विशेषांक: दलित साहित्य

10 Sep, 2020

भारतीयता की अवधारणा और दलित साहित्य 

साहित्यिक आलेख | डॉ. जयप्रकाश कर्दम

डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंधवी ने अपनी पुस्तक ‘भारत और हमारा समय’ में इस बात का उल्लेख किया है कि ‘भारत से बाहर मैंने कई अप्रवासी भारतीय देखें है। उनकी भारतीयता से बहुत गहरे तक प्रभावित भी हुआ। किन्तु यहाँ आकार बहुत दु:खद और दयनीय त्रासदी मुझे दिखाई देती है कि भारतवर्ष में ही कई प्रवासी अभारतीय हैं।’ उनकी चिंता भारतीय भाषाओं, विशेषत: संस्कृत और संस्कृति को लेकर थी। किन्तु उनके शब्द ‘भारत में प्रवासी अभारतीय’ बहुत कुछ कहते हैं। यदि भारतीयता भारत भूमि पर रहने वाले सभी लोगों की भावनाओं को समावेशित करके बनती है तो केवल वेद, पुराण आदि की परंपरा के निर्वाह पर ही ज़ोर क्यों है? इसमें कुरान, बाइबिल और त्रिपिटक की उपेक्षा क्यों है? क्या वर्ण-जाति-व्यवस्था और तदजनित ऊँच-नीच, अस्पृश्यता के रहते भारतीयता की किसी अवधारणा की कल्पना की जा सकती है? शायद नहीं, शायद नहीं, कदापि नहीं। इसी तरह सामप्रदायिक भेदभाव और घृणा के रहते भी भारतीयता का निर्माण नहीं हो सकता। 

भारत एक स्वतंत्र और संप्रभु देश है। संविधान के द्वारा भारत एक राष्ट्र और गणराज्य है। राष्ट्र और राष्ट्रवाद की अपनी एक संकल्पना है, जो संविधान की प्रस्तावना में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। किंतु यथार्थ के धरातल पर भारत एक राष्ट्र नहीं है। संविधान की दृष्टि से भारतीय राष्ट्रीयता की अवधारणा समता और सम्यकता पर आधारित है। समता और सम्यकता सामाजिक मूल्य हैं। जब तक समाज में ये मूल्य स्थापित नहीं होते तब तक भारतीयता की अवधारणा मूर्त्त नहीं हो सकती। इसलिए भारतीयता की अवधारणा को मूर्त्त बनाने के लिए यह आवश्यक है कि समाज समतामूलक या सामानता पर आधारित हो। भारतीयता की अवधारणा में यही सबसे बड़ा पेच है। हम वसुधैव कुटुम्बकम की बात करते हैं, किंतु परस्पर असमान और विभाजित हैं। विभाजित लोग कभी एकता की भावना के साथ संगठित नहीं हो सकते। यही भारतीय समाज की सबसे बड़ी कमज़ोरी और भारतीय राष्ट्रीयता के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। 

इसलिए हम कहने के लिए भले ही कह लें किंतु भारतीय समाज जैसी कोई संस्था यथार्थ में नहीं है। भारत अभी एक समाज नहीं बन पाया है। समाज को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि ‘समां अजन्ति जना: आस्तिमन इति समाज:’ अर्थात जिसमें सभी लोग सम्यक रूप से गतिमान हों वह समाज है। वैसे भी देखा जाए तो समाज शब्द सम और अज के मिलने से बनता है। इसमें सम धातु अर्थात मुख्य शब्द है, अज सम धातु के साथ जुड़ा एक प्रत्यय है। इसमें सम का अर्थ है समानता। समाज के निर्माण के लिए उसमें समानता का होना प्राथमिक शर्त है। अर्थात समाज के सभी सदस्यों के बीच किसी भी प्रकार का कोई भेद या असमानता नहीं होनी चाहिए। जबकि भारतीय समाज असमानताओं का समाज है, जो हज़ारों जातियों, उपजातियों में विभक्त है, और सब जातियाँ एक-दूसरी से छोटी-बड़ी, ऊँची-नीची और छूत-अछूत हैं। यह असमानता का सबसे बड़ा आधार है। इस वर्ण-जातिगत असमानता के रहते भारतीय जन एक समाज के रूप में संगठित और एक नहीं हो पा रहे हैं। उनमें एकता और हम की भावना का अभाव है। भारतीय समाज की अवधारणा यथार्थत: एक भ्रमित और असत्य अवधारणा है। यदि कहीं समाज है भी तो वह एक समाज न होकर अलग-अलग वर्णों-जातियों के अलग-अलग समाज है, जिनके बीच आपसी समानता सम्भव है। इस तरह देखा जा सकता है कि जिस भारतीय समाज की कल्पना की जाती है, वह जातियों अथवा जातीय समाजों का समूह है। किंतु, स्वयं को भारत मानने के दंभ का शिकार सामाजिक रूप से श्रेष्ठता के उच्च पायदान पर विराजमान तथा आर्थिक रूप से सम्पन्न जातियों का वर्ग इस जातीय समूह को ही भारतीय समाज मानता और प्रचारित करता है। शिक्षा पर इसी वर्ग का वर्चस्व है, इसलिए अपनी चेतना के अनुकूल समाज की व्याख़्या और विश्लेषण कर अपनी स्व-निर्मित अवधारणा को स्थापित करते हुए जातीय समाजों के समूह को भारतीय समाज के रूप में विद्यार्थियों को पढ़ाता है। और इस प्रकार से समाज का भ्रम या भ्रम का समाज विकसित किया जाता है।  

