फीजी के सृजनात्मक हिंदी साहित्य का इतिहास लगभग सवा सौ वर्षों का है और यह साहित्य प्रधानतः भारतीयों के फीजी आगमन, उनके संघर्ष और विकास का दस्तावेज़ कहा जा सकता है। फीजी के सृजनात्मक हिंदी साहित्य की मूल संवेदना प्रवास की पीड़ा है जो साहित्य में आद्यन्त देखने को मिलेगी यद्यपि उसका स्वरूप विविध सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों के कारण बदलता हुआ दिखता है। प्रवास में जहाँ व्यक्ति के मन में एक ओर नई जगह जाने का उत्साह है, चुनौती है, नई आशाएँ और कामनाएँ हैं वहीं दूसरी ओर विछोह की पीड़ा है, विस्थापन का कष्ट है और भविष्य की आशंकाएँ हैं। इन दोनों भावों में डूबता उतराता मानव प्रवास का निश्चय करता है। अपनों का विछोह, अपनी मिट्टी का विछोह प्रवासी के मन में एक गहरी कसक उत्पन्न करता है। इस कसक को व्यक्ति नए सुखमय भविष्य की आशा में भुलाने की चेष्टा करता है। यदि नया वातावरण अधिक सुख सुविधा सम्पन्न है तो प्रवासी धीरे-धीरे नए वातावरण में रम जाता है और विछोह की पीड़ा धीरे-धीरे कम होती जाती है। वहीं दूसरी ओर यदि प्रवास वह वातावरण नहीं दे पाता जिस आशा से व्यक्ति अपना घर-बार छोड़कर विदेश गया है तो प्रवास बड़ा कष्टकर लगता है, उसका मन क्षोभ और ग्लानि से भर जाता है। न वह वापस अपने देश जा सकता है और न ही उसका मन यहाँ लगता है।
फीजी के सृजनात्मक हिंदी साहित्य को हम तीन काल खण्डों में बाँटकर देख सकते हैं। ये काल खण्ड फीजी में भारतीयों के संघर्षमय जीवन के मुख्य पड़ाव हैं और इनमें हम भारतीयों की सृजनात्मक साहित्यिक अभिव्यक्ति के विशिष्ट मोड़ों को भी देख सकते हैं।
पहला काल खण्ड 1879 ई० से 1920 ई० का है। 1879 का वर्ष फीजी में भारतीयों के पदार्पण का वर्ष है। भारतीय मज़दूरों की पहली खेप इसी वर्ष लेवनीदास जहाज़ से फीजी पहुँची थी। 1916 ई० तक भारतीयों के फीजी आने का सिलसिला चलता रहा और फीजी सरकार ने भारतीयों के आने पर अब प्रतिबंध लगा दिया। 1920 में गिरमिट प्रथा समाप्त हो गई और अब भारतीय मज़दूर जो गिरमिट प्रथा के अंतर्गत नारकीय जीवन बिताने को विवश थे अब वे स्वतंत्र जीवन जीने के तथा फीजी में स्थायी रूप से बसने के अधिकारी हो गए। इस प्रकार सन् 1879 का वर्ष तथा सन् 1920 का वर्ष दोनों ही फीजी में बसे हुए भारतीयों के लिए महत्वपूर्ण वर्ष हैं और इस काल खण्ड की सृजनात्मक अभिव्यक्ति कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। इस चालीस वर्ष की अवधि में इन प्रवासी भारतीयों की सृजनात्मक अभिव्यक्ति लोकगीतों में हुई जो साहित्यिक दृष्टि से उत्तम अभिव्यक्तियाँ तो हैं ही ये प्रवासी भारतीयों के गिरमिट जीवन के मौखिक दस्तावेज़ हैं जिनका ऐतिहासिक तथा समाजशास्त्रीय महत्व भी है। इनका मुख्य विषय गिरमिट जीवन का कष्ट, निराशा, क्षोभ और ग्लानि है, गिरमिट की अपमानजनक स्थिति से उबरने की आशा न देखकर हताशा और घोर पश्चाताप है।
मानव चाहे धनी हो या निर्धन, शिक्षित हो या निरक्षर, सामान्य नागरिक हो या सम्मानित महापुरुष वह अभिव्यक्ति चाहता है अपने सुख-दुख को मानव बाँटना चाहता है। कहा जाता है सुख बाँटने से बढ़ता है और दुख बाँटने से घटता है। 1879 में जब भारतीयों ने फीजी की भूमि पर पैर रखा तो रोज़ दिनभर के कठिन श्रम के बाद वे सब साथ बैठते, आपस के सुख-दुख बाँटते और अपने साथ जो वह रामचरित मानस की पोथी ले गए थे उसको बाँचते। राम के बनवास के 14 वर्ष की अवधि की वे अपने फीजी प्रवास से तुलना करते और सोचते कि जब राम के कठिन बनवास के 14 वर्ष बीत गए तो उनके भी ये पाँच-छ: वर्ष बीत जाएँगे और फिर वे अपने देश भारत वापस पहुँच जाएँगे। इन प्रवासी भारतीयों ने अपने गिरमिट जीवन के दारुण दुखों को गीतों में पिरो दिया है।
एक भारतीय जो अपना घर-बार सब कुछ छोड़कर ब्रिटिश एजेंटों द्वारा बहला फुसला कर गन्ने के खेतों में काम करने के लिए फीजी भेज दिया गया जब फीजी पहुँचकर स्थिति पूर्णतया विपरीत देखता है तो दुखी हो जाता है, उसे लगता है कि वह छला गया है। उसकी पीड़ा इस रूप में व्यक्त हुई है –
काली कोठरिया माँ बीते नाहिं रतिया हो,
किसके बताई हम पीर रे बिदेसिया।
दिन रात बीती हमरी दुख में उमरिया हो,
सूखा सब नैनुआ के नीर रे बिदेसिया॥
एक भोली-भाली भारतीय स्त्री अपने फीजी पहुँचने की कहानी रो-रोकर पश्चाताप के स्वर में इस प्रकार बताती है –
भोली हमें देख आरकाटी भरमाया हो,
कलकत्ता पार जाओ पाँच साल रे बिदेसिया।
डीपुआ मां लाए पकरायो कागदुआ हो,
अँगुठवा लगाए दीना हाय रे बिदेसिया।
पाल के जहाजुआ मां रोय धोय बैठी हो,
कैसे होइ कालापानी पार रे बिदेसिया।
जीउरा डराय घाट क्यों नहिं आए हो,
बीते दिन कई, भए मास रे बिदेसिया।
आइ घाट देखा जब फीजिया के टापुआ हो,
भया मन हमरा उदास रे बिदेसिया॥
फीजी पहुँच कर एक नए सुखमय जीवन की आशा थी, किंतु उसके स्थान पर रहने के लिए जो अँधेरी कोठरी मिली उसका सजीव चित्र कवि इस प्रकार खींचता है –
सब सुख खान सी० एस० आर० कोठरिया।
छ: फुट चौड़ी, आठ फुट लंबी,
उसी में धरी है कमाने की कुदरिया।
उसी में सिल और उसी में चूल्हा,
उसी में धरी है जलाने की लकरिया।
उसी में महल उसी में दुमहला,
उसी में बनी है सोने की अटरिया॥
तपती दुपहरी में दिन भर खेत में काम और फिर भी कुलम्बर की डाँट फटकार। काम इतना दिया जाता कि देर शाम तक काम करने पर भी वह पूरा न होता :
कुदारी, कुरवाल दीना हाथुआ मां हमरे हो।
घाम मां पसीनुआ बहाय रे बिदेसिया।
खेतुआ मां तास जब देवे कुलम्बरा हो।
मार-मार हुकुम चलाए रे बिदेसिया॥
भारत से शर्तबंदी में आई गाँव की भोली-भाली स्त्रियाँ खेतों में भूखे पेट रहकर दिन भर कड़ी मेहनत करतीं तो भी उन्हें पूरी मज़दूरी नहीं मिलती। काम पूरा न होने पर मज़दूरी में से पैसा भी कटता और सरदारों की बुरी नज़रों से हर समय वे परेशान रहतीं। कुलम्बरों की भूखी नज़रों से अपनी इज़्ज़त बचाने के लिए वे हमेशा सावधान रहतीं। मन ग्लानि से भर जाता, वे पछतातीं कि भारत में पति से क्यों लड़ाई-झगड़ा कर उसे छोड़कर इतनी दूर हज़ारों मील चली आई। अपने भारी मन को हल्का करने के लिए वह कहती है –
सैंया तेरे कारने जल बल हो गई राख।
पत से मैं बेपत भई पंचन में गई साख॥
