पितृसत्तात्मक ब्राह्मणवादी समाज में पढ़ना और लिखना, तथा लिख-पढ़ कर रचना (साहित्य-लेखन), इन क्षेत्रों में सवर्ण पुरुषों का ही घोषित विशेषाधिकार रहा है। जब इस आरक्षित क्षेत्र में दलितों और स्त्रियों ने प्रवेश करना चाहा तो स्थापित स्वनामधन्य साहित्यकारों की ओर से यह प्रश्न आया कि स्त्रियों और दलितों पर पहले ही से लिखा जाता रहा है और दूसरा कि इन नए-नए लेखनी चलाने वालों की लिखंत में ऐसी क्या ख़ास बात है कि उसे साहित्य और इन्हें साहित्यकार की संज्ञा दी जा सके? इस प्रश्न के जवाब में दलितों और स्त्री साहित्यकारों ने यह कहा कि हमारे द्वारा लिखा गया साहित्य स्वानुभूति का साहित्य है और आपके द्वारा लिखा गया साहित्य सहानूभूति का साहित्य है इसलिए हमारे द्वारा लिखा साहित्य आपके द्वारा लिखे साहित्य से भिन्न है और क्योंकि अनुभूति की प्रमाणिकता का परचम हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में पहले ही फहराया जा चुका था इसलिए सीधे-सीधे इस तर्क को ख़ारिज करना मुमकिन नहीं था। इस प्रकार ‘सहानुभूति बनाम स्वानुभूति’ नामक संकल्पना हिन्दी साहित्य में दलित तथा स्त्री साहित्य की देन मानी जा सकती है।
‘धूमिल’ की प्रसिद्ध पंक्ति है “लोहे का स्वाद लुहार से क्या पूछते हो, उससे पूछो जिसके मुँह में लगाम है।“ साहित्य के क्षेत्र में प्रचलित इन संकल्पनाओं को इस पंक्ति द्वारा बख़ूबी समझा जा सकता है। लुहार लोहे का काम करता है, लोहे की प्रकृति उसके गुण-दोषों से वाक़िफ़ है, उसके हाथ पैर दिन रात लोहे की कठोरता का अनुभव करते हैं इसके बावजूद लोहे का उसका अनुभव, घोड़े के लोहे के अनुभव से पूरी तरह भिन्न है। लोहा घोड़े की नाक में बिंधा रहता है जहाँ वह उसके मुँह और नाक में ताउम्र बना रहता है। न केवल बना रहता है बल्कि वही उसकी दशा और दिशा तय करता है। नकेल को खींच कर फिर उससे जो चाहे कराया जाता है। लुहार के लिए लोहे के विभिन्न रूप हो सकते हैं पर घोड़े के लिए उसका एक ही मतलब है– लगातार दुखना और टीसना। इस दुख और टीस को वह देखता नहीं भोगता है। उसे न तो वह निगल पाता है न उगल पाता है। इस प्रकार स्वानुभूति का तर्क अनुभूति की विशिष्टता, प्रखरता और प्रमाणिकता पर टिका हुआ है।
जल्दी ही साहित्य के क्षेत्र में दलित और स्त्री साहित्य का परचम लहराने लगा। जहाँ एक ओर दलित साहित्यकार स्वानुभूति की तलवार से, सहानुभूति के आधार पर (दलितों और स्त्रियों पर लिख चुके) स्थापित सवर्ण लेखकों को काटने लगे वहाँ दूसरी ओर सवर्ण रचनाकार भी दलित साहित्य की बढ़ती माँग से दलित साहित्यकार बनने को उतारू हो गए। "हम क्यों नहीं लिख सकते, यदि गाय पर लिखने के लिए गाय बनना पड़े और गधे पर लिखने के लिए गधा बनना पड़े तो फिर लेखक की सत्ता ही क्या रही?” सहानुभूति के तर्क को फिर से तराशा जाने लगा, उसे काव्य निर्माण से लेकर काव्यानुभूति (रसानुभूति) की प्रक्रिया तक स्थापित किया गया। “किसी कलाकृति में व्यक्त अनुभूति की गहराई और व्यापकता का स्वरूप उसमें निहित व्यापक मानवीय सहानुभूति के अनुरूप ही निर्मित होता है। रचना में रचनाकार की सहानुभूति की दिशा, गति और शक्ति के अनुरूप ही उसकी महत्ता निर्धारित होनी चाहिए।”