दलित लेखन एक एसा विषय है जिस पर बिना बात किये नहीं रहा जा सकता है। भारत में सबसे अधिक किसी वर्ग पर अत्याचार हो रहे हैं वह है – दलित और पिछड़ा समाज। दलित किसी धर्म का हो सकता है जिसके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता हो, जिसे न्याय पाने में कठिनाई आ रही हो। जब ऐसे समाज के रचनाकार अपनी क़लम से लिखेंगे तो जीवन की सच्चाई को लिखेंगे, न कि बनावटी और दिखावटी यथार्थ को प्रस्तुत करेंगे। वह जिए हुए सच को अपनी रचनाशीलता में नया आयाम देने का प्रयास करेंगे। ऐसे में उनका पूर्ववर्ती लेखन से भिन्न होगा। वह कल्पना की उड़ान की निजता नाम मात्र की होगी।
दलित कथा लेखन की परंपरा प्रेमचंद से अवश्य प्रारंभ होती है लेकिन दलित लेखकों द्वारा यह विधिवत परंपरा महीप सिंह द्वारा संपादित पत्रिका सारिका के 1982 से प्रारंभ होता है। किंतु इसके पूर्व चाँद पत्रिका का अछूत अंक अवश्य प्रकाशित हुआ। इस अंक को अधिक महत्त्व नहीं दिया गया। इस लेखन की धार यहीं पर कुंद हो गयी। सारिका पत्रिका के सन्1982 अंक में साहित्य और समाज नई हलचल उत्पन्न कर दी। लोगों सोचने के लिए विवश कर दिया। यहीं से प्रारंभ होता है दलित कहानियों का सिलसिला।
दलित कहानी के सर्वाधिक चर्चित कथाकार हैं- ओमप्रकाश वाल्मीकि। इनके दो कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं– ’सलाम’(2000) और घुसपैठिये’(2003)। और कहानियाँ पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हुईं। इनका असमय निधन 17 नवंबर (रविवार) 2013 को हुआ। और अपने पीछे छोड़ गये एक वृहद कथा एवं आत्मकथा लेखन की परंपरा। समय से संघर्ष करता हुआ वह दलित साहित्य का विरला लेखक था। जिसने अपनी साफ़गोई से सभी को अपनी ओर आकर्षित किया। ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियाँ उनके भोगे और जिए हुए जीवन का सच हैं। आपकी सर्वाधिक प्रसिद्ध आत्मकथा ’जूठन’ (1997) है इस आत्मकथा से आपकी नई पहचान निर्मित हुई।
ओमप्रकाश वाल्मीकि के ’सलाम’ कहानी संग्रह में कुल 14 कहानियाँ संगृहीत है। सभी कहानियाँ दलितों के जीवन संघर्ष को, उनकी बेचैनी के जीवंत दस्तावेज़ हैं। ’सलाम’ संग्रह की कहानियों में हैं– सलाम, सपना, बैल की खाल, भय, कहाँ जाएँ सतीश, गोहत्या, ग्रहण, बिरम की बहू, पच्चीस चौका डेढ़ सौ, अंधड़ जिनावर, कुचक्र, अम्मा, खानाबदोश,। ’सलाम’ संग्रह के द्वारा ओमप्रकाश वाल्मीकि ने जहाँ हिंदी कथा जगत की वर्चस्ववादी सत्ता को चुनौती दी है, वहीं दबे-कुचले, शोषित-पीड़ित समाज को हाशिये से केंद्र की परिधि से निकालकर, उन्हें कथा की मुख्यधारा में सम्मिलित किया है। उनकी समस्त समस्याओं को कहानियों के माध्यम से आम जनता तक पहुँचाने का प्रयास किया है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने समाज में फैली विसंगतियों पर तीखी चोट की है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियों की रचनात्मक संरचना पर प्रकाश डालते हुए आलोचक हरपाल सिंह अरुष ने लिखा है, "इनकी कहानियाँ, दलित समाज के भीतर कसमसाने वाले विरोध को, उभरकर आनेवाली संवेदना को और सहज मान ली गई भारतीय जातिवादी संरचना की मनौवैज्ञानिकता को रेखांकित करती हैं।" (ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियों में सामजिक लोकतंत्र: सं. हरपाल सिंह अरुष, पृ.सं.07) कथाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि का अपनी कहानियों के संबंध में स्वयं कथन है, "उनकी संवेदनशीलता, और जज़्बातों को ग़ैर दलितों ने हमेशा अनदेखा किया है, उनके प्रति दुर्भावनापूर्ण व्यवहार किया है, उनकी मानवीय संवेदना के प्रति साहित्य का नज़रिया भी नकारात्मक ही है। उनका सुख-दुख, उनकी पीड़ा साहित्य के लिए त्याज्य ही रहा है। लेकिन यह मेरी प्राथमिकताओं में है; समाज में स्थापित विद्रूपताओं को रेखांकित करना मैं ज़रूरी मानता हूँ। साथ ही दलित अस्मिता की पहचान मेरे लेखक की मूलभूत ज़रूरत है।" (मुख्यधारा और दलित साहित्य: ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृ.सं.19)
’सलाम’ कहानी में ब्राह्मणों द्वारा स्थापित सदियों पुरानी परंपरा ’सलाम प्रथा’ का विरोध करती है। वहीं दलित युवकों में आत्मविश्वास जगाती है। संपूर्ण कहानी का ताना-बाना हरीश के विवाह के चारों तरफ़ बुना गया है। हरीश का मित्र कमल उपाध्याय है, जो उसकी बारात में ही शामिल होने आया है, बल्कि उसके विवाह की तैयारियों में भी घर-परिवार के सदस्य की तरह लगा रहता है। हरीश की बारात देहरादून से मुजफ्फरनगर के पास एक गाँव में पहुँचती है। अगले दिन सुबह कमल को चाय पीने की तलब लगी और वह ढूँढ़ते हुए गाँव की एक चाय की दुकान पर पहुँचता है। दुकान वाला यह जानकर कि यह देहरादून से जुम्मन चूहड़े के यहाँ बारात में आया है, तो चूहड़ा (भंगी) ही होगा। कमल को चाय देने से मना कर देता है। चाय वाला कहता है, "चूहड़े चमारों को मेरी दुकान पर चाय न मिलती… कहीं और जाके पियो।" तो कमल उससे जाति पूछ लेता है। इस पर चायवाला कहता है, "चाय वाला भभक पड़ा- ’मेरी जात से तुझे क्या लेणा-देणा। इब चूहड़े चमार भी जात पूछने लगे...... कलजुग आ गया है,कलजुग।"
"हाँ! कलजुग आ गया है, सिर्फ़ तुम्हारे लिए, तुम अपनी जात नहीं बताना चाहते हो, तो सुनो, मेरा नाम कमल उपाध्याय है। उपाध्याय यानी ब्राह्मण है," कमल ने आँखें तरेर कर कहा।
"चूहड़ों की बारात में बाभन?" चायवाला कर्कयता के साथ हँसा।
"सहर में चूतिया बनाना.....मैं तो आदमी को देखते ही पिछाण(पहचान) लूँ....कि किस जात का है," चाय वाले ने शेखी बघारी।
बबलू रांघड़ (राजपूत) रामपाल वहाँ आते हैं और कमल को गाली देने लगते हैं, "ओ सहरी जनखे हम तेरे भाई हैं? साले जिबान सिंभल के बोल, गांड़ में डंडा डाल के उलट दूँगां जोक जुम्मन चूहड़े से रिश्ता बाण। इतनी जोरदार लौडिया लेके जा रहे हैं सहर वाले जुम्मन के तो सींग लिकड़ आये हैं। अरे लौडिया को किसी गाँव में ब्याह देता तो म्हारे जैसों का भी कुछ भला हो जाता.....।" एक तीखी हँसी का फव्वारा छूटा आस-पास खड़े लोगों ने उसकी हँसी में अपनी हँसी मिला दी।
कमल को लगा जैसे अपमान का घना बियाबान जंगल उग आया हैं उसका रोम-रोम काँपने लगा।"(सलाम: ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृ.सं.12-13) डॉ.एन. सिंह सलाम कहानी के बारे लिखते हैं, "कुल मिलाकर यह कहानी अपने ’ट्रीटमेन्ट’ और उद्देश्यों में एक अच्छी और सुगठित कहानी है।" (दलित साहित्य के प्रतिमान: डॉ. एन. सिंह, पृ.सं.150)
’सपना’ कहानी हिंदुओं के बहुदेववाद पर करारा व्यंग्य किया है। ’बैल की खाल’ मरे हुए जानवरों की खाल निकालने वाले दलितों की बदरंग ज़िंदगी का यथार्थ प्रतिबिंब है। ’भय’ कहानी ’मनोवैज्ञानिक’ है इस कहानी में वह दलितों के मन में विद्यमान हीनताबोध को दिखाया गया है। जब कहानी का नायक अपनी जाति छिपाता है। ’कहाँ जाए सतीश’ में परंपरा से पीड़ित एवं अपमानित करने की साज़िश को रेखांकित किया है। ’गोहत्या’ में भारतीय गाँवों में ठाकुर-ब्राह्मण गठजोड़ द्वारा दलित अस्मिता को कुचलने की साज़िश का यथार्थ व हृदय विदारक वर्णन किया है। ’ग्रहण’ एवं ’बिरम की बहु’ कहानी दलित-स्त्रियों को कंद्र में रखा गया है। ’ग्रहण’ में स्त्री के ’बाँझ’ होने को दर्शाया गया है। ’बिरम की बहु’ कहानी में भी दलित पुरुषों के अंतस में विद्यमाान ’ब्राह्मणवाद’ एवं सामंतवाद को रेखांकित करती है। संतान न होने का सही कारण जानने के लिए वह बिरम से डाक्टरी जाँच कराने की बात कहती है किंतु बिरम उस पर बिफर पड़ता है। बिरम कहता है, "साली मुझमें खोट निकाल रही है.....टुकड़े-टुकड़े करके जमीन में गाड़ दूँगा।.... जा दफा हो जा मेरे सामने से.....।" (सलाम, पृ.सं. 65) ’पच्चीस चौका डेढ़ सौ’ शिक्षा के महत्त्व को रेखांकित करती है। ’जिनावर’ में स्त्रियों पर होने वाले अत्याचार को चित्रित तो करती है, उसके साथ उस शोषण के विरुद्ध आवाज़ भी उठाती है। ’अम्मा’ एवं ’खानाबदोश’ कहानियों में दलित-स्त्री-संघर्ष को सजीवता के साथ प्रस्तुत किया गया है।
