भारतीय साहित्य की सभी भाषाओं में लगभग एक ही समय पर दलित साहित्य का सूत्रपात हुआ। अस्मितामूलक विमर्शों के दौर में, दलित साहित्य अस्मिता और अस्तित्व दोनों के संकट को जीवित अनुभव के रूप में प्रस्तुत करता है। जाति के प्रश्न पर सदियों से चली आती असमानताएँ भारतीय जन समाज में इस तरह विन्यस्त हैं कि एक बड़ा वर्ग हाशियाकृत उपस्थिति में जीवन जीने को विवश है। जातिवाद का सबसे भीषण संकट स्पर्श-जनित है। अस्पृश्यता एक ऐसा अभिशाप है जिससे मुक्ति के लिए सामाजिक संरचनाओं में व्यापक परिवर्तन अपेक्षित है। संवैधानिक व्यवस्था हर नागरिक के लिए बराबरी के अधिकार को सुनिश्चित करती है लेकिन सामाजिक संरचनाएँ भेदभाव को ख़त्म नहीं होने देतीं। सशक्तिकरण की अनेक तदबीरों में साहित्य की महत्वपूर्ण भूमिका बनती है। दलित साहित्य इसी आकांक्षा का मूर्तिमान रूप है।
आज़ादी के बाद(भी) और आज़ादी के बावजूद दलित-जीवन के अंधकारमय पृष्ठों से यातना और संघर्ष की इबारत मिटाई नहीं जा सकी। प्रतिदिन ऐसी घटनाएँ घट रही हैं जो बताती हैं कि दलित शोषण थोड़े-बहुत फेरबदल के साथ आज भी बदस्तूर जारी है। यह अमानवीय व्यवहार तथा जातिगत शोषण ही दलित साहित्य का प्रस्थान-बिंदु है। दलित साहित्य जिस नए सौन्दर्यशास्त्र की पैरवी करता है उसमें साहित्य का संबंध संघर्ष और जागृति से है। कविता या साहित्य नुमाइश की वस्तु नहीं, न ही काव्यात्मक चमत्कार उत्पन्न करना उसका लक्ष्य है। इस साहित्य का लक्ष्य न्याय की पुकार है। अम्बेडकरवादी विचारधारा से प्रेरित यह साहित्य शोषण से मुक्ति का शंखनाद है। यातना की स्मृति जिस पृष्ठभूमि का निर्माण करती है, सामाजिक विमर्श की शुरुआत वहीं से होती है। समाज के स्थापित ढाँचे का अस्वीकार, उसे प्रश्नांकित कर उससे टकराने की कोशिश, दलित साहित्य का नया सौंदर्यशास्त्र रच रही है।
अलग-अलग रचनाओं, भिन्न शब्दों और पंक्तियों में एक विचार जो बार-बार सबको उद्वेलित करता है उसे सुशीला टाकभौरे की काव्य-पंक्ति में पढ़ा जा सकता है– ‘दुख हमें, सुख उन्हें /कैसी यह विडंबना’। ऐसी पंक्तियों में विषम समाज की प्रत्यालोचना रूप धरने लगती है। दलित रचनाकारों ने महसूस किया कि यह कुछ लोगों-वर्गों की धोखाधड़ी है जो बहुजन समाज को लगातार शहरों की परिधि पर धकेल कर, उतरन व जूठन पर जीने को विवश करती है। उनकी कवितायें-कहानियाँ ऐसे ब्यौरों से भरी पड़ी हैं जिनमें वर्गों के बीच असमानता की निरंतर बड़ी होती खाई का अहसास है। ऐसे विवरणों में उनका स्वर चुनौतीपूर्ण हो जाता है। कहीं यातना के स्वर हैं तो कहीं चेतना के, कहीं शोषकों को धिक्कार है तो कहीं अन्याय के विरुद्ध अत्याचारियों से बदला लेने की हुंकार है। दलितों के यातनामय जीवन के अनेक कारुणिक प्रसंग हैं। शोषण के ये सन्दर्भ अपमान की पीड़ा को जीवित रखते हैं। जातीय उत्पीड़न की अनगिनत परतें तथा स्त्री जीवन का दोहरा-तिहरा अभिशाप–इस साहित्य के शब्द-शब्द में प्रस्फुटित होता है। अधिकांश रचनाओं का विषय-बोध बार-बार इसी घेरे में घूमता है। शायद अनेकश: कहने पर भी पीड़ा पूरी तरह चुकती नहीं। मुक्ति-कामना के लिए अपने अस्तित्व व स्वाभिमान के प्रति इस तरह की सचेतता ही जागरण का उत्स है। इस साहित्य की सार्थकता इसी बात में है कि सोये हृदयों को आंदोलित किया जा सके।
