हे अमोघ! हे ब्रह्मबाण! अरि के प्राणों को हरो हरो
संजय कवि ’श्री श्री’देखो समक्ष है रणभूमि,
काल रूप तुम धरो धरो;
हे अमोघ! हे ब्रह्मबाण!
अरि के प्राणों को हरो हरो।
घोर समर ये मातृदेश का,
महाबली लड़ना है तुम्हें;
निज भावों को वज्र करो,
पावक पथ चलना है तुम्हें।
उठना गिरना गिरकर उठना,
नियति ने बारम्बार किया;
हे अभयंकर कालजयी,
तुमने नियति को पार किया।
विकट परीक्षा है प्रचंड,
उत्तीर्ण इसको करो करो;
हे अमोघ! हे ब्रह्मबाण!
अरि के प्राणों को हरो हरो।
हे पराक्रम के मूर्त रूप,
मन-प्रबोध कर उठो वीर;
युद्ध आसन को ग्रहण करो,
शंखनाद करके गम्भीर।
रणभेरी की गूँज सुनो,
संग्राम शेष है बचा हुआ;
महारथी खंडित कर दो,
ये चक्रव्यूह जो रचा हुआ।
भारत माँ के हे सपूत!
कर्तव्य तुम्हारा करो करो;
हे अमोघ! हे ब्रह्मबाण!
अरि के प्राणों को हरो हरो।
हे वीर धुरंधर आत्मबली,
रिपु-ज्वाला का शमन करो;
बाधायें ये जटिल कुटिल,
हे अग्रदूत तुम दमन करो।
विश्राम तुम्हारे भाग्य नहीं,
करते संघर्ष तुम बढ़े चलो;
पकड़ तिरंगा जकड़ हस्त,
हे वज्र रूप तुम खड़े चलो।
है आभार मातृभूमि का,
वीर महाबल भरो भरो;
हे अमोघ! हे ब्रह्मबाण!
अरि के प्राणों को हरो हरो।
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