हे मनुष्य!
विध्वंस के स्वामी
रुक जाओ,
करबद्ध सदा
सम्मुख प्रकृति के
झुक जाओ।
मत छेड़ो
पर्वत पत्थर
सरिता के जल की धारा को,
उत्कंठा
अब थाम चलो
न्योतो ना भू-अंगारा को।
ये छूछा अभिमान
तुम्हारा
मंद करो,
वृक्षों का वध कर
राह बनाना
बंद करो।
हे मनुष्य!
विध्वंस के स्वामी
रुक जाओ।