एक स्त्री भारत में अपना सब कुछ छोड़कर नए सपने सँजोए हुए इस अनजान देश में आई थी किंतु यहाँ की स्थिति तो इतनी विषम थी कि उसने इसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी। न रहने की सुविधा, न पेट भर खाने को अन्न। दिनभर कड़ी मेहनत और न ही कोई आत्म सम्मान। वह घोर पश्चाताप की अग्नि में जलने लगती है और सोचती है –
जो मैं ऐसा जानती, फीजी आए दुख होय।
नगर ढिंडोरा पीटती, फीजी न जइयो कोए॥
ये अभिव्यक्तियाँ इतनी मार्मिक इस लिए बन पड़ी हैं क्योंकि ये रचनाकार के भोगे हुए कष्ट और दुख हैं, वे दुखी मन की ईमानदार अभिव्यक्ति हैं और मन को गहरे तक छूने वाली हैं। इनकी भाषा मानक हिंदी न होकर इन भारतीयों की अपनी हिंदी है जो मूलतः अवधी है किंतु उसमें भोजपुरी का मिश्रण है जिसे वहाँ के भारतीय ‘फीजी हिंदी’ कहते हैं। यही हिंदी गिरमिटियों की हिंदी है और इसी की सुरक्षा और प्रतिष्ठा में आज भी फीजी के भारतीय लगे हुए हैं क्योंकि यह उनकी भारतीय अस्मिता की प्रतीक है।
फीजी के हिंदी साहित्य का दूसरा काल खण्ड 1921-1980 तक कहा जा सकता है। सन् 1920 में गिरमिट प्रथा समाप्त हो गई और भारतीय श्रमिक जो एक बड़ी संख्या में फीजी पहुँच चुके थे अब शर्तबंदी से मुक्त हो स्वेच्छा से जीने के हक़दार हो गए। अधिकांश भारतीयों ने गिरमिट पूरा करने के बाद भारत वापस लौटने के बदले फीजी में स्थायी रूप से बसने का मन बना लिया। वे तो अपना घर-बार सब छोड़कर फीजी आए थे और उन्हें अब यह भी लगने लगा कि फीजी में जीवन की सुख-सुविधाएँ अधिक हैं और यहाँ वे सुखी जीवन बिता सकते हैं। अब उनमें आत्म सम्मान की भावना जगी और आत्म विश्वास बढ़ा कि वे फीजी में नए जीवन का निर्माण करेंगे। भारतीयों में अब नव चेतना का विकास हुआ। वे राजनीतिक अधिकारों के प्रति भी सजग हुए। शिक्षा की ओर उनकी दृष्टि गई और भारतीयों के मध्य अब नए जीवन का उत्साह दिखने लगा। अब वह फीजी के बहु-जातीय समाज में अपनी अस्मिता बचाए और बनाए रखने के लिए सजग हो गए।
1920 से 1980 तक का समय फीजी में सृजनात्मक हिंदी साहित्य का दूसरा चरण माना जा सकता है। अब साहित्य ने नई करवट ली। जो साहित्यिक अभिव्यक्ति अब तक केवल लोकमानस तक ही सीमित थी और जन भावनाएँ लोकगीतों में ही अभिव्यक्ति पा रही थीं उनका स्वरूप बदला, अभिव्यक्ति के विषय व्यापक हुए और अब साहित्य में निराशा और क्षोभ तथा ग्लानि के स्थान पर उत्साह और उल्लास भी दिखाई देने लगा। भारतीयों के मन में नए सिरे से जीवन जीने की लालसा और उसके साथ जुड़ी हुई चिंताएँ उनके मन में उठने लगीं। भारतीयों ने फीजी को अपना नया देश स्वीकार कर लिया। देश के विकास में उन्हें अपना विकास दिखने लगा। यह समय गिरमिट में आए हुए प्रवासी भारतीयों की तीसरी तथा चौथी पीढ़ी का था। भारतीयों ने अब संगठित होकर आत्म विकास के लिए योजनाएँ बनाईं, संघर्ष किया और नए देश में नए सिरे से अपने को प्रतिष्ठित किया।
1920 का वर्ष जहाँ फीजी के इतिहास में गिरमिट प्रथा की मुक्ति के कारण महत्वपूर्ण है वहीं 1970 में फीजी, ब्रिटिश शासन से मुक्त हो स्वाधीन राष्ट्र बना। देश ने विकास के लिए नई योजनाएँ बनाईं और उसमें भारतीयों की भागीदारी बढ़ी। 1979 में शर्तबंदी प्रथा के अंतर्गत आए भारतीयों ने अपने फीजी आगमन के सौ वर्ष पूरे किए और शताब्दी वर्ष विजय वर्ष के रूप में मनाया। इस प्रकार 1920 से 1980 तक का काल खण्ड जहाँ फीजी के राजनीतिक जीवन में महत्व रखता है वहीं इन साठ वर्षों में सृजनात्मक हिंदी साहित्य के क्षेत्र में भी विशेष प्रगति हुई और अनेक उत्तम रचनाएँ पाठकों को मिलीं।
गिरमिट प्रथा से मुक्त होते ही भारतीयों ने संगठित होकर रहने और एक दूसरे से जुड़े रहने के लिए पत्रकारिता के महत्व को समझा और हिंदी पत्र-पत्रिकाएँ निकालनी प्रारंभ कीं। जागृति, फीजी समाचार, जय फीजी, वृद्धि, वृद्धिवाणी आदि अनेक हिंदी समाचार पत्र निकले। यहाँ तक कि अँग्रेज़ कंपनी फीजी टाइम्स ने फीजी में भारतीयों की बड़ी संख्या देखकर फीजी टाइम्स के हिंदी संस्करण निकालने की बात सोची और 1935 में शांतिदूत साप्ताहिक पत्र पं० गुरूदयाल शर्मा के संपादन में निकालना प्रारंभ किया जो आज अपनी 75वीं जयन्ती मना रहा है। अनेक मंदिरों, गुरूद्वारों और मस्जिदों का निर्माण भी हुआ जो भारतीयों के लिए सांस्कृतिक केन्द्र की भूमिका निभाते थे। अनेक रामायण मंडलियाँ बनीं जिनमें प्रति सप्ताह रामायण गायन तो होता ही था साथ ही भारतीय आपस में मिल जुलकर बैठते, साहित्यिक गोष्ठियाँ होतीं, जीवन की विविध समस्याओं पर विचार होता तो भारतीय जीवन को सुखद बनाने के उपाय सोचते। 1954 में ही फीजी ब्राडकास्टिंग कार्पोरेशन की स्थापना हुई और इस प्रकार पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन तथा रेडियो प्रसारण की सुविधा ने लेखकों और कवियों को लेखन के लिए प्रोत्साहित किया। विशाल स्तर पर फीजी के विभिन्न विद्यालयों में हिंदी भाषा और साहित्य का शिक्षण भी प्रारंभ हुआ और हिंदी को फीजी की प्रधान भाषा के रूप में सरकारी मान्यता भी मिली।
इस काल का साहित्यिक फलक बहुत विशाल है। अनेक नए कवि साहित्य क्षितिज पर उभरे। बदली हुई परिस्थितियों ने भारतीयों के मन में जो आशा का नव संचार किया उससे अनेक नई और अच्छी रचनाएँ सामने आईं। हिंदी पत्रिकाओं में उनका प्रकाशन हुआ और वे देश के कोने-कोने तक पहुँचीं। गिरमिट जीवन अभी भी साहित्य की मूल संवेदना बना रहा किंतु अनेक नए विषयों पर भी कवियों ने लिखा।
इस काल के लेखकों में शर्तबंदी प्रथा के अंतर्गत आए पिता की संतान पं० कमला प्रसाद मिश्र ने गिरमिट जीवन की यातनाओं को एक बालक के रूप में बहुत निकट से देखा था वे दिन रात काम में लगे रहने पर भी जब गालियाँ खाते तो उनका स्वाभिमान जाग्रत हो जाता और वे बदला लेना चाहते। एक अपमानित गिरमिटिया मज़दूर की भावना कवि के शब्दों में इस प्रकार अभिव्यक्त हुई है –
एक गिरमिटिया छुरी लेकर बाहर निकल रहा था,
क्रोध में उसके नयन से अश्रु का सागर बहा था,
साथियों के पूछने पर क्रोध से उसने कहा था –
यह नहीं साहब कुलम्बर, जंगली यह जानवर है।
हम सबों के कष्ट का इस पर न कोई असर है।
देश में है राज्य इनका, न्याय से इनको न डर है॥
यह अँधेरी कोठरी, उनके यहाँ दीवालियाँ हैं।
मैं कभी रोया, बजाने झट लगे ये तालियाँ हैं।
इस छुरी से चोख ज्यादा साहबों की गालियाँ हैं॥