...... “रसबोध में भावानुभूति का साधारणीकरण सहानुभूति के कारण ही संभव होता है।“- मैनेजर पाण्डेय। इसके बाद तो इन दोनों संकल्पनाओं को लेकर युद्ध की स्थिति पैदा हो गई। यद्यपि सहानुभूति को और अधिक स्पष्ट करते हुए प्रो. मैनेजर पाण्डेय कहते हैं - “जनता की भावनाओं से सच्ची सहानुभूति स्थापित करने के लिए कवि का जन-जीवन के अनुभवों से गुज़रना ज़रूरी है।“... वे आगे लिखते हैं कि “शोषित से सहानुभूति का अर्थ उसकी दयनीयता का चित्रण नहीं बल्कि उसकी विद्रोह भावना, संघर्षशीलता तथा कर्म चेतना को शक्ति प्रदान करना है।“
सहानुभूति के संदर्भ में उपर्युक्त दोनों बातें हमारे बड़े काम की हैं। सच्ची सहानुभूति के निर्माण में जन-जीवन के अनुभवों से गुज़रने वाली शर्त दलितों तथा स्त्रियों के संदर्भ में ग़ैर दलितों / पुरुषों के लिए अनुलंघनीय दीवार बन जाती है क्योंकि दलित जीवन के अनुभव दलित होकर ही पाए जा सकते हैं और स्त्री जीवन के अनुभव स्त्री होकर ही जाने जा सकते हैं। जैसा कि ‘मार्क्सवादी साहित्य का सौंदर्य पक्ष एक प्रत्युत्तर‘ में मुक्तिबोध लिखते हैं कि "हिन्दी साहित्य में, पेशेवर साहित्यकारों के कारण जीवन का वैविध्य प्रकट नहीं हो पाता, ज़िन्दगी के असली तजुर्बे नहीं आ पाते, और वे जीवन- मूल्य स्थापित नहीं हो पाते जिनके लिए साधारण व्यक्ति संघर्ष करता है। साहित्य में जीवन के ज्वलंत प्रतिबिम्ब अपनी सम्पूर्ण निष्कलुषता के साथ उतर नहीं पाते। पेशेवर साहित्यकारों में जो ‘साहित्यिक योग्यता’ है, यदि वह सचमुच योग्यता होती तो देश का कल्याण हो जाता।" यह सही है कि साहित्य रचना में प्रतिभा का बहुत बड़ा स्थान होता है किन्तु वास्तविक प्रतिभावान कौन कहाँ तक है इसका निर्णय तो महान उपलब्धियों के पूर्व नहीं पश्चात होता है। "क्या इसके लिए आवश्यक नहीं है कि हम सभी को लिखने दे, ऐसों को भी जो पेशेवर साहित्यकार नहीं है।" इसके बावजूद बराबर पेशेवर साहित्यकारों की ओर से यह बयान आता रहता है कि साहित्यकार सामान्य मनुष्य से ऊपर एक संवेदनशील प्राणी होता है और उसके द्वारा लिखा साहित्य जीवन और जगत के प्रति रागात्मक और वैचारिक प्रतिक्रिया का परिणाम है ऐसे में साहित्य और साहित्यकारों की बिरादरी को ‘सवर्ण और दलित’ तथा ‘स्त्री और पुरुष’ के दायरों में बाँटना और बाँधना एक अनैतिक कार्य है। पहली नज़र में यह तर्क बड़ा पाक-साफ़ लगता है। ऐसे में प्राय: रचनाकार की