समकालीन प्रवासी कथा साहित्यकारों में तेजेन्द्र शर्मा का नाम चर्चित कहानीकारों में से है। प्रवासी साहित्यकार अपनी अन्वेषणीय व मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण के माध्यम से न सिर्फ़ भारतीयों बल्कि पश्चिमी संस्कृति से जुड़े लोगों की वेदनाओं और पीड़ाओं को महसूस करके, नई-नई कथाओं का सृजन कर रहे हैं। इससे कथा संसार को बहुत विस्तार मिला है।
जो भारतीय विदेशों में नौकरियाँ करने जाते हैं वे अपने परिवेश और आत्मीय संबंधों से दूर रहकर एक नई दुनिया बसाते हैं। उनके लिए वहाँ की संस्कृति, स्थितियों-परिस्थितियों और लोगों के साथ तारतम्य स्थापित करना आसान नहीं होता है। जिसकी वज़ह से अनगिनत द्वंद्वों-अंतरद्वंद्वों से उनका सामना होता है और बहुत-सी समस्याएँ सामने आती हैं जिनको एक उत्कृष्ट साहित्यकार अपनी सूक्ष्म दृष्टि से पकड़ कर कहानियों या कविताओं का रूप देता है।
अगर हम तेजेंद्र शर्मा जी की कहानियों की बात करें तो उनका अन्वेष्णात्मक दृष्टिकोण ही उनकी कहानियों को विषयगत विविधता देता है। तेजेन्द्र जी ने वर्तमान कहानीकारों एवं पाठकों के सामने सृजन के काफ़ी नए-नए विषय प्रस्तुत किए हैं। उनकी कहानियों में विषयवस्तु की विविधता को देख कर यह लगता है कि वह आसपास घटित होने वाले घटनाक्रमों पर सूक्ष्म दृष्टि रखते हैं तभी उनकी प्रत्येक कहानी नवीनता का पुट समेटे हुए है।
उनकी कहानियों में यथार्थवादी दृष्टिकोण और आधुनिक यथार्थ के दर्शन होते है। तेजेंद्र जी की कहानियों के संसार को वास्तविकता के धरातल पर स्थित सामान्य मनुष्यों का यथार्थ माना जा सकता है जो कि विभिन्न समस्याओं और विसंगतियों से परिपूर्ण है। भौतिकवादी दृष्टिकोण, पारिवारिक बिखराव एवं संवेदनहीनता उनकी कहानियों में जगह-जगह दिखाई देती है। इनकी कहानियाँ न सिर्फ़ मानवीय संबंधों की पोल खोलती हैं बल्कि स्वार्थी रिश्तों को बेनक़ाब करती हुई नज़र आती हैं। देह की क़ीमत, काला सागर, दंश, रिश्ते, क़ब्र का मुनाफ़ा, कुछ आख़िरी दिन, अभिशप्त और कैंसर जैसी कई कहानियाँ इन मुद्दों की गहराई से पड़ताल करती हैं।
तेजेंद्र जी के पात्रों का अधिकतर मानवीय दृष्टिकोण होता है। वह कहानियों में पात्रों को यथार्थ व आदर्श से जोड़ते हुए दृष्टिगत होते हैं। साथ ही उनके पात्रों का व्यक्तित्व चित्रण इस तरह होता है कि वो पाठक की कल्पना में भी साकार हो उठते हैं। साथ ही अपनी जीवन्त भूमिका को निभाते हैं। लन्दन में रहने के बाद भी तेजेंद्र जी हिन्दुस्तान के मूल्य, संस्कारों और बातों को सहेजते नज़र आते हैं। उनका यह प्रेम उनकी कहानियों में रचा बसा मिलता है तभी तो बचपन से जवानी तक की यादों को सहेजते समय वो उन्ही बातों और चीज़ों का ताना-बाना बुनते हैं, जिनमें हिन्दुस्तान की स्मृतियाँ बसी हैं। दूसरी ओर ब्रिटेन में बसने के बाद उनकी कहानियों में विदेशों की कड़वी सच्चाइयों की भी बयानी है।