है मुझे बर्दाश्त पाऊँ नित्य आधी रात खाना,
है मुझे बर्दाश्त आधी रात सूखा भात खाना,
पर नहीं बर्दाश्त मुझको साहबों से लात खाना॥
कमला प्रसाद मिश्र – एक गिरमिटिया मजदूर
इस काल की रचनाओं में आपको अपने पूर्वजों की गिरमिट जीवन की स्मृतियाँ दिखेंगी। यह समय गिरमिटियों की दूसरी, तीसरी, चौथी पीढ़ी का है। पूर्वजों का फीजी प्रवास और प्रवास के कष्ट वह क्षण भर के लिए भी नहीं भूल पाता वह उसकी आँखों के आगे निरंतर घूमता रहता है। वह यह भी जानता है कि उसके बाप-दादा का ही श्रम और निष्ठा थी कि बियावान जंगल जैसा फीजी एक सुविधा सम्पन्न सुंदर देश बन सका। 1979 में भारतीयों ने गिरमिट शताब्दी वर्ष का आयोजन विजय दिवस के रूप में मनाया। 100 वर्षों में प्रवासी भारतीयों ने अपनी निष्ठा और श्रम से फीजी देश को एक नया रूप दिया था। कवि पं० राघवानंद शर्मा अपनी कविता ‘अगर तुम इस धरती पर आए न होते’ में अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा अर्पण इस रूप में करते हैं –
वीरां पड़ा था फीजी, सिसकती थी खेतियाँ,
मुश्किल से खिंच रही थीं, शासन की डोरियाँ।
रोती रही यह धरती, भर करके हिचकियाँ,
तुमको बुला रही थी देकर दुहाइयाँ॥
गन्ने यहाँ लहलहाए न होते।
अगर हल तुमने चलाए न होते॥
रमणीक देश फीजी हर्गिज न कहाता,
जंगलों का टापू जंगल ही दिखाता।
निज मुल्क से अगर, जो तोड़ के नाता,
बनते नहीं तुम इसके यदि भाग्य विधाता॥
गगन चुंबी महल सर उठाए न होते,
ईंट महलों के यदि तुम जुटाए न होते॥
राघवानंद शर्मा : अगर तुम इस धरती पर आए न होते
फीजी के लोकप्रिय रचनाकार ज्ञानीदास अपने पूर्वज गिरमिटियों के योगदान का स्मरण करते हुए कहते हैं –
गिरमिटिये कस लिए कमर, सब ने अपना सुख दुख बाँटा।
चट्टानों को चूर-चूर कर दिया, बन जंगल को काटा॥
भर दिया उपज से फीजी को, हर तरह से देश को आबाद किया।
रखी लाज भारत माँ की, चाहे ख़ुद अपने को बर्बाद किया॥
तुम कहते हो भाग्यहीन थे, रोटी के चक्कर में फँसे।
दानवता जब उमड़ पड़ी थी, वो उसके कीचड़ में धँसे॥
मैं कहता हूँ कर्मवीर थे मुसीबतों को ललकारा।
मर मिटे राष्ट्र की सेवा में, रणधीरों ने कब हारा॥
ज्ञानीदास : बीत गए सौ वर्ष
फीजी में बसे भारतीयों ने फीजी को अपना देश समझा, उसके चतुर्दिक विकास का संकल्प लिया। काशीराम कुमुद फीजी के प्रसिद्ध हिंदी कवि हैं वे कहते हैं कि हमारे माता-पिता फीजी आए, इस देश को उन्होंने अपनी कर्म भूमि बनाया और यहीं पंचतत्व में विलीन हो गए। काशीराम कुमुद फीजी देश को ‘स्वर्ग भूमि’ के रूप में संबोधित करते हुए इस देश को विश्व का सरताज बनाने का संकल्प लेते हैं। कवि की कामना देखिए –
हम फीजी माँ के लाल,
कर उन्नति सफल दिखा देंगे।
इस स्वर्ग भूमि को मिलजुल के,
जग का सिरताज बना देंगे।
तव गोदी में शिशु क्रीड़ा की,
आंचल में तेरे क्षीर चखा।
उस पुन्य क्षीर की कसम हमें,
तेरा दुख दर्द मिटा देंगे॥
काशीराम कुमुद : प्रतिज्ञा
कवि शिवप्रसाद अपनी रचना ‘गिरमिट की याद’ में भी यही कहते हैं कि भारतीय शर्तबंदी प्रथा के अधीन फीजी आए थे किंतु अब फीजी उनका अपना देश है यही उनकी मातृभूमि है और यह देश सुख शांति का देश बने, जाति द्वेष मिटे और विश्व में इस देश की शान बढ़े इसके लिए सभी भारतीय प्रयत्नशील हैं –
हमने इस देश को सींचा है,
इसलिए इसे अपनाया है।
फीजी के अब हम वासी हैं,
ये ही जननी है, माता है।
आओ मिलकर बढ़े चलें,
इस देश की शान बढ़ायें।
जाति द्वेष मत भेद न लायें,
शांति और सुधा बरसायें॥
शिव प्रसाद : गिरमिट की याद
फीजी की प्राकृतिक सुषमा का वर्णन भी हिंदी कवियों का प्रिय विषय रहा है। फीजी के चमकती हुई रेत के मीलों लंबे स्वच्छ समुद्रतट, चीड़ के घने जंगल, रेवा और सिंगातोका नदियाँ, हरे भरे पहाड़, तारों भरा स्वच्छ नीला आकाश हर सैलानी का मन मोह लेते हैं। फीजी का क्षण-क्षण बदलने वाला मौसम, कभी रिमझिम बारिश तो दूसरे ही क्षण बिजली की गड़गड़ाहट, मूसलाधार वर्षा और समय-समय पर अपने अस्तित्व की सूचना देने वाले तूफ़ान फीजी की पहचान हैं। प्रलयंकारी तूफ़ान का चित्र पं० कमला प्रसाद मिश्र के शब्दों में देखिए –
तूफ़ान रहा है गर्ज आज,
है महानाश का राज आज,
है पवन गा रहा महाराग,
प्रलंयकर पंचम रक्त फाग,
तरु गिर गिर कर दे रहे ताल,
चल रहा नृत्य तांडव विशाल।
कमला प्रसाद मिश्र : तूफ़ान आया
सरस्वती देवी फीजी की रेवा नदी की सुंदरता का वर्णन इस प्रकार करती हैं –
यह रेवा बहती जाती है,
पर्वत माला से निकल निकल,
यह चलती है बल खाती,
यह रेवा बहती जाती है।
वन उपवन को गुलजार किए,
कितनी घाटी को पार किए,
यह जाती है आगे बढ़ती,
शोभा इसकी इतराती,
यह रेवा बहती जाती है।
सरस्वती देवी : रेवा नदी
फीजीवासियों को इस बात पर भी गर्व है कि विश्व में उषा की पहली किरण का स्वागत सबसे पहले फीजी में ही होता है। कवि कमला प्रसाद मिश्र के शब्दों में –
यहाँ सूरज पहले निकलता है और दूर अँधेरा होता है।
फीजी फिरदौस है पैसिफक का यहाँ पहले सबेरा होता है।
हर ओर अजब हरियाली है हर ओर छटा मतवाली है।
यह फीजी वही जिसमें हर माह बहार का फेरा होता है।
कमला प्रसाद मिश्र : यहाँ पहले सबेरा होता है
यह समय फीजी के भारतीयों के लिए नव निर्माण का समय है। वे अपनी संस्कृति, अपनी भाषा की सुरक्षा और प्रतिष्ठा के लिए निरंतर प्रयत्नशील दिखते हैं। प्रवासी मन की यह विशेषता एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि प्रवासी अपनी जड़ों से जुड़े रहकर वह अपने को सुरक्षित अनुभव करता है। यही कारण है कि फीजी का हर प्रवासी भारतीय अपनी भाषा हिंदी के प्रति एक सम्मान का भाव रखता है और वह उसे अपनी अस्मिता का प्रतीक मानता है। यही कारण है कि इस काल के सभी कवियों ने ‘हिंदी भाषा’ के बारे में कुछ न कुछ अवश्य लिखा है
कवि काशीराम ‘कुमुद’ की एक रचना का शीर्षक ही ‘हिंदी बिरवा’ है। हिंदी की रक्षा प्रवासी भारतीयों ने कितने जतन से की है यह ‘कुमुद’ जी की कविता में प्रतिबिंबित होता है –
शर्त में जिसने जीवन को उत्सर्ग किया,
हम उन्हीं के श्री चरणों में शीश झुकाते हैं,
हम रक्त बिंदुओं से सींच-सींच,
हिंदी बिरवा पनपाते हैं॥
काशी राम कुमुद : हिंदी बिरवा
कवि सुखराम की कविता “हिंदी:हमारी मातृभाषा” में हिंदी भाषा के प्रति कवि की निष्ठा तथा हिंदी की प्रतिष्ठा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता की कविता में झलक मिलती है –
