इसी धरा से पाए काया, इसी मृदा में मिल ही जाना . . .
संजय कवि ’श्री श्री’प्रिय अनुज को समर्पित . . .
इसी धरा से पाए काया,
इसी मृदा में मिल ही जाना;
यही चिरंतन मही की रीति,
जन्म, जीवन, मृत्यु पाना।
इसी धरा से पाए काया,
इसी मृदा में मिल ही जाना . . .
साथ रहकर शक्ति पाए,
‘स्मृति’ को क्यों मिटाना;
‘सुध’ वही है जीवन सारा,
होश अपना क्यों गँवाना?
इसी धरा से पाए काया,
इसी मृदा में मिल ही जाना . . .
ये अहं है, या समझदारी,
नेह आपस का मिटाना;
मैं वही हूँ तुम्हारा अग्रज,
मुझसे क्या दमखम दिखाना?
इसी धरा से पाए काया,
इसी मृदा में मिल ही जाना . . .
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