’घुसपठिये’(2003) संग्रह में कुल 12 कहानियाँ हैं। इस संग्रह की प्रथम कहानी ’घुसपैठिये’ है। ’घुसपैठिये’ कहानी उच्च-शिक्षण संस्थाओं में दलित छात्रों के प्रति होने वाले भेदभाव को सच के साथ प्रस्तुत करती है। रैंगिग के नाम पर इस कहानी में सुभाष सोनकर की प्रवण मिश्रा द्वारा जमकर पिटाई की जाती है। ऐसे चित्र को कहानीकार ने जीवंतता के साथ दिखाया है, "दलित छात्रों को अलग खड़ा करे अपमानित करना तो रोज का किस्सा है प्रवेश परीक्षा के प्रतिशत अंक पूछकर थप्पड़ या घूँसों का प्रहार होता है। जरा विरेध किया तो लात पड़ती है यह दो-चार दिन नहीं साल के साल चलता है और पिटाई और कालेज छात्रावास तक ही सीमित नहीं है। शहर के कालेज तक जाने वाली बस में भी पिटाई होती है। कोई एक सीनियर चलती बस में चिल्लाकर कहता है, "इस बस में जो भी चमार स्टूडेंट है..... वह खड़ा हा जाए......फिर उसे धकियाकर पिछली सीटों पर ले जाया जााता है, जहाँ पहले बैैठे सीनियर लात घूँसों से उसका स्वागत करते हैं।.....प्रवण मिश्रा अपनी अवहेलना पर तिलमिला गया। सोनकर के बाल पकड़ अपनी ओर खींचे। "क्यों वे चमरटे सुनाई नहीं पड़ा हमने क्या कहा था?"(वही ,पृ.सं.16)......"सोनकर बाल छुड़ाने की कोशिश ........मैं चमार नहीं हूँ। बालों की पकड़ मजबूत थी सोनकर कराह उठां प्रणव मिश्रा का झन्नाटदार थप्पड़ सोनकर के गाल पर पड़ा...(गाली)......चमार हो या सोनकर ......ब्राह्मण तो नहीं हो...हो तो सिर्फ़ कांटेवाले.....बस इतना ही काफी है, प्रणव मिश्रा ने सोनकर को लात घूँसों से अधमरा कर दिया।"(सलाम, पृ.सं.16) इस संग्रह की अन्य कहानियों में ’यह अंत नहीं’, ’मुंबई काण्ड’, ’शवयात्रा’, ’प्रमोशन’, ’कूड़ाघर’, ’मैं ब्राह्मण नहीं हूँ’, ’रिहाई’, ’ब्रह्मास्त्र’, ’हत्यारे’, एवं ’जंगल की रानी’ हैं।
ओमप्रकाश वाल्मीकि का तीसरा कहानी संग्रह ’छतरी’(2013) में प्रकाशित हुआ। इस संग्रह की कहानियों में ’छतरी’, ’बपतिस्मा’, ’शाल का पेड़’, ’चिड़ीमार’, ’मकड़जाल’, ’कंडक्टरी’, ’प्राइवेट वार्ड’, ’आउटसोर्स’, एवं ’गोकशी’ हैं। ’चिड़ीमार’ कहानी सबसे महत्त्वपूर्ण कहानी है। समाज में दलित स्त्रियों के साथ होने वाली छेड़खानी का यथार्थ दृश्य ’चिड़ीमार’ कहानी में प्रस्तुत है। सुनीता नगर पालिका में सेवारत एक दलित स्त्री है जो आर्थिक तंगी के कारण नौकरी करने को निर्णय लेती है। काफ़ी संघर्ष के बाद उसे नगरपालिका में नौकरी मिल गई। उसे सदैव नीचा दिखाने का प्रयास किया जाता। प्रतिदिन उसे जातिसूचक शब्दों से छींटाकशी की जाती। सुनीति ने रोज़-रोज़ होने वाले अपमान, तिरस्कार को सबक सिखाना ही उचित समझा। अपने प्रतिकार के लिए वह सुतेज से कहती है, "मैं उनसे नहीं डरती.....एकबार उस मोटू को थप्पड़ जड़ चुकी हूँ। तब से हर रोज वह मुझे भंगिन कहकर चिढ़ाता है। कभी जमादारनी, तो कभी मेहतरानी कभी चूहड़ी ....मैं अनसुना करके निकल आती हूँ।" सुनीति की आवाज जैसे अंधे कँुएँ से आ रही थी। सुतेेज ने सुनीति के भीतर छिपे बैठे भय को पकड़ने की कोशिश।" (हंस:सं. राजेंद्रयादव, अगस्त 2004 पृ.सं.111)
निःसंदेह ओमप्रकाश वाल्मीकि की दलितों की मानवीय संवेदनाओं के सभी पक्षों को उदघाटन करती है दलित समाज की समस्याओं को मुद्दों के रूप में पाठकों के समक्ष रखती है। इनकी कहानियों में धर्म के पाखंड रूप को, ईश्वर के प्रति विश्वास के साथ मठाधीशों पर करारा चोट करते हैं। भाग्यवाद, पुनर्जन्म, परंपराएँ, रूढ़ियाँ, दासता, अंधविश्वास जातिवाद के प्रति आक्रोश, उच्चता-निम्नता, जातीय संकीर्णता इत्यादि के विरुद्ध आवाज़ उठाती दिखाई देती हैं। जड़वादी संस्कृति तथा न्याय-अन्याय के की परिभाषा को बदलने का सार्थक प्रयत्न भी करती दिखाई देती हैं। जातिगत प्रश्नों, शैक्षिक वंचनाओें, आर्थिक शोषण, सामाजिक शोषण, धार्मिक बहिष्कार, सांस्कुतिक कूप मण्डूकता, राजनीतिक अज्ञानता, चेतना मूलक दिशा देने, जड़वादी सामंती मानसिकता पर प्रहार और तिरस्कार के विरुद्ध आवाज़ बुलंद करती दिखाई पड़ती हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियाँ दलित कथा लेखन में नई दीवार खड़ी की है और नए परिवर्तन का आग़ाज़ किया है।
हिंदी दलित कथा लेखन के दूसरे चर्चित कथाकार हैं– मोहनदास नैमिशराय। मोहनदास नैमिशराय केे आलेख एवं कहानियाँ निरंतर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। उनका कहानी संग्रह ’आवाजें’(1998) में प्रकाशित हुआ। ’आवाजें’ कहानी संग्रह कहानियों की विषयवस्तु के संबंध में प्रो.कमल देसाई कथन है, "दलित साहित्य यानी भारतीय संस्कृति के तल को लगी हुई आग है। दलित कहानी इस अग्निकुण्ड की एक चिंगारी मात्र है। उस चिंगारी को जलाने वालों में मोहनदास नैमिशराय के कहानी संग्रह ’आवाजें’ का महत्त्वपूर्ण स्थान है।"(हिंदी कथा-साहित्य में दलित-विमर्श: सं. दिलीप मेहरा,पृ.सं.246) ’आवाजें’ कहानी में युग-युग से यातनाएँ झेलने वाले मेहतरों ने गाँव वालों के ज़ुल्म और अन्याय, अत्याचार के विरोध में ठाकुर अवतार सिंह के ख़िलाफ़ जीवंत विद्रोह करते हैं। कहानी का मुख्य पात्र इतवारी कहता है, "हम जूठन न लेंगे और न गंदगी साफ करेंगे।"(आवाजें: मोहनदास नैमिशराय) ठाकुर दलितों की बस्ती में आग लगवा देता है,फिर भी न डरते हुए अन्याय के विरुद्ध कुछ कर गुज़रने की इच्छा दलित युवकों में जन्म लेती है।
कथाकार मोहनदास नैमिशराय की कहानी ’अपना गाँव’ में सामंती व्यवस्था में दलित सिर्फ़ उपभोग की वस्तु हैं, उनका मान-सम्मान अर्थहीन है। ग्रामीण जीवन के अंतर्संबंधों को यह कहानी विद्रूपता से प्रस्तुत करती है। यह कहानी दलितों की एक जुटता को भी अपने तरह से प्रकट करती है जो डॉ.अंबेडकर के त्रिसूत्रीय एकता को दर्शाती है। अस्सी बरस का हरिया शोषण के विरुद्ध उठ खड़ा होता है। अपनी बहू कबूतरी को जमींदार-पुत्र द्वारा नग्न घुमाए जाने से वह अवाक् तो हो जाता है। लेकिन उसके भीतर की खामोशी चीखने लगती है। अपने बेटे को शहर से बुलाता है थाने में रिपोर्ट लिखाने गए लोगों पर पुलिस के टूटते कहर को वह सिर्फ़ देखता ही नहीं महसूस भी करता है लेकिन हार नहीं मानता बिरादरी की पंचायत में जहाँ औरतें भी हैं, एक प्रस्ताव आता है कि बदले की भावना से उनकी औरतों को भी नंगा घुमाएँ। लेकिन हरिया विरोध करता है। उसका विवेक उसे विरोध के लिए उकसाता है कोई कहता है, "फसल जला दो।" लेकिन मेहनतकश दलित विरोध करते हैं। ..."अन्न को भी कोई तबाह करता है।" हरिया नया गाँव बसाने का प्रस्ताव रखता है, जिसे सभी गाँव वाले मान लेते हैं और एक नया गाँव ’अपना गाँव’ का सपना अस्तित्व में आता है। इस तरह हरिया ’अपना गाँव’ नाम से नया गाँव बसाता है। ’नया पड़ोसी’ कहानी में जातीय भेदभाव का उल्लेख किया गया हैं दलित व्यक्ति तो अपने नये पड़ोसी का स्वागत करता है परंतु नया पड़ोसी आया है। वह गृह प्रवेश कार्यक्रम में दलित को नहीं बुलाता। वह जाति से ब्राह्मण है, स्वार्थी है और संकीर्ण मानसिकता का है।