हिंदी हमारी मातृभाषा, हिंदी हमारा धर्म है,
हिंदी हमारी संस्कृति, हिंदी हमारा कर्म है।
भारत की प्राचीन भाषा, हिंदी को प्रणाम है,
अन्य भाषा की तरह हिंदी का बड़ा नाम है॥
सुखराम : हिंदी हमारी मातृभाषा
कवि नेतराम शर्मा भी फीजी में हिंदी के प्रचार-प्रसार का आहवान करते हैं –
हिंदी का प्रचार करो और दीपक रोज़ जलाओ।
फीजी के कोने-कोने में अमर दीप्ति फैलाओ॥
जब तक चमकें चाँद सूर्य, चमकेगी हिंदी भाषा।
हिंदी की किश्ती कभी न डूबे ‘शर्मा’ की है अभिलाषा॥
नेतराम शर्मा : हिंदी भाषा
गिरमिटियों को कठिन दिनों में आशा बँधाने वाली, दुविधा की मनोदशा में राह दिखाने वाली एक ही पुस्तक थी रामचरित मानस की पोथी। हर सप्ताह सारे प्रवासी भारतीय दिनभर के परिश्रम के बाद थके हारे खेतों से लौटने पर नहा-धोकर साथ बैठकर इसी का पाठ करते थे। वही पोथी सबका सहारा थी। उस हिंदी को जो तुलसी, सूर, मीरा और कबीर की भाषा थी जो कठिन दिनों में इनके मनोबल को बनाए रखती थी, उस भाषा को वे कैसे भुला सकते थे। हिंदी तो उनकी भारतीय अस्मिता की पहचान बन गई थी। यही कारण था कि हर गिरमिटिया और उसके वंशज हिंदी का बराबर सम्मान करते रहे।
फीजी में भारतीय गिरमिट मज़दूर बनकर आए। दिन-रात श्रम किया, कष्ट और यातनाएँ सहीं, फिर भी फीजी को अपना देश समझकर फीजी को सजाया सँवारा, इसे अपना देश समझा, पर फिर भी वे इस देश में परदेसी ही कहे जाते। गोरी सरकार निरंतर भेदभाव का बीज बोती रही। फीजी को मातृभूमि के रूप में मानने वाले एक भारतीय की वेदना इस प्रकार अभिव्यक्त हुई है –
धवल सिंधु तट पर मैं बैठा अपना मानस बहलाता,
फीजी में पैदा होकर भी मैं परदेसी कहलाता।
यह है गोरी नीति मुझे सब भारतीय अब भी कहते,
यद्यपि तन मन धन से मेरा फीजी से है नाता॥
कमला प्रसाद मिश्र : क्या मैं परदेसी हूँ
अपने ही देश में जो मातृभूमि है और कर्म क्षेत्र भी वहाँ प्रजातंत्र होते हुए भी यदि अधिकारों की समानता नहीं तो मन दुखी हो जाता है। फीजी में सब प्रकार की स्वतंत्रता और सुविधा होते हुए भी भारतीयों को भूमि प्राप्ति का अधिकार नहीं है जो उसके मन को बार बार कचोटता है कि वह यहाँ अभी भी प्रवासी और परदेसी ही है। कवि पं० कमला प्रसाद मिश्र अपनी भावनाएँ इस प्रकार अभिव्यक्त करते हैं –
फीजी सुंदर देश हमारा,
यहाँ किसी को हर सुविधा है।
किंतु किसी पर कड़ी रुकावट,
उसके मन में दुविधा है।
है स्वतंत्र यह देश हमारा,
लेकिन कानूनों का बंधन।
कभी किसी को कड़ी सज़ा है,
कभी किसी का अभिनंदन।
प्रजातंत्र यह देश हमारा,
इसका एक और पहलू भी है।
इसमें सुख से रह सकते हैं,
दिल बदलू भी दल बदलू भी।
फीजी देश हमारा सुंदर,
जीवन यहाँ मलीन नहीं है।
अगणित यहाँ शराब सुंदरी,
लेकिन यहाँ ज़मीन नहीं है॥
कमला प्रसाद मिश्र : हमारा देश
फीजी की महिला रचनाकारों में सबसे अधिक चर्चित नाम श्रीमती अमरजीत कौर का है। प्रवास की पीड़ा, प्रवासी भारतीयों के दुख दर्द को जहाँ उन्होंने एक ओर निकटता से देखा है वहीं दूसरी ओर फीजी के जन-जीवन में वे रमी हुई हैं। देश में भारतीयों के संबंध में बढ़ती राजनीतिक अस्थिरता लेखिका के मन को चिंतित कर देती है। फीजी उनका कर्मक्षेत्र है। वह देश में सुख शांति की कामना करती हैं और सच्चे मन से ईश्वर से प्रार्थना करती हैं कि हे ईश्वर फीजी को ऐसा वरदान दे कि यह रमणीक सुंदर देश विश्व का महान देश बने।
हे ईश्वर दया निधान
फीजी होवे सदा महान
यहाँ कभी दूफान न आएँ
न ही दुख के बादल छाएँ
हम सबको दो सुख का दान
अमर चैन रहे सदा यहाँ
हर कांटा बने फूल यहाँ
ऊँची होवे इसकी शान
वीर बहादुर हो हर प्राणी
बोले मिलकर मीठी वाणी
शांति से रहे हर इंसान
रमणीक है यह सुंदर धाम
ऊँचा होवे इसका नाम
ऐसा दो इसे वरदान
अमरजीत कौर : फीजी होवे सदा महान
फीजी देश को ब्रिटिश सत्ता से आज़ादी मिली। अब सब मिलजुल कर भाईचारे की भावना से देश में रहें – धर्म, जाति, गोरे और काले का भेदभाव न हो। हम विशाल हृदय वाले बनें जिससे सुख शांति का वातावरण बने। कोमल भावों की कवियित्री अमरजीत कौर कितनी सुंदरता से मन के भावों का व्यक्त करती हैं –
काईबीती सिख ईसाई,
हिंदू मुसलिम चीनी भाई,
सुख दुख सब मिलकर सहते,
गोरे काले जहाँ हैं रहते,
वह फीजी देश प्यारा है,
वह फीजी देश न्यारा है।
जैसे नील गगन के तारे,
झिलमिल करते रहते,
इस धरती की गोद में सारे,
घुलमिल कर रहते,
नीले अंबर और सागर से,
यह मत सबने पाई,
बनो विशाल रहो सुखदाई।
अमरजीत कौर : आज़ादी
फीजी के सर्वाधिक प्रतिष्ठित कवि पं० कमला प्रसाद मिश्र विपुल साहित्य के सर्जक हैं और उनकी कविता के विषय भी अनन्त हैं। उनका संस्कृत, अँग्रेज़ी और हिंदी तीनों ही भाषाओं पर अच्छा अधिकार है और अपनी बात प्रभावशाली ढंग से कहने में समर्थ भी हैं। मिश्र जी ‘जय फीजी’ और ‘जागृति’ पत्रिका के संपादक भी रहे हैं। एक संपादक की क्या चिंताएँ और क्या कठिनाइयाँ हैं इसका चित्र मिश्र जी ने कितने स्वाभाविक रूप में खींचा है –
सुंदर रचना के प्रेमी कम, सब पढ़ते अश्लील,
बात-बात पर रिट निकाल देते हैं नए वकील,
पाठक मुश्किल से मिलते हैं शिक्षित और सुशील।
ख़ून ख़राबी की ख़बरों से ही इनको आराम,
पृष्ठ उलट कर खोजा करते केवल अपना नाम,
संपादक की हँसी उड़ाना बड़ा सहज है काम।
पीनट बीन बेचने का तुम कर लेना व्यापार,
जूते की पालिश कर लेना या रहना बेकार,
किंतु न करना संपादक का काम कभी स्वीकार।
कमला प्रसाद मिश्र : सम्पादक का काम
चित्रोपमता मिश्र जी के काव्य की विशेषता है। उनके शब्दचित्र महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की याद दिलाते हैं। मिश्र जी जहाँ एक ओर श्रमिक का कारुणिक चित्र खींचते हैं वहीं दूसरी ओर अंत तक पहुँचते-पहुँचते कविता को एक दार्शनिक मोड़ दे देते हैं। कवि का बनाया शब्दचित्र देखिए –
थकित पाँव
विकल वदन
जीर्ण देह
शिथिल नयन
सम्मुख है
एक श्रमिक
सिर पर है
भार अधिक
मंद मंद
चलता है
क्षुब्ध हृदय
जलता है
ढोता है
कठिन भार
दूर कहीं
इंतज़ार
करती है
बेचारी
चिंता में
वह नारी
जीवन की
यह गाड़ी
चलती ही
जाती है
दुखिया की
वह प्यारी
रोती है
गाती है
सिर पर है
भार बड़ा
दिल में है
प्यार बड़ा
एक श्रमिक
पूछ रहा है
सबसे
क्या यह
दुनिया ही
दुनिया
कहलाती है?
