पंद्रह सिंधी कहानियाँ (रचनाकार - देवी नागरानी)
यह ज़हर कोई तो पिएगा!सिन्धी कहानी
लेखक: हमीद सिन्धी
अनुवाद: देवी नागरानी
हमीद सिन्धी
जन्म: 12 अक्टूबर 1936 नवशहरो फेरोज़ में। शिक्षा: बी.ए. आनर्स। सिंध विश्वविद्यालय अर्थशास्त्र से एम.ए. करते हुए, ब्रिटेन से उच्च शिक्षा प्राप्त की। महाविद्यालयों के निदेशक, पब्लिक स्कूल हैदराबाद के प्रिंसिपल, रिज़वी विश्वविद्यालय के कुलपति, सिंध पाठ्यक्रम परिषद् के चेयरमैन रहे। सन् 2000 में सेवानिवृत्त। उनके कहानी संग्रह हैं: उदास वादियाँ, वेरियूँ, राणा जी राजपूत। जापानी लोककथाएँ ‘सोने की जंज़ीर’ के नाम से अनूदित कीं। संग्रह ‘वेरियूँ’ के लिए उन्हें शाह लतीफ़ अवार्ड मिला और अनेक संस्थाओं से सम्मानित हुए हैं। वे ‘रूह रिहाण’ मासिक पत्रिका के संपादक, मासिक ‘मारवी’ एवं ‘लतीफ़ डायजेस्ट’ के सह-संपादक रहे, और मासिक ‘नई ज़िंदगी’ के सलाहकार भी रहे। ‘राणा जी राजपूत’ पर अवार्ड प्राप्त किया।
1936 के पुराने-पुराने घड़ियाल पर जैसे ही उस्ताद शफ़ी मुहम्मद की नज़र पड़ी तो वह उतनी ही पुरानी कुर्सी पर से कूदकर उठा। वह अलगनी की ओर बढ़ा ही था कि घड़ियाल के घंटे बज उठे। जल्दबाज़ी में उसने अलगनी से जैसे ही सदरी और धुले हुए सफ़ेद कपड़े खींचकर उतारे तो अलगनी के साथ सभी उसके हाथ में आ गए। उसने कपड़े खाट पर रखे और अलगनी दीवार पर टाँग दी। कीलें नियमित सूराख़ों में अटकाकर हाथ से ठोक दीं। उसे इस बात की क़तई चिंता न थी, क्योंकि हर रोज़ ऐसा होता था। उसने कपड़े पहने और ऊपर से सफ़ेद सदरी भी पहनते हुए वह काठ की अलमारी की ओर बढ़ा, जिसके ताक उखड़े पड़े थे। हाथ बढ़ाकर तुर्की टोपी निकाली। फिर एक ब्रश निकाला, जिससे तुर्की टोपी साफ़ की। ब्रश रखकर ताक पर लगे आईने में देखा। तुर्की टोपी को सर पर ठीक-ठाक करके, कोने में रखी छड़ी उठाकर वह जाने को पलटा। आँगन में उसकी एक बेटी बरतन धो रही थी। दूसरी वहीं छप्पर के बने बावरचीखाने में रोटी पका रही थी। तीसरी झाड़ू लगा रही थी। वह जैसे ही बाहर वाले दरवाज़े के पास पहुँचा तो लड़की दौड़ती हुई आई। “बाबा-बाबा, यह क्या? अब तो स्कूल भी समय पर नहीं पहुँचना है। फिर यह जल्दबाज़ी कैसी?”
वह चौंककर खड़ा हो गया। बेटी उसे बाँह से खींचते हुए छप्परे में ले गई। एक खाट पर उसे बिठाकर, दूसरी खाट सरकाकर ख़ुद बैठी। उसने गरम बनी हुई चाय और सेकी हुई मोठ उनके सामने रखी। वह चुपचाप मोठ को और चूरा करके मुँह में डालता गया और ऊपर से मीठी चाय के घूँट भरता गया। उसने प्याली की ओर देखा। पूरी दरारों से सजी हुई थी। रसोईघर की ओर देखा, टूटे-फूटे बरतन, आँगन में नज़र फिराई; चूर-चूर होती ईंटें, यहाँ-वहाँ गड्ढे, दीवार की दरारों से झाँकती ईंटें, वह सब देखता भी रहा और खाता भी रहा। बेख़्याली में उसने डब्बे में हाथ डाला, पर वह ख़ाली हो चुका था। वह आहिस्ते से उठा, बाहर वाले दरवाज़े की ओर बढ़ा, फिर मुड़कर बेटी से पूछा, “इमरान उठा है?”
