ये तुम्हारा बल नहीं, मेरा समर्पण है प्रिये!

01-01-2024

ये तुम्हारा बल नहीं, मेरा समर्पण है प्रिये!

संजय कवि ’श्री श्री’ (अंक: 244, जनवरी प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

ये तुम्हारा बल नहीं, 
मेरा समर्पण है प्रिये! 
स्नेह के बंधन बँधा, 
सर्वस्व अर्पण है प्रिये! 
स्वयं को खोकर, 
तुम्हें पाना प्रणय की रीति है; 
तव उजाले के लिए, 
मिटना अखंडित प्रीति है। 
अग्नि जल से जब मिली, 
तो बुझ गई; 
आँधियाँ पर्वत के सम्मुख, 
झुक गईं। 
जल से मिलती, 
अग्नि का बुझना समझ लो; 
पर्वत के सम्मुख, 
आँधियाँ झुकना समझ लो। 
तुम्हारे लिए ही सदा, 
शृंगार करते हैं प्रिये! 
तुमसे विलग कुरूपता, 
स्वभावसिद्ध है प्रिये! 
मुझे जब त्यागना तो सोचना, 
कि ‘मैं’ कहाँ अब रह सकूँगा; 
एक अनुकृत सी हँसी, 
और वेदना क्या सह रहूँगा? 
देह से गिरकर, 
लहू लालिमा खोया; 
स्वाति तुम बरस पड़ो, 
पपीहा बिलख रोया। 
देह से गिरे, 
लहू का स्याह होना समझ लो; 
स्वाति बूँदों के लिए, 
पपीहे का रोना समझ लो। 
कुंठित विखंडित मन मेरा, 
आकर समझाओ प्रिये! 
तुम कदाचित अर्थ को, 
इतना समझ पाओ प्रिये! 
ये तुम्हारा बल नहीं, 
मेरा समर्पण है प्रिये! 
स्नेह के बंधन बँधा, 
सर्वस्व अर्पण है प्रिये! 

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