ऐसे बहुत से विवरणों की बहुतायत के कारण दलित साहित्य की साहित्यिकता पर प्रश्न चिन्ह लगाया गया। अस्मिता के आधार पर इस साहित्य की अलग सत्ता को स्वीकार करने की अपेक्षा, इसे साहित्य में आरक्षण की माँग कह कर खारिज करने की कोशिश की गई। दरअसल यह सारी जद्दोजेहद इसलिए थी कि यह साहित्य आलोचना के स्थापित ढाँचे में परिवर्तन की माँग कर रहा था और अपने पृथक अस्तित्व को लगातार जता रहा था। शरण कुमार लिम्बाले, ओमप्रकाश वाल्मीकि, कँवल भारती– अनेक विचारकों ने दलित साहित्य की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए साहित्यिक अभिरुचि के परिवर्तन को रेखांकित किया।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने यह आरोप लगाया कि ‘हिंदी साहित्य में ढूँढ़ने पर भी हमें अपना चेहरा दिखाई नहीं देता’। शरण कुमार लिंबाले का विचार था ‘अछूत का अनुभव, जाति-व्यवस्था का कलंक अलग कर दिया जाए तो सर्वहारा का जीवन एक जैसा होता है। प्रत्यक्ष जाति-व्यवस्था होने के बावजूद उसे नकार कर सभी का जीवन एक समान है कहना वास्तविकता को नकारना तथा यथार्थ पर लीपा-पोती करना है। अछूत के अनुभव की ओर से आँखें नहीं मोड़ी जा सकतीं क्योंकि यह त्रासद अनुभव हज़ारों वर्षों से हज़ार मनुष्यों का है। दलित साहित्य का जन्म अस्पृश्यता की कोख से हुआ है और यही इसकी विशेषता है।‘ इस अनुभव के आधार पर ही दलित चिंतकों ने आलोचना में कल्पना की विधायिनी शक्ति और आनंद की प्राप्ति जैसे सिद्धांतों को सिरे से नकार दिया उनके अनुसार प्रगतिशील आलोचना भी उनके जीवन को काल्पनिक ढंग से प्रस्तुत करती है। सहानुभूति के लिए रहस्य रोमांच का ऐसा वायवीय लोक रचती है जो यथार्थ से कोसों दूर है।
जातिगत असमानता पर अवस्थित यथार्थ का सही चित्रण दलित साहित्य की आलोचना का सबसे बड़ा प्रतिमान है। यही तत्व उनके कथ्य और भाषा दोनों को निर्देशित करता है साहित्यिक आलोचना की कसौटियों का निर्माण इस आधार पर होना चाहिए कि बोलने वाले की ‘सामाजिक स्थिति’ एवं ‘भौतिक उपस्थिति’ उसके लेखन को कैसे नियंत्रित करती है अर्थात रचनाकार समाज के किस वर्ग की नुमाइंदगी कर रहा है। समाज की वृहत्तर संरचना में जो ताक़तें उसका हाशियाकरण करती है वह उन्हें कैसे संबोधित करता है। उसका स्थान और समय, उसकी अभिव्यक्ति के अर्थ-आशय को कई स्तरों पर प्रभावित करता है। यह अकारण नहीं है कि दलित साहित्य की आधारभूत रचनाएँ जिनसे इस साहित्य को अलग पहचान मिली आत्मकथात्मक हैं। शरण कुमार लिंबाले की ‘अकरमाशी’, दया पवार की ‘अछूत’, मोहनदास नैमिशराय की ‘अपने-अपने पिंजरे’, ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘जूठन’, श्योराज सिंह बेचैन की ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’, कौशल्या बैसंत्री की ‘दोहरा अभिशाप’, बेबी कांबले की ‘जीवन हमारा’ और सुशीला टाकभौरे की ‘शिकंजे का दर्द’ ऐसी आत्म कथाएँ हैं जिन्होंने दलित साहित्य को व्यापकता प्रदान की। इनके माध्यम से इन रचनाकारों के जीवन की ओर तो हमारा ध्यान गया ही अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था भी बेनक़ाब होती है। यातना के चित्र, संघर्ष का साहस देते हैं। ये रचनाएँ एक तरह से सामाजिक परिवर्तन की दृष्टि से एक सक्रिय हस्तक्षेप हैं जिन्होंने सामाजिक एवं साहित्यिक कुलीनतावाद को एक साथ चुनौती दी।
