पंद्रह सिंधी कहानियाँ (रचनाकार - देवी नागरानी)
जड़ों से उखड़े
लेखक: अनवर शेख़
अनुवाद: देवी नागरानी
राजन मंगरियो
जन्म: 12 अप्रैल 1968, हसनगुल गाँव में, संघार के पास, सिंध। अपनी पढ़ाई की शुरूआत संघार सिंध में की। वहीं से डिग्री कॉलेज से इंटरमीडिएट के पश्चात् सिंध यूनिवर्सिटी से बी.ए. किया। वे सरकारी नौकरी में कार्यरत हैं। उनका एक कहानी-संग्रह ‘रविया का चेहरा’ नाम से प्रकाशित है। टेलीविज़न पर तीन एकांकी व दो टेलीफ़िल्म प्रसारित।
पता: शान कोंपोसेर्स, कियानी रोड, संघार, सिंध (पाकिस्तान)
मास्टर दीन मुहम्मद और उसकी पत्नी करीमा एक बेटा और एक बेटी औलाद के रूप में पाकर धन्य हो गए थे। दोनों बच्चे अभी प्राइमरी पढ़ रहे थे। आस-पड़ोस की तरह उनका भी पक्की छत और कच्ची ईंटों का बना हुआ मकान था। बाक़ी घर में सामान के नाम पर पर्याप्त रूप में चारपाइयाँ, एक पानी का कूलर, एक बड़ी पेटी, एक छोटी ट्रंक, एक पंखा और कुछ खाने-पीने के बरतन के सिवाय और कुछ न था। तनख़्वाह खाने-पीने व कपड़े-लत्ते में पूरी हो जाया करती थी।
रात को खाने के पश्चात् दोनों पति-पत्नी एक दूसरे को लतीफ़े सुनाया करते थे और ऐसे ही बातचीत करते मास्टर दीन मुहम्मद पत्नी के आग़ोश में ही नींद की वादियों में सैर करते रहते। रोज़ सुबह दोनों जल्दी ही उठकर नमाज़ पढ़ते और फिर नाश्ते से मुक़्त होकर मास्टर और बच्चों को स्कूल रवाना करके करीमा घर की सफ़ाई और दूसरे कामों में व्यस्त हो जाती थी। मास्टर दीन मुहम्मद के घरवालों के दिन और रातें बहुत संतोष व शान्ति से गुज़रते थे।
एक दिन आसमान में काले बादलों ने कुछ ऐसे आक्रमण किया कि संपूर्ण धरती की रूह दहशत से घिर गई। शाम के वक़्त मास्टर दीन मुहम्म्द का पड़ोसी बेलदार बद्राल्दीन मास्टर के घर आया और कहने लगा, “मास्टर! आसमान पर समूचा समंदर चढ़ आया है। अल्लाह पनाह दे। आपके घर की छत तो फिर भी मज़बूत है, पर मेरी छप्पर तो शायद पहला वार भी न झेल पाए।”
“बंधु, अल्लाह ख़ैर करेगा। बारिश बरसाने वाला भी मौला तो हम भी उसी के। हमें किस बात की परवाह। उसके संरक्षण में हैं,” मास्टर दीन मुहम्मद ने बेलदार बद्राल्दीन को ढाढ़स बँधाते हुए कहा। उसे भरोसा था कि जो छत देता है वही निगाहबां भी बनता है। बद्राल्दीन ने आँगन में पड़ी खाट पर बैठाकर राज़दारी वाले लहजे में मास्टर से कहा, “भाई मास्टर तुम्हारे साथ दिल की बात करता हूँ। मेरे पास कुछ पैसे हैं। वे तुम इन बारिश के दिनों में अपने पास अमानत समझकर रख लो। बारिश ख़त्म होते ही मैं आकर ले जाऊँगा।”
“कितने पैसे हैं?” मास्टर ने भी उसी राज़दारी वाले लहजे में पूछा।
“इकसठ हज़ार हैं।”
“यार कमाल करते हो, इतने पैसे घर में रखकर बैठे हो? वो भी ऐसे दंगे-फसादों के दौर में?”
