हम सब जानते हैं, दलित साहित्य का आविर्भाव दलित तबके को द्विजों द्वारा सदियों से मिलती आई हकमारी से उपजी खुदमुख्तारी की एसर्टिव भावना के तहत हुआ है। लोकतंत्र के मानवाधिकारपूर्ण सामाजिक सेटअप में इस अनिवार हस्तक्षेप का आना लोकतंत्र को पूरता है। अँगरेज़ शासन कालीन जमाने के भारत से ही अभिव्यक्ति के औजार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के जो कुछ अवसर देश की उत्पीड़ित-वंचित जन को मिले हैं उनमें देश में ‘उदार’ एवं निहित स्वार्थी दोनों तरीके के विदेशी शासकों-प्रशासकों एवं अन्य वर्चस्वशाली वर्गों की मदद का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष बड़ा हाथ रहा है। शिक्षा अथवा ज्ञान के जो व्यवस्थित संसाधन और औजार भारतीय परम्परा से आए उनपर संस्कृति एवं शासन के पहरुओं अर्थात राजन्य या कि शक्तिशाली वर्ग से आने वाली मुट्ठीभर सूक्ष्मसंख्यक प्रभु जातियों का कब्ज़ा था तथा इस शिक्षा-ज्ञान का ओरिएंटेशन प्रभु वर्ग के हितों के अनुकूल था। समाज के सवर्णवादी एवं ब्राह्मणवादी कुचक्रों में फंसी हजारों की संख्या में फैली बहुसंख्यक जातियों को शिक्षा की पहुँच से जातिगत वैमनस्य एवं घृणा के आधार पर वंचित रखा गया था। ऋग्वेद एवं मनुस्मृति से लेकर अलग अलग कालखण्डों में लिखी गयीं वेद, पुराण, महाभारत, रामायण जैसी धार्मिक अन्धविश्वास का विष एवं जातीय भेदभाव व दुराग्रह फ़ैलाने वाली कथित धार्मिक किताबों के कुछ कुख्यात आदेश-उपदेश एवं प्रावधान इंगित करते हैं कि सवर्ण कितने जमाने से बहुजनों के प्रति दुराव एवं हिंसक व्यवहार रखते आये हैं। आधुनिक काल में आकर पं। रामचंद्र शुक्ल जैसे ब्राह्मण कुलक हिंदी आलोचक ने बड़ी नंगई एवं ढिठाई से कबीर जैसे सर्वकालिक सबसे बड़े मानवतावादी एवं क्रांतिकारी हिंदी कवि को नकारते एवं तुलसी के विष-वचनों को सहलाते हुए अपने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में ब्राह्मण लेखकों की ‘जन्मपत्री’ का विस्तृत ब्यौरा रखा जैसे कि वह हिंदी साहित्य का नहीं वरन ब्राह्मण साहित्य का इतिहास लिख रहे हों! जिस काल में द्विज कुलक तुलसी अपने समय में चल रही बेहूदी कल्पनाओं, कथाओं की जड़ धार्मिक चाल में रह व रम कर अंधविश्वासी विभ्रमों को अपनी रचनाओं के माध्यम से गति दे रहे थे, वहीं उनके समकालीन दलितवंशी कबीर और रैदास धार्मिक अंधविश्वासों एवं कुरीतियों पर प्रहार करने वाली लगभग वैज्ञानिक मिजाज की लक्षणा एवं व्यंजना परक जनसमस्या-बिद्ध कविताई बांच रहे थे। कबीर और रैदास जहाँ जमीनी जन कवि थे, जनजागरण के कवि थे वहीं तुलसीदास भ्रम बाँटने के। यह अन्यथा नहीं है कि सवर्ण तबके से बनने वाला हिंदी साहित्य का प्रगतिशील हलका अब भी प्रायः तुलसी के बगैर नहीं जी सकता जबकि उसके जीवन और रचना में कबीरपन का संग होना चाहिए। मेरा तो यहाँ तक मानना है कि तुलसी के काव्य में अपनी भक्ति अर्पित करते हुए काव्य सौन्दर्य की प्रशंसा में रत होना बलात्कार की घटना में सौंदर्यशास्त्र ढूँढ़ने और उसकी वकालत कर बैठने के बराबर है। आप हिंदी काव्य की परम्परा की बात करते हुए तुलसी जैसे ब्राह्मणवादी एवं अन्धविश्वास प्रेमी कवि का काव्य कला का संदर्भ ले सकते हैं लेकिन उसकी प्रगतिशील गाथा नहीं प्रस्तुत कर सकते। प्रगतिशील होना और अंधधार्मिक होना, दोनों एक साथ नहीं हुआ जा सकता।
उपर्युक्त पृष्ठभूमि का परिप्रेक्ष्य इसलिए कि बिहार क्षेत्र (यानी झारखंड समेत) के दलित कुलजनमा लेखकों के साहित्य का यहाँ जो हम एकाउंट प्रस्तुत करने जा रहे हैं वे सवर्णवादी एवं ब्राह्मणवादी कुचक्रों में फंसी हजारों की संख्या में फैली बहुसंख्यक वंचित जातियों के हितों का एक स्वानुभूतिजन्य बौद्धिक प्रतिनिधित्व भी कर रहे हैं। सही है कि मानव जीवन में सहानुभूति-सदाशयता का भी अपना महत्व है मगर स्वानुभूत का न तो कोई विकल्प है न ही तोड़। यहाँ स्पेनी कवि लोर्का का कहना प्रासंगिक हो उठता है कि ‘दुःख, स्वप्न और संताप मानवीय संवेदना को कुरेदते हैं’। दलित लेखकों का भोगा सच इन्हीं आकुलताओं की आवेगमय अभिव्यक्ति है। इस परिप्रेक्ष्य में कोई बहुश्रुत तर्क दे सकता है कि रामायण के रचयिता कवि वाल्मीकि ने भी तो क्रौंच पक्षियों के एक जोड़े का किसी बहेलिये द्वारा शिकार किये जाने से द्रवित होकर, सहानुभूति रखकर अपने इस संस्कृत महाकाव्य (कथित) की रचना की। मगर, इस पुस्तक का सतर्क, बुद्धिवादी एवं प्रगतिशील पाठ करने वाले लोग जानते हैं कि यह किताब एक भक्त कवि द्वारा अपने आराध्य राम के पक्ष में लिखा गया बेसिरपैर का कथा-काव्य है, कपोलकल्पित गढ़ंत है, एक वर्णवादी विद्वान की मनुवादी कुंठा एवं ठहरी एवं पिटीपिटाई सोच की उपज है। संवेदनाओं की भक्तिमय अथवा निहित स्वार्थ जन्य प्रस्तुति के