कमला प्रसाद मिश्र : यही है दुनिया
चुटीला व्यंग्य कमला प्रसाद मिश्र की विशेषता है। सरल स्वभाव वाले, सीधे सादे दिखने वाले मिश्र जी की बातों में एक खास चुटीलापन है। वे बड़ी बात बड़े सहज ढंग से कह जाते हैं। भाषा पर उनका अच्छा अधिकार है जिससे वे व्यंग्य रचना सफलता पूर्वक कर पाते हैं। प्रजातंत्र की व्याख्या देखिए कवि किस प्रकार करता है –
मुझसे कहने लगा अचानक एक अनुभवी नेता।
प्रजातंत्र थोड़ा देता है ज्यादा है ले लेता।
किसी देश में कभी-कभी खतरा पैदा कर देता ॥
प्रजातंत्र में झुंड बनाकर आपस में लड़ते हैं।
किसी व्यक्ति के भव्य गुणों पर ध्यान नहीं धरते हैं।
किसके साथ लोग कितने हैं, यही गिना करते हैं॥
कमला प्रसाद मिश्र : प्रजातंत्र
जब देश में शांति हो, मन सुस्थिर हो तो व्यक्ति होली, दीवाली आदि त्यौहार मनाता है। फीजी के प्रवासी भारतीय, भारत की रीति-नीति से बराबर जुड़े रह कर उत्सव मनाते हैं और आनंदित होते हैं। दीवाली में जुआ खेलना एक पारंपरिक रीति है जिसमें कुछ तो मालामाल हो जाते हैं और किसी की जेब खाली हो जाती है। अक्षैबर सिंह कितने सुंदर ढंग से दीवाली पर्व का चित्र खींचते हैं –
मुश्किल से मिलती हारे को एक नंगोने की प्याली
घर लौटे तो लाज लगे है जेब हुआ बिलकुल खाली
जूता टोपी तक हारे हैं, बिगड़ जाएगी घरवाली
फली दीवाली जिसको वह तो बजा रहा है ढोल
मातम मना रहे हैं घर में जिसकी निकली पोल
अक्षैबर सिंह : भाग्य परीक्षा
नंगोना फीजी का राष्ट्रीय मादक पेय है और फीजी में कहीं भी आप जाएँ अतिथि का नंगोना से स्वागत किया जाता है इसलिए अनेक कवियों ने ‘नंगोना’ को अपनी रचना का विषय बनाया है। ईश्वरी प्रसाद चौधरी की कविता ‘नंगोना’ बड़ी चर्चित कविता है –
तरल तरंगित मादक पेय॥
सधन विपिन का कल्पमूल यह चिंता हरण अचूक अजेय।
मधुर सोमरस यह फीजी का शांति प्रदायक सुखकर पेय।
तरल तरंगित मादक पेय॥
यह प्रशांत का निज उत्पादित, जगता शीत तराई कूल।
दुग्ध फेन सम स्वाद तिक्त कटु, ऊष्ण शीत मेंसम अनुकूल।
फीजी की यह देन विश्व को शांत चिंतना इसका ध्येय।
तरल तरंगित मादक पेय॥
ईश्वरी प्रसाद चौधरी : नंगोना
रामानारायण ने अधिक नहीं लिखा पर वे अपनी रचना ‘हाँ मैं मंथरा हूँ’ शीर्षक कविता के लिए फीजी के सारे हिंदी जगत में जाने जाते हैं। ‘हाँ मैं मंथरा हूँ’, रामानारायण की एक प्रौढ़ छंद मुक्त काव्य रचना है। शुद्ध, प्रभावशाली, परिष्कृत भाषा में ऐसी लिखी गई रचनाएँ फीजी हिंदी साहित्य की निधि है। रामानारायण उच्च प्रशासनिक अधिकारी थे। अँग्रेज़ी हिंदी पर उनका अच्छा अधिकार था। शिक्षा के स्तर पर हिंदी को प्रतिष्ठा दिलाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। फीजी में हिंदी नाटकों के मंचन में उन्होंने अभिनय कर हिंदी को बहुत लोकप्रिय तो बनाया ही था हिंदी के स्तर को उठाया भी था। ‘हाँ मैं मंथरा हूँ ” काव्य रचना का पाठ इतने प्रभावशाली ढंग से वे करते थे कि श्रोताओं को लगता था कि कवि तुलसीदास ने मंथरा को दोषी ठहराकर उसके साथ न्याय नहीं किया। ‘हाँ मैं मंथरा हूँ’ एक लंबी कविता है इसका अंतिम अंश उद्धृत किया जा रहा है जो कवि की भाषा सामर्थ्य का पाठकों को परिचय देगा।
कौन हूँ मैं?
घृणा के सागर में डुबोई
कलंकित, उपहसित
ताड़न की अधिकारी
नारी
मंथरा
या कि फिर
राम के रामत्व की निर्मात्री
अहिल्या की उद्धारक
केवट का अहोभाग्य
शबरी की जीवन स्वप्न
जटायु की मुक्ति दात्री
मैं हूँ दासी रूप
सरस्वती स्वरूप
शक्ति की प्रतीक
वाणी अनूप
मंथरा
‘हाँ मैं मंथरा हूँ’
रामानारायण : ‘हाँ मैं मंथरा हूँ’
गद्य भाषा की कसौटी है। गद्य में साहित्य सृजन भाषिक प्रौढ़ता का परिचायक होता है। यही कारण है कि हर सर्जक साहित्यकार प्रारंभ में कवि होता है और बाद में गद्य विधाओं की ओर बढ़ता है। फीजी भी उसका अपवाद नहीं है।
फीजी में सृजनात्मक गद्य लेखन बहुत बाद में शुरू हुआ। बीसवीं शती के चौथे दशक में तारा प्रेस के मालिक ज्ञानीदास ने गद्य की तीन छोटी-छोटी पुस्तिकाएँ प्रकाशित कीं। उनकी तीन प्रकाशित पुस्तिकाएँ – भारतीय उपनिवेश फीजी, गुप्त शक्तियाँ तथा फीजी गल्पिका थीं। इनमें फीजी गल्पिका 63 पृष्ठों की पुस्तिका थी जिसमें उनकी सात कहानियाँ संकलित थीं। संभवतः फीजी में सृजनात्मक गद्य लेखन में ये ही पहली रचनाएँ थीं जिनका श्रेय ज्ञानीदास को जाता है।
सूवा के भरत वी. मोरिस ने 1974-75 के आसपास अपनी दो गद्यात्मक रचनाएँ प्रकाशित कीं जिन्हें हम लघु उपन्यास या लंबी कहानी की संज्ञा दे सकते हैं। ये प्रेम और रोमांसपरक होने के कारण सामान्य जनवर्ग के मध्य लोकप्रिय थीं। उनकी गीतों भरी कहानियाँ फीजी रेडियों से लंबे समय तक प्रसारित होती रही हैं और जनता का मनोरंजन करती रही हैं। इन्हीं गीतों भरी कहानियों की श्रोताओं द्वारा प्रशंसा और प्रोत्साहन ने उन्हें ‘हाय ने जिंदगी’ और ‘गली गली सीता रोए’ के लिए प्रेरणा दी पर फीजी में सृजनात्मक लेखक को उपयुक्त प्रोत्साहन तथा मार्ग दर्शन न मिलने के कारण निराश होकर लेखन से उन्होंने संन्यास ले लिया और आस्ट्रेलिया चले गए तथा व्यापार में लग गए। ‘हाय से जिंदगी’ की संक्षिप्त भूमिका में वे उसका उल्लेख भी करते हैं –
“हमारे देश में स्थानीय लेखकों, कहानीकारों तथा कवियों को सही मात्रा में प्रोत्साहन नहीं मिल रहा है और न ही कोई अच्छा मार्ग दर्शक है। इस ध्येय की पूर्ति के लिए यहाँ लेखक संघ बना, हिंदी महापरिषद् की स्थापना हुई — फीजी के लेखकों को इस बात का अफ़सोस हमेशा रहेगा कि भारतीय साहित्य को पुन: जीवित करने के लिए इन संस्थाओं ने कभी कोई क्रियात्मक कदम नहीं उठाए।”
लेखक बड़े बुझे मन से कहता है कि फीजी में प्रकाशन की अच्छी सुविधा न होने के कारण वह निराश है कि वह पाठकों के लिए अच्छी कृतियाँ नहीं दे सकता।
