बाज़ार

राहुलदेव गौतम (अंक: 254, जून प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

इन शब्दों के बाज़ार में
मैं सिर्फ़ चुप्पी ख़रीदूँगा! 
कितना सुनता हूँ . . . तुम्हें! 
आकर देखना मेरे मौन के संसार में! 
जहाँ-जहाँ था कोलाहल
सिमटता गया मैं! 
धीरे-धीरे ही जलता गया मैं
आवाज़ों के अंगार में! 
 
टुकड़े-टुकड़े में बात न करें तो अच्छा है
जबकि अर्थ-अर्थ जानते है, 
अपने बीच के शब्द-शब्द का! 
ख़ामोशियों के पुल से चले थे हम, 
एक सफ़र में . . . 
जहाँ न तुमने आवाज़ दी थी, 
और न मैंने! 
बस यक़ीन था अपने-अपने सच पर! 
इस राह पर . . . 
मैं और तुम चल सकते थे! 
 
समय मुझसे आगे आगे दौड़ रहा है, 
और मैं समय के पीछे-पीछे
असल में यह हार और जीत का दौड़ नहीं है, 
यह परिवर्तन को पा लेने की अपनी-अपनी, 
गति है! 

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