“बाबा, आप भी कमाल करते हैं, वह अभी उठेगा?”
उसने गर्दन हिलाई और आगे क़दम बढ़ाया ही था कि उसकी बड़ी बेटी उसके क़रीब आई।
“बाबा, खाने का सब सामान ख़त्म हो गया है। अब उस्मान बकाली भी उधार पर सामान नहीं देता। आते-आते कुछ सामान ले आना।”
पिता ने गर्दन हिलाई।
“दूसरी बात बाबा, शाहीना और रज़िया के कपड़े भी फट गए हैं। उन्हें कुछ कपड़े लेकर दो।”
उस्ताद ने अपनी बड़ी बेटी शानां की ओर देखा तो उसकी ओढ़नी भी फटी हुई थी और उसकी पोशाक का भी हाल न था। उसने ज़्यादा कुछ न कहकर फिर भी गर्दन हिला दी। उसकी टोपी भी सर पर कुछ घूम आई थी। उसे ठीक करते हुए दरवाज़ा खोला। सामने टँगा टाट हटाया और बाहर आ गया। ग़फूर राज़को उसका पड़ोसी भी था और दोस्त भी। वह मिस्त्री था। उस्ताद को देखते ही बढ़कर आगे आया और उसके हाथ में हाथ देते हुए कहा, “उस्ताद यहाँ तो देखो, पूरी की पूरी जगह दरारों से भर गई है। किसी वक़्त भी भरभराकर गिर पड़ेगी। सौ बार कहा है। कुछ तो मरम्मत करवा लो, नहीं तो बड़ा नुक़्सान हो जाएगा। अरे यार, मैं क्या तुमसे पैसे लूँगा। फ़क़त ईंट और मज़दूर चाहिए। गारे से ही मरम्मत कर दूँगा।”
उस्ताद शफ़ी मुहम्मद कुछ पल सुनता रहा। फिर धीरे-धीरे अपने मन की गाँठें खोलने लगा, “यार, तुझसे तो मेरा हाल छुपा नहीं है। छठा महीना हुआ है रिटायर होकर। वैसे भी प्राइमरी मास्टर या हेड मास्टर की तनख़्वाह कितनी? अब तो तनख़्वाह भी बंद और पेंशन भी बंद। रोज़ स्कूल जाता हूँ कि शायद पेंशन के काग़ज़ बनकर आए हों और मंज़ूरी मिली हो। तीन लड़कियाँ घर बैठी हैं। इमरान की तो तुम्हें ख़बर है, न पढ़ा है न कुछ कर पाता है। कितना सोचा था कि पढ़-लिखकर ऑफ़िसर बनेगा, पर उसे आवारागर्दी से फ़ुर्सत नहीं। तुझे भी कहा कि उसे कोई काम सिखा दो। तुमने तो हामी भरी पर लड़का टिके तब न! घर गिरे या मैं गिरूँ, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। ग़फूर साईं। दुआ करो आज जाता हूँ, शायद कोई पेंशन की भली ख़बर मिले।”
ग़फूर ने वहीं उसके दर्दों के सैलाब को रोका और वह सरकता हुआ उसके पास आया।
“दूसरी बात सुन, सुना है तुम्हारा बेटा चरस बेचता भी है और पीता भी है। कुछ ख़बर है?”