भारतीयता को समझने के लिए भारतीय समाज की संरचना को समझना आवश्यक है। राष्ट्रीयता की अवधारणा राष्ट्र के साथ जुड़ी है। राष्ट्रीयता किसी राष्ट्र के नागरिकों की वह भावना होती है जो उनको एकता के सूत्र में बाँधकर परस्पर प्रेम, सद्भाव, सम्मान और सह-अस्तित्व के साथ जीने के लिए प्रेरित करती है और राष्ट्र के नागरिक के रूप में स्वयं पर गर्व करना सिखाती है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि इस सब का आधार समानता है। यदि राष्ट्र के नागरिकों के बीच समानता है तो उनके बीच परस्पर एकता, प्रेम और सद्भाव हो सकता है और वे परस्पर सह-अस्तित्व के साथ रह सकते हैं। समानता के अभाव में यह सम्भव नहीं है। स्पष्ट है कि राष्ट्रीयता का आधार समाज है। समाज बनेगा तो राष्ट्र बनेगा। समाज के जो मूल्य होंगे वही राष्ट्रीयता के मूल्य भी होंगे। समाज और राष्ट्र के मूल्य अलग नहीं हो सकते। भारतीयता की अवधारणा वस्तुत: वही होगी जिसे भारतीय संविधान में ‘इंडिया देट इज़ भारत’ कहा गया है। इसमें हिन्द और हिंदुस्तान के लिए कोई जगह नहीं है। जय हिन्द या हिंदुस्तान जैसे शब्द भारतीयता की अवधारणा के संवाहक नहीं हैं, अपितु भारतीयता की संवैधानिक अवधारणा के विरोधी हैं। कुछ लोग भारतीयता के मूल में करुणा को स्वीकार करते हैं। किन्तु सवाल है कि करुणा किस के प्रति है? क्या केवल ग़रीब ब्राह्मण के प्रति अथवा ग़रीब और अस्पृष्य शूद्र-अति-शूद्र के प्रति? यह सवाल इसलिए है क्योंकि भारतीय साहित्य और संस्कृति में ग़रीब ब्राह्मण के प्रति जितनी मानवीय करुणा देखने को मिलती है उतने ग़रीब शूद्र या अंत्यज के प्रति देखने को नहीं मिलती है। जबकि सबसे अधिक मानवीय करुणा की आवश्यकता हज़ारों साल से अमानवीय शोषण, उत्पीड़न के शिकार रहे शूद्र-अंत्यजों को है।

