सन्दर्भ : कितने-कितने अतीत
किसी भी साहित्यकार के लिए उसका देशकाल भौगोलिक जगत या समय से निश्चित नहीं होता। निश्चित होता है मानवीय संवेदना के ग्राफ से जिसके पैमाने हर व्यक्ति के लिए अपने-अपने होते हैं लेकिन अपने मूल रूप में वह निज से मुक्त होकर व्यापक मनुष्यता से जुड़े होते हैं। सुषम बेदी की कहानियाँ बार-बार इसी सत्य का एहसास कराती हैं। इन कहानियों के केंद्र में परिस्थितियाँ या जीवन-स्थितियाँ छोटी-छोटी हैं यानी हमारी रोज़मर्रा के जीवन में आने वाली असंख्य स्थितियाँ जो अक्सर हमारी नज़र से छूट जाती हैं या जिनको कभी हमने इतना महत्व नहीं दिया कि वह साहित्य के माध्यम से मानवीय सभ्यता के संकट को निर्देशित कर सकें। सुषम जी अपनी सूक्ष्म दृष्टि से इन्हीं जीवन स्थितियों को अपने साहित्य में पुनर्जीवित करती हैं और बड़े धैर्य के साथ छोटे-छोटे ब्योरे, छोटे-छोटे प्रसंग जीवन व्यापी प्रश्नों को हमारे समक्ष उपस्थित कर देते हैं।
सुषम बेदी का जाना हिंदी साहित्य में एक अंतराल छोड़ गया है। उनका कहानी लेखन का मिजाज़ कुछ अलग था। जिस बारीक़ी से वे अपनी कहानियों के आख्यान बुनतीं और पात्रों के मानसिक अंतर्द्वंद्वों को उकेरतीं वह उन्हें कहानी-लेखन की अलग पंक्ति में खड़ा करता है। उनकी अधिकांश कहानियों की थीम उन भारतीयों से संबद्ध थी जो अमेरिका जाकर बस गए लेकिन मन से वे हिंदुस्तान से दूर नहीं हो सके और अमेरिका में भी अपने साथ एक हिंदुस्तान ले गए। यह कहानियाँ अपने पूर्ण उत्कर्ष को तब पहुँचती हैं जब भारतीय एवं अमरीकी जीवन-शैली के अंतर एक ऐसी स्थिति पैदा करते हैं जिनकी टकराहट में मानवीय संवेदना को बिल्कुल अछूते ढंग से छुआ जा सकता है।
हाल ही में इंद्रप्रस्थ कॉलेज के अनुवाद एवं अनुवाद अध्ययन केंद्र ने साहित्य अकादमी द्वारा समर्थित एक प्रोजेक्ट पर काम किया जिसमें हमने पंद्रह कहानीकारों की हिंदी कहानियों के अँग्रेज़ी अनुवाद किए। जब हमने सुषम जी से अपनी कहानी भेजने का अनुरोध किया तो उन्होंने जो कहानी भेजी उसका शीर्षक था- ‘कितने कितने अतीत/ कौशल्या शर्मा की शिकायतें’। इस कहानी की मार्फ़त हम सुषम जी की कहानी कला पर बात कर सकते हैं। इसमें ऐसी बहुत-सी विशेषताएँ हैं जो उनकी अन्य कहानियों में भी देखी जा सकती हैं।
यह कहानी कौशल्या शर्मा के इर्द-गिर्द घूमती है। कौशल्या शर्मा जो एक लंबा समय भारत में गुज़ार कर अपनी बेटी के पास अमरीका रहने लगी हैं। असल में उनके पास कोई विकल्प नहीं बचा। बेटी अमेरिका पढ़ने गई और वहीं की हो गई। पति पहले ही गुज़र चुके थे। हर तरफ़ से अकेली पड़ गई कौशल्या शर्मा, बेटी के साथ रहने लगीं और जब कुछ लाचार हो गईं तो उनकी व्यवस्था असिस्टेड लिविंग में की गई, जहाँ रहने वाले सभी बुज़ुर्गों को खान-पान, दवा आदि की सुविधा उपलब्ध