उस्ताद शफ़ी की तुर्कीं टोपी का विभूषण फिरने लगा। “नहीं यार, मैंने तो नहीं सुना और न ही उसे नशे की हालत में देखा है। आवारा ज़रूर है। उसकी नानी ने उसे ख़राब करने में कोई क़सर नहीं छोड़ी है। ज़्यादा उसके पास रहता है और पैसे भी उसी से ऐंठता है। कोई छुपाने जैसी बात नहीं है। पड़ोस में तो तुम भी देखते हो।”
“नहीं यार, इस बस्ती में नहीं करता। नाना के घर जाता है तो उस बस्ती में और आस-पास में हाथ फिरा लेता है।”
“पीट दूँगा। लौटकर उसे आज आड़े हाथों ज़रूर लूँगा। शाम को मिलते हैं यार।”
यह कहते हुए वह अपनी राह चला। क़दम तेज़ किए; पर उसका दिमाग़ घूम गया था। उसकी गर्दन जो पहले कम हिलती थी, अब ज़्यादा हिलने लगी। टोपी के सामने लटका हुआ विभूषण भी हिलने लगा। वह सोच में था और उसे शक भी होने लगा। कितने दिनों से वह महसूस कर रहा था कि उसके बेटे के तेवर कुछ बदले-बदले से हैं। अच्छे कपड़े, बाँह में एक नई घड़ी, बालों का रख-रखाव भी कुछ नया-सा था। सोचा, शायद नानी के भाइयों के यहाँ से कुछ पैसे वसूल हुए होंगे, जो वह नाती पर लुटाती रहती है। अब सब-कुछ साफ़ समझ आ रहा था कि नानी भी उसे कितना देकर कितना देगी? उसे अपने बेटे के यतीम बच्चे को भी तो पालना है। उसकी पत्नी बीमार पड़ी तो सास ने दवा-दारु में मदद की। गुज़र गई तो सभी रस्में अपने पैसे ख़र्च करके निभाईं। उसके पास कोई ख़ज़ाना तो था नहीं। खेतबाड़ी में कुछ भाइयों के साथ हिस्सा था।
उस्ताद ऐसे ख़्यालों में डूबा था कि राह जाते लोगों ने सलाम किया तो किसी को वालेकुम सलाम कहा तो किसी को गर्दन हिलाकर इशारा कर दिया, तो किसी को कुछ नहीं। अचानक किसी ने ज़ोर से आवाज़ देकर उसे बुलाया।
“ओ उस्ताद साईं, बादशाही बरक़रार बाबल साईं,” उसने गर्दन मोड़कर देखा, मुरली मवाली अपने घर की दहलीज़ के बाहर खड़ा था, जो दरगाह का हिस्सा भी था।
“क्यों भला; किन ख़्यालों में खोए हो उस्ताद। आज साईं आमनशाह को न सलाम किया न दुआ ही माँगी। ख़ैर तो है?”
उस्ताद ने एकाएक दोनों हाथ ऊपर उठाए और कुछ फुसफुसाते हुए दोनों हाथ मुँह पर घुमाता रहा।
“मुरली जल्दी में हूँ, इसलिए खड़ा नहीं हुआ।”
“पर साईं कितने दिन हो गए हैं, नज़र ही नहीं डाली। इससे तो इमरान भला है, जो अब रोज़ आकर हाज़िरी भरता है।”
उस्ताद शफ़ी मुहम्मद ने मुरली मवाली की ओर घूरकर देखा। मुरली दरगाह आमन शाह में झाड़ू लगाता था। शक के दरवाज़े फिर खुल गए। वह आहिस्ते-आहिस्ते आगे बढ़ा, पर मुरली उसका पीछा करता रहा।
“बाबल साईं, इमरान को तो भेजना। कहना कि उसके यार इंतज़ार में बैठे हैं।”
फिर पीले दाँत निकालकर हँसने लगा। उस्ताद ने मुड़कर देखा चार-पाँच लड़के दरगाह के बग़ल में खड़े नीम के पेड़ के नीचे मवालियों की तरह गर्दन लुढ़काकर पड़े थे।
उसने अब क़दम की रफ़्तार तेज़ की। मुरली के पीले दाँत और हँसने का ढंग उसे अच्छा नहीं लगा। अब उसके मन में शक का बोया हुआ बीज पनपकर पेड़ बन गया है।
