विशेषांक: दलित साहित्य

11 Sep, 2020

साहित्य और आन्दोलन के रिश्ते

साहित्यिक आलेख | मोहनदास नैमिशराय

प्रेषक: सतीश खनगवाल

भारतीय समाज की बुनावट में आरंभ से ही परम्पराओं और प्रथाओं का विशेष योगदान रहा है। यही हमारी सांस्कृतिक धरोहर भी रही है। लोकगीतों की गूंज तो जर्रे-जर्रे में रही है। बकौल कमलेश्वर लोकगीत दलितों की विरासत है। उन्हीं लोकगीतों और लोक कथाओं की गुम होती चली जा रही अस्मिता और पहचान को खोजने के लिए हाशिए से केन्द्र में तेजी के साथ आ रही है। आज नई पीढ़ी तत्पर है। देखा जाए तो भगवान बुद्ध के सामाजिक न्याय के सिद्धांत की डोर को मध्यकाल के संतों/फकीरों/और सिद्धों ने फिर से पकड़ा था। रविदास से ही हीरा डोम, हीरा डोम से अछूतानन्द और अछूतानन्द से बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर और डॉ. अम्बेडकर से मान्यवर कांशीराम आदि ने जन-जन को जाग्रत करने का प्रयास किया था। वे हमारे इतिहास पुरूष हुए हैं और सामाजिक बदलाव के सूत्रधार भी। उनसे हमें प्रेरणा भी मिलती रही है।  

इन संतों/फकीरों/सिद्धों/लेखकों/समाज सुधारकों तथा महापुरूषों की कड़ी लगातार आगे बढ़ती रही। सामाजिक परिवर्तन के इतिहास में बहुत सारी बातें दस्तावेज के रूप में दर्ज़ हुई। उनमें गुरूनानक/कबीर/ चैखामेला/रामास्वामी नायकर/ मंगूराम /ज्योतिबाफुले/ नामदेव/नारायण गुरू जी रहे वहीं कश्मीर की लाल डेग तथा सावित्री बाई फुले के साथ उड़ीसा के भीमा भोई भी कहीं पीछे नहीं रहे। भीमा भोई को तो उड़ीसा को कबीर भी कह कर पुकारा जाता है। उनके बारे में उत्तरी भारत में कम पढ़ा-लिखा गया। उन्होंने जन-जन में क्रांति की। क्रांतिकारी गीत लिखे। हिंदू मठाधीशों के द्वारा उन पर कई बार हमले भी हुए लेकिन उन्होंने न समाज सुधार करना छोड़ा और न साहित्य सृजन।

यह तो सर्वविदित हैं कि साहित्य में कॉमरेड यशपाल ने एक जोरदार दस्तक दी थी। उनके साहित्य में आंदोलन रचा-बसा था। वे साहित्य को आंदोलन के रास्ते से आगे ले जाना चाहते थे। जबकि प्रेमचन्द के साहित्य में आंदोलन मूक था। हालांकि उन्हीं के पात्र पहली बार बोलने भी लगे थे। उनके भीतर जद्दोजहद उभरने लगी थी। कहीं-कहीं वे सूत्रधार बनने की स्थिति में भी आने लगे थे। निश्चित ही प्रेमचन्द का अपने पात्रों के माध्यम से यह प्रयोग था। तत्कालीन परिस्थितियों को देखें तो उन पर गांधी/अम्बेडकर/तथा स्वामी अछूतानन्द जी का परोक्ष और अपरोक्ष रूप में प्रभाव भी था। आज के समीक्षक/आलोचक इस बात से इंकार नहीं कर सकते। प्रेमचन्द ने अपने समय की परिस्थितियों तथा राजनैतिक और सामाजिक गतिविधियों को देख समझ कर ही साहित्य का ताना-बाना तैयार किया था इसलिए कि उन्होंने समाज की धड़कन को बहुत नजदीक से सुना था।  

कॉमरेड यशपाल ने तो साहित्य सर्जन के उद्देश्यों की विशद रूप में चर्चा भी की है। उनके अनुसार साहित्यकार का दृष्टिकोण समाज हित में होना चाहिए इसलिए जन साहित्य की परम्परा आगे बढ़ी। वे चाहें बुन्देलों के गीत हों या पश्चिमी बंगाल में गाँव-कस्बों में घूमते-फिरते बाऊल कवि और गीतकार हों या फिर उत्तरी भारत में इकतारा लेकर गाते हुए फकीर। वे घर द्वार पर दस्तक देते। गीत सुनाते, इकतारा लेकर तान छेड़ते। घर के भीतर से प्रौढ़ महिलाएँ पल्लू सँभाले आतीं। दुल्हनें घूँघट निकाल कर बाहर की ओर देखती। आँगन में खेलते बच्चे ठिठक कर रह जाते। घर आए साधुओं/ महात्माओं/ संतों / तथा फकीरों के गीत वे सभी ध्यान से सुनते। साधु जन घर-घर जाकर दस्तक देते/गीत सुनाते। अपनी आपबीती कहने वाले ऐसे तमाम लोग भारत की विराट संस्कृति के वाहक रहें हैं। संवेदनाओं को पढ़ने/लिखने/तथा सुनाने वाले ये सामाजिक न्याय के मानवीय सिद्धांत को आगे बढ़ाने वाले रहे हैं। 

