आजकल

राहुलदेव गौतम (अंक: 222, फरवरी प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

अजीब सी मसलहत है ज़िन्दगी में
आजकल! 
एक सज़ा काट रही है बिना तुम्हारे ज़िन्दगी
आजकल! 
मालूम नहीं इधर, कब शाम हो जाती है
आजकल! 
बड़ी ग़फ़लत में बीत रही है दुनिया की शाम
आजकल! 
फ़ुर्सत में भी एक बोझ है, 
आजकल! 
पता नहीं कब मिटेगा मेरा
दुनिया का यह भ्रम, 
मुझे भीड़ से झिझक है! 
आजकल! 
बेमुरव्वत सी एक साँझ मेरे आँगन से गुज़र जाती है
तन्हाई का आबोदाना है मेरे कंधों पर
आजकल! 
बना कर इधर मैं, ज़िन्दगी का घर! 
एक ख़लिश का बोझ लिए जाता हूँ
आजकल! 
एक यक़ीन ज़िन्दा रखा है कि मैं, 
एकदिन इस अँधेरे को पार कर जाऊँगा . . . 
क़दम रुका नहीं है उसकी तलाश में
आजकल! 
अब लोगों को यक़ीन हो चला है की मैं भी
सच कहता हूँ
जैसा था वैसा हूँ, झूठ नहीं रहता हूँ
आजकल! 

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