पात्रों के संवाद
कहते हैं जब घटनाएँ स्वयं लेखक से वार्ता करने लगे तो संवाद स्वयं ही पन्नों पर अपनी जगह बना लेते हैं। लेखक जब घटित या मानवीय संवेदनाओं में गहरे उतरकर कुछ गढ़ता है तब यथार्थ ही रचा जाता है। मानवीय भावों और संवेदनाओं को परखना बहुत टेढ़ी खीर होता है। जो लेखक इसमें महारथ हासिल कर लेता है वही शब्दों के माध्यम से मौलिक सृजन कर पाता है। जैसे कि कुम्हार को बर्तन गढ़ते समय यह पता होता है कि कहाँ पर हल्की-सी थाप देने मात्र से ही कुम्भ सँवर जाएगा, उसी तरह का भाव कहानीकार हो या कवि सृजन करते समय उसकी चेतना में रहता है। भावों और संवेदनाओं से जुड़े संवाद थाप के जैसे ही होते है जो कि सीधे जाकर पाठक के मस्तिष्क पर दस्तक देते हैं। कहानियों को पढ़ते हुए मुझे उनके उस मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण का भी आभास हुआ जिससे वो पात्रों के संवाद लिखते हैं।
संवाद किसी भी कहानी के महत्वपूर्ण अंश होते हैं, इनसे कहानी में आकर्षण, सजीवता व रोचकता आती है। बहुत सरल संवादों में इंसानों की प्रवृत्तियों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कर कहानियों को लिखना उनको बख़ूबी आता है। किस संवाद या संवेदना को प्रकाश में लाने से कहानी में रोचकता बनी रहेगी या प्रभाव बना रहेगा इसकी उन्हें भली-भाँति पहचान है। उनके संवाद सजीव व संवेदनशील है जो कि पाठकों के हृदय पर सीधे ही दस्तक देते हैं और पाठक उनके प्रवाह में खो जाता हैं।
संवाद सरल और सहज होने से पाठक को रोचकता महसूस होती है। क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग ना के बराबर दिखाई देता है इसलिए कम हिंदी जानने वाले भी अगर कहानी पढ़ने के शौक़ीन हो तो वह तेजेंद्र जी की कहानियों में रोचकता व प्रवाह महसूस करेंगे। पंजाबी, उर्दू और अंग्रेज़ी जैसे विविध भाषाओं के शब्दों का प्रयोग उनकी कहानियों को विविध रंगों से भर देता है।
यहाँ हम उनकी एक कहानी "प्यार की इंटेलेक्चुअल जुगाली" की बात करते हैं जो कि ममता और मानव दो विपरीत विचारधाराओं के स्त्री-पुरुष से जुड़ी कहानी है। यह पूरी की पूरी कहानी दूरभाष पर हुए संवादों से बुनी गई है। आत्मिक, आध्यात्मिक, प्यार-मोहब्बत जैसी बातों पर वार्तालाप, न सिर्फ़ इसको अनूठा बनाता है बल्कि इंसान के अंदर घुमड़ने वाले विचारों का भी बहुत अच्छा चित्रण इस कहानी में किया गया है। यह कहानी अपने आप में सारे नाटकीय गुण सहेजे हुए है।
यहाँ मैं कहना चाहूँगी कि जटिल भावों और संवेदनाओं को सहज व सरल रूप में अभिव्यक्त करना तेजेंद्र जी को बख़ूबी आता है और तेजेंद्र जी का कथा संसार न सिर्फ़ सशक्त व मौलिक है बल्कि अनूठा भी है। उनकी अनुसंधानिक दृष्टि इसमें सहयोगी है। उनके पात्रों का वार्तालाप पाठक को प्रारंभ से अंत तक पढ़ने के लिए बाध्य करता है।
