वो मैं ही हूँ

01-03-2020

वो मैं ही हूँ

संजय कवि ’श्री श्री’ (अंक: 151, मार्च प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

मगन मुदित जिसका कर थामा, 
वो मंगलप्रद मैं ही हूँ।
बंद नेत्र हों दर्शन जिसका, 
हाँ प्रियतमा! वो मैं ही हूँ।


विलग हो जिससे, कमी प्रेम की, 
तुमको खली वो मैं ही हूँ।
पाने जिसको पावक-पथ पे, 
जल के चली तुम मैं ही हूँ।


जिस मोहपाश में उलझ गयी तुम, 
वो आकर्षण मैं ही हूँ।
जिसका तुमने था वरण किया, 
वो पुरुष सुदर्शन मैं ही हूँ।


क्रोध कोई हो मन में प्रिये, 
तुम अतीत का भान करो।
उस अतीत में जीवन-दर्शन,
संपूर्ण समर्पन मैं ही हूँ।


कटुता लघुता फिसलन वाणी की, 
मन से विस्मृत कर दो।
आलिंगन अभिनन्दन कर लो 
जीवन में अमृत भर दो।

 

है सत्य सखे! मुझ में हो तुम, 
और तुम में भी मैं ही हूँ।
स्वयं से साक्षात्कार करो, 
देखो समक्ष बस मैं ही हूँ।

 

वो मैं ही हूँ, वो मैं ही हूँ, 
वो मैं ही हूँ, वो मैं ही हूँ।

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