कुछ लोग वसुधैव कुटुंबकम को भारतीयता का मूल मंत्र मानते हैं और इस पर गर्व करते हैं, किन्तु यथार्थ में यह एक बहुत बड़ा छद्म है, क्योंकि समाज वर्ण, जाति, उपजाति आदि में खंड-खंड विभाजित हो। जहाँ, समाज के एक बड़े वर्ग को शूद्र, अतिशूद्र, अंत्यज, अस्पृश्य कहकर उसे समाज से बहिष्कृत और मानवीय अधिकारों से वंचित रखा जाए। उसके प्रति घृणा, उपेक्षा, अपमान, दमन और हिंसा का व्यवहार किया जाए। रामराज्य की कल्पना का आधार भारतीयता की यही अवधारणा है। यह भारतीयता नहीं, हिन्दू भारतीयता है, जो इस तरह का विभेद भारतीयता का निर्माण नहीं कर सकता। इसलिए समस्त भारतवासियों की संवेदनाएँ, अनुभूतियाँ और जीवन-मूल्य एकसमान नहीं हैं। उनके संघर्ष, स्वप्न, आशा-आकांक्षाएँ, जिजीविषाएँ, अर्थात उनका जीवन और जीवन-दृष्टि एकसमान नहीं, भिन्न हैं। वसुधैव कुटुंबकम के संबंध में यह प्रश्न बहुत स्वाभाविक है कि वह वसुधा कौन सी है जिस पर यह गर्व किया जा रहा है कि वहाँ पर सब लोग एक कुटुंब के रूप में रहते हैं। भारत की धरा पर तो यह सम्भव नहीं है। विभाजन और विभेदों के चलते यहाँ तो लोग परस्पर कटुता, अलगाव और वैमनस्यता के साथ रहते हैं और चूँकि वसुधैव कुटुंबकम की अवधारणा भारत की ही है तो फिर यह कौन से कुटुम्ब के संबंध में है। क्या यह कुटुंब केवल ब्राह्मणों का है अथवा तीन उच्च वर्णों अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रीय, वेश्यों का है? ये ही एक दूसरे के हितों के पोषण हेतु शूद्र और अंत्यजों का दमन, शोषण और उत्पीड़न करते हैं। 

भारतीयता की अवधारणा में लोक-मंगल को परम श्रेयस माना जाता है। वसुधैव कुटुंबकम की अवधारणा में कहीं न कहीं लोक-मंगल का भाव है। तब यह सवाल उठाना भी अस्वाभाविक नहीं है कि वह कौन सा लोक है जो मनुष्य मनुष्य में भेद करता है? एक व्यक्ति को ऊँचा और दूसरे को नीचा मानने की परंपरा को पोषित और संरक्षित करता है। सच्चाई यह है कि जिस विचार के आधार पर भारतीयता के निर्माण की कल्पना की जाती है अथवा उसे परिभाषित किया जाता है, उसका आधार धर्म और आध्यात्म है। धर्म और आध्यात्म की सत्ता ईश्वर या परमात्मा को सर्वोच्च सत्ता मानती है तथा परलोक और पुनर्जन्म में विश्वास करती है। उस विचार-परंपरा में इस लोक और यहाँ के लोगों के कल्याण से अधिक परलोक सुख का स्वप्न अधिक महत्वपूर्ण है। भारतीयता की इस अवधारणा में ब्रह्म, ब्राह्मण और वेद का सर्वोच्च स्थान है, इनके समक्ष सब गौण हैं। यह एक सामाजिक विकृति है, जो अत्यंत संकीर्ण तथा एक वर्ग पर दूसरे वर्ग के वर्चस्व की मानसिकता की द्योतक है। इन संकीर्णताओं और विकृतियों से मुक्त होकर ही भारतीयता का सृजन या निर्माण  किया जा सकता है।

धर्म के प्रभुत्व वाले भारतीय समाज में भारतीयता का उल्लेख किसी भी रूप में हो उसका झुकाव ईश्वर की ओर होता है। तात्पर्य यह है कि ईश्वर के बिना भारतीयता की कल्पना नहीं जाती है। ईश्वर जिनकी श्रेष्ठता, संपन्नता और वर्चस्व का संबल और आधार है, उनकी चेतना का झुकाव ईश्वर की ओर होना स्वाभाविक और संभव है, किन्तु सदियों से ईश्वर के नाम पर ही जिनका शोषण और दमन किया गया है, उनकी चेतना का झुकाव ईश्वर के प्रति नहीं हो सकता है। उपनिषद के वाक्य ‘अहम ब्रह्मास्मि’ की व्याख़्या यह कहकर की जाती है कि मनुष्य स्वयं ईश्वर है। किन्तु यथार्थ यह है कि स्वयं को ब्रह्म कहने और मानने वाला यह मनुष्य और कोई नहीं केवल ब्राह्मण है। अर्थात ब्राह्मण ही ब्रह्म या ईश्वर है। मानने को तो मनुष्य को देवताओं से भी श्रेष्ठ माना गया है। किन्तु अपवादों को छोड़कर मनुष्य ही देवताओं की शरण में जाता है और उनके समक्ष याचक बना कुछ न कुछ माँगता है। 