दलित साहित्य का आरंभिक स्वर तीव्र आक्रोश से भरा है। रमणिका गुप्ता का कहना था कि ‘दलित साहित्य ने सामाजिक समानता और राजनीतिक भागीदारी को भी साहित्य का विषय बनाकर उनकी आर्थिक समानता की अधूरी मुहिम को पूर्णता दी। इन तीनों मुद्दों पर समानता प्राप्त किए बग़ैर मनुष्य पूर्ण समानता प्राप्त नहीं कर सकता। दलित साहित्य इस पूर्ण समानता के लिए संघर्षरत्त है।‘
दलित आलोचना और साहित्य में, दया और सहानुभूति के पर्दे गिराकर, अपने पर हुए अत्याचारों का हिसाब माँगा जा रहा है। इस प्रक्रिया में कुछ व्यक्ति या जातियाँ ही कटघरे में नहीं होगीं, पूरे समाज को जवाब देना होगा कि कैसे उसने अपने जनसमूह के एक बड़े भाग को शताब्दियों तक असंख्य यंत्रणाओं की अग्नि में जलने को विवश किया। बरसों से ऊँच-नीच के सामंती ढाँचे का शिकंजा दलित जीवन के लिए अपमान के अध्याय रचता रहा है। उनके यहाँ व्यतीत जीवन-स्मृतियाँ अपमान का पर्याय बन हुई हैं। पूर्वजों की पीड़ा का संताप तथा वर्तमान में बार-बार जाति के नाम पर भोगा गया अपमान, जीवन अनुभव का सत्य है। ये सब स्थितियाँ घोर अपमानजनक ही नहीं सामाजिक दृष्टि से अस्वीकार्य हैं।
सामाजिक स्थितियों की जड़ता के पीछे, धर्म व संस्कार के नाम पर होने वाले अनुकूलन की विशेष भूमिका है। अपने प्रति होने वाले अन्याय और अपमान के विरुद्ध पूरे वर्ग की सहिष्णुता, विरोधी स्वर का अभाव उस समाज में सवर्णों द्वारा निम्न जातियों के भयंकर अनुकूलन का प्रतीक है। क्यों ये जातियाँ अपने अधिकार या सम्मान के लिए खड़ी नहीं हो सकीं, यह सवाल केवल समाजशास्त्र का ही नहीं साहित्य का भी है और दलित साहित्य बार-बार इससे जूझता है। आमूल परिवर्तन की राह जातिगत समीकरण में प्रत्यावर्तन चाहती है। पीड़ा जितनी अधिक है विरोध उतना ही आक्रामक। संघर्ष का रास्ता केवल आक्रोश की अभिव्यक्ति से तय नहीं हो सकता, यह दलित चिंतक और साहित्यकार भी जानते हैं। इसीलिए आक्रोश उनके साहित्य की एक रचनात्मक युक्ति है। छोटे-छोटे विवरण भी जो सामाजिक ताने-बाने पर एक बहस खड़ी करने के साथ-साथ सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया की पहल भी बनते हैं।
जिस विचारधारा के प्रति निष्ठा एवं प्रतिबद्धता दलित रचनाओं को ऊर्जा देती है वह प्राय: उसे दृष्टि के विस्तार का अवसर नहीं देती। लेकिन कुछ रचनाएँ अपवाद स्वरूप ऐसी अवश्य हैं जिनमें रचनाकार का विज़न विस्तृत होता दीखता है जैसे ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘जूठन’ और तुलसीराम की ‘मुरदहिया’। ये आत्म की कथाएँ अवश्य हैं लेकिन इनमें आत्म का स्वर सामाजिक आलोचना-प्रत्यालोचना के महीन ताने-बाने से निर्मित है। इनमें चित्रित पृष्ठभूमि भी समाज का बड़ा कैनवस प्रस्तुत करती है। यथार्थ का खुरदरापन, यहाँ यथार्थ के अतिक्रमण का दृष्टिबोध बनता है। इस दृष्टिबोध के सुखद अहसास के साथ दलित चेतना का ग्राफ पूरा होता है। दलित साहित्य के सभी प्रमुख रचनाकारों के साहित्य में ‘यातना, संघर्ष और दृष्टिबोध’–ये तीन सोपान, बड़ा इलाक़ा घेरते हैं।