निश्चित रूप में आजादी के पूर्व और बाद में भी पिछली शताब्दी संघर्ष और आंदोलन में रची-बसी रही। लेकिन इस संघर्ष और आंदोलन को आधुनिक काल में गति दी दलित लेखकों तथा चिंतकों ने। उन्होंने साहित्य को और भी अधिक आंदोलन से जोड़ा। इस तरह से दलित पीड़ा और व्यथा बाहर आई। उन्होंने समाज की धड़कनों को नजदीक जाकर पढ़ा। समाज में फैल रही विषमताओं पर वार किया। देश में चल रही समाज विरोधी रूढ़ियों को ध्वस्त करने के प्रयास किये। मूल रूप से कहा जाए तो दलित साहित्य का उद्देश्य भी यही रहा है: जाति, धर्म और नस्ल के आधार पर मानव-मानव के बीच बनी दीवारों को गिराना; समाज को श्रमण संस्कृति के महत्व से परिचित कराना; महिलाओं को उनके खोये हुए अधिकार वापस दिलाना; दलित और पिछड़े समाज को हेय दृष्टि से देखने और समझने की सनातनी मानसिकता का निर्मूलन करना; राष्ट्रीय मुद्दों पर दलित और गैर दलितों के बीच संवाद स्थापित करना। 

कुछ लेखक और समीक्षक मानते हैं कि दलित साहित्य का उद्भव और विकास सर्वप्रथम महाराष्ट्र में हुआ। जैसा कि वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह का भी कहना था कि हिन्दी दलित साहित्य मराठी दलित साहित्य की कलम है। जबकि ऐसा नहीं है। दलित साहित्य का सर्जन तो समूचे देश में मध्य काल से होता चला जा रहा है और उत्तर प्रदेश की जमीन इसके लिए उर्वरा बनी है। वहाँ क्रांति के गीत गाये गये। सामाजिक परिवर्तन के लिए अलख लगाए गये। पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाँव, कस्बों में बहुत कुछ लिखा गया। जो लिखा गया, वह उन्हीं की आंचलिक भाषा में। पिछले दस-पन्द्रह वर्षों से इस पर शोध कार्य शुरू हुआ। जिसमें गोविन्द बल्लभ पंत सोशल इंस्टीटयूट, झूंसी, इलाहाबाद (प्रयागराज) के तहत दलित स्रौत सेंटर की प्रभावपूर्ण भूमिका रही है। अपना लेखक- अपना गाँव योजना के तहत बद्रीनारायण और बृजेन्द्र गौतम आदि ने अभूतपूर्व कार्य किये।  

 जनवरी-मार्च, 2003 के अरावली उद्घोष (उदयपुर, राजस्थान) के अंक में अनिल पाण्डेय को दिये गये साक्षात्कार में महाश्वेता देवी कहती है, "मुझे 1975 से पूर्व जो जीवन था, उससे छुटकारा मिला। मैं एकदम आजाद हो गई थी और जो भी दिल चाहता था, कर रही थी। मैंने इससे पहले से ही लिखना शुरू कर दिया था। मेरी पहली किताब 1956 में छपी। उसके बाद मैंने बहुत सारी किताबें लिखीं। जनजातियों के बारें में जो किताबें लिखी, वह थीं ‘बिरसा मुण्डा’ के जीवन और मुण्डारी विद्रोह पर आधारित "जंगल के दावेदार’’। बंगाली में "अरण्येर अधिकार’’ नाम से वह छपी थी। वे लिखती हैं कि 1963 से 1975 तक मैं साल मैं दो-तीन बार पलामू, राँची और सिंहभूमि जाती थी, और वहाँ बहुत घूमती थी। इसी कारण वहाँ की बँधुआ मजदूर प्रथा की ओर मेरा ध्यान आकर्षित हुआ। इसी प्रथा के विषय में मैंने अपनी पुस्तक "भारत में बँधुआ मजदूर’’ लिखा। यह जो मेरी किताब छपी, पहले बंगाली में नहीं अंग्रेजी में भी नहीं छपी अपितु हिन्दी में प्रकाशित हुई। अपनी रचनाधर्मिता के ही दौरान मैंने यह प्रण किया था कि बँधुआ मजदूरी नहीं चलेगी। भारत सरकार ने 1975-76 में एक कानून बनाकर बँधुआ मजदूरी पर प्रतिबंध भी लगाया। ऐसा ही प्रण दलित साहित्यकारों/ पत्रकारों/ तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं ने किया था। उनके प्रण और अभियानों के कारण ही देश भर में बदलाव की आँधी चली थी। उसका महत्वपूर्ण कारण था साहित्य और आंदोलन के रिश्ते मजबूती से बने थे। 