भारत की सौन्दर्य दृष्टि भी धर्म और आध्यात्म केन्द्रित है। भिन्न-भिन्न रूपों में अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियाँ इसका प्रबल उदाहरण हैं। देवी-देवताओं की इन मूर्तियों के भाँति-भाँति प्रकार से साज-शृंगार किए जाते हैं। और इस शृंगार पर मुग्ध हुआ जाता है। इस सब के द्वारा मनुष्य में देवत्व को खोजने या स्थापित करने का प्रयास किया जाता है। 

भारतीयता की अवधारणा में सर्वेभवन्तु सुखिन: अर्थात सबके सुखी होने की कामना का भी एक भाव है। किंतु, भारतीय समाज का यथार्थ इसको पुष्ट नहीं करता। यहाँ एक जाति दूसरी जाति को, एक वर्ग दूसरे वर्ग को और एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को दबाकर रखने की भावना से भरा है। वह अपने सुख के लिए दूसरे के सुख छीनता है। इसलिए सर्वेभवन्तु सुखिन: कह देने मात्र से सब सुखी नहीं हो जाते, जब तक सभी लोग सबके सुख का ख़्याल नहीं करें, वैसा आचरण न करें। जब तक वास्तविकता के आधार पर सामाजिक-आर्थिक सभी क्षेत्रों में असमानता और शोषण व्याप्त है, इस प्रकार के शब्द नितांत भ्रामक और अर्थहीन हैं। 

व्यक्ति की किसी भी धर्म के प्रति आस्था या निष्ठा हो सकती है किन्तु राष्ट्र के रूप में भारत  धर्मनिरपेक्ष है। भारत गणराज्य समाजवादी और लोकतंत्रात्मक है। इसमें किसी भी व्यक्ति या जाति की श्रेष्ठता या वर्चस्व के लिए कोई स्थान नहीं है। यहाँ इस तथ्य को समझने की भी आवश्यकता है कि  संविधान में समाजवाद की संकल्पना कोई विदेशी या आयातित विचार नहीं है, जैसाकि कुछ लोग इस तरह का आक्षेप लगाते पाए जाते हैं अपितु यह विशुद्ध भारतीय विचार है। जैसाकि भारतीय संविधान के निर्माता बाबासाहब अंबेडकर ने कहा भी है कि मैंने समानता, स्वतन्त्रता और समाजवाद के सिद्धांत को फ्रांस की राज्य क्रान्ति से नहीं, बुद्ध के दर्शन से लिया है। जो लोग लेनिन को भारतीय समाजवाद और साम्यवाद का जनक मानते हैं, उनको इस तथ्य को समझना चाहिए कि लेनिन से कई सदी पूर्व संत रविदास समाजवादी समाज की कल्पना कर चुके है। रविदास का यह कहना कि ‘ऐसा चाहूँ राज मैं, जहाँ मिलै सभी को अन्न। छोट-बड़े सब सम रहें, रविदास रहे प्रसन्न’ ही समाजवाद की भारतीय अवधारणा है और यही भारतीयता का मूलाधार है। 