दलित साहित्यिक आलोचना का एक प्रमुख मुद्दा दलित स्त्रीवाद का भी है। दलितों में दलित, पिछड़ों में पिछड़ी, समाज में सबसे संवेदनशील स्थिति स्त्री की ही है। स्त्री रचनाकार के नाते कौशल्या बैसंत्री, बेबी कांबले और सुशीला टाकभौरे ने अपनी आत्मकथाओं में स्त्री जीवन की विंडबनात्मक स्थितियों, उसकी पीड़ा व संघर्ष की धारदार अभिव्यक्ति की है। एक साक्षात्कार में सुशीला टाकभौरे ने मुझे बताया, “मेरा अपना बचपन और युवावस्था का प्रारम्भ जिस स्थिति और वातावरण में हुआ, वहाँ बन्धन ही बन्धन थे। कहीं परम्परा, कहीं सुरक्षा और कहीं इज्ज़त लुटने के डर से कभी स्वतंत्र होने का भान भी नहीं होने दिया।“ बलात्कार, यौन शोषण का भय इस वर्ग की स्त्री के लिए अँधेरे साये की तरह उसके वजूद को घेरे रहता है। इस वर्ग के पुरुष को दंडित करने के लिए उसके परिवार की स्त्रियों की देह, हिंसा की साइट बनती है। महिलाओं के प्रति हिंसा और अपराध पर जितनी भी रिपोर्ट हैं वे सब इस सत्य की साक्षी हैं। राष्ट्रीय महिला आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार दलित महिलाएँ अमानवीय व्यवहार के कई रूप झेलती हैं। अपहरण, दैहिक शोषण, नंगा करके घुमाना, अभद्र भाषा जैसी अनेक स्थितियाँ उनके जीवन को और भी विकट कर देती हैं। दलित स्त्रियों के शोषण का बहुत बड़ा कारण यह भी है कि अपनी सत्ता या ताक़त का आभास देने के लिए सवर्ण जातियों के पुरुष इन स्त्रियों को हथियार बनाते हैं। पूरे वर्ग को दंडित करने के लिए दलित स्त्रियों का दैहिक शोषण किया जाता है। इस पर घरेलू हिंसा, पारिवारिक दमन, उनकी अस्मिता व अस्तित्व—दोनों के लिए संकट खड़ा करते हैं।
विमल थोराट, रमणिका गुप्ता, रजनी तिलक, रजनी दिसोदिया आदि ने इस स्थिति पर गंभीरता से विचार किया है। अनीता भारती अपनी पुस्तक ‘समकालीन दलित नारीवाद’ में दलित स्त्री के जीवन की चुनौतियों का मूल्यांकन अलग श्रेणी में रखकर करने की बात करती हैं क्योंकि दलित स्त्री जाति के नाम पर जो मान-अपमान झेलती है वह सवर्ण स्त्रियों को नहीं झेलना पड़ता। दलित स्त्री का एक अपना वर्ग है जो उसे समस्त स्त्री समाज में सबसे अशक्त बनाता है। सवर्ण स्त्रियों का व्यवहार भी दलित स्त्री के प्रति कम क्रूर नहीं है। इसलिए लैंगिक समानता उन्हें एक वर्ग में नहीं बाँधती। उनकी लड़ाई अलग-अलग है।