जिनके पास बड़ी-बड़ी जमीन रही, उनके पूर्वजों ने इन दलित-आदिवासियों को पाँच-दस रूपया उधार दिया था। उसके बाद उसका ब्याज बढ़ गया तो उसका हजार रूपया हो गया। पिता ने ताउम्र मेहनत-मजदूरी की। वह पाँच-दस रूपये की मूल रकम के साथ ब्याज के साथ बढ़ी हुई धन राशि जीवन के अंतिम सांस तक भी चुका नहीं पाया। जब उसका बेटा पैदा हुआ तो उसे भी बँधुआ मजदूर बनना पड़ा। वह भी पिता द्वारा लिये कर्ज को नहीं चुका पाया। उसके बाद में उसका बेटा हुआ। उसकी भी यही हालत रही। 

सामंतो/जागीरदारों/पटेलों/भू-स्वामियों/नबाबों /रानियों के द्वारा बनाए गये कितने निर्मम थे ये नियम। इन्हीं सबके खिलाफ दलित आदिवासी कथाकारों ने लिखा और उन्हें सुप्त स्थिति से अवगत कराया। उनके भीतर चेतना जागृत की। उन्हें अहसास कराया कि वे भी अन्य जातियों/धर्मों/नस्लों के लोगों की तरह इंसान हैं। हर सदी में दलित गीतों तथा कथाओं की गूँज रही है। 

दलित साहित्य में त्याग/ बलिदान/ समर्पण कहानियाँ मिलेंगी/ समय बदलने के साथ तेवर बदले। पीड़ा से आक्रोश उभरा। जैसे नदी जब समंदर में मिलती है तो उसकी भाषा एक ही होती है। लेकिन भावना एक ही है। वह भावना है समर्पण की। आज अलग-अलग राज्यों में जो साहित्य लिखा जा रहा है उसका बृहत रूप होता जा रहा है। यह भी महसूस किया गया है कि दलित साहित्यकार और कथाकार एकला चलो की नीति पर न चलकर, उनमें उदारता आई है। उनमें मिलजुल कर सृजन करने की चेतना आई है।  

समाज में आज सर्वहाराओं के जितने आंदोलन समता और बराबरी के लिए चल रहे हैं, दलित साहित्य ने समय-समय पर उनकी आवाज को बुलंद किया है। मजदूरों की साझी लड़ाई में भाग लिया हैं। उनकी अस्मिता को चोट पहुंचाने वाले वर्ग को दलित साहित्यकारों ने टक्कर दी है। साहित्य में उनके दर्द को दर्ज किया है। वही दर्द अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दस्तावेज बनकर आए हैं। जिससे पाठकों और शोधार्थियों के बीच सुःखद और दुःखद प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न हुईं।  

ऐसे में जन-जन से दलित साहित्य को जोड़ना चाहिए। दलित साहित्य के समीक्षकों को चाहिए कि वे दलित साहित्य के में प्रेमभाव से डुबकिया लगाएँ/प्यार से स्वीकार करें, यह भी भगवान बुद्ध की धरती है। गाँधी/टैगोर की भी। ऐतिहासिक दुर्घटनाओं ने देश को भी तोड़ा है और समाज को भी, इन सबसे हमें बचना चाहिए। उ0प्र0 बड़ा राज्य है। यहाँ विशेष रूप से गंगा-यमुना की संस्कृति जन-जन में बहती है। जागरूक लेखकों तथा चिंतकों की जिम्मेदारी है कि वे गाँव/कस्बों में सर्जन हो रहे दलित साहित्य की तलाश करें। वे हमारी राष्ट्रीय/संस्कृतिक निधि है। साहित्य में दलित अस्मिता और पहचान के सवाल उभर रहे हैं, उनके जवाब अकेले दलित ही क्यों तलाश करे? देश में साझी संस्कृति बने। दलित साहित्य के सामाजिक बदलाव के आंदोलन से और अधिक प्रगाढ़ रिश्ते बने। जिससे समाज में स्वस्थ परंपरा का विकास हो सके। साहित्य अभियान है नये युग के सूत्रपात का भी। दलित साहित्य सर्जन के इस अभियान में जुटे लेखकों/समीक्षकों को स्वस्थ समाज के विकास हेतु जोरदार दस्तक देनी चाहिए। उन्हें देशाटन करना चाहिए और अपने परिवार के साथ ‘लेखक से मुलाकात’ योजना के तहत अन्य प्रदेशों में जा-जा कर मिलना-जुलना चाहिए। तभी देश में स्वस्थ समाज की रचना हो सकती है और बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने जैसे भारतीय समाज की कल्पना की थी, वह साकार हो सकती है। 

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