पंजाब के भाई चनण सिंह गिरमिट प्रथा के अंतर्गत फीजी गए थे। सन् 1958 में उनके पुत्र जोगिन्द्र सिंह कँवल जो उस समय 31 वर्ष के थे वे भारत से फीजी पहुँचे। उन्होंने गिरमिट के अंतर्गत फीजी आए वृद्ध भारतीयों से संपर्क किया, उनकी कठिनाइयों और उनकी महत्वाकांक्षाओं को समझने का प्रयत्न किया और इन प्रवासी भारतीयों को अपनी रचना के केन्द्र में रखते हुए कई औपन्यासिक कृतियाँ हिंदी जगत को दीं। सन् 1976 में कँवल का प्रथम उपन्यास ‘सवेरा’ प्रकाशित हुआ। उसके बाद ‘धरती माता’ (1976) तथा ‘करवट’ (1978) प्रकाशित हुए। ये तीनों ही कृतियाँ गिरमिट जीवन के साहित्यिक औपन्यासिक दस्तावेज़ हैं जिसमें लेखक ने गिरमिटियों की यंत्रणा, उनके संघर्ष, उनकी आशा निराशा को विविध मौखिक अनुभवों के सहारे कथा सूत्र में पिरोकर पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है।
1979 में भारतीयों को फीजी आए सौ वर्ष पूरे हो रहे थे। भारतीय संगठित होकर देश की राजनीति में भागीदारी चाहते थे। भारत के राष्ट्रीय आंदोलन से भी वे परिचित थे और प्रभावित थे। भारतीयों की यही बदली हुई दृष्टि लेखक ने ‘करवट’ शीर्षक रखकर बतानी चाही है। ‘धरती मेरी माता’ उपन्यास में लेखक फीजी में भारतीयों के ‘ज़मीन के अधिकार’ को लेकर उसे कहानी का रूप देता है। वस्तुतः जोगिन्द्र सिंह कँवल के ये तीनों ही उपन्यास फीजी में बसे भारतीयों की विविध समस्याओं को आधार बनाकर लिखे गए महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं।
फीजी के साहित्यिक इतिहास का तीसरा काल खण्ड 1980 से प्रारंभ होता है। अब फीजी के बहुजातीय समाज में भारतीयों की स्थिति सम्मानजनक थी। सम्पन्न, सुशिक्षित तो थे ही, वे फीजी में प्रतिष्ठित पदों पर कार्यरत भी थे। देश को नए ढंग से सँवारने में, उसके चतुर्दिक विकास में वे लगे हुए थे और साथ ही वे सुसंगठित भी थे। अपने भारतीय जीवन मूल्यों को सँजोए हुए वे स्वभाषा, स्वसंस्कृति की रक्षा और प्रतिष्ठा में लगे हुए थे। अनेक भारतीयों ने भारत सरकार के सहयोग से भारतीय छात्रवृतियों पर भारत जाकर उच्च शिक्षा प्राप्त की थी तो कुछ आस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड में शिक्षा ग्रहण कर प्रतिष्ठित पद पर भी कार्यरत थे। देश मे भारतीयों ने अनेक धार्मिक, सामाजिक व साहित्यिक संस्थाएँ बनाईं और सबका लक्ष्य एक ही था, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से भारतीय समाज को संगठित एवं सुदृढ़ करना। देश में भारतीय अलग-अलग भाषाओं के बोलने वाले थे किंतु हिंदी सभी समझते और बोलते थे और हिंदी इस प्रकार समस्त भारतीयों को जोड़ने वाली भाषा फीजी में बन गई थी इसलिए सभी भारतीय हिंदी को स्थापित करने के लिए एकजुट प्रयत्न करते थे। सन् 1986 में भारतीयों ने राष्ट्रव्यापी स्तर पर हिंदी दिवस का आयोजन किया जिससे संपूर्ण देश को भारतीयों के संगठित स्वरूप का परिचय मिला। इस बीच भारतीयों के निजी प्रयत्नों से अनेक हिंदी लेखकों की कृतियों का प्रकाशन भी हुआ।
संयोग ऐसा कि जब फीजी अपने नव निर्माण में व्यस्त था अचानक फीजी के राजनीतिक जीवन में एक तूफ़ान आया और कर्नल रम्बूका ने फीजी की शासन सत्ता बलात् अपने हाथों में ले ली और फीजी में 1987 में सैनिक शासन लागू हो गया। इस सत्ता परिवर्तन के मूल में फीजी के मूल निवासियों-काईबीतियों के मन में भारतीयों की देश में बढ़ती सामाजिक तथा राजनीतिक वर्चस्विता के प्रति उनके मन में पनपती शंका थी कि भारतीय फीजी की शासन सत्ता अपने हाथों में लेना चाहते हैं। अब देश में भारतीयों के प्रति विरोधी वातावरण बनने लगा और अनेक भारतीय देश की राजनीतिक अस्थिरता को देखते हुए आस्ट्रेलिया तथा न्यूज़ीलैंड जाने की तैयारी करने लगे। 1987 में भारतीय हाई कमीशन बंद कर दिया गया। भारतीयों के मन में असुरक्षा की भावना पनपने लगी विशेषकर उनके मन में जो फीजी छोड़कर दूसरे देश जाना नहीं चाहते थे। 1986 तक देश में जहाँ भारतीयों का प्रतिशतक 52% था वह अब घटकर 47% प्रतिशत ही रह गया।
स्वाभाविक ही था कि इस बदली हुई देश की राजनीतिक स्थिति में देश की साहित्यिक गतिविधियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। इतना ही नही 1987 में हुई राजनीतिक अशांति देश में बढ़ती ही गई और भारतीयों के विरुद्ध शासन का दमन चक्र तेज़ होता गया। यह अशांति का दौर लगभग 20 वर्षों तक चलता रहा। सन् 2000 ई० में फिर राजनीतिक संकट देश पर आया और देश में संविधान बदल कर भारतीयों के अधिकार कम कर दिए गए। भारतीयों के मन में क्षोभ, असन्तोष और ग्लानि ने जन्म लिया। 1987 से 2000 ई० तक के बीच की साहित्यिक रचनाओं में इस असन्तोष की झलक दिखाई पड़ेगी। पर आतंक के साये में सृजनात्मकता कुंठित हो जाती है और शासकीय व सैनिक भय के कारण कवि कुछ कहने और लिखने से कतराते हैं फिर जब देश के मूल निवासी न हों तो भावनाओं की अभिव्यक्ति और भी संभव नहीं होती।
1987 में कर्नल रम्बूका के सत्ता हथियाने और राजनीतिक अस्थिरता का जो दौर देश में चला उसको थमने में पर्याप्त समय लग गया और भारतीय के मन में शंका, अविश्वास तथा असुरक्षा ने घर कर लिया। जोगिन्द्र सिंह की पुस्तक ‘दर्द अपने-अपने में’ संकलित कविताएँ स्थिति का पारदर्शी चित्र खींचती हैं। कवि कहता है –
कभी गिरमिट की आई गुलाबी
कभी बाढ़ों ने मार दिया
कभी रम्बूका कू कर बैठा
कभी स्पेट ने वार किया
बार-बार कठिनाइयों में फँसे
पर किसी के आगे हाथ न फैलाए
ऊबड़ खाबड़ पगडंडियों को
बड़े गौरव से पार किया॥
जोगिन्द्र सिंह कँवल : हम भारतीयों को
भारतीयों के मन में बैठा हुआ आतंक का साया किस प्रकार सारे वातावरण को प्रभावित कर रहा है – कवि कितना मार्मिक चित्र खींचता है।
गाँव की रामायण मंडलियों में
भजन कोई गाता नहीं
आम के पेड़ पर बैठकर
पंछी चहचहाता नहीं
नदी किनारे जवां गबरू
कोई ग़ज़ल गुनगुनाता नहीं
कुड़ियों का झुरमुट डाल से
झूला लटकाता नहीं
क्या आतंकवाद के सहम ने
कर दिया है सबको मात
ऐ आसमां तू ही बता
हमारे कारवां की बात
जोगिन्द्र सिंह कँवल : कितना अंधेरा है अभी
कवि 19 मई 2000 का दिन याद करता है। शासन द्वारा प्रजातंत्र की हत्या। भेदभाव, आतंक की नीति। सारे देश में सन्नाटा, आतंक, शंका, भय, अविश्वास का साम्राज्य।
भारतीयों को ज़मीन का अधिकार चाहिए था। वह ज़मीन पर खेती कर अन्न उगाते थे किंतु ज़मीन पर उनका अधिकार नहीं था। ज़मीन अपनी हो तो देश अपना लगता है। ज़मीन अपनी न हो तो व्यक्ति का देश से जुड़ाव नहीं हो पाता। देश के स्वतंत्र होते ही भारतीय इस अधिकार के लिए प्रयत्नशील रहे और इस अधिकार की मांग मूल निवासियों के मन में भावी आशंका पैदा करती रही। रतीयों का एक ही नारा रहा –