“भाई क्या करूँ, इसी कारण तो यह कर रहा हूँ। बैंक पर भी भरोसा नहीं। अगर मुल्क में जंग छिड़ी तो बैंकों ने भी पैसा देने से इंकार कर दिया तो मैं क्या करूँगा? इसलिए रात को सिरहाने के पास रखता हूँ और दिन में जैकेट के भीतरी जेब में।” और फिर तत्काल कुछ सोचते हुए दोनों हाथ जोड़ते हुए मास्टर से कहा, “बंधु, अल्लाह का वास्ता है, तुम्हें भला समझकर ऐतबार किया है। राज़ को राज़ ही रखना।”
“नहीं, नहीं, दिलासा रखो। इतना कच्चा समझा है क्या?” मास्टर ने ढाढ़स बँधाया तो बद्राल्दीन को शान्ति मिली।
“तुम्हें अगर कच्चा समझता तो भला यहाँ आता? पड़ोसी और भी बहुत हैं। तुम अपने हो, बड़ी बात यह कि नेक भी हो। इसीलिए तो सीधा तुम्हारे पास आया हूँ।”
अचानक आसमान में ज़ोरदार कड़कती बिजली ने तड़पना शुरू किया तो दोनों चौंक पड़े। करीमा ने, सिवाय उस खाट के जिस पर दोनों बैठे थे, बाहर रखा सारा सामान कोठी के अंदर ले लिया। बद्राल्दीन ने जैकेट की भीतरी जेब से प्लास्टिक की काले रंग की लाली से बँधी थैली निकालकर मास्टर को देते हुए कहा, “बंधु, गिन लो।”
मास्टर ने घर की दीवारों और पड़ोस की छतों की ओर जल्दी से नज़र फिराई और उठकर बाहर वाला दरवाज़ा बंद करके वापस खाट पर बैठकर सारा पैसा गिन लिया। गिनकर वापस उसी थैली में उसी अंदाज़ से लपेटकर थैली कुर्ते की जेब में रख ली।
बद्राल्दीन ने उठते हुए कहा, “अब मैं चलता हूँ। राजी अकेली है। दुकान से चावल लेकर दूँ तो बारिश से पहले ही पका ले।”
मास्टर दीन मुहम्मद, ब्रदाल्दीन के साथ दरवाज़े तक आया।
“मास्टर, हम दोनों पति-पत्नी के पीछे तो कोई है नहीं, न कोई औलाद हुई। मैं अगर मर जाऊँ तो पैसे मेरी पत्नी राजी को दे देना।”
बद्राल्दीन ने मायूस चेहरे से दरवाज़े के पास खड़े होकर मास्टर दीन मुहम्मद से कहा, “भाई, ख़ैर माँगो, अल्लाह तुम्हें लंबी उम्र देगा। पहले क्या कभी बारिश नहीं हुई क्या, जो इतना उदास हो रहे हो।”
मास्टर दीन मुहम्मद ने बद्राल्दीन को रवाना करके दरवाज़ा बंद किया। करीमा आँगन में पड़ी खाट को पीठ पर लादे अंदर रख रही थी। उसके बाद चूल्हे पर पक रहे चावल को धीमी आँच पर रखा और आकर मास्टर के सामने पड़ी खाट पर बैठते हुए कहा, “पराए पैसे लिए तो हैं, पर रखोगे कहाँ?”
“क्यों इतने ज़्यादा हैं क्या, जो घर में नहीं समा सकते?”