’हारे हुए लोग’ कहानी में आज की शिक्षा का प्रचार-प्रसार होने पर भी पढ़े-लिखे शहरी लोगों में किस प्रकार जातिवाद का दंभ छिपा, यथार्थ के साथ प्रस्तुत किया गया है। कहानी में एक दलित अफ़सर की बात है जिसको शहर में किराये का मकान देने में सवर्ण हिम्मत नहीं करते। कहानी में आंतरिक चेेतना की कमी को दिखाया गया है। ’अधिकार चेतना’ नामक कहानी में डॉ. अंबेडकर के संघर्ष से दलितों में जाग्रत होने वाले आत्म-सम्मान, स्वाभिमान को दिखाया गया है। ’बरसात’ कहानी में दाम्पत्य-प्रेम का चित्रण है। ’रीति’ कहानी ब्राह्मणवाद के नीच कार्यों को उजागर किया गया है। जिसमें जातिवाद, सामंतवाद, घृणित मानसिकता, बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों का शिकार हमेशा दलित स्त्री ही क्यों होती है? गाँव की नई बहुओं की इज़्ज़त लूटी जाती थी इसलिए दलित एक होकर उसका विरोध करते हैं। ’मैं शहर और वे’ कहानी में दलित विद्यार्थियों की आर्थिक स्थिति का वर्णन किया गया है। लड़का शहर में परीक्षा देने जाता है, किंतु परीक्षा रद्द हो जाती है। तब परेशान होकर सोचने लगता है कि उन्हें क्या पता एक दलित युवक कितनी कठिनाइयाँ झेलकर शिक्षा पाता है। ’महाशूद्र’ अंतिम कहानी है, इस कहानी में जातिवाद के अंतरविरोध को बड़े ही मार्मिक ढंग से दर्शाया गया है। शहर के श्मशान में शव का संस्कार माल खाने वाले वो ब्राह्मण आचार्य वही शवों को उठाने उसे आग लगाने वाला नंदू डोम है। क्रियाकरम के कारण आचार्य को मिलता है, परंतु नंदू का कोई हिस्सा नहीं होता। सवर्णाें ने हिंदू समाज की हर जाति में आंतरिक ऊँच-नीच की खाई बना दी है।
मोेहनदास नैमिशराय की अन्य कहानियों में ’दर्द’ ’वसुधा’ त्रैमासिक पत्रिका के जुलाई-सितंबर 2003 में प्रकाशित हुई। ’दर्द’ कहानी में हरभजन युवक की गाथा है जो उच्चशिक्षित है अपने पिता की मृत्यु के बाद उसे उम्मीद है कि उसे अच्छा पद दिया जाएगा। पर ऐसा होता नहीं है, उसे अपमान, तिरस्कार, लाँछन ही मिलता है। ऑफ़िस का बागे उससे कहता है, "चपरासी के बेटे होकर चपरासी नहीं बनोगे तो क्या लाट-साहब बनोगे।’(वसुधा: सं. कमलाप्रसाद, पृ.सं.213) दलित यातना की निर्ममता का वर्णन है। उनकी दूसरी कहानी ’घायल शहर की बस्ती’ में सांप्रदायिक उन्माद से उत्पन्न निरापराध हरिया की कथा है। हरिया की मौत से सहमी उसकी पत्नी जसवंती पुलिस से कह रही थी, "मुझे भी गोली मार दो, मुझे गोली मार दो!"(नयी सदी की पहचान: श्रेष्ठ दलित कहानियाँ, सं.मुद्राराक्षस, पृ.सं.20) मोहनदास नैमिशराय की कहानी ’बात सिर्फ़ इतनी थी’ शब्दयोग त्रैमासिक पत्रिका के दलित लेखन विशेषांक, अंक-3, सितंबर-2009 में प्रकाशित हुईं। उच्च शिक्षण संस्थाओं में व्याप्त जातीय संकीर्णता का पर्दाफाश करती है। विनय पथिक और उज्जवल सिंह दोनों मित्र हैं दोनों शहर में पढ़ते है। ’जातिवाद’ पर दोनों में खूब बहस होती हैं उज्ज्वल का मानना है कि जातिवाद समाप्त हो चुका है पर विनय जातीय सच को समझाने के लिए शर्त लगाने की बात करता है। विनय उज्ज्वल से एक दिन के लिए दलित बनने की शर्त लगाता है। ताकि उज्ज्वल सिंह को भारतीय समाज में विद्यमान जातिवाद को समझा सके। अंततः उज्ज्वल सिंह तैयार हो गया। पहले दिन ही कालेज में उज्ज्वल सिंह से लड़कों ने पूछा, "सरनेम क्या है?” दूसरे दिन उससे जबरदस्ती जूते पालिश करवाये। उज्ज्वल को समझ में आ गया। उसने विनय कहा, "सच विनय तुम ठीक कहते थे। जातिवाद अभी भी यहाँ जीवित है। मेरी तो इच्छा ही नहीं हो रही है अब यहाँ रहने की। सोचता हूँ जल्द से जल्द इस शहर को छोड़ कर कहीं चला जाऊँ।"
"कहाँ जाओगे?"
पूछा था विनय ने जवाब में कुछ नहीं कहा था उज्ज्वल ने। विनय ने पुनः कहा था।
"हर जगह यही हालत हैं। हमें देखो जनम से मृत्यु तक क्या-क्या नहीं झेलना पड़ता। तुम तो एक ही दिन में तिल-मिलाने लगे।" पलभर बाद फिर से विनय ने कहा था।
"भागो नहीं इस समाज को हमें बदलना चाहिएँ मुझे अच्छा लगा। तुम्हें यह सब महसूस तो हुआ।"(शब्दयोगः सं. सुभाषपंत,अंक-3,सितंबर 2009,पृ.सं.112)
मोहनदास नैमिशराय ने अपनी कहानियों में दलित समाज के विविध समस्यओं को दृष्टिपात किया है।
जयप्रकाश कर्दम दलित कथा-साहित्य के मूर्धन्य रचनाकार है अपनी कहानियों और उपन्यासों के द्वारा हिंदी दलित कथा लेखन में चर्चा में बने रहते हैं। इनका प्रथम कहनी संग्रह ’तलाश’ प्रकाशित हुआ। ’तलाश’ जातीय बोध को लेकर लिखी गयी है। ’तलाश’ कहानी में मि. गुप्ता का जातीय बोध कराती है। ’तलाश’ कहानी का नायक रामवीर सिंह बिक्रीकर अधिकारी है जो मि. गुप्ता के मकान में किराये पर रहता है, दलित जाति की स्त्री रामबती चूहड़ी से खाना बनवाता है। यह बात मकान मालकिन मिसेज गुप्ता अच्छी नहीं लगती, वह रामबीर से अन्यत्र मकान लेने के लिए कहती है। रामबीर सिंह प्रतिकार करते हुए मिसेज गुप्ता से कहता है, "रामबीर सिंह ने निश्चय किया कि वह रामबती से खाना बनवाना बंद नहीं करेंगे और उन्होंने गुप्ता को जवाब दे दिया।"
"यदि यह बात है, तो मैं आपका मकान खाली करने को तैयार हूँ, लेकिन जातिगत भेदभाव के आधार पर मैं रामबती से खाना बनवाना बंद नहीं करूँगा।"
’सांग’ की नायिका चंपा जो साधरण खेेतीहर मजदूर है, वह गाँव के मुखिया के अन्याय का प्रतिकार दबंगता से करती है। वह कहती है, "बोल हरामजादी, कल खेत में नलाइ करने क्यों नहीं गयी थी?" क्रोध से मुखिया ने पूछा।
"मेरी तबीयत ठीक नहीं थी।" चंपा बोलीं।
"तबीयत ठीक नहीं थी......झूठ बोलती है कुतिया...फिर सांग देखने कैसे चली गयी तू? ऐं बोल।"कहने के सााथ ही चंपा की ओर हाथ बढ़ाया मुखिया ने।
लेकिन इससे पहले कि मुखिया का हाथ चंपा तक पहुँचता, ओढ़ने में से चंपा के हाथ बाहर निकले और अगले ही क्षण मुखिया का सिर दो फांक हो गया।" यह डर और भय से मुक्त होकर, सच्चाई से सामना से करना है। अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाना है। ’लाठी’ और ’जहर’ कहानियाँ दलितों के आक्रोश को बयान करती हैं। ’जहर’ का नायक एक दलित ताँगे वाला है। एक दिन वह एक ब्राह्मण को अपने ताँगे में बैठा लेता है। रास्ते में किसी दलित नेता की रैली में जाती हुई दलितों की भीड़ को देखकर ब्राह्मण भड़क उठता है और दलितों के ख़िलाफ़ ज़हर उगलने लगता है। इस पर ताँगे वाला विशंबर पंडित को बीच रास्ते में उतार देता है। ताँगे वाला कहता है, "दो रुपये का नुकसान मुझे होगा ना। मैं सौ रुपये का नुकसान भी बर्दाश्त कर लूँगा, पर तेरे मुँह से अपमानजनक बातें बर्दाश्त नहीं करुँगा। चल उतर जल्दी से। बातों में लगा करके टैम खराब मत कर मेरा। नहीं तो यू हन्टर देख रहा है मेरे हाथ में, इससे सूत दूँगा तुझे।" यह तो जैसे के साथ तैसा व्यवहार है। अवधी में कहते भी हैं– जैसे को तैसा मिले, मिले नीच को नीच। अगर संस्कृत की उक्ति का प्रयोग करे तो ’शठे शाठ्यम समाचरेत्’।