कराई जाती है। वही लोग यहाँ रहने आए हैं जिनका बंदोबस्त उनके घरों में नहीं हो पाता। अमेरिकी जीवन शैली में रहने और जीने वाली कौशल्या शर्मा की बेटी की मजबूरी है कि वह काम में इतनी व्यस्त है की माँ की देखभाल के लिए उसने तमाम सुविधाओं से लैस केयर सेंटर का बंदोबस्त किया है। यहाँ उनके पास अपनी एक परिचारिका है, भोजन, दवा, देख-रेख आदि की अच्छी व्यवस्था है। वे मरते-मरते जी उठीं है। आसपास अपनी उम्र या उससे भी वृद्ध आयु के लोग हैं लेकिन फिर भी एक ख़ालीपन बना हुआ है।
सुषम जी ने जिस तरह से इस पात्र का चरित्र बुना है, वह बहुत ख़ास है। मज़े की बात यह है कि एक बार जब मैंने उनसे पूछा था कि वह अपनी कहानियों के जो किरदार चुनती हैं उनके प्रति लेखकीय व्यवहार क्या रहेगा यह कैसे निश्चित करती हैं तो उन्होंने हँसी में उड़ा दिया था कि उन्होंने कभी इस ओर ध्यान ही नहीं दिया। ‘कहानी जिस तरह मन पर दस्तक देती है, उसी तरह लिख देती हूँ’। कहानियाँ उनके भीतर से ऐसे कुलबुलाने लगतीं कि अभिव्यक्ति की बेचैनी पन्नों पर शब्द बनकर बिखर जाती। उनके रचना धर्म की यही तकनीक है, (अगर इसे तकनीक मानें तो) और यह भी सही है कि वे जिसको भी देखतीं, जिससे भी मिलतीं उनसे जुड़ी तरह-तरह की कहानियाँ उनके मन में कुलबुलाने लगतीं। संपर्क में आने वाला हर व्यक्ति, उनके लिए किरदार बन जाता। वह पूरी तटस्तथता से, थोड़ी दूरी से, मानो उसे निहार रही हों और वह रेशा-रेशा उनकी क़लम की नोक पर एक नया रूप ग्रहण कर रहा हो। इस पूरी प्रक्रिया में दो संस्कृतियों के बीच का अंतराल जीवन जीने की शैलियाँ और जीवन को महसूस करने की उनकी अपनी-अपनी फ़ितरत, उनकी कहानियों में उजागर हो जाते हैं। कौशल्या उस असिस्टेड लिविंग में रहते हुए यह समझने लगी थी, "कौशल्या यहाँ रहते हुए एक बात बहुत ज़्यादा अच्छी तरह से समझने लगी है और वह यह कि अपने मन की इच्छा इन अमेरिकियों तक ज़रूर पहुँचानी है। अगर चुप रहे तो कुछ नहीं होने वाला। चुप रहो तो बस सहते रहो।"
89 साल की कौशल्या शर्मा ने अपनी स्थिति से समझौता कर लिया है और यह जान लिया है कि जब तक जीवन है और अपने शरीर को सँभालना है तो वह असिस्टेड लिविंग में रहते हुए ही संभव है लेकिन भले ही उसका शरीर उसका साथ न दे रहा हो, उसका दिमाग़ तो तीव्र गति से चलता है। उसे पूरी तरह किसी काम में लगाए रखने के लिए कौशल्या ने एक शगल पाल लिया है। वह हमेशा यह ध्यान रखती है कि कौन क्या कर रहा है? कौन किससे मिलने आ रहा है? किसको जीवन में क्या तकलीफ़ है? आदि लेकिन सहानुभूति या दया तो उसे अपने प्रति भी नहीं है। यह सब तो बस मज़ा लेने के लिए, जीवन में आनंद ढूँढ़ने का ज़रिया भर है। इसीलिए उसे सबसे तरह-तरह की शिकायतें हैं। शिकायतें इतनी कि कहानी का एक नाम ही 'कौशल्या शर्मा की शिकायतें' हो सकता था। उसे अपनी टेबल पर साथ बैठने वाले मार्क से शिकायत है कि उसकी लार टपकती रहती है और नाक बहती रहती है और वह उसी के साथ खाता रहता है जिसे देखकर कौशल्या को उबकाई आने लगती है।