संवेदनशीलता, जीवन-जगत के प्रति उसकी वैचारिक प्रतिक्रिया किसी भी शक-शुबह से तथा प्रश्नाकुलता से परे की चीज़ मान ली जाती है जैसे रचनाकार की रचनाशीलता इत्यादि देशकाल सापेक्ष ना होकर शुद्ध- प्रबुद्ध आत्मा की तरह संसार, समाज, धर्म, राजनीति तथा जातीय परम्परा से अनाहत और अनछुई हो, जबकि ऐसा है नहीं। हम सभी जानते हैं कि रचना और रचनाकार दोनों इसी समाज और संसार में उसकी धर्म-राजनीति और जातीय परम्पराओं के भीतर सायास और अनायास दोनों रूप से गढ़े जाते हैं। कुछ साहित्यकार सायास तरीके से इस गढ़न्त को तोड़ने की कोशिश करते हैं और कुछ सायास और अनायास रूप से इस गढ़न्त को मज़बूत करने की कोशिश करते हैं। अत: रचनाकार की संवेदनशीलता और जीवन-जगत के प्रति उसकी रागात्मकता तथा वैचारिक प्रतिक्रिया सभी प्रश्नों के दायरे में हैं, आलोचना के घेरे में हैं।
प्रो. मैनेजर पाण्डेय की बात का दूसरा पक्ष कि "शोषित से सहानुभूति का अर्थ उसकी दयनीयता का चित्रण नहीं बल्कि उसकी विद्रोह भावना, संघर्षशीलता तथा कर्म चेतना को शक्ति प्रदान करना है।" सहानुभूति के इसी अर्थ को आधार बनाकर यदि ग़ैर-दलितों के तथा पुरुष लेखकों के स्त्री लेखन को टटोला जाए तो वहाँ दयनीयता और करुणा की ही प्रधानता दिखाई देगी, विद्रोह भावना, संघर्षशीलता तथा कर्म चेतना को शक्ति प्रदान करने के मौके या दृश्य कम या न के बराबर दिखाई देंगे। ग़ैर-दलितों के साहित्य में दलितों की जीवन- स्थितियों, उनकी मानसिक बुनावट के संदर्भ में तो अप्रमाणिकता दिखाई ही देती है साथ ही यह साहित्य करुणा, दया, परदुखकातरता से परिचालित होने के कारण दलितों में निरीहिता, अकिंचनताबोध तथा आत्मदया की स्थिति पैदा करता है। प्राय: वे किंकर्तव्यविमूढ़ से दिखाई देते है जो अपने दुखों के निवारण के लिए किसी अवतार (ज़रूरी नहीं की भगवान ही हो) का इंतज़ार करते दिखाई देते हैं। यहाँ बदलाव की बागडोर प्राय: उनके हाथों में नहीं होती और यदि होती भी है तो वे अन्याय की उन स्थितियों (जाति तथा वर्णव्यवस्था) से लड़ते दिखाई नहीं देते जिनसे वे पीड़ित हैं (रंगभूमि का सूरदास ) ऐसे में दलितों में वह आत्मविश्वास पैदा नहीं हो पाता जो उनमें परिवर्तन व क्रान्ति के बीज बो सके, उसका नेतृत्व कर सके। साथ ही सवर्ण भी ‘च...च...च...’ की स्थिति से आगे नहीं बढ़ पाते, यदि बढ़ भी जाए तो वे दलितों के हुजूम को अपने पीछे ही चलते देखना चाहते हैं अपने साथ, अपने बराबर नहीं।