दलित लेखन के शुरूआती दौर में यह असमंजस रहा कि दलित साहित्य के बरक्स स्त्री साहित्य को कहाँ रखा जाए। कुछ लोग समस्त स्त्री वर्ग को दलित मानने की पैरवी कर रहे थे तो दूसरा वर्ग स्त्री की पीड़ा को अलग से रेखांकित करने के प्रयत्न को दलित आग्रहों को कमज़ोर करने की पेशकश मान रहा था क्योंकि दलित साहित्य का मुख्य मुद्दा जातिगत असमानता के दंश का प्रतिकार था। कुछ विचारकों को लगता रहा कि इसमें लैंगिक अस्मिता के सवालों को जोड़ देने से यह संघर्ष बिखर सकता है। उनका आग्रह स्त्री-पुरुष विवाद के परे सबको जातिगत संघर्ष में शामिल रखने का रहा। दलित वर्ग में लैंगिक असमानता को वे अंदरूनी मसला मानते थे। इस दुविधा का उत्तर रजनी तिलक के शब्दों में मिलता है – ‘दलित स्त्रियों की दो दुनिया हैं। एक दुनिया में वह अपने भाई, पति, पिता, साथी, मित्र के साथ जाति-व्यवस्था के ख़िलाफ़ साथ खड़ी है, दूसरी दुनिया में अपने ही घर में, समाज में, आन्दोलन में हाशिये से फिसल गयी है, फिर भी वह इसी क्रम में दलित चेतना की सावित्री फुले, अम्बेडकर और बोधिसत्व की विचारधारा से प्रभावित है। वह ब्राह्मणवाद, पितृसत्ता, पूँजीवाद, सामन्तवाद व फासीवाद के विरुद्ध संघर्षरत है, अत: समूचे दलित वर्ग में स्त्री स्वर ने अपनी अलग प्रखर अभिव्यक्ति की दस्तक दी है। दलित कवयित्रियों ने न केवल दलित कविता में बल्कि हिंदी कविता में अनेक ऐसे बिंदुओं को छुआ है जिसमें वर्ण, वर्ग, जाति, लिंग, रूप, के भेदभाव को नकारकर नये समतामूलक समाज की कल्पना को साकार करने का आह्वान है।‘
इस वक्तव्य में रजनी तिलक कुछ महत्वपूर्ण स्थापनाएँ कर रही हैं– पहले कि जाति और लिंग के सवालों के बीच जातिगत शोषण के ख़िलाफ़ जब भी आवाज़ उठेगी स्त्रियाँ और पुरुष साथ होंगे यानी प्राथमिकता जाति की होगी क्योंकि दलित पुरुष शोषित और अपमानित वर्ग में ही हैं, उन्हें जाति के आधार पर तरह-तरह से प्रताड़ित किया जाता है। दूसरी स्थिति का संबंध दलित परिवारों के भीतर स्त्री की स्थिति को लेकर है जहाँ वह सताई जाकर, हाशिए पर धकेल दी जाती है। इसीलिए वे मानती हैं कि इस दोहरी विषमता को झेलती हुई दलित स्त्री के आइकन फुले और अम्बेडकर हैं क्योंकि उन दोनों ने ही भारतीय समाज में जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ गहराई से लिखने और बोलने के साथ-साथ लैंगिक भेदभाव के उत्स पर गंभीरता से विचार करते हुए प्रतिरोध की ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी को निभाया। दलित स्त्री-कविता ने भी वर्ण, वर्ग, जाति, लिंग आदि सभी प्रकार की असमानताओं के विरुद्ध आवाज़ उठाई है। यह संघर्ष हर स्तर पर समतामूलक समाज की माँग को लेकर आगे बढ़ रहा है। इन रचनाकारों ने दलित वर्ग के भीतर लिंग आधारित अंतर्विरोधों को गहराई से महूसस किया और बेझिझक बयान किया।
दलित जीवन में जाति और लिंग के अंतर पर विचार करते हुए ओमप्रकाश वाल्मीकि ने स्त्री जीवन के दोहरे संताप के लिए पूरे समाज में फैली लैंगिक असमानता की पारंपरिक सोच को उत्तरदायी बताया – ‘इसके लिए व्यवस्था जनित परंपरावादी सोच उत्तरदायी है, जो स्त्री को दूसरे दर्जे का नागरिक ही नहीं, पाँव की जूती समझती है’ इसे स्वीकारते हुए उन्होंने कहा – ‘दलित वर्ग में भी इस व्यवस्था की घुसपैठ है।‘ विमर्शों की दुनिया में यह साहित्य दोराहे पर खड़ा प्रतीत होता है। दलित व स्त्री अस्मिता की स्वतंत्र राहें जैसे एक-दूसरे से होकर गुज़रती हैं। दलित और स्त्री दोनों अपमान की पीड़ा झेलते हैं तथा संघर्ष का उद्बोधन दोनों के लिए है लेकिन जैसा दलित स्त्री रचनाकारों ने स्वीकार किया कि दलित होने की पीड़ा स्त्री होने की पीड़ा से कहीं बड़ी है, जिन्होंने इस वेदना को झेला है वही जान सकते हैं।
