अधिकार

01-03-2021

अधिकार

प्रीति अग्रवाल 'अनुजा' (अंक: 176, मार्च प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

रश्मि अपनी दो बरस की बिटिया को अपने से चिपका कर, नज़रें झुकाए, ऐसे सिमट कर बैठी थी मानो कोई अपराध कर के आई हो, जबकि उसी सूजी हुई आँखें और बाँहों पर नील के निशान कुछ और ही कहानी सुना रहे थे . . .

बाबा ज़मीन पर ऊकड़ूँ बैठे अपनी पगड़ी हाथ में ले, विलाप कर रहे थे, "हे भगवान, अब क्या होगा? अभी तीन बरस पहले ही तो जैसे-तैसे सिर से बोझ उतारा था . . ."

भैया भी ग़ुस्से में चक्कर काटते बुड़बुड़ा रहे थे, "ऐसे कैसे घर से निकाल देंगें . . . वही तेरा घर है, अब तू उनकी ज़िम्मेदारी है . . . मैं जाकर उनसे बात करूँगा . . ."

माँ भी अपना राग आलापने में लगी हुई थी, "अरी  तेरे तो भाग ही फूट गए . . .अब क्या होगा तेरा . . .छोरी और गले में बँध गई . . ."

ये सब अपने-से लगने वाले लोग जाने कैसी अजीब सी बातें कर रहे थे, रश्मि का दिल बैठा जा रहा था और उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वो करे, तो क्या  . . . और जाए, तो कहाँ!

अब तो बस रह-सह कर भाभी ही बची थी, और वो ठहरी पराई जाई, भला वो क्या समझेगी उसकी पीर . . . रश्मि की आँखों के आगे मायूसी और आशंका के बादल गहराते जा रहे थे . . . तभी कमला भाभी तेज़ क़दमों से कमरे से निकली, रश्मि की गोद से मुन्नी को ले, बड़े प्यार से बोली, "चलो जीजी, अंदर चल के हाथ मुँह धो कर कुछ खा लो . . . कितनी देर से बाहर बरामदे में बैठी हो . . ."

अम्मा ने खिसियानी सी आवाज़ में फिर अपना राग छेड़ा, "अरे, पढ़ाया . . . लिखाया . . . घर के सब काम काज भी सिखाए . . . दहेज़ भी हैसियत से ज़्यादा ही दिया . . . फिर पता नहीं किस बात की कमी रह गई . . ."

विमला भाभी  बीच में ही टोकते हुए, बड़ी करारी आवाज़ में बोली, "माँ जी, कमी इस बात की रह गई कि हम अपनी बेटियों को ज़िम्मेदारियाँ निभानी तो ख़ूब सिखाते हैं, पर उन्हें यह बताना भूल जाते हैं कि उनके कुछ अधिकार भी हैं . . .!"

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता - हाइकु
कविता-चोका
कविता
लघुकथा
कविता - क्षणिका
सिनेमा चर्चा
कविता-ताँका
हास्य-व्यंग्य कविता
कहानी
विडियो
ऑडियो