“छोटी ट्रंक में रख दो।”
मास्टर दीन मुहम्मद ने पैसों वाली थैली पत्नी को दी, जिसने उठकर बड़ी संदूक पर रखी छोटी ट्रंक में कपड़ों की तहों के बीच पैसे सँभालकर रखे और ट्रंक को ताला मार दिया।
बाहर बारिश की हल्की बूँदाबाँदी शुरू थी। सबने मिलकर ताँबे के थाल में चावल के ऊपर मिठाई डाली। उसमें दूध डालकर खा लिया। बच्चे चावल खाकर सो गए। धीरे-धीरे बारिश में तेज़ी आती गई। काला आसमान भूखे शेर की तरह गर्जना कर रहा था। बिजली बंद थी। धरती पर रोशनी का नामोनिशान न था। घरों के भीतर व बाहर एक जैसा अँधेरा था। गर्मी इतनी ज़्यादा न थी, फिर भी कमरों में घुटन थी। दीन मुहम्मद ने लालटेन जलाकर चबूतरे के कोने में रख दी। हल्की रोशनी कोठरी में सहमी-सहमी लग रही थी। पैरों की ओर खुले दरवाज़े पर दीन मुहम्मद की नज़र थी। सिरहाने पड़ी बड़ी संदूक पर रखी छोटी ट्रंक रखी थी, जिसमें बद्राल्दीन की अमानत के रूप में इकसठ हज़ार रुपये रखे थे।
यह पहली रात थी। दीन मुहम्मद और करीमा खाट पर सीधे सोए हुए थे। वर्ना वो अक़्सर साँप की तरह एक-दूसरे से लिपटे रहे होते थे। नींद आने तक लतीफ़ों के साथ हल्की हँसी उनके कमरे में बरक़रार रहती थी। बाहर गर्जना और भीतर ख़ामोशी थी। दीन मुहम्मद अचानक ख़्याल आते ही उठा और जल्दी से कोठरी का दरवाज़ा बंद करते हुए लौटा तो करीमा ने कहा, “ये क्या करते हो, कमरे में पहले से घुटन है, मारोगे क्या?”
“ख़ैर करो, एक रात में क्या होगा, मरेंगे क्या?”
“पर आख़िर क्यों, कोठरी का दरवाज़ा क्यों बंद करते हो? बाहर वाला तो बंद है।”
“बाहर वाला तो बंद है, पर फिर भी मुसीबत क्या पूछकर आती है?”
करीमा चुप हो गई। दीन मुहम्मद को नींद आ गई।
♦ ♦ ♦
बद्राल्दीन के कच्चे मकान में बारिश ग़ज़ब ढा रही थी। कड़कती बिजली की आवाज़ जंग के जहाज़ों की तरह गरज रही थी। कोठी की छत का एक हिस्सा यूँ टपक रहा था जैसे उस जगह पर कोई छत ही न थी। टपकती छत के नीचे बद्राल्दीन की पत्नी ने बाल्टी रखते हुए कहा, “बारिश से तो सामना कर लेंगे, पर अगर कल मास्टर ने मानने से इंकार कर दिया तो तुम्हारे पास कौन से गवाह हैं, जो तुम सामने लाआगे।”
बेलदार बद्राल्दीन, जो कोठी के भीतर मज़बूत छत की ओर खाट पर बैठा था, वह पत्नी की कही बात पर ग़ौर करने लगा। राजी बाल्टी रखकर आकर जब पास में बैठी तो उसके मुँह की तरफ़ देखते हुए कहा, “यह तुम्हारा बेकार का भरम है। तुम मास्टर को नहीं जानतीं। पराई चीज़ से दूर रहता है।”
“अरे बद्राल्दीन, इंसान को बदलने में देर तो नहीं लगती?”
“नहीं, नहीं, तू चिंता न कर। मैं नहीं समझता कि मास्टर ऐसा करेंगे।”
♦ ♦ ♦
“करीमा, करीमा, ओ करीमा! अरे उठो तो ग़ज़ब हो गया?”
मास्टर दीन मुहम्मद ज़ोर से चिल्लाने लगे।
“क्या हुआ, क्या हुआ?”
करीमा ने हैरान नज़रों से पति की ओर देखा। बच्चे पिता के चिल्लाने पर उठकर रोने लगे।
“अरे वह देखो, पेटी नहीं है। चोर ले गए।”
पति की इस बात से करीमा की साँसों में राहत आई। ठंडी साँस लेते हुए कहा, “पता है, मैंने उठाकर खाट के नीचे रख दी है।”
परेशानी में पसीने से तर दीन मुहम्मद ने लालटेन उठाकर खाट के नीचे देखा, जहाँ ट्रंक पड़ी थी। फिर संतोष की साँस लेते हुए करीमा को ग़ुस्से में कहा, “किस समय रखी? मुझे क्यों नहीं बताया?”
