इक उम्र तक

01-05-2022

इक उम्र तक

राहुलदेव गौतम (अंक: 204, मई प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

1.
भीड़ भी होनी ज़रूरी थी
तुम्हारी और मेरी जस्तूजू में, 
तुझे अकेले में बार-बार
जीने के लिए! 
 
अब चल मेरे, 
तन्हा ख़्यालात
और ले चल होने भी . . . 
न जाने क्या, 
पा लेने जाने वाली
वहशी ख़्वाहिशों की दुनिया से! 
 
वह अभी मर रहा है! 
ना जाने क्यूँ, 
मेरे उम्र की मज़ार पर! 
 
2.
हमारी दूरियों का
बस एक ही मतलब था! 
हम मिले तो थे, 
अपनी अपनी चाहतों से
लेकिन थे हम, 
अपनी अपनी जगह! . . . 
 
किताबों के पन्नों की तरह
दोहरी हुई है ज़िन्दगी, 
बार-बार उसे टटोलकर
समेट रहा हूँ, 
इक उम्र से बिखरे हुए हैं हम, 
मरे हुए शब्दों में!!! 

__देव

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