पंद्रह सिंधी कहानियाँ

 

सरहद पार से सिंधी कहानियों का एक ख़ूबसूरत गुलदस्ता लेकर आई हैं वरिष्ठ सिंधी एवं हिंदीभाषा की लेखिका, शायरा देवी नागरानी। यह हिंदी-पाठकों को एक बेहतरीन सौग़ात है। उन्होंने प्रख्यात सिंधी लेखकों- लेखिकाओं की कहानियों को हिंदी में रूपांतरण कर हम तक पहुँचाया है। साधुवाद। वैसे भी सिंधीभाषा में साहित्य की प्राचीन एवं समृद्ध परंपरा है। अमीर खुसरो की एक बहुचर्चित रचना में भारत की जिन भाषाओं के उन्होंने नाम गिनाए हैं, उनमें सिंधीभाषा का भी नाम आता है। यह तो सर्वविदित है कि अपभ्रंश भाषा का
समय पाँच सौ ई. से एक हज़ार ई. तक का है और अपभ्रंश के क्षेत्रीय रूप ‘ब्रांचड’ के अंतर्गत सिंधी भाषा आती है, जो साहित्य में निरंतर फलती-फूलती रही। दुर्भाग्य से हिंदुस्तान पाकिस्तान के विभाजन के साथ ही सिंधी भाषा के कई लेखक पाकिस्तानी कहलाने लगे और उनकी रचनाएँ सरहद पार से हम तक पहुँचनी मुश्किल हो गईं। देवी नागरानी ने न केवल सिंधी के लेखकों की कहानियाँ हिंदी में अनूदित कीं, बल्कि हिंदी के लेखकों की कहानियों का सिंधी में अनुवाद कर पाकिस्तानी पाठकों तक पहुँचाया।

आइए, इस संग्रह की कुछ कहानियों से हम रू-ब-रू होते हैं। ‘यह ज़हर कोई तो पिएगा’ हमीद सिंधी की लाजवाब कहानी है। उस्ताद शफ़ी मुहम्मद . . . .ईमानदार हैडमास्टर . . . लेकिन रिटायरमेंट के बाद सामाजिक विषमताओं और बिगड़ी हुई युवा पीढ़ी में फैली नशे की विभीषिका ने, उनके अंदर के उबाल को यह कहकर अंजाम दिया कि यह ज़हर कोई तो पिएगा। ज़िंदगी-भर नियम, धर्म से रहने वाले शफ़ी मुहम्मद, जो कर्ज़, तीन-तीन बिन ब्याही बेटियाँ, पेंशन मिलने में विलंब और नशे की लत के शिकार इकलौते बेटे की क़रतूतों से तंग आकर उस ज़हर (अफ़ीम) को पीने पर मज़बूर हो जाते हैं। नशा क्यों करती है युवा पीढ़ी? ग़रीबी, बेरोज़गारी, की ज़िल्लत से लम्हे-भर को यह ज़हर निजात दिला देता है। उन लम्हों को शफ़ी मुहम्मद ने भी जिया और लम्हे-भर के लिए ही सही, जन्नत के दरवाज़े दिखे तो। लेखक ने बड़ी ख़ूबसूरती से सवाल उठाया है कि आख़िर इसका हल क्या है?

हलीम बरोही की कहानी है ‘तल्ख़ हक़ीक़त’, जिसे स्वीकार करना कहानी के नायक की मजबूरी बन गई।

शेख़ अयाज़ की कहानी ‘ज़िंदादिली’ एक ऐसी लड़की की कहानी है, जो हर छोटी-बड़ी घटना पर ठहाका मारकर हँसती है, लेकिन एक बच्चे के अम्मा कहने पर अपने कहकहे भूल जाती है और भावुकता में रोते हुए जैसे ग़म को गले लगा लेती है। अनवर शेख़ की कहानी ‘जड़ों से उखड़े’ इंसान को यह सीख देती है, रुपए किस तरह इंसान की नींद उड़ा देते हैं। युवा लेखक की क़लम से ये सच बख़ूबी प्रकट होता है । कहानी रोचक है और आख़िर होगा क्या की जिज्ञासा बरक़रार रखती है।

तमाम त्रासदियों के बीच भी इंसानियत के जज़्बे को क़ायम रखना इंसान को उस दिल का एहसास कराता है, जो उसके सीने में धड़क रहा है। अमर जलील की कहानी ‘सूर्योदय से पहले’ दिल पर गहरा असर छोड़ती है।
बेकारी से परेशान युवक जब अपनी बहन को वेश्या बनने के लिए कहता है, ‘इस दुनिया में ज़िंदा रहने के लिए तुम्हें यह कर्ज़ चुकाना पड़ेगा। मुझ जैसे बग़ैरत भाई के लिए तुम यह कर्ज़ सदियों से चुकाती आ रही हो।’ तो इंसानियत हाहाकार कर उठती है। मानो ज़िमंदगी की तल्ख़ हक़ीक़त का रेशा-रेशा इस कहानी में उभारकर सामने रख दिया है लेखक ने। अयाज़ क़ादरी की कहानी ‘बिल्लू दादा’ समाज के उन ठेकेदारों पर सवालिया निशान छोड़ती है, जिनके लिबास सफ़ेद हैं, लेकिन धंधे काले।