चलते यह किताब वंचित एवं पीड़ित जन अथवा लोक के बहुसंख्यक हिस्से के हितों के विरुद्ध जाती है। यह भी कि इसमें साहित्य के पारम्परिक ब्राह्मणवादी सौंदर्यशास्त्र एवं कला का निवेश है न कि स्वस्थ सौंदर्यशास्त्र का। यही कारण है कि दलित लेखकों ने अपना अलग सौंदर्यशास्त्र गढ़ा है जो बहुलांश में पारम्परिक सौंदर्यशास्त्र को ख़ारिज करते बना है, धकियाते हुए बना है। यह अनायास नहीं है कि धार्मिक मिथ्याचार एवं जातीय/ब्राह्मणी सोच पर जो हमला कबीर छह सौ साल पहले कर गए उसे टक्कर देने वाला तो क्या उनके पासंग में भी ब्राह्मणवाद विरोध में कलम थामने वाला आज तक कोई सवर्ण कवि पैदा नहीं हो सका है। विस्मय तो तब होता है जब कथित वामपंथी खेमे के लेखकों एवं आलोचकों द्वारा मार्क्सवादी माने जाने वाले कवि मुक्तिबोध को सर्वश्रेष्ठ कवि ठहरा दिया जाता है मगर इन मुक्तिबोध के यहाँ एक भी कविता ऐसी नहीं मिलती जो दलित हितों को संबोधित हो अथवा ब्राह्मणवाद एवं सवर्णवाद का नब्ज पकड़ती हो। क्या कोई ‘तीसमारखां’ वामपंथी कवि भी दलित/ब्राह्मणवाद/सवर्णवाद के प्रश्न पर इतना निस्संग व वीतराग हो सकता है, जबकि दलित-वंचित जन की खुली पक्षधरता एक लेखक होने की प्राथमिक शर्त होनी चाहिए। मुक्तिबोध मरने के बाद अचानक आधुनिक कविता के बरगद कवियों में शामिल हो गए। बड़े बड़े कवि व आलोचक ने किसी को उठाया तो किसी को गिराया। राजनीति, पालन-पोषण परिवेश और शिक्षण-प्रशिक्षण हमें एक मति का, सन्मति का नहीं रहने देते। टटका आदिवासी कवि अनुज लुगुन की हैसियत समकालीन हिंदी कविता में उनका कोई काव्य संग्रह आने से पहले ही ईर्ष्य हो गयी। क्या कोई बताएगा कि प्रभूत दलित काव्य लेखन के बावजूद किसी दलित कवि की हैसियत अनुज लुगुन के पासंग में भी क्यों खड़ी नहीं हो पाई है? अनुज की आदिवासी अस्मितापरक रचनाओं में भी याचना एवं दयनीयता भरी वर्गीय खांचे की कविताई है जिससे प्रभु वर्ग एवं जातियों को कोई खतरा नहीं है। साफ़ है, दलित कविता, जो अम्बेडकरवादी बुनावट की काव्यधारा है, में जो ब्राह्मणवाद एवं सवर्णवाद का सीधा विरोध है, खुला प्रतिकार है वह वामपंथ विरोध तक चला जाता है, और, यह मुख्यधारा पर कब्जा जमाए किसी भी धारा के आलोचकों एवं संपादकों को भरसक ही पचता है। इसी कारण से कोई बड़ा साहित्यिक पुरस्कार-सम्मान भी अबतक किसी दलित लेखक-कवि को नहीं मिला है। यह भी कि, कौन कवि प्रगतिशील है, कौन जनवादी, कौन वामपंथी और वामपंथी में भी मार्क्सवादी, इसकी शिनाख्त करना मुश्किल है और हिंदी आलोचना में इस शिनाख्त की न तो जरूरत महसूस की जा रही है और न ही कोई पद्धति प्रयोग में है। हिंदी की केन्द्रीय मानी जाने वाली साहित्यधारा में वरण तो प्रगतिशीलता का है मगर यहाँ जो द्विजकुल जनमा कवि अलग ऊंचा वैचारिक पायदान पर दीखता है, वह भी दलित एवं सवर्ण प्रश्नों से प्रायः बचकर अथवा हद से हद वर्ग के खांचे में ही बात करता है, जबकि समाज अभी जातीय द्वंद्व एवं विद्वेष के सघन घटाटोप से गुजर रहा है। आज का कवि यदि जाति और धर्म के सवालों से भागता है तो वह नकारात्मक रूप से राजनीतिक है। आप यदि समाज से सही संलग्नता रखते हैं, समय-समाज के ज़रूरी सवालों से टकराने एवं समाज में प्रेम रोपने के आग्रही हैं तो आप पीक & चूज नहीं कर सकते, धर्म एवं जाति की खुरदुरी उपस्थिति को नजरंदाज नहीं कर सकते। इस लड़ाई से गुजरकर ही वृहतर या कि प्रेम और सौहार्द का संग पाया जा सकता है।
हम बिहार क्षेत्र के परिप्रेक्ष्य में साहित्य में दलित लेखनधारा पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि यह आजकल हिंदी पट्टी के अन्य क्षेत्र के दलित लेखन की तरह ही महाराष्ट्र में चले दलित पैंथर आन्दोलन के प्रभाव में सन उन्नीस सौ सत्तर के दशक में जन्मे मराठी दलित साहित्य से ऊर्जा लेती है, जिसने स्वयं अफ्रीकी ब्लैक पैंथर आन्दोलन एवं उससे उद्भूत ब्लैक लिटरेचर से खाद-पानी ग्रहण किया था। हिंदी दलित साहित्य का एक घटना एवं साहित्यधारा के रूप में सन 1990 के दशक में दाखिल होना भी प्रधानतः इसी प्रभाव में हुआ। जबकि ‘स्वान्तः सुखाय’ एवं अपना दुःखदर्द अभिव्यक्त करने के लिए तो दलित लेखनी व्यक्तिगत स्तर पर पहले से चलती आ ही रही थी। पटना के किन्हीं हीरा डोम की प्रसिद्ध कविता 'अछूत की शिकायत' ऐसी ही रचना थी। भारत और बिहार में किसी दलित कवि की दलित संवेदना से लैस यह पहली प्रकाशित रचना मानी जाती है जिसे सन 1914 में सम्पादक महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इलाहाबाद से निकलने वाली अपनी पत्रिका 'सरस्वती' में छापी। यह कविता ही हीरा डोम का प्रथम एवं अंतिम परिचय है, उनका अन्य कोई जीवन प्रसंग अथवा एकाउंट कहीं से नहीं मिलता।