इससे पहले उसे बॉब की 'ठरक' से शिकायत थी। कहानीकार ने इस स्थिति को बख़ूबी पकड़ा है। बॉब के स्नेह निमंत्रण पर वह उसे झिड़कती है, सोशल वर्कर से उसकी शिकायत करती है लेकिन उसके मन की हालत ग़ज़ब है- "कुछ तो था जो कौशल्या को जैसे ज़िन्दगी की ओर खींचता था। हाँ, भीतर का तार बजा तो था। बॉब की जिजीविषा उस कंकड़ की तरह थी जो किसी भी पानी में फेंका तो वहाँ भँवर पड़ जाता। पर कौशल्या डरती थी उन भँवरों से। पानी की गतिशीलता से। अब उम्र गुज़र गई, अब क्या छेड़ना। न ही मन में भरोसा उठता था कि इस उम्र में भी कोई सच्चा प्यार दे सकता है। यूँ ही खिलवाड़ के लिए नहीं बनी कौशल्या! और फिर यह डर भी था क्या कहेंगे सब लोग, न बाबा न!" ख़ास भारतीय संस्कार जो अपने होने और जीने से पहले सामाजिक स्वीकृति की परवाह करने लगता है। बॉब की बात में भी कुछ सच्चाई थी, "अरे मिस शर्मा तुमको जीने से डर लगता है। लाइफ़ को एनजॉय करने से घबराती हो। किस बात का ख़ौफ़? मुझसे बात करके कुछ बुरा नहीं होगा। तुमको डर किस बात का है?" यही असली सच्चाई थी। भारतीय जीवन पद्धति कभी अपने बारे में सोचने को तरजीह नहीं देती और फिर एक स्त्री का अपने बारे में सोचना। जीवन को इंजॉय करने के बारे में सोचना। हमारे यहाँ तो जीवन ज़िम्मेदारी है और स्त्री की आकांक्षाओं की तो वैसे भी कोई क़दर ही नहीं। कौशल्या अकेले होते हुए भी इस डर से मुक्त नहीं हो पाती लेकिन उसमें बेचारगी का भाव नहीं है, यह उसका अपना चुनाव है।
फिर भी शिकायत तो वह करेगी ही, “यू आर लाफ़िंग. यू थिंक इट इस ऑलराइट...ही इस गुंडा...बैड. वैरी बैड. आई एम इंडियन वी डोंट लाइक दीज़ थिंग्स. दिस इस नॉट आवर कल्चर” अपने कल्चर पर उसे बहुत अभिमान है। इतना कि उसमें अपनी कमियाँ भी उसे दिखाई नहीं देती। अपनी परिचारिका से उसका व्यवहार ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भावना के बिलकुल विपरीत है, उसके ब्लैक होने पर उसे ऐतराज़ है। उसकी आर्थिक हैसियत के कारण भी वह उसे अपने से नीचे देखती है। यह जीवन शैली व्यक्ति की गरिमा को केंद्र में नहीं रखती। अमेरिका में रहते हुए अपने सार्वजानिक व्यवहार में इन भारतीय आदतों को बदलना ज़रूरी है फिर भी कौशल्या शर्मा नहीं समझ पाती कि मामला क्या है? एक सीमा तक अमरीकी जीवन शैली के जो सकारात्मक तत्व हैं वह भी उससे छूटे जा रहे हैं।