उत्तर प्रदेश में 1984 ई. में बी.एस.पी. सक्रिय राजनीति के रूप में उभरकर सामने आती है। प्रदेश एवं देश की राजनीति में दलित राजनीति का प्रवेश प्रमुखता से यहीं से प्रारंभ होता है। दलित राजनीति का ऐजेण्डा मान्यवर काशीराम व बहन सुश्री मायावती के नेतृत्व में पूरे भारत में आगे बढ़ा। फलतः दलित समाज की राजनीति पर मंथन होना प्रारंभ होना शुरू हो गया। उत्तर प्रदेश में बहन मायावती के प्रदेश की मुखिया के रूप में उभकर सामने आयीं तथा कई बार प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी।
जयप्रकाश कर्दम की कहानियाँ दलित राजनीति आंदोलन से प्रभावित होती दिखाई पड़ती हैं। दलित राजनीति के आंदोलन पर लिखी गयी उनकी कहानी है– मूवमेन्ट। ’मूवमेन्ट’ कहानी का नायक सामाजिक कार्यों से प्रायः घर से बाहर ही रहता है और अपनी पत्नी तथा बच्चों को समय नहीं दे पाता। उसकी पत्नी सुनीता इस बात से बहुत नाराज़ है। अपने पति से पूछती है, "मैं पूछती हूँ क्या यही प्रगतिशीलता है तुम्हारी कि बाहर जाकर अन्याय और असमानता के ख़िलाफ़ भाषण झाड़ो और खुद घर में असमानता का व्यवहार करो? यही मूवमेन्ट है तुम्हारा।" वह अपनी पत्नी सुनीता से भी सामाजिक आंदोलन में ’सहभागिता’ करने के लिए कहता है, "यही सच नहीं है। मैं तो सोचता हूँ कि तुम घर की चहार दीवारी से बाहर निकलकर सामाजिक आयोजनों में हिस्सा लो और काम करो।" यह कहानी दलित आंदोलन में दलित महिलाओं की भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए भी तत्पर दिखाई पड़ती है।
दलित लेखकों की एक बड़ी विशेषता है –अनुभव और भोगे हुए और समाज से टकराते हुए संघर्ष के चित्रों को अपनी कहानियों में प्रस्तुत करना। ’मोहरे’ कहानी में स्कूल और कालेजों में दलित बच्चों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार को प्रतिबिंब है। ’मोहरे’ कहानी का नायक जयप्रकाश अपने विद्यालय में जातीय संकीर्णता का शिकार है। वह समझ गया है, "ग़ैर दलित अध्यापक दलित बच्चों को पढ़ाने के प्रति गंभीर नहीं हैं ये नहीं चाहते कि दलित बच्चे पढ़ लिखकर कामयाब हों, इसलिए वे हमारे बच्चों को पढ़ाने में तनिक भी रुचि नहीं लेते हैं। हमारा शिक्षित होना उनके लिए चुनौती बन सकता है। वे इस बात को अच्छी तरह समझते हैं। इसलिए पढ़ाने के बजाए वे उन्हें उल्टे हतोत्साहित करते हैं। बाबा साहब डॉ. अंबेडकर के लंबे संघर्ष और त्याग का फल कि आप लोग पढ़-लिखकर सरकारी नौकरी में हैं। यदि आप लोग चाहते हैं कि हमारा समाज तरक्की करे, हमारे समाज के बच्चे पढ़-लिखकर आगे बढ़ें तो लोगों को नौकरी की भावना से ऊपर उठकर इन बच्चों को पढ़ाने के लिए अतिरिक्त उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेना होगा।" और सत्यप्रकाश इस उत्तरदायित्व को पूरी ईमानदारी के साथ कर रहा था। इसलिए अध्यापक रामदेव त्रिपाठी उसके विरुद्ध षड़यंत्र रचाकर उसका स्थान्तरण एक ऐसे स्थान पर करवा देता है, जो उसके लिए नितांत असुविधाजनक है।
सूरजपाल चौहान कई कथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इनका प्रथम कथा संग्रह ’हैरी कब आएगा’(1999) में प्रकाशित हो चुका है। इस कथा संग्रह में कुल 14 कहानियाँ संकलित हैं। ’परिवर्तन की बात’ कहानी दलित उत्पीड़न को लेकर लिख गयी है। ’हैरी कब आएगा’ नायक किसना है जिसने मरे हुए जानवरो को उठाना बंद कर दिया। ठाकुर रघु की गाय मर गई है। दलित के प्रति उसमें क्षोभ और गुस्सा है वह कहता है–
"साले चमरा के घर मैं खुद चलकर गया। फिर भी इतनी देर लगा रहा है आने में।" ठाकुर मन ही मन बड़-बड़ा रहा था।
"आजकल इन साले चमारों के नखरे ज्यादा ही हो गए हैं।" हरप्रसाद ने रघु की ओर देखते हुए कहा।
"इस लिए तो मै। खुद चलकर उस ढेढ़ से कह कर आया था, लेकिन उस साले की यह मजाल।" ठाकुर ने दाँत पीसते हुए कहा।"(हैरी कब आएगा,पृ.स.18)
किसना ने अब जरायम पेशा करना बंद कर दिया है।
"किसना निडर होकर ठाकुर की बातें सुने जा रहा था।"
"उसने ठाकुर की ओर देखा और गला खँखारते हुए बोला- "ठाकुर मैंने मरे जानवर उठाना बंद कर दिया है।"
"ठाकुर किसना के मुँह से ये शब्द सुनकर हैरान था। उसने किसना की बात अनसुनी करते हुए कहा– "भैया हम और हमारे बच्चे पानी पीने को भी तरस गए। गाय कुएँ के पास मरी पड़ी है। चल जल्दी कर।"
"ठाकुर, मैंने और मेरे मुहल्ले के सभी लोगों ने मरे जानवर उठाना बंद कर दिया है।" इस बार किसना के स्वर में तेजी थी।"(हैरी कब आएगा: सूरजपाल चौहान ,पृ.सं.19) यही वह परिवर्तन है जिसे बाबा साहब करना चाहते थे कि दलितों उन सभी तिरस्कृत कर देने वाले कार्याे का त्याग कर दे। जिससे में समाज छोटे-बड़े की खाई बनी हुई है। उसी का त्याग करने का संदेश है इस कहानी में जिससे उन्हें बराबरी का दर्जा प्राप्त हो सके।
इस संग्रह की अन्य कहानियों में ’पाँचवी कन्या’, ’ छूत कर दिया’, ’प्राण प्रतिष्ठा’, ’घमण्ड जाति का’, और ’अपना-अपना धर्म’ इत्यादि कहानियाँ हैं।
सूरज पाल चौहान का दूसरा महत्त्वपूर्ण कहानी संग्रह है– नया ब्राह्मण। ’नया ब्राह्मण’ कहानी का दलित होने के बावजूद अवसरवादी चरित्र का है। ’नया ब्राह्मण’ कहानी में मंगलू को दलित ब्राह्मण बनते दिखाया गया है। जिसे सूरजपाल चौहान ’नया ब्राह्मण’ नाम से संबोधित किया है। जगमेर से मंगलू कहता है, "मैं तो यहाँ तक अपनी मेहनत से पहुँचा हूँ, बाबा साहेब आसमान से उतरकर मुझे नौकरी देने नहीं आए, अरे कैसा बाबा, काहे का बाबा।"(नया ब्राह्मण: सूरजपाल चौहान,पृ.सं.62) मंगलू यह अवसरवादी चरित्र है जो स्वयं तो आरक्षण का लाभ लेकर उच्च जीवन को जी रहा है। बाबा साहब के संघर्ष को भुला दे रहा है कहने का आशय है कि दलित समाज में ऐसे ढेर सारे चरित्र मिल जाएँगे जो अपनी पहचान छुपा कर स्वयं को ब्राह्मणों के समान श्रेष्ठ समझते हैं। जिस समाज में जन्म लेते हैं उसी समाज से दूरी बनाने लगते है ऐसा मंगलू करता है। वह अपने समाज के लोगों से दूरी बनने लगता है। कथाकार लिखता है कि मंगलू अपने परिवार के सदस्यों से भी दूरी बनाकर रहने लगा था। छोटी और बड़ी दोनों बहनें उसे तनिक न भाती। तीज-त्योहार वाले दिनों मे जब वे अपनी ससुरालों से मंगलू के घर आतीं तो वह उन्हें देखकर भृकुटि तानकर कहता – "ऐ, कैसी चली आई तुम मेरे घर भिखारिन-सी।"(वही, पृ.सं.62) उसे अपनी बीबी कमली भी अच्छी नहीं लगती। जब किसी समाज का व्यक्ति आर्थिक रूप से सम्पन्न हो जाता है। वह एक सामंत के समान दूसरोें से करने लगता है। मंगलू की आर्थिक रूप से सम्पन्न हो चुुका है यह आर्थिक सम्पन्नता उसे निम्नता एवं उच्चता का द्योतन कराती है। हालाँकि जाति उसका कभी पीछा नहीं छोड़ती है यह सत्य है। इस सत्य को झुठलाया नहीं जाया जा सकता है।
अन्य कहानियों ’बदबू’, ’तीन चित्र’, ’सारे जहाँ से अच्छा’, ’कारज’, ’बस्तीके लोग’, ’एलिजाबेथ’, ’जाति’, ’दो रंगः एक भद्दा मजाक’, ’झूठ के दो चेहरे’, एक ही परंपरा की कहानियाँ हैं ये कहानियाँ, सरकारी आफिसों में कार्यरत भंगी जाति के पुरुषों की कथाएँ है जिन्हें जाति से दलित कहा जाता है। दलित जाति से होने कारण नीच भी समझा जाता है। ’बाबू जी फिर कब आऊँ’ शरणार्थी स्त्री तसनीम की कथा है यह औरत पालीथीन बीनने का काम करती है और रोज़ उसके घर के सामने पड़े कचड़े में पालीथीन को उठाती थी। ’दीपक बंगला देश की थी वह तसनीम था उसका नाम।’(वही,पृ.सं.113) जिसके शरीर का भोग तो कर सकते हैं लेकिन उसके हाथ का बना हुआ खाना नहीं खाते। उनके साथ विवाह नहीं कर सकते। यह कैसी विडम्बना है?
