तुम थोड़ा सँभलकर चलो, मैं तो अमर हूँ

01-10-2022

तुम थोड़ा सँभलकर चलो, मैं तो अमर हूँ

संजय कवि ’श्री श्री’ (अंक: 214, अक्टूबर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

काल से लड़ते हुए, घाव सब सहते हुए; 
गिरते हुए, उठते हुए, स्वप्न हैं गढ़ते हुए। 
अग्नि में जलते हुए, स्वयं ही मैं समर हूँ; 
तुम थोड़ा सँभलकर चलो, मैं तो अमर हूँ। 
 
हर घड़ी खड़ा हुआ, वक़्त को ललकार कर; 
यातना को मार कर, संशय असंशय पार कर। 
जीतता हूँ हार कर, इसीलिए तो निडर हूँ; 
तुम थोड़ा सँभलकर चलो, मैं तो अमर हूँ। 

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