तेजेंद्र जी की कहानियाँ पढ़ते समय काफ़ी कहानियों की कुछ पंक्तियों ने मुझे रेखांकित करने के लिए उकसाया। मैं ऐसा मानती हूँ जब पाठक किसी भी विधा को पढ़ते समय रेखांकित करने पर मजबूर हो जाए, इसका अर्थ यह है कि वह भविष्य में जब भी उस सृजन को खोलें, पढ़ें, तो उसकी सर्वप्रथम दृष्टि उस रेखांकित किए पर पड़े, यही उसकी मंशा होती है। यह उनके लेखन की विशिष्टता भी है।
मानवीय संवेदनाएँ
उनकी कुछ कहानियों में हुए वार्तालाप का यहाँ उल्लेख करना चाहूँगी जिनका कथानक पाठकों को विविध पहलुओं पर सोचने के लिए मजबूर कर देता है।
"देह की क़ीमत" कहानी में पुरुष सत्तात्मक समाज का प्रतिनिधि हरदीप कहता है…
"ओये तुम जनानियों को मर्दों की बातों में दख़ल नहीं देना चाहिए।... तुम अपना घर सँभालो बस... पैसे कमाना हम मर्दों का काम है। वह हमारे ऊपर ही छोड़ दो"…
यह पात्र अपने संवाद से न सिर्फ़ स्त्री के बात करने की सीमाओं को बाँध रहा है बल्कि अपने पुरुष अहम की भी तुष्टि करता हुआ नज़र आता है। इसी कहानी में सास के बहु के लिए तानों में प्रयोग की गई भाषा भी बहुत स्वाभाविक प्रवाह में बहती है…
“पुत्तरा असी सारे बेगाने!... उसका अपणा तो बस, तू ही है।” सास के व्यवहार में स्वार्थपूर्ण संवेदनहीनता वहाँ साफ़-साफ़ नज़र आती है। जब बेटे की मौत का पता चलता है और वो कहती है, “हाय ओय, कुड़ी न निकली, डायण निकली, लोको! मां-पयो ने अपनी डायण हमारे हवाले कर दिती... हुण मैं की करां जी?”
जापान में अवैध तरीक़ों से नौकरियों के लिए पहुँचे लोगों के साथ कोई हादसा या त्रासदी होने पर, किन मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है, इस कहानी का कथानक उन्हीं परिस्थितियों को लेकर बुना गया है। इस कहानी में मानवीय संवेदनाओं की शुरू से लेकर अन्त तक कई बार धज्जियाँ उड़ती हुई देखी जा सकती हैं। कहानी के अंत में स्त्री दर्द की पराकाष्ठा पाठक को अति द्रवित करती है। जब पम्मी अपनी सूजी आँखों से अस्थि कलश देखती है और तीन लाख के ड्राफ़्ट को उठाकर सोचती है कि यह उसके पति की देह की क़ीमत है या उसके साथ बिताये पाँच महीनों की क़ीमत।
"काला सागर" को पढ़ते हुए मुझे उसके घोर यथार्थवाद का अनुभव हुआ जिसमें मृतकों के सगे-सम्बन्धी अपने बहुत क़रीबी रिश्तेदारों की मृत्यु को भी अपनी कमाई का ज़रिया बनाने में संकोच नहीं करते हैं। उनको मरने वालों से कोई मतलब नहीं है अपने स्वार्थों को पूर्ण करने की चाहत ने मनुष्य को किस हद तक नीचे गिरा दिया है, उनकी इस कहानी में इसकी सच्ची तस्वीर दृष्टव्य है…
"मिस्टर महाजन... मैं रमेश का पिता हूँ। आजकल मैं और मेरी पत्नी तलाक़ लेकर अलग-अलग रह रहे हैं। आपको याद होगा कि पिछले क्रैश में मेरी बेटी नीना की मौत हो गई थी। उस समय भी एयरलाइन और क्रू यूनियन ने मुआवज़ा मुझे ही दिया था।... मैं चाहता हूँ कि मेरे बेटे और बहू की मृत्यु का मुआवज़ा मुझे ही मिले इससे पहले कि मेरी पत्नी इसके लिए अर्ज़ी दे, मैं आपके पास अपने क्लेम की यह अर्ज़ी छोड़े जा रहा हूँ ताकि आप इंसाफ़ कर सकें... मैं तो अब बूढ़ा हो चला हूँ। कमाई का अब और कोई ज़रिया है नहीं।”