सामाजिक स्थितियाँ आर्थिक अवस्था पर निर्भर हैं। दलित साहित्य में दलित और स्त्री जिन दो वर्गों की दारुण स्थितियों का अंकन है, उसका बहुत बड़ा कारण भी उनमें आर्थिक स्वावलंबन का अभाव है। इन वर्गों में फैली अशिक्षा और बेरोज़गारी का ज़िम्मा किन आर्थिक नीतियों पर है इसकी पड़ताल भी हमें असुविधाजनक निष्कर्षों की ओर धकेलती है। नब्बे के दशक में जब साहित्य में दलित और स्त्री साहित्य अपनी अलग जगह तलाश रहे थे, उसी समय आर्थिक दृष्टि से भूमंडलीकरण का दौर था। उदारीकरण की नीतियाँ व्यापक जनहित में नहीं थीं। यह विकास का ऐसा मॉडल था जिसमें समाज का एक तबक़ा तो पूँजी के बाज़ार में खरबपतियों की सूची में शामिल हो रहा था जबकि व्यापक जन-समाज, महँगाई की मार झेलते हुए भूख, ग़रीबी और लाचारी की ज़िन्दगी जीने को विवश था। दलित साहित्य ने इन सब विषयों को अपने साहित्य में शामिल कर उसके साहित्यिक क्षितिज को विस्तृत किया।
शिल्प की दृष्टि से भी दलित साहित्य के अपने आग्रह हैं। कल्पना की सतरंगी उड़ान, शब्दों की साधना का स्वप्न जाल जीवन की कठोर वास्तविकताओं के समक्ष सब बेमानी है। खरी-खरी बेलौस भाषा में दो-टूक बात करने का साहस इस कविता के शब्द-शब्द में झलकता है। उसे उसी के रचे प्रतिमानों पर समझना होगा। कविता की इस धारा ने हिंदी साहित्य के समक्ष भी नई चुनौती उपस्थित की है। आलोचना की कसौटियों में बड़ा भारी अवरोध पैदा हुआ है जैसे यह कविता माँग करती हो कि उसे उसी की शर्तों पर पढ़ना होगा। डॉ. एन. सिंह का विचार है– “दलित साहित्य का शब्द-सौन्दर्य प्रहार में है, सम्मोहन में नहीं। वह समाज और साहित्य में शताब्दियों से चली आ रही सड़ी-गली परम्पराओं पर बेदर्दी से चोट करता, वह शोषण और अत्याचार के बीच हताश जीवन जीने वाले दलित को लड़ना सिखाता है, वह सिर पर पत्थर ढोने वाली मज़दूर महिला को उसके अधिकार के विषय में बतलाता है। उसे धर्म की भूल-भुलैया से निकालकर शोषण से मुक्ति का मार्ग दिखाता है। उसके लिए जिस शाब्दिक प्रहार क्षमता की आवश्यकता है, वह उसमें है और वही दलित साहित्य का शिल्प-सौन्दर्य है।”
इस तरह, कुल मिलाकर यह साहित्य गहरे दायित्व-बोध का साहित्य है। लेकिन एक समतामूलक मानवीय समाज की संकल्पना तभी संभव हो सकेगी जब उसमें सबकी भागीदारी हो। इसमें प्रत्येक व्यक्ति की समान ज़िम्मेदारी है, स्त्री और पुरूष, दलित-ग़ैर-दलित सभी को साथ-साथ यह ज़िम्मेदारी निभानी है। इस दृष्टि से सामाजिक परिवर्तन में सामूहिक भागीदारी की बात करते हुए भी दलित साहित्य में अपनी रचनाशीलता को अस्मिता से जोड़कर देखे जाने का आग्रह बना हुआ है। संभवत: अस्मिता का साहित्य उसकी प्रेरणा का सोपान है, उस रूप में उसकी अपनी अहमियत है, जो अब भी बनी हुई है। यह एक अलग स्वर है जिसको गंभीरता से लेना होगा और यही उसकी सबसे बड़ी सार्थकता है।