हीरा डोम की इस सर्वथा झीनी रचनात्मक उपस्थिति के लगभग 50 साल बाद सन 1960 के दशक में जाकर बिहार के कुछ दलित लेखक रचना-सक्रिय मिलते हैं और ख़ुशी की बात यह कि वे अब भी हमारे बीच मौजूद हैं और लिख-पढ़ भी रहे हैं। यहाँ ध्यान देने योग्य है कि हीरा डोम की कविता बिहार क्षेत्र के समकालीन कवियों के लिए भी एक तरह से प्रस्थान बिंदु की तरह काम कर रही है। मेरा इशारा यह भी है कि जिस तरह से ईश्वरवादी हीरा डोम की कविता में अपनी और अपने जैसों की दुर्दशा एवं ब्राह्मणों (कहें सवर्णों) की आततायी उपस्थिति को लेकर ईश्वर से सवाल करती है वह कविता की ताकत भी है तो सीमा भी; उसी तरह से बिहार क्षेत्र के बहुतेरे दलित कवि अपनी और अपने समाज की दु:स्थितियों एवं प्रभु जातियों से मिल रहे उत्पीड़न को लेकर आक्रोशित तो हैं लेकिन वे भाग्य-भगवान् के फेरे में भी पड़े हुए हैं। भाग्य-भगवान् के स्वीकार वाली चीजें उनकी रचनाओं में भी आ रही हैं। ईश्वरवादी तो मध्य काल में आये कबीर भी ठहरते हैं मगर, उनकी रचनाओं में जाति, सम्प्रदाय विषयक खाई एवं धार्मिक वाह्याचार को साफ़ लताड़ मिलती है। और इस क्रम में वे हिन्दू-मुस्लिम अन्धधार्मिकों एवं धार्मिक सत्ता के षड्यंत्रकारी संचालक वर्ग, ब्राह्मण को बेदर्दी से आड़े हाथों लेते हैं। कबीर के निशाने पर रोजा, नमाज, पूजा-पाठ, गंगा स्नान, तिलक धारण, मुल्लों का दाढ़ी धारण आदि सारे आम धार्मिक चलन और करतब हैं। दुखद है कि अभी के अनेक दलित कलमकार इन व्यर्थ की धार्मिक कसरतों में मुब्तिला मिलते हैं। कुछ तो रचना में इनसे बचने की कोशिश करते हैं मगर जीवन में इन व्यर्थ के वाह्याचारों को चाहे अनचाहे लपेटे चलते हैं और कुछ का जीवन और रचना दोनों इनसे संलिप्त मिलता है। सो, यह तय है कि हमारे अधिकतर दलित लेखकों की भी चेतना विभाजित है। इन पंक्तियों के लेखक ने डा। कर्मानन्द आर्य के साथ मिलकर 2018 के वर्षांत में जिन 56 कवियों की प्रतिनिधि 333 कविताओं के सामूहिक संकलन ‘बिहार-झारखण्ड की चुनिन्दा दलित कविताएँ’ पुस्तक सम्पादित की थी, उसके क्रम में हमारे अनेक लेखकों की खंडित चेतना उजागर हुई थी। यहाँ यह दुहराना जरूरी है कि रचना एवं जीवन में सम्यक दलित चेतना भरने के लिए बुद्ध एवं अम्बेडकर के विचारों पर चलना जरूरी है। दूसरे शब्दों में, केवल दलित लेखक होने से बात नहीं बनती, दलितों का अम्बेडकरवादी लेखक होना जरूरी है। वर्ना, भक्ति और धर्म-आसक्ति की विरुदावली रचकर भी तो एक दलित दलित लेखक बना रह ही सकता है! मिथक, इतिहास से उपजे हुए प्रतिक व मुहावरे अलग-अलग समाज के लिए अलग तरह से काम करते हैं। शोषक जातियों और ‘रिसीविंग एंड’ पर रहीं जातियों के साहित्यिक प्रतिमान इसी लिहाज से हमेशा एक नहीं हो सकते। द्रोणाचार्य, एकलव्य, अर्जुन, राम, रावण, दुर्गा, सरस्वती जैसे मिथकीय पात्र एवं कथित देवी-देवता दलित और गैरदलित साहित्य में एक ही तरीके से चित्रित नहीं हो सकते। एक ही टूल विभिन्न काल, परिस्थिति एवं कार्य में अक्सर भिन्न तरीके से प्रयुक्त होंगे। अतः इतिहास एवं मिथक में जातीय नायकों अथवा जातीय नायक में फिट किये गए चरित्रों के प्रति भी अनन्य-अनालोच्य मोह रखना भी प्रगतिशील एवं वैज्ञानिक सोच वाले समाज के विकास में बड़ी बाधा है और दलित साहित्य में त्याज्य है। दलित साहित्य पारंपरिक सौंदर्यशास्त्र से चालित न होकर नये सौंदर्यशास्त्र को पाने से स्वाभाविक एवं निर्बाध गति पाएगा। दलित साहित्य में अगर मिथकीय दलित वंचित चरित्रों की प्रशंसा और स्वीकार है भी तो उन्हें आवश्यक रूप से मानव होना है, मानवेतर एवं अलौकिक नहीं। वाल्मीकि और व्यास को भारत के पहले दलित कवि के रूप में चित्रित करने वाले दलित एवं गैरदलित जन भी इसी व्यर्थ-वृथा मोह में बीमार हैं। यदि ये लोग दलित हुए भी हों तो मनुवादी साहित्य के पोषक एवं स्वजन विरोधी होने के कारण ये दलित कवि नहीं कहला सकते। जाति जैसी बीमारी को जहाँ भगाने की सुनियोजित तैयारी होनी चाहिए वहाँ हम अपनी जाति की समृद्ध विरासत मिथकीय एवं ऐतिहासिक पात्रों में नहीं देख सकते।
किंचित विषयांतर से बताऊँ कि एक बार एक रेडियो वार्ता की जो प्रस्तुति एक महोदय ने पटना आकाशवाणी में रखी, वह बिहार में दलित कथा लेखन से सम्बद्ध थी, मगर, उसमें जो कथाकारों के नाम गिनाए गए वे सब के सब गैर दलित थे। पटना में रहने वाले ये दलित कथाविज्ञ वार्ताकार महोदय आपके अनुमानों के विपरीत बिरादरी के थे, वे सवर्ण न थे, ओबीसी थे! अस्तु, यह रेखांकित करने योग्य है कि ऊंच-नीच की वर्णवादी व्यवस्था वाले समाज में मार खाया एक दलित तबके से आने वाला लेखक यदि अपनी रचनाओं में इन चीजों को नहीं लाता तो वह या तो वंचित समाज के प्रति बेईमान है अथवा परम्परा से चले आ रहे साहित्य की रूढ़ परम्परा का वाहक एवं सहचर। और, ऐसे