तेजेंद्र जी की ऐसी कई कहानियों को पढ़ते हुए उनकी अन्तरदृष्टि की क्षमता का पता चलता है, जिसके माध्यम से वो व्यक्ति में उठने वाले अन्तर्द्वंद्वों और संबंधों की जटिलता को समझकर कथासृजन करते हैं। तभी उनकी कहानियों में स्वाभाविकता व सजीवता नज़र आती है।
तेजेंद्र जी की एक और कहानी “क़ब्र का मुनाफ़ा” इंसान की मानसिकता पर तीक्ष्ण व्यंग्यात्मक प्रहार करती है। इस कहानी में दिखाया गया है कि इंसान रुपया-पैसा कमाने में तो पूरा जीवन लगा ही देता है मगर मरने के बाद भी वह अच्छी आबो-हवा और सुकूँ के माहौल की क़ब्र में दफ़न होने की ख़्वाहिश रखता है। इस कहानी के पात्र नज़म और ख़लील के माध्यम से लेख़क ने इंसान की मानसिक प्रवृत्तियों का सजीव चित्रण किया है। अगर इंसान रुपया-पैसा ख़र्च कर अपने लिए क़ब्र बुक करवा रहा है तो किन बातों का पूरा ध्यान रखता है ताकि रुपया पूरा वसूल हो... “आपने कार्पेंडर्स वालों की नई स्कीम के बारे में सुना क्या? वो ख़ाली दस पाउंड महीने के प्रीमियम पर आपको शान से दफ़नाने की पूरी ज़िम्मेवारी ले रहे है... लाश को नहलाना, नए कपड़े पहनाना, कफ़न का इंतज़ाम, रोल्स रॉयस में लाश की सवारी और क़ब्र पर संगमरमर का प्लाक... ये सब इस बीमे में शामिल है।”… “अगर आप किसी एक्सीडेंट या हादसे का शिकार हो जाये ....तो वो लाश का ऐसा मेकअप करेगे की लाश एकदम जवान और ख़ूबसूरत दिखाई दे। अब लोग तो लाश की आख़िरी शक्ल ही याद रखेगे न”
इस कहानी में कब्र बुक करवा कर मँहगे में बेचने के धंधे को भी उजागर किया है जो कि वैश्विक परिदृश्य में पूँजीवाद को अभिव्यक्त करता है।
तेजेंद्र जी के पास वह पारखी नज़र है जिसके माध्यम से वे घटनाओं के अनुरूप कहानी लिख पाते हैं। मेरी दृष्टि में यह उनके चिंतन और मनन का ही परिणाम हो सकता है क्योंकि किसी भी विधा में गहराई होने के लिए यही उसकी पहली शर्त होती है।
स्त्री-पुरुष पात्र
तेजेंद्र जी की कहानियों में स्त्री पात्र हो या पुरुष पात्र, उनकी अपनी स्वतंत्र विचारधारा होती है। इन पात्रों के विचारों में परम्परा के साथ-साथ आधुनिकता बोध भी दिखाई देता है। उनकी कहानियाँ नारी विमर्श पर ही क़लम नहीं चलाती अपितु "अभिशप्त" जैसी कहानी में पुरुष विमर्श भी है जहाँ बेमेल विवाह और घुटन भरा वैवाहिक जीवन, घोर नैराश्य की स्थिति होने पर भी पात्र विवाह-विच्छेद का नहीं सोच पाता है। मानसिक रूप से प्रताड़ित व भावनात्मक रूप से शोषित होने के बाद अपनी परिस्थितियों के आगे घुटने टेक देता है। दूसरी ओर तेजेंद्र के नारी पात्र आम इंसानों के जैसे सभी गुणों और दोषों से संपन्न है।