भारतीयता के संबंध में यह भी एक सच्चाई है कि जब से भारत में राष्ट्रवाद का विकास हुआ है, हिन्दू और भारतीय एक-दूसरे के पर्याय से बन गए हैं। जिससे यह यह आभास होता है कि हिन्दू राष्ट्रवाद ही भारतीय राष्ट्रवाद है। और केवल आभास नहीं है, अपितु कुछ लोग ऐसा चाहते हैं और इसके लिए प्रयासरत हैं। इसका कारण यह है कि भारतीय राष्ट्रवाद की अवधारणा की उत्पत्ति जिस स्वाधीनता आंदोलन के गर्भ से हुई है, अपने मूल में वह हिन्दुत्व के पुनर्जागरण का आंदोलन था। जिसमें व्यक्ति की स्वतंत्रता गौण थी। इसलिए भारतीयता को हिन्दुत्व का पर्याय मान लेना बहुत ख़तरनाक है, राष्ट्र के लिए भी और समाज के लिए भी। यह एक संकीर्ण, विभाजित, सांप्रदायिक और जातीय भारतीयता है। भारतीयता की इस अवधारणा में मनुष्य नहीं संप्रदाय और जाति केंद्र में है। यही कारण है कि बुद्ध से लेकर मकखली गोसाल, सम्राट अशोक से लेकर, चन्द्रगुप्त मौर्य और ज्योतिबा फुले से लेकर अंबेडकर और पेरियार तक सबको समुचित स्थान और महत्व देना पड़ेगा। इनकी उपेक्षा करके भारत और भारतीयता का निर्माण संभव नहीं है। किंतु वैदिक, पौराणिक आख्यानों पर आधारित जितने महाकाव्य, उपन्यास और नाटक आदि है उतने इन महापुरुष और महानायकों पर नहीं हैं। क्योंकि ये सब के सब विभाजनकारी, विभेदकारी और असमानतामूलक ब्राह्मणवाद का पोषण और संरक्षण नहीं करते, अपितु उसको नकारते हैं तथा बौद्ध धर्म के समानता, स्वतंत्रता, न्याय और भ्रातृत्व के मानववादी सिद्धांतों को स्वीकार करते हैं।    

कुछ लोग इस बात पर बहुत गर्व करते हैं कि ग्रीक रोमन सभ्यता कभी की लुप्त हो गई जबकि अनेक झंझावातों से टकराने के बावजूद भारतीय सभ्यता आज भी अपने वजूद के साथ जीवित है। किंतु भारतीय सभ्यता का रूप क्या है? उसका चेहरा कैसा है? क्या एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य को अपने से निम्न और हेय मानकर उससे घृणा और अस्पृश्यता का व्यवहार करना सभ्यता है? यदि हाँ, तो यह सभ्यता नहीं, घोर असभ्यता और अमानवीयता की पराकाष्ठा है।

अनेकता में एकता को भारतीयता का एक बहुत बड़ा गुण माना जाता है। किंतु, ध्यान देने की बात है कि यह अनेकता अंग्रेज़ी शब्द डाइवर्सिटी के लिए प्रयुक्त किया जाता है, जिसका सही हिंदी शब्द विविधता है। बहुत से लोग वर्ण-जाति के भेदभाव को भी विविधता के रूप में देखते और परिभाषित करते हैं। जबकि वर्ण-जाति विविधता नहीं समाज का विभाजन है। विविधता और विभाजन में बहुत अंतर है। भारतीयों में खान-पान, पहनावा, भाषा, धार्मिक विश्वास आदि की विविधता है। इस विविधता के बने रहते उनमें एकता हो सकती है, किंतु असमानता के आधार पर विभाजित लोगों  के बीच समानता स्थापित हुए बिना उनमें एकता सम्भव नहीं है। किंतु भारतीय समाज की यह बहुत बड़ी विडम्बना है कि यहाँ विविधता के नाम पर विभाजन को उपेक्षित कर दिया जाता है।   

जहाँ तक साहित्य का संबंध है किसी भी लेखक की भारतीयता उसका देश अर्थात उसके निवास और अनुभव संसार का भौगोलिक क्षेत्र, परिवेश तथा उसके परिचय और संपर्क की दुनिया होती है। सभी भाषायी एवं भौगोलिक क्षेत्रों और संस्कृतियों के उसका परिचय और संपर्क अनिवार्य नहीं है। यह सहज रूप से संभव भी नहीं है। किन्तु, यदि वह मनुष्यता को संकीर्णता में न देखकर उसकी समग्रता में देखता, समझता और अनुभव करता है तो उसकी रचनाओं में भारतीयता का प्रतिबिम्बन हो सकता है। साहित्य में अभिव्यक्त भारतीयता के संबंध में जितनी सच्चाई यह है कि हिन्दी की किसी प्रमुख कहानी में शायद ही किसी पुत्र ने अपने पिता की हत्या की हो या किसी पुत्र ने अपनी माँ को वेश्या कहकर घर से निकाला हो या किसी स्त्री ने अपनी यौन पिपासा की तृप्ति अपने भाई या पिता में खोजी हो, उतनी ही, अपितु उससे भी बड़ी सच्चाई यह है कि हिन्दी साहित्य की सभी प्रमुख कृतियों के नायक उच्च कुलोत्पन्न ब्राह्मण या सामंत रहे हैं। शूद्र-अतिशूद्रों को नायकत्व प्रदान करने वाली रचनाओं का सर्वथा अभाव रहा है। साहित्य की परंपरा को दलित समाज में नायकत्व के गुण दिखाई नहीं देते।  

