तराशी हुई ज़िंदगी
राहुलदेव गौतममैं तुम्हें देखता रहा . . . 
जैसे सबकुछ समेट कर
चली गई मेरे सामने से, 
कोई आख़िरी ट्रेन। 
 
घर से बाहर
मैं मरा हूँ। 
और
घर में ज़िन्दा हूँ . . . 
माँ के मुलायम स्पर्श में, 
बच्चों की सूनी आँखों में। 
 
वैसे तो मैं गूँगा हूँ, 
कुछ ख़ाली, 
कुछ पूरा हूँ, 
बहुत कुछ कहना चाहता हूँ, 
जैसे कोई, 
कह कर कुछ नहीं
कह पाता है, 
मरने वाले की साँसों से। 
 
यह बाग़-बग़ीचे, 
खेत-खलिहान . . . 
मेरे सपनों में रह जाते हैं, 
ये रंग-बिरंगी तितलियाँ
ये चिड़ियों की आबाद बस्तियाँ
ये तन्हा, विरान, 
मेरे शब्दों के जंगल में मर जाते है। 
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