जब दलित और स्त्री अपने जीवनानुभवों पर स्वयं लिखते हैं तो न केवल उनके जीवन की उन स्थितियों से पर्दा उठता है जो अभी मुख्यधार की दृष्टि से ओझल था बल्कि उन सच्चाइयों को देखने का नज़रिया, उनकी अभिव्यक्ति की भाषा तक बदल जाती है। ख़ुद के घावों को ख़ुद देखना, उन घावों को दिये जाने की परम्परा और व्यवस्था को परत-दर-परत उधेड़ना, उनके भीतर जो आत्मविश्वास पैदा करता है वह आत्मविश्वास पुरुष सत्तात्मक ब्राह्मणवादी व्यवस्था को बदलने के लिए आवश्यक है। परन्तु यहीं यह भी साफ़ कर देना ज़रूरी है कि ख़ुद के घावों को देखते-पहचानते हम उन्हें सहलाने व पालने न लगें। दर्द को सहते-सहते वह हमारे लिए दवा न बन जाए। स्थितियाँ पिछले पचास-साठ सालों में काफ़ी बदली हैं। कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि पुरुषासत्तात्मक ब्राह्मणवादी व्यवस्था समाप्त हो गई है या समाप्ति के कगार पर है, कहने का तात्पर्य यह है कि अब यह व्यवस्था बदल गई है, वह अपने अगले दौर में है। अब शोषक और शोषितों के संबंध ज़्यादा जटिल हो गए हैं। अब उन्हें पूरी तरह पुराने रूपों में नहीं पहचाना जा सकता। जाति व लिंग के आधार पर शोषण व भेदभाव का तन्त्र अब मुखर व स्थूल न होकर महीन और प्रच्छन्न है। घृणा ने ईर्ष्या का रूप धारण कर लिया है तो दया और करुणा ने प्रतिद्वन्द्विता का रूप ले लिया है। अब समय आत्मदया दिखाने का नहीं, स्वयं को साबित करने का है। ये बदलती हुई स्वाभाविक स्थितियाँ हैं जो दलित व स्त्री साहित्य में दिखाई तो देने लगी हैं पर क्योंकि आलोचकों का ध्यान इस ओर नहीं गया है इसलिए वे अभी अनदेखी ही हैं। इसके अतिरिक्त भारत जो कि एक महाद्विपीय देश है उसके सभी प्रांतों, गाँवों, मोहल्लों, कुलों-क़बीलों, शहरों-महानगरों तथा जाति-उपजातियों के बीच ब्राह्मणवादी पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था का स्वरूप एक जैसा नहीं है। उनमें गुणात्मक और मात्रात्मक भेद है, उन सभी को साहित्य में स्थान मिलना चाहिए। इस समय भारतीय समाज जातीय और लैंगिक आधार पर संक्रमण और बदलाव की प्रक्रिया से गुज़र रहा है जिसमें ध्रुवीय सत्ताएँ एक दूसरे के पास आती, टकराती एक दूसरे के गुण-दोषों से प्रभावित हो रही हैं, उन्हें धारण भी कर रही हैं यद्यपि यह भी परिवर्तन की स्वाभाविक प्रक्रिया है फिर भी दलित एवं स्त्री साहित्य से ये स्थितियाँ ग़ायब हैं, यदि ग़ैर दलित या पुरुष इन स्थितियों की बात करे तो उन्हॆं ख़ारिज करने से पहले उन पर चिन्तन होना चाहिए।
आजकल दलित साहित्यकारों द्वारा स्वानुभूति के तर्क से उन साहित्यकारों को ख़ारिज करने का काम ज़ोरों से चल रहा है जिन्होंने दलितों व स्त्रियों और उनकी जीवन स्थितियों को साहित्य में स्थान देने की कोशिश की। इनका पुनर्मुल्याकंन करते हुए वे उनके प्रयासों को शून्य कर देने में ही अपनी प्रतिभा का क्षरण कर रहे हैं। जबकि बहस और अध्ययन का मुख्य मुद्दा यह होना चाहिए कि ब्राह्मणवादी पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था से लड़ने में दलितों और ग़ैर-दलितों के प्रयासों में कहाँ और कैसा अन्तर है। उदाहरण के लिए प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्यास “गोदान” के बहुप्रसिद्ध मातादीन प्रसंग को लिया जा सकता है जिसमें मातादीन (पंडित) द्वारा चमार कन्या सिलिया के शारीरिक, भावात्मक, यौन शोषण के कारण चमार मिलकर मातादीन ने मुँह में हड्डी ठूँस कर उसका धर्म, उसका ब्राह्मणत्व नष्ट कर देते हैं। यह ग़ैर-दलितों द्वारा लिखे गए प्रसंगों में से वह चुनिन्दा प्रसंग है जहाँ दलित अपने सम्मान के लिए संघर्ष करते दिखाई देते हैं। उपन्यास में यह प्रसंग मुश्किल से दो-तीन पृष्ठ ही घेर पाता है पर इस प्रसंग का ऐतिहासिक महत्व है। यह शोध का विषय है कि प्रेमचंद के समय इस प्रकार की घटनाएँ समाज में घटती रहती थी या घटने लगी थी या यह उनकी दूरदृष्टि का परिणाम है। यदि उस समय इस प्रकार दलितों के अपने सम्मान की रक्षा हेतु संघर्ष करने की घटनाएँ होती रहती थीं तो यह दलितों में संघर्ष की परंपरा की मौजूदगी का उदाहरण है। बहरहाल यहाँ देखने वाली बात यह है कि स्वयं प्रेमचंद इस तरह की घटनाओं के प्रति क्या सोचते थे। उपन्यास का केन्द्रीय पात्र होरी अपनी पत्नी धनिया (अच्छा किया हरखू चौधरी ने, ऐसे गुण्डों की यही सज़ा है।) के समर्थन के बावजूद चमारों की इस हरकत को ठीक नहीं मानता। ( “...सिलिया के घरवालों ने मतई को बेधर्म कर दिया, यह कोई अच्छा काम नहीं किया।...”) यहाँ होरी के मत को जाने भी दें तो भी इस घटना या प्रसंग पर सिलिया की प्रतिक्रिया को अनदेखा नहीं किया जा सकता। जैसा कि विदित है कि प्राय: सभी रचनाएँ स्वत: स्फूर्त नहीं होती, (कम से कम उपन्यास तो नहीं) उसके गढ़े जाने- बुने जाने के पीछे लेखक की विचारधारा, उसकी पक्षधरता तथा उसकी मान्यताएँ काम करती हैं जिन्हें पुष्ट करने के लिए वह अपनी रचनाओं में घटनाओं का चुनाव तथा उनके प्रति पात्रों के मानसिक जगत की रचना करता है। ठीक जैसे यहाँ प्रेमचंद ने तत्कालीन समय में (1930-1935) डॉ. अम्बेडकर के बढ़ते प्रभाव और महात्मा गाँधी को उनसे मिल रही कड़ी टक्कर (गोलमेज़ सम्मेलन और पूना पैक्ट) से वे दलितों के बढ़ते आक्रोश, स्वाभिमान की चुनौती को साफ़ देख पा रहे थे और भारतीय समाज से जाति व्यवस्था, छूआछूत के निपटारे को लेकर वे डॉ.अम्बेडकर के ‘संगठित होकर संघर्ष करो’ के मन्त्र की अपेक्षा महात्मा गाँधी के हृदय परिवर्तन के सिद्धान्त पर ज़्यादा विश्वास करते थे इसी कारण गोदान में यह प्रसंग न केवल रखा गया बल्कि वह जिस दिशा में आगे बढ़ता और अपने चरम को प्राप्त होता है उसका निर्धारण भी प्रेमचंद के इसी विश्वास के आधार पर होता है। उपन्यास में इस विश्वास की बागडोर को दलित सिलिया को थमाया गया है जो लेखकीय प्रेरणा से अपने शारीरिक, भावात्मक यौन शोषण के विरुद्ध न तो कोई आवाज़ उठाती है बल्कि जब-जब उसकी बिरादरी इकट्ठा होकर उसके ख़िलाफ़ हो रहे अत्याचारों का बदला मातादीन