वह जैसे बाज़ार में से गुज़रा, कितने लोग और दुकानदारों ने उठकर उसे सलाम किया और आवाज़ दी। उस्ताद शफ़ी मुहम्मद पुराना उस्ताद था; सारे शहर को पढ़ाया था। उसकी इज़्ज़त थी। पर आज जाने क्यों, जो भी उसे पुकारता या सलाम करता, उसे ऐसा लगा जैसे सब रस्म के तौर पर कर रहे हैं और उन्हें उसके बेटे की करतूतों के बारे में जानकारी मिल गई है। वह चुपचाप छड़ी के सहारे आगे बढ़ता रहा। किसी को मुस्कराकर उत्तर दिया, तो किसी को हाथ जोड़कर, पर उसका दिमाग़ ठिकाने पर नहीं था। बेटा अफ़ीम बेचता हो, ऐसे कैसे हो सकता है? एक उस्ताद का बेटा और अफ़ीमची। अचानक एक हमराह दुकान से कूदकर सामने आकर खड़ा हो गया। उस्ताद ने पहचाना, वह उस्मान बकाली था। वह उस्मान की दुकान से उधार पर घर का सौदा लेता था। उसे याद आया कि आज बेटी ने सौदे के लिए उसे याद दिलाया था। उसे यह भी मालूम था कि उस पर उधार की रक़म काफ़ी बढ़ गई है। वह अब कभी-कभी शाही बाज़ार वाली गली से गुज़र जाता था, पर आज बेख़्याली में पुराने रास्ते से आ गया था। उसे लगा कि वह उस्मान को सौदा देने के लिए कहे पर उस्मान उसे देखते ही शुरू हो गया।
“उस्ताद साईं, नाराज़ मत होना, पर अब बात हद से गुज़र गई है। छह महीने से हिसाब-किताब में आपने एक रुपया भी जमा नहीं कराया है। उधार हज़ारों तक पहुँच गया है। मैं बड़ा व्यापारी तो नहीं हूँ। पहले भी कहा था, पर अब तो दुकान चलनी मुश्किल है। उधार लेने वाले महीने-डेढ़ महीने में पैसे देकर जाते हैं। पर आपका हिसाब भारी हो गया है,” वह अभी कुछ और कहता उससे पहले बग़ल की कपड़े की दुकान से सेठ हरीराम उतर आया।
“उस्ताद हम भी उम्मीदवार हैं। अगली दो ईदों का उधार मुँह उठाए खड़ा है,” तंग बाज़ार में दो-चार आदमी खड़े थे। दो और भी खड़े हो गए। उसने यहाँ-वहाँ नज़र फिराई, पड़ोस वाली दुकानों के मालिक उसकी ओर घूरकर देख रहे थे। उसने आहिस्ता हाथ के इशारे से उनकी गुफ़्तगू को रोका। ख़ुश्क गले को खाँसकर गीला किया। उसने कोशिश की कि उन्हें नम्र लहजे में समझाए, पर उनकी आवाज़ ऊँची होती गई। उसमें शायद सुबह से होती रही हर वारदात का कड़वापन शामिल था।
“बाबा मर तो नहीं गया हूँ, अभी ज़िंदा हूँ। रिटायर हुआ हूँ, पर कंगाल नहीं हुआ हूँ। आपका उधार कभी रहा है, जो इस तरह बीच बाज़ार में घेर लिया है। देर-सवेर तो होती रहती है,” और कुछ पल साँस लेकर कहा, “उस्ताद कहते हो, पर आदमी तक को नहीं जानते, जब चाहे बीज बाज़ार में किसी शरीफ़ आदमी की पगड़ी उछाल दो, चाहो तो ल्फ़्ज़ों के तीर चुभो दो। चाहो तो आदमी को नंगा कर दो, चाहो तो . . .” उस्ताद शफ़ी की आवाज़ बुलंद होती गई। ऐसे बिगड़ गए कि सँभलना मुश्किल हो रहा था। दोनों दुकानदारों ने चुप्पी धारण कर ली। एक-दो और दुकानदार भी, जिनकी उधार की रक़म मामूली थी; पर वहाँ खड़े होकर तमाशा देख रहे थे, वे कूदकर दुकान में घुस गए।
उस्ताद शफ़ी मुहम्मद बड़बड़ाते, छड़ी के सहारे बाज़ार लाँघकर प्राइमरी स्कूल के मैदान में पहुँचे। स्कूल की पुरानी अदब की इमारत उसके सामने थी। जैसे वह जोश में बरांडे की ओर बढ़े। उनकी निगाह दो-तीन मास्टरों पर पड़ी, जो स्कूल के बरांडे के छपड़े के नीचे खड़े होकर बातें कर रहे थे। उनके हाथों में सिगरेट थे और धुआँ फैला रहे थे। एक-दो ने उन्हें आते देखकर सिगरेट बुझाने और छिपाने की कोशिश की। यकायक एक हमराह ने उन्हें रोका, “अरे सिगरेट कोई मुफ़्त का है, जो जाया कर रहे हो। उस्ताद अब हमारे हैड मास्टर तो नहीं रहे हैं। रोज़ आकर हम पर रोब डालते हैं। आने दो उन्हें, सिगरेट मत फेंकना।”