“तुम नींद में थे। मुझे चिंता हुई तो धीरे से उतारकर खाट के नीचे रख दी,” करीमा ने बच्चों को उनकी खाट पर सुलाते हुए कहा।
दीन मुहम्मद ने दरवाज़ा खोलकर आँगन में लालटेन की रोशनी से जाँच की। बारिश बंद हो चुकी थी। आसमान चुप था, पर धरती पर मेढकों की टाँ . . . टाँ . . . और छप्परों के झूलने की आवाज़ जारी थी। जैसे उन्होंने बारिश और गर्जना का भार ले लिया हो। दरवाज़ा बंद करके चबूतरे पर रखे ताले को उठाकर दीन मुहम्मद ने दर के भीतर देखा। करीमा जम्हाई लेते हुए उसे देख रही थी; पर कहा कुछ नहीं। दोनों फिर आकर खाट पर साथ सो गए। छत की ओर निहारते दीन मुहम्मद ने कहा, “जब से ये कमबख़्त आए हैं, नींद ही उड़ गई है। मुझे याद नहीं कि कभी इस वक़्त भी मेरी नींद खुली हो।”
“पराई अमानत है न, इसलिए चिंता हो गई है।”
दीन मुहम्मद ने भी उसी परेशानी वाले अंदाज़ में कहा, “अपने होते तो क्या चिंता न होती?”
“अपने तो बैंक में रखते, घर में क्यों रखते?”
“बैंक में रखती! अगर जंग छिड़ जाती और बैंक पैसा न देती तो?”
करीमा खाट पर उठकर बैठी। पति के चेहरे को देखने लगी। कमरे में नींद की ख़ुमारी छाई थी। हल्की रोशनी परेशानी की तरह काँप रही थी।
“ये तो दौलत में ख़तरे होते हैं?" दीन मुहम्मद ने जवाब दिया। करीमा फिर खाट पर लेट गई और फुसफुसाहट भरे अंदाज़ में कहने लगी, “जाने क्या चक्कर है। हमारे पास तो इतनी बड़ी रक़म कभी आई नहीं, जो कुछ आता है, वह तो महीने में ही पूरा हो जाता है।”
“अब चुप करके सो जाओ।”
अभी आँख भी न लगी थी, दीन मुहम्मद के कानों पर कमरे की दीवार के पीछे कुछ आवाज़ें सुनाई दीं। वह उठकर बैठा और पत्नी को भी जगाते हुए कहा, “लगता है, चोर दीवार में ठोक रहे हैं।”
“उस तरफ़ है भी खाली . . .!” करीमा ने भयभीत स्वर में कहा।
“फिर क्या करें, हमारे पास तो कोई हथियार भी नहीं है।”
दीन मुहम्मद भी डर से काँपने लगा।
“बाहर का दरवाज़ा खोलकर पड़ोसी को जाकर उठाओ।”
“दरवाज़े पर खड़े हों तो?" दीन मुहम्मद ने अपना शक ज़ाहिर किया तो करीमा का वजूद डगमगाने लगा।
“अरे हमारे तो छोटे बच्चे हैं। अगर वे अंदर आएँगे तो हम क्या करेंगे?"