"कोख का किराया" की पात्र मनप्रीत उन्मुक्त ख़्यालों की महिला है जिसे किसी भी प्रकार के नियम क़ानून-क़ायदे अपने ऊपर बंधन से प्रतीत होते हैं।
कहानी "देह की क़ीमत" में बीजी का पात्र एक स्वार्थी नारी के रूप में गढ़ा गया है। जो रुपये-पैसे के लिए किसी भी हद तक अपनी बहू परमजीत को बोल सकती है, जो कि एक समर्पित महिला के रूप में कहानी का पात्र है।
तेजेंद्र जी के महिला पात्र पाठक के लिए कहीं तो जिज्ञासा उत्पन्न करते हैं, तो कहीं रिश्तों में खोखलापन दिखाकर कहानी को यथार्थ के क़रीब पहुंचा देते हैं। उनकी एक और कहानी “कल फिर आना” की नारी पात्र रीमा अपने समर्पण के बाद भी जब तिरिस्कृत व प्यार में अछूता महसूस करती है तो उसका विद्रोह करना उचित ही लगता है।
तेजेंद्र जी की कहानियों के नारी पात्रों को अपने अस्तित्व का बोध है, साथ ही वो विपरीत परिस्थितियों में डटकर मुक़ाबला करती हुई भी नज़र आती हैं।
उनकी काफ़ी कहानियाँ ऐसी हैं जहाँ तेजेंद्र जी इंसानी मनोविज्ञान के अन्वेषक नज़र आते हैं। शेष वे अपनी कल्पना के माध्यम से अनुसंधान कर कहानिओं को बहुत ही सहज रूप में सामने लाते हैं।
भाव और मानवीय संवेदनाएँ पाठक और लेखक के बीच में तार बाँधने का काम करती हैं। जब कहानी में यथार्थ का पुट हो तो सजीवता कहानी को नए आयाम देती है। इनकी कहानियों में देश-विदेश दोनों के तौर-तरीक़े समस्याएँ उजागर होती हैं।
यहाँ मैं उनकी कुछ और कहानियों का एक-एक कर ज़िक्र करना चाहूँगी जिनमें न सिर्फ़ कहानियाँ भावों और संवेदनाओं का भण्डार समेटे हुए हैं बल्कि आधुनिक यथार्थ के दर्शन होते हैं जैसे “मुझे मार डाल बेटा” कहानी एक बेटे के अपने लकवाग्रस्त पिता और अपने प्री-मेच्योर जुड़वाँ बेटों के जीवित रखने, न रखने से जुड़े द्वंद्वों-अंतर्द्वंद्वों का बहुत यथार्थवादी चित्रण है। जिसमें पिता स्वयं इच्छा-मृत्यु के आकांक्षी है। जैसे ही पात्र अपने बेटों को दर्द से मुक्ति दिलाने का निर्णय डॉक्टर को सुनाता है, जुड़वाँ बच्चों की मुक्ति के साथ-साथ पिता का भी शरीर छोड़ देना, उसको अपराधबोध में घेर लेता है। इस कहानी में घटनाओं का बहुत सजीव यथार्वादी चित्रण किया गया है।
तेजेंद्र जी की एक और कहानी “हथेलियों में कम्पन” हरिद्वार की पृष्ठभूमि में लिखी गई है। मानवीय भावों और संवेदनाओं की परतों को इस कहानी में बहुत मार्मिकता के साथ खोला गया है। कहानी का उत्तरार्द्ध और भी अधिक संवेदनशील है जब कहानी का पात्र नरेन अपने तीस वर्षीय बेटे की अस्थियों का विसर्जन करने जाता है। उनका भविष्य उनके साथ एक कलश में बंद था ...आज उल्टी गंगा बहने वाली है ...आज पुत्र अपने पिता की मृत्यु बहीखाते में नहीं भरेगा ...आज पिता अपने पुत्र का नाम लिखकर हस्ताक्षर करेगा...ठीक उसी पन्ने के नीचे जहाँ उसने अपने पिता की मृत्यु का विवरण भरा था। यह कहानी न सिर्फ़ संवेदनाओं को समेटती है बल्कि हिन्दू धर्म की सांस्कृतिक परम्पराओं का दुरुपयोग, उनका व्यवसायीकरण करने वाले पंडों की गाथा की भी बयानी है।
