रहूँगा
- नज़्म
- विडियो
-
- ऑडियो
-