जहाँ एक ओर नसीम खरल की कहानी ‘उलझे धागे’ अपने सूक्ष्म कलेवर में एक बड़ा सवाल उठाए है, वहीं तारिक़ अशरफ़ की कहानी ‘घाव’ सीधी, सरल किंतु मर्म पर चोट करने वाली कहानी है कि जब तक इंसान दुख को खुद नहीं झेलता, वह दुख की गहराई समझ नहीं पाता। लेखिका नसीम थेबो की कहानी ‘किस-किसको ख़ामोश करोगे?’ में ग़ुनाही और बेग़ुनाही के बीच महीन तंतुओं का एक जाल सृजित हुआ है और इस जाल में बेगुनाह किसान सोढ़े फँसकर फाँसी के तख़्ते तक पहुँच जाता है। ज़िंदगी के तमाम धूसर रंग बिलबिला उठते हैं.....सोढ़े की फाँसी बेकार नहीं जाती, क्योंकि जब एक ईमानदार मरता है तो अपने पीछे ईमानदारी की परंपरा छोड़ जाता है, लेकिन ग़ुनाहगार जब मरता है तो उसका नामोनिशान मिट जाता है। राजन मंगरियो की कहानी ‘अलगाव की अग्नि’ हमें सोचने पर विवश करती है.....आत्मा की अदालत में जब हम खड़े होंगे तो ज़िंदगी-भर किए कर्मों का लेखा-जोखा सामने होगा। अगर दुष्कर्म किए हैं तो उसका दंड जीने नहीं देगा। आत्मा धिक्कारेगी और पश्चात्ताप की आँच तिल-तिलकर जलाएगी। यह कहानी उनके लिए बड़ी सीख है, जिन्होंने ज़िंदगी को गंभीरता से नहीं लिया, बस मौज-मज़े तक ही सीमित रखा।

इस संग्रह में दूसरी महिला लेखिका रशीदा हिजाब हैं, जिनकी कहानी ‘सीमेंट की पुतली’ में फैक्टरी के मालिकों से यौन-शोषण की शिकार कामगार औरतों की त्रासदी का चित्रण हुआ है। लेखिका ने इस कहानी में जिस समय का चित्रण किया है उस समय एक आना, दुअन्नी पैसा चला करता था। उस समय से औरतों के शोषण की यह त्रासदी आज 21वीं सदी में भी ज़िंदा है। ‘घर में रखे हुए दाने ख़त्म हो गए थे और उन्हें अपना जोश और ग़ैरत बच्चों की भूखी आँखों में दफ़न करनी पड़ी थी। शम्मी उसे सेठ के हवाले करनी पड़ेगी। सीमेंट
ढोने वाली एक मामूली मज़दूरन, जिसकी नस-नस में उसकी फैक्टरी का सीमेंट भरा हुआ था।’ यह लेखिका की भाषा और उसके शिल्प का चमत्कार है, जो पाठक को शब्दों की छुअन का हृदय के कोने-कोने तक अहसास कराता है।

निश्चय ही देवी नागरानी की कहानियों का चयन स्तरीय है। सिंधी कहानियाँ पाकिस्तान से जो हिंदुस्तान तक आ पाईं, उसमें एक लंबा वक़्त इंतज़ार का है। लेकिन इस इंतज़ार के लिए पाठकों को इस कथा-संग्रह के रूप में बेमिसाल तोहफ़ा मिला है। इस संग्रह की तमाम कहानियाँ पढ़ने पर एकबारगी लगा कि इन कहानियों के शरिए सिंधी लेखकों के यशस्वी कथासंसार में आज़ादी से विचरण किया जा सकता है और एक बड़े कथा-कैनवास पर इन शब्दों के कोलाज को महसूस किया जा सकता है। ये कहानियाँ हमें अंदर से मज़बूत करती हैं। इंसानियत के प्रति, जीवनमूल्यों के प्रति हमारे विश्वास को परत-दर-परत सघन बनाती हैं। कहानी में आए चरित्रों के टूटने में, बिखरने में उदात्तता है, जो पाठक को टूटने और बिखरने से बचाती है। हक़ीक़त बहुत
पीड़ादायी, अवसादपूर्ण, निराशाजनक हो सकती है, लेकिन केवल यही जान लेना काफ़ी नहीं है बल्कि ज़िंदगी जीने के लिए इससे पार उतरना, सही रास्ते तलाशना ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है।

देवी नागरानी के इस अथक प्रयास ने उनके अंदर के गहन कथाकौशल को सहज प्रमाणित किया है। अन्य भाषा से अनुवाद करना और कहानी के कथाशिल्प को न बिगड़ने देना सचमुच अद्भुत कौशल है। मुझे विश्वास है कि देवीजी इसी तरह हिंदीभाषा से सिंधीभाषा को और सिंधीभाषा से हिंदीभाषा को समृद्ध करती रहेंगी।

—संतोष श्रीवास्तव
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