लेखिका ने बॉब और कौशल्या के प्रसंग को एक समानांतर भारतीय प्रसंग से जोड़ा है। कौशल्या के पति की मृत्यु के बाद कोहली साहब ने उसकी बहुत मदद की और उसके लिए वैधव्य को झेलने का काम इतना आसान कर दिया कि वह उनकी बहुत आभारी थी लेकिन जब उन्होंने उसके प्रति प्रेम प्रस्ताव किया तब भी वह उसे स्वीकार नहीं पाई। मन में कोई भावना रहने पर भी नहीं। फिर कई सालों बाद उसे इच्छा हुई कि वह जाकर कोहली साहब को देखे, उनसे मिले लेकिन तब तक बुढ़ापे की मार से कोहली साहब उस स्थिति में पहुँच गए थे जब वे कौशल्या को पहचान भी नहीं पाए— "कौशल्या की रग-रग आहत, अपमानित, लज्जित जैसे धरती के फट जाने के इंतज़ार में थी। यह व्यक्ति उसे जिलाना चाहता था। आज यह मौत का भयंकर रूप धारण किए हैं। जीवन की कुरूपता का साक्षात बनकर खड़ा है। भागी थी वह वहाँ से!" बुढ़ापा कितना बेदर्द, अमानुषी हो सकता है, यह सच्चाई झेलना उसके लिए बहुत कठिन था।
हम एक साथ, एक ही जीवन में कितने अतीत से जुड़े होते हैं, यह हम सही समय पर नहीं जान पाते। जिस परदेस को हम अजीब नज़रों से देखते हैं- दूसरी ज़मीन, दूसरा समाज, दूसरे लोग, दूसरी संस्कृति, दूसरे व्यवहार, भाषा, आचारण और सोच- हम जितना भी उसका विरोध करें, उससे पिंड छुड़ायें लेकिन अगर हम उसमें हैं, तो वह हमारे वजूद और अतीत का हिस्सा होता है। कौशल्या जिस मार्क की उपस्थिति से चिढ़ती थी जिससे उसे घिन्न आती थी, जब वह नहीं रहा और परिचारिका ने कहा कि 'यू मस्ट बी हैप्पी नाउ' तो वह ख़ुश भी नहीं हो सकी। उसकी कल्पना में मार्क अब भी उसके सामने था और वह ख़ुद जैसे उसे जीवित रखना चाहती हो क्योंकि उसके होने से शायद उसे अपना होना भी समझ में आता था।
89 वर्ष की कौशल्या जिन जटिल भावनाओं से गुज़र रही है, उन्हें ठीक से पढ़ पाना उसके लिए स्वयं भी मुश्किल है। यह कहानी, जीवन के मानवीय अनुभव को यथार्थ में बदल देती है, जिसमें हम एक जीवन जीते हुए भी कई जीवन उसमें समेटे रहते हैं। एक साथ बहुत कुछ होकर और बहुत कुछ पाकर जीते हैं। उसकी न कोई भौगोलिक सीमा होती है, न भाषा और व्यवहार की। सुषम जी कहती तो थीं कि 'प्रवासी लेखन एक मिट्टी में रोपे गए पौधे का दूसरी मिट्टी में रोप दिया जाना है' लेकिन यह उससे थोड़ा अधिक है। यह बदले हुए परिवेश में सामाजीकरण की प्रक्रिया का बयान है। हमारा देश और संस्कृति ही हमारे सामाजिक व्यवहार को निर्देशित नहीं करते, मानवीय भावनाओं का अंत:सूत्र इन सब चीज़ों से कहीं बड़ा है और वही हमें एक दूसरे से जोड़े रखता है। सुषम जी ने सदा अपने साहित्य में प्रवासी लेखन के इस बड़े कैनवस को चुना जिससे कि उनकी कहानियाँ हों या उपन्यास, पूरी इमानदारी से दो संस्कृतियों को साथ लाकर 'मैं' और 'वह', 'हम' और 'उन' जैसे निराधार द्वंद्वों को ख़ारिज कर उसमें जो भी सकारात्मक भाव हैं, उसे चुन लेते हैं। सुषम बेदी के लेखन की यही विलक्षणता उन्हें हमारी स्मृतियों में तथा हिंदी एवं विश्व साहित्य की व्यापक परंपरा में सदा अविस्मरणीय बनाये रखेगी!