चहुँ ओर शिखंडी बैठे हैं

01-02-2020

चहुँ ओर शिखंडी बैठे हैं

संजय कवि ’श्री श्री’ (अंक: 149, फरवरी प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

चहुँ ओर शिखंडी बैठे हैं,
पुरुष वेश और काया में;
बातों से बने हैं बाहुबली,
उलझाते अपनी माया में।


अर्जुन के रथ पर बने ठने,
भीष्म घात कर हर्षित हैं;
एक बाण चला न धनुही से,
पर छाती तान के गर्वित हैं।


पीड़ा सहना मैत्री के लिए,
मनुज प्रथम कर्तव्य यही;
इस रस को ये क्या जाने,
ये राधेय कभी बने ही नहीं।


ये अन्यायी अभिशापित हैं,
धर्म अधर्म को क्या मानें;
लाभ हानि का गुणा योग,
सम्बन्ध निभाना क्या जानें।


ये पाखंडी हैं अभिमानी,
छल प्रपंच और द्वेष लिए;
आहुति दे रिश्ते नातों की,
व्याकुल हैं ईर्ष्या शेष लिए।


हे देव! कृपा इतनी करना,
पग पड़े न इनकी छाया में;
चहुँ ओर शिखंडी बैठे हैं,
पुरुष वेश और काया में।

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