हिन्दी साहित्य की भारतीयता आदर्श पर आधारित है। इसमें संघर्ष और तनाव का चित्रण है, आदर्श और यथार्थ के बीच टकराहट की भी अभिव्यक्ति है, किन्तु अंतत: जीत आदर्श की होती है, और उस आदर्श की जड़ें वेद, पुराण, रामायण, महाभारत और स्मृतियों आदि में ही होती हैं। यथार्थ पर आदर्श की जीत का सबसे बेहतरीन उदाहरण प्रेम है। समाज में युवक-युवतियों के सहज प्रेम को अनैतिक कहकर नकारा जाता है जबकि राधा-कृष्ण की प्रेम-लीलाओं को न केवल सहज रूप में स्वीकार किया जाता है, अपितु उन पर मुग्ध हुआ जाता है। भारतीयता की इसी साहित्य दृष्टि का परिणाम है कि महाकाव्यों की पहचान के नाम पर केवल रामायण और महाभारत को ही मानक के रूप में स्वीकार और प्रस्तुत किया जाता है। इसमें बुद्धचरित जैसी श्रेष्ठ महाकाव्यात्मक रचना का कहीं उल्लेख नहीं होता। क्योंकि रामायण और महाभारत के आदर्श और मूल्य मनुष्यता का ध्वंस करने वाली असमानतामूलक वर्ण-व्यवस्था का पोषण और संरक्षण करते हैं। जबकि बुद्धचरित में मनुष्यता का उद्‌घोष है। उसमें सर्वत्र समानता, स्वतंत्रता और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के मूल्यों का महत्व और पोषण है। 

आज भारत में हिंदुत्व अर्थात ब्राह्मणवाद का वर्चस्व है, जो घृणा, हिंसा, दमन, असमानता, अन्याय और अमानवीयता का दूसरा नाम है। इसलिए धर्म के आवरण में लिपटी भारतीयता एक ऐसे कृत्रिम मानव-समाज का निर्माण करती है, जिसमें वर्ण और जाति की सापेक्षता में मनुष्यता और मानवीय मूल्य सर्वाधिक कमज़ोर और महत्वहीन हैं। नामवर सिंह का यह कहना बहुत सही है कि ‘भारतीयता को धार्मिक संकीर्णता से मुक्त करने की आवश्यकता है तभी सच्चे अर्थों में भारतीयता को आत्मसात किया जा सकेगा, क्योंकि यह ऐसा शब्द है जो बुद्धि का नहीं बल्कि मन का विषय है और दिल से समझने का विषय है।’ भारतीयता का मतलब है भारतीय अस्मिता की पहचान। इसलिए भारतीयता के मूल स्वर को अभिव्यक्त करने वाला साहित्य ही भारतीय साहित्य हो सकता है, जिसमें भारतीयता के तत्व विद्यमान हों, जिसमें भारतीय जन-मानस के स्वर मुखरित  होते हों, जिसमें भारतीय अस्मिता की पहचान निहित हो। चाहे उसकी रचना देश के भीतर हुई हो अथवा देश की सीमा से बाहर हुई हो। कहने की आवश्यकता नहीं है कि सभी प्रकार की असमानता, शोषण और अन्याय का प्रबल प्रतिकार करने वाला दलित साहित्य ही सही मायनों में भारतीयता की अवधारणा को पुष्ट करता है।  

असमानता, शोषण, अन्याय के समस्त रूपों, कारकों और आधारों का नकार दलित साहित्य की ताक़त और प्राण है। इनका जितना तीव्र प्रतिकार होता है, दलित साहित्य उतना ही सशक्त और सार्थक होता है। जिस ईश्वर पर सवाल करना ब्राह्मणवादी व्यवस्था में निषिद्ध प्रायः है, उसको चुनौती देना दलित साहित्य की शक्ति और साहसिकता का परिचायक है। ईश्वर को नकार देने के बाद अंबेडकरी चेतना से युक्त दलित साहित्य के विषय में यह बात पूरी शिद्दत के साथ कही जा सकती है कि मनुष्य और मनुष्यता को एक पहचान, परिभाषा और गरिमा प्रदान करता हुआ दलित साहित्य मानववादी मूल्यों का संवाहक और मनुष्यता का गान है। 