लोगों को मैंने अपने सम्पर्कियों-परिचितों में भी लक्षित किया है। हद तो यह भी हुई है कि मैंने कुछ लोगों से छापने के लिए रचनाएँ मांगीं मगर उन्होंने गुप्त अथवा प्रकट रूप से केवल इसलिए मना कर दिया कि उनकी दलित प्रास्थिति सार्वजनिक हो जाएगी। ऐसे कम से कम दो जने, एक महिला और एक पुरुष, तो मुझे मीडिया से ही मिले। उक्त महिला को तो आखिरकार मना लिया मैंने, उसकी इस शर्त को मानकर कि उसका परिचय और पता नहीं छपेगा। आप समझ सकते हैं कि ऐसे लोग किस तरह की पत्रकारिता करते होंगे और मीडिया हाउस में क्या बनकर रहते होंगे? क्या पढ़ने लिखने का, प्रबुद्ध होने का यही मतलब है? मीडिया की बात आई है तो रचना में स्वानुभूत एवं सहानुभूत के फर्क को समझने के लिए एक रोचक प्रसंग हम यहाँ देख लें। साहित्यिक हिंदी मासिक ‘कथादेश’ ने एक बार सवर्ण लेखकों से अपनी आत्मबयानी लिखने की अपील की एवं उसे पत्रिका में एक स्तंभ विशेष में जगह देने का ऐलान किया। लेखकों को अपने घर-परिवार, रिश्ते-नाते का एवं अपना वह अनुभव साझा करना था जो दलितों-वंचितों के विरुद्ध जाता था। मजा यह कि इस स्तंभ के तहत केवल एक अनुभव ही प्रकाशित हो सका, वह था नामी पत्रकार कृपाशंकर चौबे का। उस स्वानुभव लेख में भी अपनी अथवा अपनों की कोई उल्लेखनीय खबर नहीं ली जा सकी।
बिहार में दलित साहित्य पर चर्चा आगे बढ़ाते हैं। जैसा की उपरि वर्णित है, हिंदी हलके में 1990 के दशक में जाकर दलित साहित्य अलग धारा के रूप में ट्रेंड करने लगता है। जबकि इस धारा को बिहार में उपस्थिति एवं गति प्रदान करने की सम्भावना तलाश करने की गरज से जो पहला बड़ा प्रयत्न और आयोजन होता है वह इस साहित्यांदोलन के मराठी में आकार लेने के दिनों में ही होता है। यह विस्मय करने वाली बात है। इस सम्बन्ध में ओबीसी से आने वाले प्रेमकुमार मणि वर्तमान दलित साहित्य की आलोचना रखते हुए यों बताते हैं- “मराठी में जब दलित साहित्य उभरा था, तभी मैंने दिनमान (1976), जनता (1978), जनयुग (1978) और फिलॉसफी एंड सोशल एक्शन (1980) में इस विषय पर विस्तार से लिखा था। पटना में 1975 के दिसम्बर में दलित साहित्य पर एक संगोष्ठी भी कराई थी, जिसमें बाबूराव बागुल, दया पवार, सतीश कालसेकर, अर्जुन डांगले जैसे नामचीन लेखक आये थे। मराठी सामाजिक नवजागरण की एक समृद्ध परंपरा है। सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में गाँधी-सावरकरवाद हावी था। इसी की छाया साहित्य पर भी पड़ रही थी। दलित लेखकों ने इसके मुकाबले फुले-अम्बेडकरवाद का झंडा बुलंद किया। मैंने इसे ही चिन्हित करने की कोशिश की थी। दुर्भाग्य से हिंदी में दलित साहित्य जाने-अनजाने अनुसूचित जाति साहित्य बन गया। केवल आत्मकथाएं लिखी गयीं, और यदि मुझे कहने दीजिये तो कहूंगा कि इनमे केवल ओमप्रकाश वाल्मीकि का जूठन और तुलसी राम का मुर्दहिया ही उल्लेखनीय है।” यहाँ एक बात चिन्हित करने योग्य है कि मणि बिहार क्षेत्र से किसी दलित लेखक के इस आयोजन में शिरकत करने का जिक्र नहीं करते। संभवत: इस समय तक क्षेत्र के दलित लेखक महाराष्ट्र क्षेत्र में चलने वाली दलित साहित्य की आंदोलनात्मक गतिविधियों से साफ़ अपरिचित थे।
आइये, अब बिहार क्षेत्र में दलित लेखकों की रचनात्मक उपस्थिति की ब्योरेबार पड़ताल रखते हैं। पटना में रहने वाले प्रसिद्ध अम्बेडकरवादी एवं बौद्ध, बुद्धशरण हंस (मूल नाम ‘दलित पासवान’) का नाम अग्रगण्य एवं विशेष उल्लेखनीय है। इस लेखे क्षेत्र से किसी दलित लेखक का पहला सबसे बड़ा काम उनका ही है। तनिक ऊहात्मक होकर कहें तो उनका लिखना-पढ़ना एक इंच भी अम्बेडकरवादी-मानवतावादी वसूलों से हटकर नहीं होता। 1942 में जन्मे बुद्धशरण की किताबें एवं रचनाएं सन 1960 के दशक से ही छपनी शुरू होती हैं। वे तब से अपनी किताबें एवं बुद्धिवादी नायकों-विचारकों एवं प्रसंगों पर छोटी-छोटी कम कीमत की पुस्तिकाएँ प्रायः खुद छापते और बेचते रहे हैं। बुद्धशरण हंस शानदार कथाकार हैं और समसायिक विषयों पर लिखने वाले मंजे बुद्धिवादी भी। दुखद है कि हिंदी साहित्य के मठाधीशों एवं सामान्य एवं विशिष्ट पाठकों के बीच वे लगभग अनजान से हैं। विडंबना यह भी कि दलित साहित्य में भी जो जगह और चर्चा उन्हें मिलनी चाहिए वह नहीं हो पाया है। उनके पाठक दलित बहुजन वर्ग से ही हैं, उसमें भी खासकर बौद्ध और अम्बेडकरवादी विचारधारा से जुड़े हुए लोग। जबकि सूरजपाल चौहान द्वारा संपादित ‘हिंदी दलित कथाकारों की प्रथम प्रकाशित कहानियां’ संकलन की गवाही लें तो वे सबसे पहले प्रकाशित होने वाले हिंदी दलित कथाकार हैं। (हालाँकि यह तमगा शायद बिहार के ही एक अन्य वयोवृद्ध दलित साहित्यिक दयानन्द बटोही को मिलना चाहिए, जिसका यथाप्रसंग आपको इस आलेख में जिक्र मिलेगा भी। यह भ्रम बटोही की कहानी यहाँ न छपने के चलते शायद बन रहा है।) 