हमें अब ज़मीन दो
हम इसमें हल चलाएँगे
गर खिसक गया वक्त हाथ से
तो हम सब पछताएँगे
हमें अब ज़मीन दो
हम उसमें हल चलाएँगे।
भारतीय फीजी में क्यों ज़मीन का अधिकार चाहता है इसका उत्तर कवि इस प्रकार देता है –
किसी विधवा की सुरक्षा,
किसी कर्जदार की अमानत हूँ
परिवारों का सम्मान
वंशों का गौरव
ज़मीदारों की शान
ज़रूरत मंदों की ज़मानत हूँ
अक्लमंदों की ताकत
संतानों का भविष्य
पीढ़ियों की विरासत हूँ।
जोगिन्द्र सिंह कँवल : हमें ज़मीन दो
देश में धीरे-धीरे फिर शांति का माहौल बना और भारतीयों के मन में जो आतंक, अविश्वास और शंका ने घर कर लिया था उसको थोड़ी राहत मिली। इस काल खण्ड में यद्यपि अधिक श्रेष्ठ साहित्यिक रचनाओं की सृष्टि नहीं हो सकी किंतु कुछ प्रमुख गद्य कृतियाँ इसी समय प्रकाशित हुई और उन्होंने देश विदेश में विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त की। 21वीं शती के पहले दशक में ही सुब्रमनीकी कृति डउका पुरान (2001) प्रकाशित हुई, ब्रज विलास लाल की उपन्यासिका मारित (2004) का प्रकाशन हुआ, बाबू राम शर्मा के लेखों का पुस्तकाकार संकलन (2003) प्रकाशित हुआ।
सुब्रमनी, ब्रज विलास लाल, रेमण्ड पिल्लई ये सभी गिरमिटियों के वंशज रहे हैं। इन सभी ने अपने माता-पिता के जो शर्तबंदी में भारत से सब कुछ घर-बार छोड़ आए थे दुख-दर्द को देखा है, उसके भागी रहे हैं इसलिए उनकी रचनाओं में जीवन की यथार्थता का जो परिचय दिखता है वह अन्य भारतीयों की रचनाओं में सामान्यतः नहीं दिखता। इन्होंने संभवतः यही कारण है कि अपने पूर्वजों की भाषा जो उनकी भाषा भी रही उसे ही अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया क्योंकि इस पर उनका पूर्ण अधिकार है। इसकी भाव व्यंजनाओं को वे अच्छी तरह समझते हैं और नित्यप्रति प्रयोग करते हैं। इन कृतियों की भाषा ही इनका सबसे बड़ा सौंदर्य है। यदि ये मानक हिंदी जो इनकी सीखी हुई और केवल औपचारिक अवसरों पर भारतीयों से बात करने के लिए वे जिसका व्यवहार करते हैं, ये उपन्यास लिखते तो रचना का सारा सौंदर्य बिखर जाता। फीजी हिंदी में लिखने का सबसे बड़ा लाभ इन लेखकों को यह मिला कि इनमें व्याकरणिक अशुद्धियाँ नहीं दिखतीं जो भाषा के सहज प्रवाह से बनाए रखती है और पठनीयता में बाधा उत्पन्न नहीं करतीं। साथ ही इन कृतियों में मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग भाषा को और सम्प्रेषणीय बनाता है।
इन महत्वपूर्ण कृतियों के प्रकाशन पर फीजी के शुद्धतावादी हिंदी प्रेमियों ने इनका विरोध करते हुए कहा कि इनकी भाषा अशुद्ध, अव्याकरणिक तथा टूटी-फूटी है तथा ऐसी कृतियों का प्रकाशन हिंदी के विकृत रूप को प्रतिष्ठित करना चाहता है। सच्चाई तो यह है कि जो भाषा जिस रूप में जनवर्ग के मध्य बोली जाती है, वही उसका शुद्ध रूप है। फीजी हिंदी कोई कृत्रिम भाषा रूप नहीं है वह तो गिरमिटियों द्वारा विकसित हिंदी की वह शैली है जो उनकी अपनी है, जिसका वे नित्यप्रति आपस में व्यवहार करते हैं यही कारण है कि अपनी भाषा में लिखने के कारण उनकी रचनाएँ जन मन को आंदोलित कर सकीं। इन तीनों ही कृतियों में भारतीयों के जनजीवन, उनकी रीति-नीति, उनकी संवेदनाओं का, उनकी अपनी समस्याओं का चित्रण दिखेगा।
इस काल की रचनाओं की सबसे बड़ी विशेषता यही कही जाएगी कि अब देश के प्रतिष्ठित सुशिक्षित साहित्यकारों ने फीजी हिंदी के महत्व को समझा और उसे अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम चुना। मानक हिंदी में लिखने वाले अच्छे लेखक वहीं रह गए जो फीजी में गिरमिट प्रथा के समाप्त होने पर पहुँचे थे, जिनका मानक हिंदी पर अधिकार तो था किंतु ‘फीजी हिंदी’ की शक्ति और सौंदर्य ये अपरिचित थे और फीजी हिंदी को समझ लेते थे किंतु फीजी के प्रतिष्ठित साहित्यकार, इतिहासकार होने के साथ ही सामान्य अँग्रेज़ी भाषा और साहित्य के प्रोफेसर और विद्वान भी हैं और देश के प्रतिष्ठित साहित्यकार भी और इन्होंने ‘फीजी हिंदी’ में भारतीय समाज की चिंताओं और जीवन को उकेरने का प्रयत्न किया है। यही कारण है कि इनकी कृतियों को फीजी में तो लोकप्रियता प्राप्त हुई ही विश्व के सभी भारतीयों के मध्य प्रतिष्ठित रचना के रूप में स्वीकृत हुई। प्रो० सुब्रमनीकी रचना डउका पुरान को सूरीनाम में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन में श्रेष्ठ कृति के रूप में मान्यता मिली तथा प्रो० सुब्रमनीको ‘विश्व हिंदी सम्मान’ प्राप्त हुआ। फीजी के सृजनात्मक हिंदी लेखन में लेखकों का सम्मान ‘अपनी हिंदी’ के प्रति निरंतर बढ़ता जा रहा है और अधिक अच्छी रचनाएँ आ रही हैं। मानक हिंदी में लिखने वाले अच्छे लेखक निरंतर कम होते जा रहे हैं। प्रवासी लेखन की यह प्रकृति केवल फीजी में ही नहीं सूरीनाम में दिख रही है जहाँ प्रतिष्ठित लेखकों का रुझान सरगमी की ओर अधिक बढ़ रहा है। राजनीतिक अस्थिरता के युग में सृजनात्मक हिंदी लेखन निश्चय ही प्रमाणित हुआ है और जो एक उत्साह 1986 तक फीजी के भारतीयों में सृजनात्मक लेखन के प्रति दिखता था वह अब नहीं दिख रहा।
मुझे लगता है कि प्रगति का नैसर्गिक स्वरूप भी यही है जब व्यक्ति की जड़ जम जाती हैं जब वह आरोपित माध्यमों में रुचि नहीं लेता वह सृजनात्मक रचना अपनी मातृभाषा में ही करना चाहता है और यही स्थिति फीजी के सृजनात्मक लेखन में भी पनप रही है। फीजी के साहित्य का मध्यकाल वस्तुतः एक संक्रमण काल है इसलिए वहाँ भाषा द्वैत की स्थिति दिखाई पड़ती है जो उन लोगों के कारण उत्पन्न हुई जो गिरमिट प्रथा समाप्त होने के वर्षों बाद फीजी पहुँचे और हिंदी भाषी थे या जो भारत में रहकर पढ़े और हिंदी पर उनका अच्छा अधिकार हो गया। उनके लिए फीजी हिंदी में लिखना संभव ही नही था इसलिए वे मानक हिंदी का पक्ष लेते रहे।
यदि फीजी के सृजनात्मक हिंदी साहित्य का आकलन किया जाए तो कुछ बातें उभर कर सामने आती हैं –
फीजी के सृजनात्मक हिंदी साहित्य का इतिहास लगभग सवा सौ वर्षों का है और उसकी मूल संवेदना गिरमिट जीवन है जो प्रारंभिक लोकगीतों से लेकर आज तक लिखे जाने वाले साहितय में अविच्छिन्न रूप में दिखाई पड़ती है। विछोह की पीड़ा, क्षोभ, कष्ट, ग्लानि जहाँ प्रारंभिक रचनाओं में दिखता है वहीं आगे वह स्वदेश, स्वभाषा, स्वसंस्कृति की रक्षा, सुरक्षा और प्रतिष्ठा के लिए संघर्ष, उहापोह की स्थिति-विस्थापन और प्रस्थापना और समकालीन साहित्य में फिर अतीत का वर्णन या संक्षेप में कहें तो ‘स्व’ के लिए संघर्ष है।