डॉ. अंबेडकर का कहना था कि शोषण को सहना शोषण को बढ़ावा देना है। डॉ. अंबेडकर के इस विचार को मूर्त्त रूप देते हुए हिन्दी दलित साहित्य ने सामाजिक, आर्थिक सभी क्षेत्रों में असमानता को नकारते हुए शोषण का, उसकी सभी शक्लों में प्रबल प्रतिकार किया है और समाज में इस चेतना का प्रसार किया है कि दलित भी मनुष्य हैं तथा उनको भी अन्य मनुष्यों की तरह समानता, स्वतन्त्रता और सम्मान से जीने का अधिकार है। रूढ़ियों, परम्पराओं, पाखंडों और अंधविश्वासों के लिए दलित साहित्य में कोई जगह नहीं है। 

अंबेडकरवादी विचार और चेतना पर आधारित और विकसित दलित साहित्य का चिंतन ब्रह्म को नहीं जगत को सत्य मानता है। उसके लिए यह जगत, इस जगत के लोग और जीवन सत्य हैं। हज़ारों साल से दलित अपमान, उपेक्षा, अभाव, उत्पीड़न और दमन के शिकार रहे है, और आज भी निरंतर हो रहे हैं। इसे मिथ्या कहकर इसके प्रति उदासीन नहीं हुआ जा सकता। जगत को मिथ्या कहना दलितों द्वारा भोगे जा रहे घृणा, अपमान और अन्याय के दर्द और दंश को नकारना या अस्वीकार करना है। जबकि दलितों द्वारा भोगा जा रहा यह अपमानजनक, दवेशपूर्ण अमानवीय व्यवहार उनके जीवन की ही नहीं, इस जगत की एक कड़ुवी सच्चाई है। दलितों के साथ यह अन्याय इस जन्म की समस्या हे, इन समस्याओं का समाधान और इन सबसे मुक्ति भी उनको इसी जन्म में चाहिए। दलित समाज की मुक्ति की छटपटाहट ही दलित साहित्य का मुख्य स्वर है। इसलिए दलित साहित्य के सौन्दर्यबोध के मूल्य वर्णवादी और सामंतवादी मूल्यों से भिन्न हैं। दलित साहित्य का सौंदर्यबोध श्रम, शोषण और संघर्ष पर आधारित है। समानता और स्वतंत्रता दलित साहित्य के सबसे बड़े मूल्य है। सामाजिक न्याय और मानवाधिकार के प्रश्न भी इसके अंतर्गत आते हैं। दलित साहित्य इन्हीं पर केंद्रित है और ये सब ही दलित साहित्य के विमर्श का निर्माण करते हैं। यह देखना सुखद है कि अंबेडकरवादी विचार और चेतना से युक्त दलित साहित्य का विमर्श आज भारतीय साहित्य का भी प्रमुख विमर्श बनता जा रहा है। इसे दलित साहित्य के विमर्श की सफलता ही कहा जाएगा कि आज भारतीय साहित्य में कुलीनता का आग्रह कमज़ोर पड़ता जा रहा है तथा आम ज़िंदगी के विषय और पात्र साहित्य के केंद्र बनाकर उभर रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में लोकतांत्रिक और मानवीय मूल्यों के संवाहक का काम कर रहे हैं। लोकतंत्र ही भारतीयता का आधार, पहचान और प्राण है। लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्य जितने अधिक सशक्त होंगे भारतीयता और भारत की सामाजिक राष्ट्रीयता उतनी ही अधिक सशक्त और सार्थक होगी। 