’मंगल पांडे का लोटा’ एक एतिहासिक सूत्र को लेकर रची गई है। यह कहानी सन् 1857 ई. के स्वतंत्रता संग्राम के दलित महानायक है जिसे इतिहासकारों ने छुपा दिया था। वह महानायक मातादीन हेला था। जो कंपनी बहादुर की रेजीमेंट मेें जहाँ कारतूसों का निर्माण होता था वहीं कार्य करता था। और पहलवान बनना चाहता है, किंतु उसे हिंदू धर्म गरू पहलवानी नहीं सिखाते हैं। उसे मुसलिम गुरू मिल जाता हैं वह उसे पहलवानी के दाँव-पेंच सिखाते हैं। वह ताकतवर है उसके आगे मंगलपांडे की ताकत क्षीण है। यह देखकर मंगल पांडे उससे दोस्ती कर लेेता है। परंतु मंगल पांडे को जब यह ज्ञात होता है कि मातादीन भंगी है तो उसे जाति की उच्चता बोध ज्ञान हो आता है, उसे अपराध अनुभव होता है। वह मातादीन को नीचा दिखाना चाहता है। मंगलपांडे उसे अपशब्द कहता है पर वह चुुप रहता है। वह उससे पानी की माँग करता है, लेकिन मंगल पांडे उसे लोटा छूने नहीं देता। जब मातादीन उसे बताता है कि जिन कारतूसों को तुम प्रयोग करते हो उसमें गाय व सूअर की चर्बी लगी होती है। मंगल पांडे को काठ मार जाता है उसका मुँह खुला का खुला रह जाता है।
समग्र दृष्टि से देखा जाय तो प्रत्येक कहानी किसी न किसी समस्या को जीवंतता के साथ प्रस्तुत करती है। ये कहानियाँ दलित समाज में फैले जातिवाद को प्रकट करती हैं तथा जाति की सामजिक पीड़ा के दर्द को सत्यतता के साथ उठाने का प्रयास करती हैं।
दयानंद बटोही का कहानी संग्रह ’सुरंग’(2009) है। इस संग्रह में कुल आठ कहानियों संकलित है। ये कहानियों हैं– ’सुबह के पहले’, ’सुरंग’, ’शहर’, ’अंधेरे के बीचो बीच’, ’अन्हरेखा में, ’मुर्दा गाड़ी’, ’तिकोनी हँसी’ एवं ’भूल’। ’सुरंग’ सबसे चर्चित कहानी है, वह यह कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में लगी हुई है। ’सुरंग’ दलित कथाओं में अत्यंत ही उत्कृष्ट रचना है। डॉ. हरिनारायण ठाकुर का अभिमत है, "यहाँ कथ्य और शिल्प का सुंदर संयोजन और साहित्य के समाजशास्त्र का मनोवैज्ञानिक निर्वहन हुआ है। ’सुरंग’ की लाक्षणिकता एक ही साथ व्यक्ति के अंधकारपूर्ण दमघोंटू वातावरण तथा समाज की रूढ़ि और परंपरागत संकीर्णतओं को व्यंजित करती हैं। एक तरफ़ दलित समाज अपने अंधकारपूर्ण सुरंग में बंद है, तो दूसरी ओर सवर्ण मानसिकता भी समाज की तथाकथित श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ, पवित्र-अपवित्र के भेद भावपूर्ण सुरंग में कैद है। वह न खुद उससे बाहर निकलना चाहती है और न दूसरों को ही मुक्त करती है। ’सुरंग’ कहानी सामाजिक और शैक्षणिक यथार्थ का एक ऐसा ही लेखा जोखा है।"(दलित साहित्य का समाजशास्त्र: हरिनारायण ठाकुर, पृ.सं.433) यह कहानी आत्मकथात्मक शैली में लिखी गयी हैं। कहानी का नैरेटर पी-एच.डी. में एडमीशन लेना चाहता है, किंतु दलित होने के कारण विभागाध्यक्ष डॉ. विष्णु उस रिसर्च नहीं कराना चाहते हैं। नैरेटर तमाम संघर्षों और सामूहिक आंदोलन के बाद रिसर्च में एडमिशन प्राप्त कर लेता है। यह कहानी उच्च शिक्षा संस्थानों में संघर्षरत् दलित युवाओं की तरफ़ संकेत करती है। कथाकार कहता है," डॉ. साहब आप भूल जाएँ कि आप लोग अंधेरे के बीच कुतर-कुतर कर हम दलितों को खाते डकारते रहे हैं। अब पचेगा ही नहीं आपको।" (सुरंग: दयानंद बटोही,पृ.सं.17) कथाकार आगे लिखता है, "मुझे आप रिसर्च नहीं करने देंगे कोई बात नहीं। लेकिन कोटा आपको पूरा करना है।"(वही, पृ.सं.18) नायक का आत्मसंघर्ष देखिए– "पत्नी उलाहना देती है कि दो बच्चों के बाप होकर भी पढ़ रहे हैं। मैं पुनः सोचने लगता हूँ आखिर अंधेरी सुरंग में हमलोग कब तक रहेंगे। हाथी और हाथी के सूँड़ दोनों को सुई के छिद्र से निकालना चाहते हैं।"(वही, पृ.सं.18) यह संघर्ष ही नहीं संबैधानिक अधिकार आरक्षण लागू करने के लिए भी दलितों को प्रेरणा देती है।
’मुर्दागाड़ी’ कहानी बिहार(बंगाल) में पड़ने वाले अकाल तथा उससे असमय मरने वाले लोगों का चित्रण करती है। जहाँ एक ओर हताशा है-निराशा का साम्राज्य कायम है। वहीं कहीं मानवतावाद का पल्लवन करते दिखाई पड़ती है। इलाहाबाद जंक्शन पर गरीब बच्चों को कथाकार द्वारा खाना खिलाना ’मानवीय संवेदना’ को प्रकट करता है। लेखक लिखता है," मैंने पूछा- भूख लगी है तुम्हें? जी हाँ, जी हाँ तब मैं सोच भी नहीं पाया था कि गाड़ी आठ घण्टे देर से आएगी और मुझे मुर्दागाड़ी में आना होगा। कुछ परांठे थे जो महज इसी लिए कि रास्ते में भूख लगे तो खाऊँगा। अच्छा तो अपना-अपना नाम, गाँव व पिता का नाम क्या है, वे क्या करते हैं, बतो दो फिर.....।"(वही, पृ.सं.41) ....... मैं अपने पराठे सभी को अपने हाथ से खिलाया ताकि कम अधिक के कारण आपस में झगड़ न पड़ें पानी पीने का नल बगल में था। घर से पढ़ाई लिखाई पर बातचीत हुई।"(वही, पृ.सं.42)
यहाँ लेखक सामाजिक संवेदना का सरोकार दिखाई पड़ता है। ’भूल’ कहानी का नायक बुद्धू जिसने गोबर पाण्डे से रुपये लिए थे जो उसने फसल कटने(तैयार) पर दे दिये थे, लेकिन गोबर पांडे की नियत बुद्धू के बैलों को देखकर खराब हो गयी है। वह बुध्दू के बैलों को रुपयों के एवज में ले लेना चाहता है। किंतु बैलों के मार देने पर उसका ब्राह्मणत्त्व जाग उठता है। वह बुध्दू पर चोरी का इल्जाम लगा देता है पारो और और दलित युवक रमेश एक दूसरे से प्रेम करते हैं दोनों की सूझ-बूझ से बुद्धू जेल से छूट जाता है। फलतः गोबर पंडित को झूठी रिर्पोट के आरोप में जेल हो जाती है, किंतु बुद्धू के कहने पर गोबर पंडित को छोड़ दिया जाता है। गोबर पाण्डे को अपनी भूल का एहसास होता है। तभी वह कहता है, "नहीं-नहीं यह हम सबकी भूल थी जो अलग किये हुए बैठे थे, हम सब में एक ही रक्त। एक ही सब कुछ फिर यह ढोंग ही तो है। लाओ पानी।" यह कहानी जातीय संकीर्णता के फाँस को तोड़ती हुई दिखाई पड़ती है और मानव बने रहने का संदेश देती है।