1978 में उनका कहानी संग्रह 'देव साक्षी है' छप चुका था। किसी हिंदी दलित कथाकार का यह भी पहला कहानी संग्रह होना चाहिए। उन्होंने अन्य दो कहानी संग्रह ‘को रक्षति वेदः’ एवं ‘तीन महाप्राणी’ के अलावा तीन दर्जन से अधिक वैचारिक पुस्तक-पुस्तिकाओं का लेखन भी किया है। उन्होंने अपने संस्मरणों को तीन खण्डों में ‘टुकड़े-टुकड़े आईना’ नाम से प्रकाशित कराया है जो छोटे छोटे स्वतंत्र आलेखों के रूप में हैं और रोचक छोटी कहानियों सा प्रभाव छोड़ते हैं। वे निरंतरता में 25 वर्षों से ‘अम्बेडकर मिशन पत्रिका’ नाम से मासिक पत्रिका भी निकालते हैं। यह दलित चेतना की वैचारिक पत्रिका है जिसमें साहित्य पर कम और ज्यादा जोर अम्बेडकरवादी विमर्श, प्रबोधन एवं प्रशिक्षण पर दिया जाता है। वर्णवादियों की आँखों में चुभने वाली इस पत्रिका के बोल्ड-बेबाक आलेखों को लेकर सम्पादक बुद्धशरण को कई बार कोर्ट में भी घसीटा गया। वे बिहार प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे और आइएएस में प्रोन्नति पाकर रिटायर हुए। उन्हें बिहार सरकार के मंत्रिमंडल सचिवालय (राजभाषा) विभाग का द्वितीय सर्वोच्च सम्मान ‘बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर सम्मान’ मिल चुका है।
सन 1965 में जन्मे विपिन बिहारी के रूप में बिहार को अबतक का भारत का सबसे अधिक अम्बेडकरवादी कथा साहित्य रचने वाला विलक्षण लेखक प्राप्त है। विपिन लगातार रचनारत रहने वाले प्रथम पीढ़ी के दलित कथाकार ठहरते हैं। नवीनतम ‘नदी के उस पार के लोग’ समेत उनके 11 कहानी संग्रह (जिनमें ढाई सौ से अधिक कहानियाँ हैं), 6 उपन्यास, एवं एक-एक लघुकथा संग्रह एवं काव्य संग्रह प्रकाशित हैं वहीं एक कहानी संकलन और काव्य संग्रह शीघ्र प्रकाश्य है। वे दलितेतर विषय पर कम ही लिखते हैं। उनकी कहानियाँ ‘हंस’ जैसी मुख्यधारा की पत्रिकाओं में भी छप चुकी हैं। कई कहानियां, कहानी संग्रह, उपन्यास व कविताएँ स्कूली एवं कौलेजिया पाठ्यक्रमों में लगी हैं और उनपर एमफिल एवं पीएचडी हेतु शोध भी किये जा रहे हैं। यदि उनके कथा साहित्य में शिल्प और रचाव के स्तर पर कुछ और पैनापन और बेधकता होती तो वे निश्चय ही दलित साहित्य के प्रेमचंद कहलाते। जो हो, उन्होंने जो प्रभूत लेखन किया है वह कम से कम दलित साहित्य में उन्हें एक महत्वशाली स्थान पाने का अधिकारी बनाता है।
बोकारो, झारखण्ड से आने वाले प्रह्लाद चंद्र दास बिहार क्षेत्र के एकमात्र लेखक हैं जो कथाकार के रूप में मुख्यधारा के हिंदी साहित्य के लिए भी जाना पहचाना नाम हैं। हालाँकि उनकी पहचान कथाकार मात्र के रूप में रही है, न कि दलित कथाकार के रूप में। कहा जाता है कि कहानीकार के रूप में वे राजेन्द्र यादव की खोज थे। ‘हंस’ में छपी और चर्चित हुई कहानी ‘लटकी हुई शर्त’ से वे साहित्य जगत में कभी सुर्ख़ियों में आए थे और इस महत्वपूर्ण पत्रिका के मंच से उनकी कई कहानियाँ छपी थीं। झारखण्ड के आदिवासियों, दलित-वंचितों, कल-कारखाने व कोलियरी से जुड़े श्रमिकों के विषम जीवन स्थितियों एवं गतियों को उन्होंने अपनी अनेक कहानियों का विषय बनाया है। अबतक उनके तीन कहानी संग्रह (पुटुस के फूल, पराये लोग एवं आग ही आग) प्रकाशित हैं। कई कहानियां अन्य भाषाओँ में अनूदित तथा विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में शामिल हैं। उन्होंने अपने कवि को अंडरटोन ही रखना मुनासिब समझा गो कि कविताई भी वे जबर्दस्त करते हैं। मैंने अपने संपादन में दो मौकों पर उनकी कुछ रचनाएँ छापी हैं। प्रह्लाद चन्द्र का जन्म वर्ष 1950 है और, फ़िलवक्त वे बोकारो स्टील प्लांट से ‘डीजीएम’ पद से सेवानिवृत्त हो रचना-सक्रिय जीवन बिता रहे हैं।
बोकारो में रहने वाले लेखक दम्पती दयानन्द बटोही (जन्म 1942) एवं कावेरी (जन्म 1951) दलित साहित्य में जाने-माने नाम हैं। उनका नाता बिहार से भी रहा है। बटोही बिहार, झारखंड के ही नहीं वरन भारत के ही प्रथम प्रकाशित हिंदी दलित कथाकार ठहरते हैं। बटोही ने अपनी सेलिब्रिटी कहानी ‘सुरंग’ के जरिये ख्याति प्राप्त की थी। यह कहानी देश के अनेक स्कूल, कॉलेज एवं विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में लगी है और इसपर कई शोध अध्ययन भी हुए हैं। बटोही की कहीं भी प्रथम प्रकाशित होने वाली रचना की बात करें तो वे पहली बार सन 1960 में एक पत्रिका में छपे थे। कहानी संग्रह (‘कफ़नखोर’, ‘सुबह से पहले’, एवं ‘सुरंग एवं अन्य कहानियां’, कविता संग्रह (‘यातना की ऑंखें’, ‘मथा दर्द’, तथा ‘बाबा साहब अम्बेडकर एवं अन्य कविताएँ’, आलोचना (साहित्य और सामाजिक क्रांति) तथा एक नाटक (नई पीढ़ी नये कर्णधार) प्रकाशित हैं। कावेरी की पहली रचना सन 1967 में छपी थी। कावेरी को प्रथम प्रकाशित स्त्री दलित उपन्यासकार एवं ‘टुकड़ा-टुकड़ा जीवन’ की मार्फत बिहार-झारखण्ड की पहली दलित स्त्री आत्मकथाकार होने का यश प्राप्त है। उनकी रचनाओं में उजली हंसी के छोर पर, नदी बहती रही, डा। बाबा साहब अम्बेडकर, राजा सलहेस (चारों काव्य संग्रह), द्रोणाचार्य एक नहीं, अभावों में पलता स्वाभिमान (कहानी संग्रह), मिस रमिया, शिखा (उपन्यास), डिप्टी कलक्टर का साला, चौहरमल-रेशमा (नाटक) शामिल हैं।