करीमा रोने लगी तो दीन मुहम्मद को एक तरक़ीब सूझी। उसने कहा, “कोठे पर चढ़ जाता हूँ। ऊपर से देखकर तसल्ली करूँ फिर वहीं से “चोर-चोर’ पुकारूँगा।”
यह तरकीब सोचकर दीन मुहम्मद धीरे से खाट से उठकर दरवाज़ा खोलकर दबे पाँव आँगन से होते हुए लकड़ी की सीढ़ी पर चढ़ता हुआ कोठे पर पहुँचा। पीछे की तरफ़ पहुँचकर ख़बरदारी से सिर उठाकर नीचे की ओर देखा जहाँ सिर्फ़ अँधेरा था। ग़ौर से देखने पर समझ आया कि दीवार के पास होती हरकतों की परछाइयाँ दो गधों की थीं, जो आपस में दीवार की ओट में अपना बदन एक-दूसरे से घिस रहे थे। मास्टर सुकून की साँस लेकर नीचे उतरा। बारिश बिल्कुल बंद थी। काले आसमान में कहीं-कहीं सितारे ज़ाहिर हो रहे थे। कोठरी में पहुँचकर सारी बात करीमा को सुनाई तो करीमा की कँपकँपाहट कम हुई और उसने इत्मीनान की साँस ली।
♦ ♦ ♦
बेलदार बद्राल्दीन अपने आँगन मे बिछी खाट पर सोया हुआ था। नींद, उससे कोसों दूर थी। कोने में रखी बाल्टी में किसी वक़्त छत से पानी की बूँद लरज़कर गिर जाती। बारिश बंद थी, पर छत के उस कोने में शायद पानी ठहर गया था।
अजीब क़िस्म का ख़्याल बद्राल्दीन को मथ रहा था। जबसे उसकी पत्नी ने इशारा किया था, तबसे उसे नींद नहीं आ रही थी। वह सोचता रहा।
“ईमान मेहमान है। मेरा तो कोई गवाह भी नहीं है। अगर वह बेईमान हो जाता तो क्या किया जा सकता है?" फिर पलटकर सोने की कोशिश की। उसे ख़ुद पर ग़ुस्सा आने लगा। सोचों में ख़ुद से बतियाता रहा।
‘ये क्या कर बैठे हो? इतनी बड़ी ख़ता, इतनी नामसमझी! मास्टर की कितनी आमदनी है जी? मैं भी तो इतने पैसे बग़ैर किसी सबूत के उसे दे आया? अब क्या वह मुझे लौटा देगा?’
अंदर से ऐसे ख़्यालों का तहलका मचा हुआ था। इस बार खाट पर उठकर बैठने की बजाय सीधा ज़मीन पर खड़ा हो गया। दरवाज़े के बाहर झाँका। बारिश बंद हो चुकी थी। उसने सोचा, ‘वह ऐसे कैसे कर सकता है? मेरे हराम के पैसे नहीं हैं। मैंने पेट काटकर पैसा जमा किया है। अगर उसने कुछ ख़यानत की तो मैं उसका ख़ून कर दूँगा। फिर भले ही मैं जेल चला जाऊँ, पर मास्टर को पैसे पचाने नहीं दूँगा।’ कोठरी वे भीतर हल्की रोशनी बद्राल्दीन के ग़ुस्से की तरह फड़क रही थी।
कुछ देर ये ख़्याल उसके मन को घेरे रहे। जब मन कुछ शांत हुआ तो उसने अपने भ्रम को बेमतलब समझा।
‘नहीं, नहीं, मैं ग़लत समझ रहा हूँ। मास्टर ऐसा आदमी नहीं है। यह तो इकसठ हज़ार हैं। पर अगर इकसठ लाख भी होते तो भी मास्टर ऐसा नहीं करते। मैं अरसे से उन्हें जानता हूँ।’
इस विचार से उनके मन में कुछ चैन आया। राजी जो खाट पर सोई अपने पति को देख रही थी, उसने जब बद्राल्दीन को इतना परेशान देखा तो उठकर खाट पर बैठते कहा, “हम भी तो परेशान हैं ना। वो अगर हमारे पास होते तो क्या इतनी चिंता होती हमें?"
बद्राल्दीन ने दरवाज़े के पास खड़े होकर कहा, “एक महीना पहले चोर कादन वालों के घर से बारिश में ही तो ले गए थे! दूसरी बात बारिश में भीग न जाएँ, इसी ख़्याल ने मुझे दूसरी ओर सोचने ही न दिया।”
“चोर क्या मास्टर के घर नहीं जा सकते? हम अपनी दौलत चोरों को क्या आसानी से देते? मास्टर तो चोरों को कुछ कहेंगे भी नहीं। कौन-सी अपने ख़ून-पसीने की कमाई है उनकी?"