दयानंद बटोही ने सहज, सरल, आमबोल चाल की भाषा का प्रयोग किया है। उनकी कहानियाँ आत्मकथात्मक शैली में लिखी गयी हैं, भाषा कहीं-कहीं दार्शनिक हो गयी है। आम बोलचाल की भाषा का उदाहरण- "पारो हाँ पारो गोबर पांड़े की बेटी कह रही थी- सर कानून के सामने हम सब मनुष्य हैं बराबर हैं। अन्याय के सामने भाई, बंधु, माता-पिता का मोह करना मानवता के साथ धोखा देना है। अन्याय के सामने इनका मोह करना सबसे बड़ा पाप है। हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई, धनी, गरीब सबों के कानून एक है अगर इसके विपरीत है तो वह कानून नहीं....। जज के माथे में पसीनाा चुहचुहा आया.....। रूमाल से मुँह पोंछते हुए कहा- आप चोरी के बारे में साफ-साफ बताएँ चोरी हुई है कि नहीं?(सुरंग: दयानंद बटोही, पृ.सं.54)
रत्नकुमार सांभरिया प्रसिद्ध दलित कथाकार हैं। उनके दो कहानी संग्रह ’समाज की नाक’ तथा ’खेेत तथा अन्य कहानियाँ (2010) में प्रकाशित हुए। ’खेत तथा अन्य कहानियाँ’(2010) संग्रह सवार्धिक चर्चित रहा है। इस संग्रह की कहानियाँ समाज के प्रत्येक सच को सच्चाई के साथ उभारती हैं। कुल मिलाकर 15 कहानियाँ संकलित हैं। जिनमें ’खबर’, ’सवाँखें, ’बाघ के दीदार’, ’राज’, ’मुक्ति’, ’बाढ़ में बोट’, ’खेेत’, ’विपर सूदर एक कीने’, ’बदन दबना’, ’पुरस्कार’, ’बेस’, हथोड़ा’,’बदलू को बुलाओ’, ’राइट टाइम’, एवं ’मेरा घर’ हैं। ’खबर’ कहानी पत्रकारिता व्याप्त बढ़ते भष्टाचार को प्रकट करती है। ’खबर’ कहानी की नायिका ईमानदार युवा पत्रकार है। वह कार्मिक विभाग मे व्याप्त भष्टाचार में लिप्त वरिष्ठ अधिकारी को सबूतोें के आधार पोल खोलना चाहती हैं किंतु पत्र के दैनिक कायार्लाय पत्र संचालक को रुपयों के बल पर वरिष्ठ अधिकारी ने खबर को बदलवा दिया।दूसरे दिन कार्मिक विभाग के सहयोग अधिकारी से जब संवादाता मिलने गयी तो उसने हताशा भरे शब्दों में कहा, "मैं इतनी इम्मेच्युअर नहीं हूँ, सर। रिकार्ड की फोटो कॉपी तक है मेरे पास।(खेत तथा अन्य कहानियाँ: रत्नकुमार सांभरियाँ, पृ.सं.12) संवाददाता कहती है, "सहसा मेरी बात काट कर वह खुद कहने लगी- ’दौलत और खिदमत के सामने कर्त्तव्य की आँखों का पानी भर गया है। संवेदनाएँ सूखती जा रही है। पत्रकारिता भी धन,दगा और दवाब की चपेट में हैं सर।"(वही, पृ.सं.12) यह वाक्य पत्रकारिता में पनप रहे भ्रष्टाचार की तरफ़ संकेत कर रहे है। जहाँ रुपयों के आगे मानवीय मूल्यों को कोई मतलब नहीं है।
’सवाँखे’ दो नेत्रहीन पति-पत्नी की मार्मिक व्यथा का चित्रण है। जो जाति की संकीर्णता के शिकार है। जमन वर्मा श्यामा जी के विकलांग स्कूल में टीचर है जन्मजात ’अंधा’ है और निम्नवर्ग से संबंध रखता है। जबकि ’बीमा शर्मा’ जाति से ब्राह्मण है। अपने घर से निराश्रित युवती है। स्टेशन के पास ’गुंडें’ छेड़े जाने वह शोर करती है, उधर से ही देवत सिंह के घर जमन वर्मा छड़ी की सहायता से अपने स्कूल में मिले घर जा रहा था, तभी उसे वीमा की चीखती आवाज सुनाई दी। जमन वर्मा ने पत्थर से मार कर आततायी को भगा दिया और अपने साथ उसे सबसे पहले विकलांग संस्था के संस्थापक श्यामा जी के घर गया। किंतु श्यामा जी ने उसे स्वयं साथ ले जाने के लिए कहा। जमन वर्मा उसे अपने ले आया। कुछ समय श्यामा जी के सहयोग से अपने मित्र कोर्ट मैरिज कर ली। छह महीने उसके भाइयों व पिता के सहयोेग से श्यामा जी ने ’वीमा शर्मा’ कोे जबरन अपहरण करवा कर तलाक के पेपर पर साइन करने को कहा। इस पर जमन वर्मा ने इनकार कर दिया। अपने मित्र देवत सिंह के सहयोग से पुलिस में एफ.आई.आर. लिखाई उस पर पुलिस प्रशासन ने कोई कार्रवाई करने को कहा। बिगड़ता खेल देखकर जमन वर्मा ने अपना पत्नी वीमा शर्मा को प्राप्त करने के लिए ’विकलांग एसोसियन’ के अध्यक्ष देवत सिंह के माध्यम से धरना पर बैठ गये और अपने अधिकार (अपनी पत्नी वीमा) को प्राप्त करने के लिए संघर्ष करने लगा। पुलिस प्रशासन की चूलें हिल गयीं।
"साहस और उत्साह से पैराशूट हो गये जमन ने दसखत करके हाथ उठाकर नारा लगाया, "विकलांगों के आका ..।"
आवाजें गूँजीं -"मुर्दाबाद,मुर्दाबाद।"
"श्यामा जी.....…"
"मुर्दाबाद, मुर्दाबाद।"(वहीं,पृ.सं.41)
यह कहानी जहाँ जातीय ’उच्चता-निम्नता’ से ग्रसित श्यामा जी के ओछेपन को दर्शाती है। वही पत्रकारिता जगत में विद्यमान सामंतवादी चरित्र पत्रकार ’झा’ का उल्लेखित करती है। श्यामा जी का कथन द्रष्टव्य है, "हम सालों-साल उम्र भर बिना धर्म के जी सकते हैं। बिना जात साँस भी नहीं ले सकते हैं। साँप भी अपनी हैसियत के मुताबिक ही कुंडली मार कर बैठती है। तुम अपनी औकात का अतिक्रमण किया है वर्मा।"
आका की ओरी तकरीर सुनकर जमन आश्चर्य से चौंका। खुश्क कंठ उसने अपनी बात दोहराई - "आप मेरी मदद करें। मेरी पत्नी का अपहरण करा दिया है, श्यामा जी ने।" एक ओर यह कहानी वर्णनात्मक शैली में लिखी गई है दूसरी तरफ़ पूर्व दीप्ति शैली का प्रयोग भी लेखक ने किया। कहानी की भाषा आमफहम की है, जिसमें मुहावरों का प्रयोग अनायास हो गया है। संवाद, संक्षिप्त, दीर्घ है कहीं-कहीं तो एक वाक्य में लिखे गये है। आमफहम की भाषा का उदाहरण- "जमन की चिंता नाग-सी फुफकारी। बीमा बिन आँखों की बाईस-तेईस की जवान औरत है। काम में पुरुष अंधा हो जाता है कि उसे अंधी, गूँगी, बहरी, लंगड़ी, लूली हर औरत मादा दिखाई देती है। बैरन की खूबसूरत की बड़ाई भी खूब करते हैं न लोग।"(वही, पृ.सं.17)
इस संग्रह की सबसे अच्छी कहानी ’खेत’ है। खेत कहानी का नायक केर सिंह मोड़िया बूढ़ा है। ’खेेत’ कहानी जहाँ बढ़ते ’शहरीकरण’, ’बाजारवाद’, ’उपभोक्तावाद’, ’लोभ लालच’ की संस्कृति को उजागर करती है वही यह ’बूढा’ नामक द्वारा किसान की अपनी जमीन के प्रति के प्रति लगाव को रेखांकित करती है। उसने अपने दो बेटों को पढ़ा-लिखाकर अफ़सर बनाया है अपनी सौ बीघे जमीन को अकाल से बचने के लिए बेच भी दिया है। तीन साल अकाल पड़ा है। अब मात्र उसकी जमीन चार कट्टा बची है जिसके दोनों तरफ़ बहुमंजिला बिल्डिंगें बन चुकी हैं उसी में साक-भाजी लगाकर अपने बचे हुए जीवन के दिनों को काट रही है। वकील भू-माफिया उसे तमाम लोग लालच देेते हैं, पर वह टस से मस नहीं होता हैं वकील जैसे घाघ और चापलूस आदमियों की चाल में भी वह नहीं फसता है। वकील बूढ़ा केरसिंह मोटियार से कहता है, "बाबा साहब, साठ फीट के रोड पर जो ट्रांसफारमर है ना, उसके दो प्लाट आगे इमली का पेड़ है एक उसी से दूसरा प्लाट है, मेरा।"
"दूसरो या तीसरो?"