पटना में रहने वाले 54 वर्षीय परमानन्द राम प्रतिभाशाली कवि हैं और सतत रचनाशील हैं। उनकी प्रकाशित किताबें हैं- ‘एकलव्य’ एवं ‘जागृत कांता’ (दोनों खंड काव्य) तथा ‘अगला मुकाम मुहब्बत हो’ (ग़ज़ल संग्रह) व काव्य संग्रह ‘नैसर्गिकता अविराम’, जबकि ‘शब्द संशय से परे है’ कविता की प्रकाश्य किताब है। मिथकीय संस्कृत काव्य पुस्तक महाभारत के प्रसिद्ध दलित/आदिवासी पात्र एकलव्य पर एक पूरी काव्य पुस्तक का सृजन करना बताता है कि कवि का कंसर्न क्या और उनकी काव्य प्रतिभा कैसी है। मगर, विडम्बना देखिये कि इस कवि को लोग राष्ट्रीय स्तर पर क्या स्थानीय स्तर पर भी न के बराबर ही जानते हैं।
पटना में ही वास करने वाले रामेश्वर राकेश (उम्र 77 वर्ष) सन उन्नीस सौ सत्तर के दशक में ही ‘युगचेतना’ नाम से अम्बेडकर पर खंड काव्य लिखकर अपनी विकसित समाजचेतना का परिचय देते हैं। ‘संकल्प-पुरुष’ नाम से एक प्रबंध काव्य और नवगीत की पुस्तक ‘कुछ केतकी कुछ कनेर’ भी प्रकाशित हैं। कवि रामेश्वर बताते हैं कि एक दफा उनकी किसी पत्रिका में छपी रचनाओं से प्रभावित होकर कुछ पाठक उनको खोजते हुए उनके पास पहुंचे थे। आचार्य वल्लभ शास्त्री भी उनकी कविताओं के मुरीद रहे। सन 36 में जन्मे और बिहार प्रशासनिक सेवा में अधिकारी रहे रामचरित्र दास ‘अचल’ ने भी ‘ज्योति पुरुष अम्बेडकर’क नामक काव्य संग्रह एवं कबीर पर ‘विनय पुष्प’ नामक कविता की पुस्तक लिखकर अपनी बुद्धिवादी दृष्टि एवं वैज्ञानिक चेतना को प्रत्यक्ष किया है। वे अनुवादक भी हैं, कुछ अंग्रेजी पुस्तकों, आलेखों का हिंदी में अनुवाद किया है।
बिहार के गृह सचिव पद से अवकाश प्राप्त पूर्व आइएएस 78 वर्षीय जियालाल आर्य ने गद्य-पद्य की विभिन्न विधाओं में विपुल लेखन किया है। गीत, नवगीत, ग़ज़ल जैसी विधाओं में ज्यादा काव्य रचना की है। उनकी कृतियों में 4 काव्य संग्रह, 6 कथा संकलन एवं 5 उपन्यास शामिल हैं। अम्बेडकर सहित कई मिथकीय एवं ऐतिहासिक बहुजन नायकों पर भी उन्होंने कविताएँ, आलेख एवं जीवनी लिखी हैं। उन्हें भारत सरकार व बिहार सरकार समेत विभिन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं से अनेक पुरस्कार/सम्मान प्राप्त है तथा वे 20 से अधिक सरकारी, गैर सरकारी लोकोपयोगी एवं साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं के संस्थापक, अध्यक्ष व न्यासी भी रहे हैं। पटना के रहवासी बन चुके आर्य की जन्मभूमि जहाँ उत्तरप्रदेश है वहीं कर्मभूमि बिहार।
वीरचन्द्र दास बहलोलपुरी वैशाली क्षेत्र के गाँव-देहात में रहकर भी एक सजग अम्बेडकरी लेखक के बतौर हमारे सामने आते हैं। उनकी छोटी छोटी कहानियाँ मुझे काफी प्रभावित करती हैं। उनके ख्यात राजनेता लालू प्रसाद पर ‘लालू नियरे राखिए’ नाम से व्यंग्य दोहा संग्रह (काव्य) तथा एक कहानी संग्रह ‘धृतराष्ट्र की ऑंखें’ (जिसमें एकांकी ‘प्रत्यावर्तन’ एवं ‘टोपीवाला’ तथा 4 आलेख शामिल हैं) प्रकाशित हैं। उनकी कई कहानियाँ ‘बेला’ (आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री द्वारा मुजफ्फरपुर से सम्पादित-प्रकाशित) एवं ‘अम्बेडकर मिशन पत्रिका’ (बुद्धशरण हंस, पटना द्वारा सम्पादित) में भी छपती रही हैं।
80 के पड़ाव पर पहुंचा चाहते बाबूलाल मधुकर मूलतः हिंदी की उपभाषा मगही में लिखते हैं। उनका मगही में बहुप्रशंसित उपन्यास ‘रमरतिया’ सन 1966 में प्रकाशित है, जबकि इधर, 2017 में प्रकाशित उनका हिंदी काव्य संग्रह ‘मसीहा मुस्कुराता है’ बिहार क्षेत्र में चर्चे में है। 2018 में ‘नंदलाल की औपन्यासिक जीवनी’ नाम से दो खंडों में उनकी आत्मकथा प्रकाशित हुई है। हालाँकि यह पुस्तक साहित्य में मील का पत्थर साबित हो सकती थी, अगर हड़बड़ी में नहीं लिखी जाती। पुस्तक लगभग अपठनीय एवं भौंडे सेक्स प्रसंग से अटी पड़ी है। बाबूलाल साहित्य कोटे से बिहार विधान परिषद् के सदस्य रहे हैं और 1974 के जेपी आन्दोलन के दौरान ‘मैला आँचल’ के साहित्याकर फणीश्वरनाथ रेणु के सान्निध्य में रहे तथा बाबा नागार्जुन एवं राम प्रिय मिश्र ‘लालधुंआ’ आदि मशहूर बिहारी कवियों के साथ पटना की सड़क, नुक्कड़ एवं चौक-चौराहों पर अपनी आन्दोलनधर्मी कविताओं का ओजस्वी पाठ किया, जेल भी गये। कवि को बिहार सरकार का ग्रियर्सन सम्मान एवं कई अन्य सरकारों, संस्थाओं से सम्मान/पुरस्कार प्राप्त हैं।