पत्नी की इस बात ने बद्राल्दीन के हृदय में घाव कर दिए। भीतर की आशाओं को सहरा की ख़ुश्क रेत की तरह महसूस किया। एक इसी बात ने सभी अंगों की शक्ति ही छीन ली। उफ़ कहकर वहीं खाट पर पत्नी के पास बैठ गया।
♦ ♦ ♦
रात के तीन बज रहे थे। मास्टर दीन मुहम्मद ने पत्नी से कहा, “पेटी की चाबी तो दो।”
“क्यों?”
“तुम दो दो!”
करीमा ने उठकर चाबी दी। दीन मुहम्मद ने खाट के नीचे से पेटी हटाई, खोलकर उसमें से पैसों वाली थैली निकालकर पेटी बंद की। थैली को तकिये के ग़िलाफ़ में अंदर रखकर, तकिया सिर के साथ सटकाकर सोया ही था कि इतने में बाहर दरवाज़े पर ठक-ठक की आवाज़ हुई। करीमा खाट पर उठकर बैठ गई। दीन मुहम्मद कोठी के घर के पास खड़े होकर आहट टटोलने लगा।
“कौन है?”
“मैं हूँ बद्राल्दीन।”
दीन मुहम्मद ने आँगन से होते हुए जाकर दरवाज़ा खोला। बद्राल्दीन को लेकर भीतर आया। करीमा खाट पर बैठी थी।
“पैसे सँभालकर तो रखे हैं न?” बद्राल्दीन ने डूबती आवाज़ में कहा।
करीमा ने तकिये में से पैसों की थैली निकालकर बद्राल्दीन को देते हुए कहा, “भैया, अपने पास जाकर सँभालकर रखो।”
बद्राल्दीन ने जल्दी से पैसे लिए और रोशनी में जाकर उन्हें गिना। फिर हँसते हुए करीमा से कहा, “बहन माफ़ करना। बस आदत पड़ गई है इनको सीने से लगाकर सोने की। आज इनके सिवा नींद नहीं आ रही थी।”
करीमा ने बैठे-बैठे ही पति की ओर देखा। फिर मुस्कुराते हुए कहा, “भाई, ये जड़ों से उखड़े जिसके पास हैं, उन्हें भी नींद नहीं है। जिसके पास नहीं है उन्हें भी नींद नहीं।
विषय सूची
- प्रकाशकीय
- प्रस्तावना
- कलात्मक अनुवाद
- हिंदी साहित्यमाला में एक चमकता मोती
- बेहतरीन सौग़ात हैं सरहद पार की कहानियाँ
- तेज़ाबी तेवरों से ओत-प्रोत सिन्ध की कहानियाँ
- ज़िदादिली
- बिल्लू दादा
- सीमेंट की पुतली
- यह ज़हर कोई तो पिएगा!
- उलझे धागे
- सूर्योदय के पहले
- घाव
- काला तिल
- होंठों पर उड़ती तितली
- बीमार आकांक्षाओं की खोज
- हृदय कच्चे रेशे सा!
- मज़ाक़
- किस-किसको ख़ामोश करोगे?
- अलगाव की अग्नि
- जड़ों से उखड़े
लेखक की कृतियाँ
- साहित्यिक आलेख
- कहानी
- अनूदित कहानी
- पुस्तक समीक्षा
- बात-चीत
- ग़ज़ल
-
- अब ख़ुशी की हदों के पार हूँ मैं
- उस शिकारी से ये पूछो
- चढ़ा था जो सूरज
- ज़िंदगी एक आह होती है
- ठहराव ज़िन्दगी में दुबारा नहीं मिला
- बंजर ज़मीं
- बहता रहा जो दर्द का सैलाब था न कम
- बहारों का आया है मौसम सुहाना
- भटके हैं तेरी याद में जाने कहाँ कहाँ
- या बहारों का ही ये मौसम नहीं
- यूँ उसकी बेवफाई का मुझको गिला न था
- वक्त की गहराइयों से
- वो हवा शोख पत्ते उड़ा ले गई
- वो ही चला मिटाने नामो-निशां हमारा
- ज़माने से रिश्ता बनाकर तो देखो
- अनूदित कविता
- पुस्तक चर्चा
- बाल साहित्य कविता
- विडियो
-
- ऑडियो
-