"तीसरा नहीं, दूसरा बाबा।"
"जको आगे अबार बनो छै, अर बुच लाग्योड़ी है?"
"तांत्रिक हो बाबा।"
बूढा बोला, "वकील जी वैण्डे हमने अपनो बैल दबायो छो, बीस बोरी नमक मेल।" बूढ़ा के कंपकंपाते होंठों के साथ मूँछे भी कांप गई थी।
वकील का जी -सा निकल गया था मुँह खुला का खुला रह गया था, वहाँ।"(वही, पृ.सं.83-84)
वकील की चालबाजी से नामक केर सिंह मोटियार (बूढ़ा) नहीं उस। डरा अगर तो वकील लेखक लिखता है, "बूढ़ा ने अंडूस खोली। स्टाप की चिंदी-चिंदी कर वकील पर फेंक दी। रुपये की थैली सामने पटकी उसने गेट पर लाठी ठकठकाई- "वकील छौना। केरसिंह पागल कोनी, कालजों बेच दे अपणों।
बूढा लाठी उठाये, वकील ने बंद कर लिया था।" (वही, पृ.सं.88)
’मुक्ति’ कहानी धार्मिक पाखण्ड अंधविश्वास, मंदिरों में व्याप्त व्यभिचार तथा दलितों के प्रति छुआछूत की भावना का दिग्दर्शन कराती है। नानकराम जाति से मेहतर है गाँव में ’रामनवमी’ के दिन ’रामढोल’ अर्थात रथ पर सवारी निकाली जाती है। साँड़ रथ का रास्ता रोक लेता है। महंत के कहने पर नानकराम अपने लड़के चाँद सिंह (चंदू) को धर्म की बलिबेदी पर चढ़ाने के लिए साँड़ को हटाने के लिए कहता है। साँड़ आक्रोशित हो चाँद सिंह को फेंकता देता है, किंतु नानकराम अपने धर्म को अर्थात रथ को छोड़कर नहीं जाता है। पूरा गाँव तमाशबीन बना देखता हैं। लेकिन जैसे ही महंत कहता है," महंत ने ऊँचे कंठ नानक को हड़की मारी- ’अरे, नानकिया मेहतर है, तू। झाड़ू वाले हाथ मूर्ति नहीं छूते।".....तेरी तो...।" (वही, पृ.सं. 65)
मृत्यु के गोद में समाये हुये अपने बेटे को देखकर नानकराम का प्रतिशोध जाग उठा। लेखक लिखता है, "अट्ठावन की पक्की उम्र में भी नानक की काठी गठी, सुती, सुठौल थी। उसकी मुट्ठियाँ तलवार की मूठ पर करती गईं। तलवार आसमान की ओर सीधी उठ गई थी।......खून पीयेगी। नानक की जलती आँखें महंत की ओर देखे जा रही थीं।
महंत को धुजनी छूट गई थी। इतना भयानक रूप साँड का भी नहीं था, जितना नानक का था। तलवार गिरी, ढेर हुआ।
भागते महंत ने मूर्ति से हकराकर उसे जमीन पर गिरा दिया था। रथ से टकरा कर अपनी कोहनी फुड़ा ली थी।
भागते महंत पर नानक ने तलवार लहराई -"तेरी तो.....।"
महंत और मौत। महंत और मौत!! महंत और मौत!!" (वही, पृ.सं.65-66)
नानक ने आज से धार्मिकता का चोखा उतारकर फेंक दिया था, वहीं से उसे धार्मिक पाखण्ड से मुक्ति मिल गई थी।
इस संग्रह की भाषा पर विचार किया जाय, तो भाग खड़ी बोली मिश्रित राजस्थानी भाषा है जिसे आप बोल चाल की राजस्थानी कह सकते है। कुछ शब्द ऐसे प्रयुक्त है जिन्हें उत्तर भारत के हिंदी भाषी के लोग नहीं समझ सकते। जैसे कि ’भबूलों, ’लाग्योड़ी,’ ’छौ’, कोनी इत्यादि। पंजाबी भाषा का प्रयोग भी यथासंभव हो गया है- "बोल दा कि कांई छै?
बूढ़ा के कंठ तुर्शी थी......"प्लाट दा कि मांगये हाँ, तुर्शी?"
"धर का गूदड़ा।"
"हूँ! दसो-दसो।" (वही, पृ.सं.81)
एस. के.पंजम कथाकारों में अलग स्थान रखते है।
अजय नावरिया युवा कथाकार है। अजय नावरिया के दो कथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। ’पटकथा तथा अन्य कहानियाँ’ (2006) तथा ’पाँच कहानियाँ ’(2011) हैं। पटकथा संग्रह की कहानियों को पढ़ते हुए दलित साहित्य से जुड़े कई मुद्दे और दलित लेखन पर लगाये आरोप का खण्डन होता है। सच यह है कि दलित लेखन के समर्थन और विरोध की जो अतिवादी सीमाएँ है। अजय नावरिया की कहानियाँ दलित लेखन जुड़े अतिवादी मुद्दों को तोड़ती दिखलाई देती हैं। इनकी कहानियों का विषय विस्तार थोड़ा अलग हटकर है। इन कहानियाँ का शिल्प बहुत सुघड़ या कथ्य सजग नहीं है, लेेकिन इनमें एक बेचैन, धड़कती हुई ज़िंदगी है जो कहानियों को पढ़ने पर मजबूर करती हैं। अजय नावरिया की कहानियों में हैं- ’एस धम्म सनंतनों’, ’बलि’, ’उपमहाद्वीप’, ’ढाई आखर’, ’चीख’, ’रात’, एवं ’पटकथा’ हैं। ’एस धम्म सनंतनो’ में विस्थापन की समस्या पर आधारित है। यह कहानी अपमान एवं निरंतरता का बोध कराती है। गाँव से दादा ऐसे ही अपमान के जवाब में एक हत्या कर शहर चले आये। शहर ने पहले जुग्गी दी और इसके बाद सरकारी क्वार्टर में घर दिलाया। लेकिन अपमान की स्थितियाँ सूक्ष्म रूप से बनी रही। वह विस्थापन का वह बोध है जो गाँव से शहर और शहर में जुग्गी से सरकारी क्वार्टर तक पहुँचे बच्चों के भीतर घर कर गया है। अजय नावरिया लिखते हैं, "इस कालोनी में हमें बड़ी असहजता महसूस हुई, यह सुबह दस-साढ़े दस के बाद एकदम मुर्दनी छा जाती। ब्लॉक में बस पुराने कपड़ों के बदले बर्तन देने वालों की आवाजें टकराती घूमतीं। माँ हमें बाहर न निकलने देती। गर्मियों की छुट्टियोें में घर बदला था, हम दोनों भाई अपनी पुरानी बस्ती को याद करते और खिड़कियों की ग्रिल के पार देखते रहते। माँ डाँटती कि लू लग जाएगी। हम गुस्से से चिल्लाते, "फिर यहाँ क्यों आए? अपनी उस बस्ती में तो हमें लू नहीं लगती थी। वहाँ तो सब बाहर बैठे रहते थे,घूमते रहते थे। हमें पुराने दोस्त बहुत याद आते।" (पटकथा तथा अन्य कहानियाँ: अजय नावरिया, पृ.सं.15) प्रियदर्शन का कथन है, "वह न अपने पुराने समाज के रह गए हैं, न नए समाज के पाए हैं। वे अपनी प्रतिभा से आगे बढ़ रहे हैं, अपने बूते अपनी जगह बना रहे हैं। उनकी उपलब्धियों को लेकर समाज की कुंठा बची हुई है।" (हंस: सं. राजेंद्र यादव,मई 2006) ’बलि’ कहानी में एक बच्चे को उसका पिता कसाई बनने का प्रशिक्षण दे रहा है। यह कहानी जीवनयापन से जुड़ी है। ’उपमहाद्वीप’ कहानी शहर में एक सरकारी बैंक में अधिकारी के पद पर कार्य कर रहे एक दलित के अतीत की घटनाओं का वर्णन है। ’ढाई आखर’ कहानी में एक स्त्री की त्रासद पूर्ण जीवन में माँ पर संदेह करते पिता हैं जो एक दिन इस संदेह की सजा बेटी को देते है। उसके साथ बलात्कार करके। नैरेटर उसे पूर्ण संजीदगी के साथ अभिव्यक्त करने में विफल है। क्योंकि कहानी के पात्र एवं चरित्र दोनों ही जटिल हैं जिन्हें खोलने में कहानी उपन्यास आकार लेने लगती है। नैरेटर की नायिका अपने नायक से कहती है, "तुमने मुझे अपनी ज़िंदगी में शरीक होने का न्यौता दिया। सब में मैं उसकी बहुत कद्र करती हूँ। मैं आज तुम्हें स्पष्ट शब्दों में कहती हूँ कि मैं सच में तुम्हें....मींस आई रियली लव यू। बट.....मैं चाहकर भी तुमसे शादी नहीं कर पाऊँगी। लाईफ का यह ब्लैक मैं तुमसे छिपा नहीं सकती थी और बताकर मैं तुम्हारे साथ नार्मली वित्र बिहेव नहीं कर पाऊँगी। यह मेरी मजबूरी है। यह मेरी परेशानी है। मुझे तो इसे ज़िंदगी भर ढोना है। मुझे माफ कर देना। हाँ, इतना ज़रूर कहूँगी कि जब तक किसी से शादी न करो.... अगर तुम चाहो तो....तुम मिलने आ सकते हो। नहीं मुझे एक दम साफ कहना चाहिए। क्योंकि मैने तुमसे हर बात साफ कहने वायदा किया था। मतलब यह कि देखो तुम मुझे समझोगे न। मैं बिल्कुल इमोशनल होकर यह नहीं कह रही हूँ।" (वही, पृ.सं.64)
