काँच के शब्द

01-11-2019

काँच के शब्द

राहुलदेव गौतम

लोग रक्तदान करते हैं,
मैं जज़्बात दान करता हूँ।
लोग जीवन देते हैं,
मैं कई बार जन्म लेता हूँ।
चश्मों से आँखें ठंडी नहीं हुआ करतीं
जब आँखों के नीचे,
आग ही आग हो।
घिन आती है मुझे अपनी नाक से
दुश्वारियों की बदबू,
सूँघ ही लेती है।
चिल्लाता हूँ मैं भावनाओं की क़ैद से
बस मेरी आवाज़,
आसमान ही सुनता है।
दुःख की दलदल भी,
बड़ी ज़िद्दी होती हैं।
एक पैर निकला भी नहीं,
दूसरा पैर धँस जाता है।
ये ख़्वाहिशें बहुत भारी होती हैं
एक ने अभी रुलाया ही था,
दूसरी ने कंधे को तोड़ दिया।
लोग कहते हैं,
मैं शब्दों से ज़हर उगलता हूँ।
अरे साहब!
जब मैंने ही इसे पीया है तो,
उगलेगा कौन?
हर चीज़ छोटी नहीं होती
छोटी तो बस सोच होती है।
माँ के सिवाय यह जहान
कितना सूना-सूना है।
झींगुरों की आवाज़,
हर शाम बता जाती है।
इन्सानों से बेहतर हैं मेरे बरतन
जब भी मैल जमता है,
उसे धो कर अपने पास रख लेता हूँ।
अन्धेरा सिर्फ़ रातों में ही नहीं होता
कभी-कभी थकी,
आँखों में भी होता है।
आज रोटी खाते-खाते,
मैं फिर रो पड़ा।
रोटी के एक-एक टुकड़े में,
माँ का जला हाथ नज़र आया।
लोग कहते हैं,
मुझे कम सुनाई देता है।
सब सुनता हूँ,
बस सच और झूठ कह नहीं पाता हूँ।
बार-बार कहते हैं सब,
हाथ साफ़ नहीं है।
क्या हाथ का साफ़ होना ज़रूरी है?
या नीयत का साफ़ होना?
कफ़न से जाकर कोई कह दे. . .
अभी दुकानों में ही पड़ा रहे,
अभी कई ख़्वाहिशें मेरे ज़िन्दा हैं।
कभी-कभी कुछ एहसासों को,
अपने जेबों में बचा लेता हूँ - उनके लिए,
कोई रोज़ पूछ लेता है,
आप कैसे है?

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
नज़्म
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में