प्रारंभिक रचनाएँ (1789-1920) अवधी या यों कहिए जो गिरमिटियों की भाषा ‘फीजी हिंदी’ है उसमें दिखेंगी। ये रचनाएँ प्रायः लोक शैली में हैं जिनमें कोई बनाव-शृंगार नहीं। ये सरल मानव की सहज अभिव्यक्ति होने के कारण बड़ी मार्मिक हैं और गिरमिट जीवन के मौखिक दस्तावेज़ कही जा सकती हैं जिनका साहित्यिक महत्व के साथ ही ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय महत्व भी है।
मध्यकाल (1920-1986) की रचनाओं की भाषा मानक हिंदी है जिसे प्रयास पूर्वक इन भारतीयों ने सीखा है और जिसका प्रचार प्रसार वह फीजी में चाहते हैं। अतएव ऐसी सीखी हुई हिंदी में लिखी गई रचनाओं में वचन, लिंग, कारक आदि की अशुद्धियों के साथ ही सीमित शब्द भंडार की अभिव्यक्ति होने के कारण ये वह प्रभाव उत्पन्न नहीं कर पाती जो साहित्यिक श्रेष्ठता की प्रतिमान हैं। पं० कमला प्रसाद मिश्र जैसे लेखक इसके अपवाद हैं जिन्होंने भारत में रहकर हिंदी का दीर्घकाल तक अभ्यास किया है और जिनका भाषा पर अदभुत अधिकार है।
समकालीन साहित्य (1980 से आज तक) के समय में प्रतिष्ठित साहित्य लेखक मानक हिंदी को छोड़कर फीजी हिंदी में लिख रहे हैं क्योंकि उनका विश्वास है कि साहित्यिक अभिव्यक्ति मातृभाषा में ही प्रभावशाली हो सकती है इसलिए सुब्रमणी, रेमण्ड पिल्लई, ब्रिज विलास, बाबू राम शर्मा सभी फीजी हिंदी में लिखने के पक्षधर हैं। इतना ही नहीं इनमें से अनेक लेखक देवनागरी से अपरिचित होने के कारण अपनी रचनाएँ फीजी हिंदी में रोमन लिपि में लिख रहे हैं क्योंकि फीजी हिंदी तो उनकी अपनी भाषा है किंतु हिंदी की आधार लिपि देवनागरी से उनका परिचय नहीं है।
फीजी को सृजनात्मक हिंदी साहित्य में चाहे विषयगत विविधता बहुत अधिक न हो; भाषा की दृष्टि से उनमें व्याकरणिक अशुद्धियाँ भी दिखाई पड़ें किंतु भावों की सीधी सच्ची अभिव्यक्ति निश्चित ही इनमें मिलेगी। यह सत्य है कि फीजी के हिंदी साहित्य की तुलना भारत के हिंदी साहित्य से नहीं की जा सकती किंतु प्रवासी भारतीय हिंदी साहित्य में फीजी के हिंदी साहित्य का अपना महत्व है और वे एक दूर देश में बसे हुए प्रवासी भारतीयों की अभिव्यक्तियाँ हैं जो नए देश में उनके जीवन संघर्ष की प्रारंभिक काल से लेकर आज तक की विविध परिस्थितियों का सच्चा स्वरूप हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं।
विदेश में लिखे जा रहे सृजनात्मक हिंदी लेखन तथा भारत में लिखे जा रहे हिंदी साहित्य में स्तर का अंतर निश्चित ही है किंतु यह अंतर वहीं है जो अँग्रेज़ी भाषी देशों में लिखे जा रहे अँग्रेज़ी साहित्य का है। अँग्रेज़ी कई देशों की मुख्य भाषा है जबकि हिंदी केवल भारत देश की ही मुख्य भाषा है। भारत से बाहर लिखा जा रहा हिंदी साहित्य भी यदि परिमाण की बात छोड़ दी जाए अनेक ऐसे लेखक हैं जिसकी तुलना भारत के किसी भी श्रेष्ठ लेखक से की जा सकती है। फीजी के पं० कमला प्रसाद मिश्र, प्रो० सुब्रमणी, प्रो० रेमण्ड पिल्लई, श्री जोगिन्द्र सिंह कँवल आदि अनेक ऐसे लेखक हैं जो अपने देशों में तो श्रेष्ठ लेखक माने ही जाते हैं, भारत में भी उनकी प्रतिष्ठा है। भारत सरकार ने विश्व हिंदी सम्मान से उन्हें सम्मानित कर उन्हें अन्तरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा भी दिलाई है।
साहित्य का मूल्यांकन केवल साहित्यिक कलात्मकता के परिप्रेक्ष्य में ही सर्वदा नहीं होता, प्रवासी सृजनात्मक हिंदी लेखन का साहित्य के साथ ही एक समाजशास्त्रीय और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य भी है जिसमें भारतीय गिरमिटियों का जीवन संघर्ष प्रतिबिंबित होता है। वह एक सरल मन की सहज अभिव्यक्ति भी है और हर पाठक के अन्तर्मन को ये छूने वाली है इसीलिए बड़ी मार्मिक लगती है। कलात्मकता का सौंदर्य उनमें इसलिए नहीं है क्योंकि वे लिस हिंदी में अपने भावों की अभिव्यक्ति का प्रयास कर रहे हैं वह परिनिष्ठत हिंदी उनकी अपनी नहीं है, सायास सीखी हुई है इसलिए उसमें भाषा की व्याकरणगत अशुद्धियाँ तो हैं, सीमित शब्द संपदा के कारण अर्थ छवियों का सौंदर्य भी नहीं है किंतु जो रचनाएँ फीजी हिंदी में लिखी गई हैं वे साहित्यिक विषय पा भी श्रेष्ठ हैं। उत्कृष्ट साहित्य लेखन भाषा पर पूर्ण अधिकार की अपेक्षा रखता है तभी अभिव्यक्ति की भंगिमाएँ सम्प्रेषण चमत्कार उत्पन्न करती हैं। वस्तुतः साहित्यिक उत्कृष्टता देश में या विदेश में लिखे साहित्य से नियंत्रित नहीं होती। साहित्यिक उत्कृष्टता सहज मन की सरल अभिव्यक्ति में देखी जाती है इसलिए भौगोलिक सीमाओं को पार कर वह सार्वजनीन बन जाती है। पर मानक हिंदी में लिखित श्रेष्ठ रचनाओं की भी फीजी में कमी नहीं है। पं० कमला प्रसाद मिश्र की रचनाओं की तुलना हिंदी के किसी भी श्रेष्ठ कवि से की जा सकती है।
फीजी के सृजनात्मक हिंदी साहित्य का मूल्यांकन करते हुए हमें हिंदी के वैश्विक स्वरूप को ध्यान में रखना होगा। हिंदी आज केवल भारत की ही भाषा नहीं है, वह विदेश में बसे हुए दो करोड़ से अधिक भारतीयों की संपर्क भाषा भी है। उनकी भारतीय अस्मिता की प्रतीक बन गई है। किंतु प्रवासी भारतीयों की हिंदी की अनेक विदेशी भाषिक शैलियाँ उसी प्रकार बन गई हैं जैसे भारत में हिंदी की जगह प्रमुख ग्रामीण बोलियों के अतिरिक्त कितनी हिंदी की अंतर्प्रांतिय शैलियाँ न गई हैं जैसे बंबइया हिंदी, कलकतिया हिंदी, मद्रासी हिंदी, दरिवती हिंदी आदि। इसी प्रकार प्रवासी भारतीयों ने हिंदी की विविध शैलियाँ अपने देशों में विकसित की हैं जैसे फीजी हिंदी, सरनामी हिंदी, नैताली आदि। न सभी शैलियों में लिखित साहित्य हिंदी का अपना साहित्य है जो हिंदी के विश्वव्यापी स्वरूप को प्रदर्शित करता है। फीजी में आज हिंदी के ऐसे अनेक साहित्यकार हैं जिनकी रचनाएँ अपने देख में तो अति लोकप्रिय हैं ही, भारत में भी हिंदी पाठकों के बीच पढ़ी जाती हैं और प्रशंसित हैं। ऐसी सभी उत्कृष्ट रचनाएँ हिंदी साहित्य की निधि हैं।