चीख कहानी बड़ी है जो एक गाँव का रहने वाला है। यह कहानी अप्राकृतिक यौन संबंधों को जटिलता के साथ खोलती है, जिसे वह युवक भुला नहीं पाता है। गाँव में एक दलित वच्चों की पढ़ाई से, फिर वह मुंबई चला आता है। जहाँ एक मसाज पार्लर में काम करता है, फिर किसी रईस महिला का निजी सेवक बन जाता है और अंत में उसे किसी और प्रेम हो जाता है। ’रात’ कहानी में ’प्रेम’ के छोर हैं, जिसकी कथा बिखरी हुई है।
अंतिम कहानी ’पटकथा’ तीन पीढ़ियों के बदलाव एवं ठहरावों की कहानी है। यहाँ भी तीन पीढ़ियाँ हैं, पिटते दादा, प्रतिरोध के रास्ते खोजते पिता और बराबरी पर खड़ा बेटा। यह कहानी समाज के बदलते दृष्टिकोण को, दलितों में पहले उत्पन्न अधिक सहनशीलता आई है, लेकिन यह सहनशीलता मजबूरी का परिणाम है, सहज मनुष्य का नहीं, स्थितियाँ बदल चुकी हैं, लेकिन कुंठाए गई नहीं हैं, इसलिए जब कोई निर्णय किया जाता है यह निर्णय दलितों के विपरीत जाता है। मोहनाराम को इसुरी सिंह एवं रामनारायण उसके मास्टर बनने पर नीचा दिखाते हैं। और अपने को ताकत दिखाते हुए कहते हैं, "हरामी की औलाद, साले-नीच तेरा बाप जब तक जिया, तब तक मेरे सामने उसकी सीधे खड़े होने की हिम्मत नहीं थी....और तू।" वे गुस्से से कांप रहे थे।
"तेरी ये मजाल हमारे ख़िलाफ़ खडे़ होने की हिम्मत करे।" इसुरी सिंह खाट से खड़े हो गए थे, गुस्से से दाँत पीसते हुए।
"चौधरी साहब, प्यादो भयो जो फरजी तो टेढ़ो-मेढ़ों जायं चाल सीधी करो, कहीं सिर पर मूतने लगे। सूदर लात से मानता है।" यह वार रामनारायण का था। (वही, पृ.सं.128-129) यह कहानी समाज में फैले जातिगत जहर का प्रकटीकरण करती है। भारतीय समाज में फैली संरचना की नब्ज को टटोलती प्रतीत होती है।
अजय नावरिया की कहानियाँ पीढ़ियों के अतर्द्वंद्व, पीढ़ियों के संघर्ष, अप्राकृतिक संबंध, वर्जित संबंध, सवर्णवादी, मानसिकता का विद्रूप रूप, दलितों को नीचा दिखाने, दलितों का स्वालंबी बनने, सहनशील, संवेदनशील, स्त्री उत्पीड़न, यौन-शोषण, पीड़ित स्त्रियों की त्रासदीपूर्ण जीवन की स्थितियों का यथातथ्य चित्रण किया है।
दलित कथा लेखन के क्षेत्र में महिला दलित कथाकारों को अँगुलियों पर गिना जा सकता है। जैसेकि सुशीला टाकभौरे, कावेरी, पूनम तुषामड़, सरिता भारत, रजत रानी मीनू, नीरा परमार, हेमलता महीश्वर, कुसुम वियोगी इत्यादि हैं। सर्वाधिक चर्चित कथाकारों में सुशीला टाकभौरे हैं। उनके कहानी संग्रहों में हैं- ’अनुभूति के घेरे’, ’टूटता वहम’, एवं ’संघर्ष’ (कहानी संग्रह) हैं। सुशीला टाकभौरे की कहानियों में ’सिलिया’, ’अनुभूति के घेरे’, ’टूटता वहम’, ’छौआ माँ’ तथा ’आंतक के साये में’ हैं। ’सिलिया) कहानी में मुख्यपात्र सिलिया है। सिलिया को जो बड़ी कठिनाइयों से मैट्रिक पास करती है, कोई भी लालच रास्ते से भटका नहीं पाता है। सुदृढ़ और पक्के इरादों वाली सिलिया ने जिस प्रकार के सामाजिक उत्पीड़न सहे हैं, वे सब उसकी स्मृति में ताजा है। यह एक अंतर्मुखी कहानी है जो सुधारवादी पद्धित पर लिखी गई है। ’सिलिया’ कहानी की सिलिया सोचती है, "हम क्या इतने भी लाचार हैं। आत्म सम्मान रहित हैं, हमारा अपना भी तो कुछ अहम भाव है। उन्हें हमारी ज़रूरत है, हम को उनकी ज़रूरत नहीं। हम उनके भरोसे क्यों रहें। पढ़ाई करूँगी, पढ़ती रहूँगी, शिक्षा के साथ अपने व्यक्तित्व को भी बड़ा बनाऊँगी। उन सभी परंपराओं के कारणों का पता लगा करूँगी, जिन्होंने उन्हें अछूत बना दिया है। विद्या, बुद्धि और विवेक से अपने आपको ऊँचा सिद्ध करके रहूँगी। किसी के सामने झुकूँगी नहीं। न ही अपमान सहूँगी।" (दलित कहानी संचयन: रमणिका गुप्ता, पृ.सं. 64-65) ’आंतक के साये में’ कहानी जातिदंश, दिखावटी सवर्णवादी नायक के छल कपट के प्रेम की कथा धारा रचती है। यह कहनी सवर्ण पुरुषों द्वारा दलित स्त्रियों को प्रेम जाल में फंसाकर उनका यौन शोषण करता है। यही कारण है कि उच्चवर्णीय नायक निम्न वर्णीय नायिका से कहता है, "वह क्रूरता के साथ हँसा। फिर बहुत कुटिलता के साथ संबोधन करते हुए बोला," मूर्ख तुमने अपने आप को क्या समझ लिया है? कहाँ तुम? कहाँ मैं? तुम्हारी मेरी कोई बराबरी नहीं हो सकती। तुम जहाँ पहले थीं, मेरे लिए आज भी वहीं हो। चौथे क्रमों से भी नीचे, सबसे अंतिम क्रमांक पर अंत्यज, अछूत।"(कदम: सं. कैलाशचंद चौहान तैमासिक,अगस्त-अक्टूबर 2013 पृ.सं. 24) समस्त दलित समाज ’जाति’ के आंतक में जीवनयापन आज भी कर रहा है। सुशीला टाकभौरे लिखती हैं, "आंतक के साथ जीवन, मौत की सूली पर रहता है। मुझे मृत्युदण्ड दिया जा सकता है। मगर किस कसूर का? आंतकवाद का लक्ष्य है-बेकसूरों को भयभीत करना, उन्हें नेस्तानाबूद कर देना। इस छिपे आंतकवाद पर पुलिस की नज़र क्यों नहीं जाती?
विषतावादी -जातिवादी लोगों के इस आंतकवाद को जड़ों से उखाड़ने के लिए। सवर्ण समाज के सुविधा संपन्न समझदार लोग आगे क्यों नहीं आते? चुप रहकर या चुपके-चुपके शह देकर, वे इस आंतक से बेकसूर निरीह दलित, शोषित मूलनिवासी लोगों को भयभीत क्यों बनाये रखना चाहते है?"(वही पृ.सं. 23) ’जरा समझो’ दलितों के स्वाभिमान को उकेरती हुई कहानी है।
अन्य कथाकारों की कहानियों में प्रहलादचंद्र बोस की ’पुटूस के फूल’, ’बैगनवारी’, ’नचनी काकी’, ’लबार’, ’उलगुलान’ है। रूपनारायण सोनकर की ’जहरीली जड़े’, ’कफ़न’, ’ये कैसी सदगति है?’, राजवाल्मीकि की ’खुशबू अचानक’, ’काबेरी की ’सुमंगली’, ’निर्द्वंद्व’, ’द्रोणाचार्य एक नहीं’, ’नदी की लहर’, रजत रानी मीनू की ’वे दिन’, प्रेम कपाड़िया की ’जीवन साथी’ ’हरिजन’, कर्मशील भारती की ’और रास्ता खुल गया’, मुद्राराक्षस की ’पैशाचिक’, बी.एल. नायर की ’चतुरी चमार की चाट’, ’कालीचरण प्रेमी की ’उसका फैसला’, ’नाली नहीं तो कुछ भी नहीं’, पूरन सिंह की ’हे किशना’,’कुसुम वियोगी’ की ’अंतिम बयान’ नीरा परमार की ’बैतरणी’, हेमलता महीश्वर की ’बेदखल’, सी.बी. भारती की ’भूख’, सत्यप्रकाश की ’दलित ब्राह्मण’ पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी की ’प्रतिशोध’ बुधशरण हंस की कहानियाँ चर्चित हैं।
यह कहा जा सकता है कि दलित कहानीकारों ने अपनी कहानियों के द्वारा दलित समाज की विविध समस्याओं, मुद्दों और जीवित यथार्थ को सत्यता और अनुभव के साथ अपनी कहानियों में रचते हैं। यह रचनात्मक अनुभव और जीवानुभव से गुजरे हुए कथाकार का हिस्सा हैं। वह अपने जिए हुए सच को अपने कथा संसार में कहीं न कहीं प्रस्तुत अवश्य करता है। यही उसके कथाकार होने की दृष्टि अलग कर देती है।