का धर्म भ्रष्ट करके लेती है (वही धर्म जो दलितों के शोषण को वैधता प्रदान करता है।) तो वह अपनी ही बिरादरी, अपने ही माँ बाप के ख़िलाफ़ हो जाती है। “... मेरे पीछे पण्डित को भी भिरस्ट कर दिया। उसका धरम लेकर तुम्हें क्या मिला? अब तो वह भी मुझे न पूछेगा। लेकिन पूछे या न पूछे, रहूँगी तो उसी के साथ।....” यहाँ सिलिया न केवल दलित के रूप में अपने शोषण को नज़र अन्दाज़ करती है बल्कि एक औरत के रूप में भी, पुरुष चाहे जैसे भी रखे मारे या काटे, दुत्कारे या प्यार करे एक बार जिसकी बाँह पकड़ी तो फिर कम से कम इस जन्म में तो किसी और के बारे में सोचना हरजाई बनना है, अपनी स्त्री-अस्मिता पर प्रश्न-चिह्न लगाती है। वास्तव में सिलिया त्याग समर्पण और प्रेम के बल पर मातादीन को पाना चाहती है, वह इन मूल्यों पर चलकर मातादीन का हृदय परिवर्तन करना चाहती है। ये मूल्य उसने अपने सृष्टा प्रेमचंद से पाए हैं और उनकी ही प्रेरणा से वह इन पर चलती हुई उपन्यास में मातादीन का हृदय परिवर्तित कर पाती है मातादीन अन्तत: उसके पास लौट आता है।
एक किसान की संघर्ष गाथा में प्रेमचंद होरी के घर में न कोई गाय बँधवा पाते हैं (रूपा द्वारा भेजी गाय भी न जाने कहाँ खो जाती है कि अपने गन्तव्य तक पहुँचती ही नहीं।) न उसके सिर से ऋण का बोझ ही कुछ कम कर पाते हैं। आलोचकों का मानना है कि यथार्थवाद में अपने विश्वास के चलते प्रेमचंद ऐसा नहीं करते कि ऐसे प्रयासों से क़िस्से-कहानी के किसानों की समस्याओं को हल किया जा सकता है पर यथार्थ ज़िन्दगी में किसानों की बदतर जीवन स्थितियों को ऐसे आदर्शवाद से नहीं बदला जा सकता। फिर यहाँ दलितों और स्त्रियों की ज़िन्दगियों में प्रेमचंद त्याग, समर्पण और निस्वार्थ प्रेम के चक्कर में क्यों पड़ जाते हैं? ऐसा नहीं है कि ये मूल्य बेकार और निरर्थक हैं पर ये कुछ एक-दो व्यक्तियों को तो बदलने को मजबूर कर सकते हैं पर समाज इनके भरोसे नहीं बदला करता है। ब्राह्मणवाद और पुरुषसत्तात्मकता कुछ व्यक्तियों की नहीं पूरे समाज की व्याधियाँ हैं इसलिए इलाज भी समाज का होना चाहिए न कि कुछ गिने-चुने व्यक्तियों का।
अब सोचने वाली बात यह है कि महात्मा गाँधी और डॉ. अम्बेडकर तथा ग़ैर-दलित और दलितों के नज़रिये में इस अन्तर के क्या कारण हैं, क्यों सिलिया त्याग, समर्पण और निस्वार्थ प्रेम का मार्ग चुनती है उसमें अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाने तथा स्वाभिमान के ख़िलाफ़ लड़ने एक स्त्री के रूप में अपने शोषण को चुनौती देने के गुण मौजूद क्यों नहीं हैं जबकी धनिया और झुनिया बराबर एक स्त्री के रूप में अपने स्वाभिमान के प्रति सजग हैं। इसका मतलब प्रेमचंद ने सायास सिलिया को ऐसा बनाया, पर क्यों? क्या इस प्रश्न को सहानुभूति और स्वानुभूति के तर्कों से हल किया जा सकता है?