पूर्णिया वासी 80 पार के देवनारायण पासवान ‘देव’ साहित्य की कविता, कहानी, नाटक जैसी प्रमुख विधाओं में प्रभावी हस्तक्षेप रखते हैं। उनकी कुछ कहानियां ‘कथादेश’ आदि मुख्यधारा की श्रेष्ठ पत्रिकाओं में भी छप चुकी हैं। ‘सत्यनारायण कथा’ उनकी चर्चित कहानी है। उनकी प्रकाशित किताबों में कविता संग्रह ‘संघर्ष आज भी जारी है’, कहानी संकलन ‘सत्यनारायण कथा’, ‘आखिरी नमाज’ एवं ‘यही बाक़ी निशां होगा’, नाटक ‘विजेता कौन’ व ‘मस्जिद में हुई अजान’ शामिल हैं।
पटना में रहने वालीं रंजु राही का ‘क्षितिज के उस पार’ नाम से एक काव्य संग्रह प्रकाशित है। दलित स्त्री कवियों के लिहाज से बिहार क्षेत्र से उनकी सी सक्रियता और धार वाली रचनाकारों का टोटा है। वे दलित-स्त्री मुद्दों पर सोशल एक्टिविज्म में भी काफी सक्रिय रहती हैं।
1984 में जन्मे कर्मानन्द आर्य उत्तरप्रदेश मूल के हैं और तकरीबन छह-सात सालों से उनका कर्मक्षेत्र बिहार है। दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्ववविद्यालय, गया में हिंदी के सहायक प्राध्यापक कर्मानंद अकूत रचनात्मक प्रतिभा के हैं। खासकर, उनकी काव्य प्रतिभा की गवाही में उनके दोनों काव्य संग्रह ‘अयोध्या और मगहर के बीच’ तथा ‘डरी हुई चिड़िया का मुकदमा’ का अवलोकन किया जा सकता है। उनके गद्य लेखन के सरोकार भी दिन-ब-दिन घने होते जा रहे हैं। अबतक उन्होंने हिंदी भाषा और साहित्य की दो दर्जन से अधिक पुस्तकों के लिए उन्होंने अध्याय लेखन किया है। विभिन्न विमर्शपरक अस्मितामूलक संगोष्ठियों, सेमिनारों में वे विशेषज्ञ वक्ता के रूप में सहभाग करते हैं। आपके सम्पादन में आलोचना की एक सामूहिक पुस्तक ‘अस्मितामूलक साहित्य का सौंदर्यशास्त्र’ प्रकाशित है। बिभाश कुमार (जन्म वर्ष 1978) एवं नागेन्द्र प्रसाद (जन्मतिथि 1983) एक ही कोख से जनमे युवा कवि हैं, मगर, जबरदस्त। प्राथमिक गवाह हैं इन दोनों की स्वरचित कविताओं से जुड़ीं फेसबुक पोस्ट। बिभाश का पहला काव्य संग्रह ‘खामोश बहती धाराएं’ नाम से जल्द ही प्रकाशन संस्थान से आ रहा है। बिभाश अभी बिहार पुलिस सेवा में डीएसपी हैं जबकि नागेन्द्र पिछले ही वर्ष ही बिहार वित्त सेवा में ‘सहायक आयुक्त, राज्य कर’ पद पर नियुक्त हुए हैं। बिपिन बिहारी टाईगर संभावनाओं से भरे पूरे ताजा कवि हैं। गद्य के क्षेत्र में भी काम कर रहे हैं। गद्य क्षेत्रे उन्होंने एक ‘डुबियस डिस्टिंक्शन’ सरीखा काम भी किया है, 8 लोगों के साथ मिलकर कथित तौर पर एक साँझा उपन्यास का लेखक बनकर! ऐसी लोकप्रियता पाने की हड़बड़ी से बचना होगा यदि वृहतर कॉज के लिए काम करना है।
अन्य उल्लेखनीय रचनाकारों में अजय यतीश धारदार कवि-कथाकार हैं जो चर्चित दलित साहित्य भी हैं। इनकी कविता एवं कहानी दोनों विधाओं में किताबें प्रतीक्षित हैं। भारतीय रिजर्व बैंक में उच्चाधिकारी रहे आर पी घायल पटना में रहते हैं। दमदार ग़ज़लकार हैं, राष्ट्रीय स्तर पर नामचीन शायरों के साथ भी मंच शेयर किया है। दलित मुद्दों पर कम लिखते हैं। पूर्णिया जिले से आने वाले कीर्त्यानन्द कलाधर मजबूत कला-शिल्प के कवि रहे हैं (हाल ही में मृत्यु), मगर, दलित मुद्दों पर इनकी कलम भी ठिठकी ही चली है अबतक, जबकि उभरते कवि जयप्रकाश फाकिर की काव्य प्रतिभा अद्भुत है। दलित-वंचित एवं प्रेम, अनुराग-विरह आदि प्रसंगों में वे अछूते लोकेशन से कथ्य और बिम्ब पकड़ते हैं। उर्दू-फ़ारसी शब्दों का निवेश इनके यहाँ बेसी मिलता है। शब्द-शिल्पी तो ये हैं ही, शब्दों के बाजीगर भी! रमाशंकर आर्य बिहार क्षेत्र से आत्मकथा लिखने वाले पहले दलित लेखक हैं। पुस्तक ‘घुटन’ नाम से है। दर्शनशास्त्र के प्रोफ़ेसर रमाशंकर आर्य बिहार सरकार के एक विश्वविद्यालय के वीसी रह चुके हैं और वर्तमान में विख्यात पटना कॉलेज के प्राचार्य हैं। इस क्रम में, ध्यान पाने योग्य दलितवंशी लेखकों में विनोद कुमार चौधरी, रामेश्वर प्रसाद, अरविन्द पासवान, ऋचा, सविता कुमारी, हुबलाल राम ‘अलकहा’, सौरभ आर्य, लायची हरि राही, उमेश कुमार, देशदीपक दुसाध, संजीवन कुमार मल्लिक, भीमशरण हंस, दिलीप कुमार राम, कृष्ण चन्द्र चौधरी, कपिलेश प्रसाद, सत्यदेव, झौली पासवान, रामउचित पासवान, जगदीश प्रसाद राय, गंगा प्रसाद, रामलषण राम ‘रमण’, बुचरू पासवान, महेन्द्र नारायण राम, चंद्रभूषण चन्द्र आदि रचनाकारों के नाम भी लिए जाने चाहिये।