परंपरागत रूप से हिन्दी साहित्य मुख्य रूप से वैदिक-पौराणिक आख्यान, राम और कृष्ण के चरित या उनकी गौरव गाथाओं पर केन्द्रित रहा है। इसके अलावा प्रकृति, प्रेम और युद्ध उसके प्रतिपाद्य रहे हैं। जिसमें किसी न किसी रूप में वर्णवादी और सामंती मूल्यों का पोषण या समर्थन मिलता है। इससे आगे बहुत कम सोचा गया है। समाज का आईना कहे जाने वाले इस साहित्य में समाज के दलित, उपेक्षित और वंचित वर्गों के जीवन तथा उनकी वेदना, संवेदना और संघर्षशीलता की अभिव्यक्ति लगभग नगण्य है। साहित्य का असली उद्देश्य समाज को संवेदनशील और मानवीय बनाना है। मानवीय समाज का आधार है सभी मनुष्यों के बीच समानता, स्वतन्त्रता, न्याय, प्रेम और भ्रातृत्व-भाव का होना। वर्ण-जाति-व्यवस्था सामाजिक असमानता, भेदभाव और वैमनस्यता का आधार है, और इस सबके मूल में ईश्वर है। अनित्यता और अनात्मवाद पर आधारित अंबेडकरवाद से प्रेरित तथा उससे प्रभावित दलित साहित्य ने इस तथ्य को पूरी गहराई से समझा है कि मनुष्यता के विकास में वर्ण-जाति-व्यवस्था सबसे बड़ी बाधा है और मनुष्यता के उदय के लिए इस व्यवस्था का अंत आवश्यक है। इसलिए दलित साहित्य ने अपनी पूरी ताकत से वर्ण-व्यवस्था और जातिवाद पर प्रहार किया है। दलित साहित्य ने ईश्वर की मृत्यु या उसके अंत की घोषणा की है। साहित्य की दुनिया में यह एक बड़ी क्रांति है। ईश्वर के साथ दलित साहित्य आत्मा-परमात्मा, अवतारवाद के भी ख़िलाफ़ है। यह भाग्य, परलोक, पुनर्जन्म को नकारता है। तथा घोषणा करता है कि दुनियां में मनुष्य से बढ़कर कोई चीज़ नहीं है। मनुष्य सर्वोपरि है। मनुष्य ईश्वर की रचना नहीं है, अपितु ईश्वर मनुष्य की रचना है। ईश्वर के साम्राज्य में दलितों के लिए कोई सम्माजनक अथवा गरिमापूर्ण जगह नहीं है। इसलिए ईश्वर से मुक्ति दलित साहित्य और समाज की सर्वप्रमुख आवश्यकता है। दलितों को ईश्वर का साम्राज्य नहीं समानता का मानवीय समाज चाहिए।

संक्षेप में, दलित साहित्य विमर्श की यह सबसे बड़ी देन है कि उसने मनुष्य और मनुष्यता को परिभाषित और परिमार्जित कर साहित्य को जीवंत बनाया है तथा लोकतांत्रिक और मानवीय मूल्यों की ऊर्जा प्रवाहित करने के साथ-साथ साहित्य को एक नई सौंदर्य-दृष्टि भी प्रदान की है। दलित साहित्य मनुष्य की केन्द्रीयता के माध्यम से समस्त दु:खी, पीड़ित और वंचित जनों की पीड़ा, शोषण और संघर्ष को ईमानदारी और बेबाकी से अभिव्यक्त कर मानवीय मूल्यों को स्थापित करने में बड़ी भूमिका का निर्वाह कर रहा है। समाज भेदभाव, शोषण और अपमानजनक व्यवहार से मुक्त होगा तभी वह मानवीय बनेगा। तब ही लोगों में एकता और हम की भावना का विकास हो सकता है। समाज का मानवीय हो जाना और लोगों में एकता और हम की भावना का विकास हो जाना ही राष्ट्रीयता है। दलित साहित्य जन-मानस में इसी चेतना का संचार करने का सघन प्रयास कर रहा है कि सब मनुष्य समान हैं तथा सबको समानता, न्याय, प्रेम और स्वाभिमान के साथ जीने का अधिकार है। दलित साहित्य यह सीख देता है कि पारस्परिक व्यवहार कैसा हो। किस प्रकार लोग अपने जातीय अभिमान और अहं से मुक्त होकर मानवीय बनें। मानवीय प्रेम और करुणा  भारतीयता की पहचान है। मानवीय होना ही भारतीय होना है। यह कहना शायद अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि दलित साहित्य समाज और राष्ट्रीयता के निर्माण का साहित्य है। 

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