इस कहानी को पढ़ते समय घटनायें एक प्रवाह में चलते हुए सजीव चित्रण को साकार रूप देती चलती है।कहानी का अन्त बहुत हृदयस्पर्शी है जब कथावाचक नरेन मौसा का हाथ अपने हाथ में लेता है…
“मैंने नरेन मौसा का हाथ अपने हाथ में ले लिया, उनकी नम आँखों की तरफ देखा। मेरी हथेली उनकी हथेली से कह रही थी ‘नरेन मौसा बस.. आज से आपको आपकी ज़िम्मेवारी से रिटायर कर रहा हूँ...अब परिवार की यह ज़िम्मेवारी मेरी है... मैं हूँ न...” नरेन मौसा की हथेलियों में कम्पन सुना जा सकता था।
विभिन्न जातियों और धर्मों के प्रेमी-प्रेमिका के प्रेम की कथा “एक बार फिर होली” कहानी की नायिका नज़मा हिन्दू लड़के से प्यार करती है और उसका विवाह कट्टर पाकिस्तानी सेना के कैप्टेन से हो जाता है। अपने प्रेम और भारत की यादों के साथ वह अपना जीवन काट रही है। फिर अचानक शौहर की मौत के बाद ससुराल के कठोर रीति-रिवाज़ों को छोड़ कर भारत लौटने का निर्णय लेती है। अपनी स्मृतियों के बीच सालों बाद लौटना उसको किसी उत्सव से कम नहीं लगता।
सोशल मीडिया फ़ेसबुक और व्हाट्सएप जैसी सोशल साइट्स से जुड़ी हुई कहानी "शव यात्रा" आज के समय की कहानी है जिसका पात्र इनकी लत व नशे का शिकार है। इन पर आए हुए पोस्ट लाइक कमेंट उसकी ज़िंदगी में ऑक्सीजन का काम करते हैं।
तेजेंद्र शर्मा की कहानियाँ इंसानों की लगभग सभी प्रवृत्तियों के तत्वों को लेकर बुनी गई हैं। उनमें आदर्श, प्यार, मुहब्बत, समर्पण, छल, विद्रोह इत्यादि सभी देखने को मिल जायेंगे। उनकी कहानियों को पढ़ते समय इंसान की विभिन्न मानसिकताओं, भावों और संवेदनाओं से पाठक का कुछ इस तरह साक्षात्कार होता हैं मानो उन्होंने आसपास से पात्रों और घटनाओं को उठाकर कथाएँ गढ़ी हो। प्रवासी साहित्यकारों की एक ख़ासियत होती है कि वह किसी स्थान विशेष से जुड़कर सृजन नहीं करते हैं अपितु उसके सोचने और विचार करने का दायरा बहुत विस्तृत हो जाता है और वह विभिन्न संस्कृतियों से जुड़ी समस्याओं और घटनाओं पर भी अपनी क़लम चलाते है। तेजेंद्र शर्मा अपनी कहानियों में अलग-अलग कथानकों के माध्यम से इंसान की बहुरंगी मानसिकताओं का अनावरण करते हैं। तभी पाठक को अपने ही आसपास का यथार्थ उनकी कहानियों में ज़िंदा होता नज़र आता है।
प्रवासी साहित्यकार के रूप में तेजेंद्र शर्मा ने कहानियों का एक अनूठा संसार रचा है। यथार्थ के ताने-बाने में बुनी हुई उनकी कहानियाँ किसी भी पृष्ठभूमि को लेकर लिखी गईं हों, हमारे आस-पास की कहानियों-सी ही लगती हैं। ये पाठ को न सिर्फ़ रोचकता व सजीवता देती है बल्कि उनको बाँध कर भी रखने की क्षमता रखती है। उनकी कहानियों की यही ख़ासियत उनको एक विशिष्ट व सुप्रतिष्ठित कहानीकार के रूप में स्थापित करती है।