मेरा पर्यवेक्षण है कि बिहार क्षेत्र के इन ‘अज्ञातकुलशील’ दलित लेखकों (आप मुझे भी इसमें ही शामिल कर सकते हैं!) को यदि प्रकाशित होने का सम्यक मौका और मंच मिले तो बिहार से हिंदी साहित्य में उनकी एवं दलित साहित्य की उर्वर एवं प्रभावी उपस्थिति दर्ज़ हो सकती है। यहाँ ध्यान देने योग्य है कि एक तो दलित वर्ग के लेखकों को मुख्यधारा के साहित्य में स्वीकार्यता मिलना कठिन है, दूसरे कि स्वीकार्यता, प्रोत्साहन एवं मंच के अभाव में भी उनकी रचनात्मकता ठिठकी रह जाती है, मारी जाती है। नतीजा, अधिकतर दलित लेखक देर से लिखना शुरू करते हैं। वैसे, एक-डेढ़ दशक से प्रयोग में आया सोशल मीडिया एवं उसके फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग, वेबसाईट, स्मार्टफोन, लैपटॉप, कंप्यूटर जैसे एजेंट और उपादान दलितों की रचनात्मक भूख एवं प्रेरणा को हवा और हौसला देने में ‘वरदान’ की तरह काम आ रहे हैं। आप देखेंगे कि विष्णु नागर, आलोकधन्वा, उदयप्रकाश, अशोक वाजपेयी, चंद्रकिशोर जायसवाल, अवधेश प्रीत, हृषीकेश सुलभ, मदन कश्यप, कर्मेंदु शिशिर जैसे वरिष्ठ और साठ की उम्र के पार के नामचीन दलितेतर हिंदी लेखक ही नहीं बल्कि कँवल भारती, मोहनदास नैमिशराय, श्योराज सिंह बेचैन, अजय नावरिया, मलखान सिंह, कैलाश वानखेड़े, असंगघोष जैसे बड़े दलित लेखक भी फेसबुक, ब्लॉग आदि पर सक्रिय हैं, युवा लेखकों-पाठकों की उपस्थिति तो खैर, विपुल है ही। सोशल मीडिया ने हिंदी साहित्य के दलित हिस्से को बेशक, नई जमीन दी है। कुछ युवा कवि-लेखक तो फेसबुक के माध्यम से ही सामने आ रहे हैं। फेसबुक ऐसा मंच है जहाँ अपनी रचनाओं को प्रस्तुत कर एक अदना सा अथवा अज्ञातकुलशील भी किसी आसरा का मोहताज नहीं रह जाता। अनेक अच्छे व चर्चित रचनाकार तो सोशल मीडिया की ही देन हैं। ब्लॉग भी एक ऐसा ही मगर अधिक सुनियोजित विस्तृत स्पेस वाला मंच है। इन मंचों पर पाठक भी तैयार मिलते हैं और इन पर लगाई गयीं रचनाओं पर उनकी त्वरित प्रतिक्रियाएं एवं समीक्षाएं भी मिल जाती हैं, बहस-बात भी हो जाती है। कई बार अखबार और पत्रिकाएँ फेसबुक और ब्लॉग-वेबसाईट से उठाकर भी रचनाएँ प्रकाशित कर देते हैं। अब तो विभिन्न लोगों की फेसबुक पर उपलब्ध रचनाओं में से चुनकर भी सामूहिक काव्य संकलन, कहानी संग्रह, आलेख संग्रह तैयार होने लगे हैं।
अब, आलेख के अंत में यह बखेड़ा उत्खनन! आजकल एक ट्रेंड चला है, दलितों, आदिवासियों एवं स्त्रियों के स्वानुभव वाले विशिष्ट अथवा अलग लेखन धारा को अस्मितावादी साहित्य कहा जाता है। नए में ‘ओबीसी/बहुजन साहित्य’ नाम से एंट्री मारने की भी एक असफल कोशिश बिहार के कुछ पिछड़े बांकुरों के द्वारा हुई थी। इस क्रम में इनकी डाह और आक्रमण का केंद्र बना था दलित साहित्य। शिवपूजन सहाय की ‘कहानी का प्लॉट’ कहानी का यह सार्वजनीन कथन यहाँ बरबस याद आता है- ‘गरीबी की कब्र पर उगी हुई घास बड़ी जहरीली होती है’! यह गरीब दलित साहित्य की कब्र खोद जहरीली साहित्य-घास उगाने की कोशिश ही थी! मंच था 'फॉरवर्ड प्रेस'। पत्रिका के जुलाई 2011 अंक में सर्वप्रथम 'ओबीसी साहित्य की अवधारणा' जन्माने की यह कोशिश की एक ही जाति के तीन बुद्धिजिवियों ने मिलकर। जिस जाति के मालिक की पत्रिका, उसी का बिहारी सम्पादक और सम्पादक ने ओबीसी साहित्य की धारणा पैदा करने वाला बिहारी मेंटोर भी स्वजाति का ही ढूँढ़ निकाला! इस मण्डली ने ‘शुद्ध’ सवर्णों के भी कान काटे, यह कहकर कि दलित साहित्य अनुसूचित जाति साहित्य है, जैसे कि जबरन जनमाया जा रहा ओबीसी साहित्य कोई दिव्य-अनालोच्य धारणा बनने आया था! इस मेंटोर से फॉरवर्ड प्रेस वालों ने पत्रिका के लगभग सारे अंकों में कुछ न कुछ लिखवाया। लेकिन पता नहीं क्यों पत्रिका के अम्बेडकर विशेषांक दिसंबर 2015 में उन्होंने कुछ नहीं लिखा। यह भी कि फॉरवर्ड प्रेस पत्रिका का अंतिम बहुजन साहित्य वार्षिकी मई 2016 में आया और अंतिम प्रिंट अंक जून 2016, दोनों अंकों में मुझे लिखने का आमंत्रण भी पत्रिका के प्रबंध संपादक प्रमोद रंजन से मिला पर दोनों अंक के लिए भेजे गए मेरे आलेख केवल इसलिए नहीं छापे गए कि उनमें ओबीसी साहित्य की धारणा की मैंने आलोचना एवं मुखालफत की थी। कथाकार, विचारक एवं राजनेता प्रेमकुमार मणि ने नया साहित्य जन्माने की इस कोशिश को ‘बासी भात में खुदा का साझा’ नाम देते हुए इन बांकुरों को हड़काया था। कहा था- “हिंदी के कुछ ओबीसी प्रोफ़ेसर दलित साहित्य की पैरोडी पर ओबीसी साहित्य की दुकान खोल रहे हैं। जरा सोचिये, इसमें ओबीसी तो है, लेकिन कुछ साहित्य भी है क्या? मुझे एक मुहावरा याद आ रहा है - बासी भात में खुदा का साझा”। और, मणि ही नहीं राजेन्द्र यादव, चौथीराम यादव, वीरेंद्र यादव, उर्मिलेश जैसे नामीगिरामी ओबीसी/पिछड़े वर्ग से आने वाले लेखकों-विचारकों का साथ पाने की संभावना तलाशी, इन सारे लोगों ने इन्हें डांट पिलाई थी, इनके एजेंडे को धरातल पर न उतरने लायक, अव्यवहारिक बताया था। किन्हीं का समर्थन न पाने और पुरकुव्वत गॉड फादर न तलाश पाने के कारण बिना तैयारी व माल के नव साहित्य रचने का मंसूबा बांधे ये बौद्धिक-व्यापारी निराश-हताश और खाली हाथ रह गये थे!