उस्ताद हाँफते हुए हुए उनके क़रीब पहुँचे। उन्हें क्लास छोड़कर बाहर सिगरेट पीते देखा तो और भड़क उठे। पहले से ख़फ़ा थे अब तो और ज़्यादा ग़ुस्से में काँपने लगे। कहने लगे, “अरे उस्ताद बने हो, शर्म नहीं आती। एक तो क्लास नहीं लेते हो, दूसरे बाहर खड़े होकर सिगरेट पीते हो। लड़के क्या सीखेंगे? कहाँ हैं तुम्हारे हेड मास्टर ग़ुलाम अली। छह महीने हुए हैं स्कूल का स्वरूप ही बदल दिया है। अगर मैं रोज़ ख़बर न लूँ तो सत्यानाश हो जाए।”
अचानक उनकी नज़र स्कूल की इमारत के आख़िरी छोर पर पड़ी, जहाँ दीवार की आड़ में तीन-चार छोटे–बड़े लड़के बैठे धुआँ उगल रहे थे। कुछ लेटे हुए थे। जाने क्या था, पर वे ख़ाली सिगरेट या नशे की सिगरेट पी रहे थे।
“अरे वो देखो। सत्यानाश हो रहा है। अब तो नशा भी खुलेआम हो रहा है। शर्म आनी चाहिए।”
वह उन्हें गालियाँ देते, हाँफते हेडमास्टर ग़ुलाम अली के ऑफ़िस में स्टाफ़ के साथ दरवाज़ा खोलते हुए अंदर पहुँचे। ग़ुलाम अली भी काग़ज़ की बीड़ी मुँह में थामे हुए था। धुआँ उगलते हुए वह सोच में खोया हुआ था। अचानक आवाज़ के साथ दरवाज़ा खुला तो वह चौंककर उठ खड़ा हुआ।
“कहीं कोई स्कूल का साहब तो नहीं आया है,” पर उस्ताद शफ़ी मुहम्मद को देखा तो जान में जान आई।
“साईं आज तो आपने जान ही निकाल दी।”
पर फिर जब उसने उस्ताद को ग़ुस्से में बड़बड़ाते देखा तो ग़ुलाम अली कहने लगा, “साईं मैं क्या करूँ? आपकी पेंशन के लिए एसडीओ के ऑफ़िस भी गया था। आप भी तो दो-तीन बार गए हैं। अब वे काग़ज़ नहीं निकाल रहे हैं तो मैं क्या करूँ? आप भी दुनियादारी की रिवायत अनुसार चलिए। वे कुछ नक़द माँग रहे हैं। आप भी कुछ देते नहीं तो काग़ज़ कैसे बनेंगे?”
अभी वह कुछ अधिक कहे, उससे पहले उसने देखा वे चारों उस्ताद सामने खड़े थे और उनके भी चेहरे उतरे हुए थे। वह समझ गया कि बात कुछ और है। उस्ताद शफ़ी मुहम्मद खंभे की तरह खड़े थे। वे जब तक कुछ कहें एक उस्ताद ने ज़ोर से कहा।
“साईं, अगर इनकी पेंशन पास होकर नहीं आती तो इसमें हमारा क्या क़ुसूर है? रोज़ आकर हमें बेइज़्ज़त कर जाते हैं। कभी किसी उस्ताद को ज़लील कर जाते हैं। कभी और किसी को। आज भी हम चारों को ज़लील करके और गालियाँ देकर इधर आए हैं। अगर यही रवैया रहा तो हम काम नहीं कर पाएँगे। पहले तो वे हेड मास्टर थे। इसलिए हम सहते रहे। अब क्या यह हमारे साहब हैं, जो रोज़ बेइज्जत करें।”
ग़ुलाम अली हेड मास्टर ने एकदम से कहा, “साईं, ऐसा तो मत कीजिए।”
“ऐसा न करूँ? मास्टर बरांडे में खड़े शार्गिदों के सामने सिगरेट पिएँ, क्लास छोड़कर आएँ। उन्हें कुछ नहीं कहना चाहिए। उन्हें अपना कमरा भी है, जहाँ यह कर सकते हैं। पर नहीं, बस अब नंगे होकर खड़े हैं। लड़के उनके सामने सिगरेट पीते हैं या नशा करते हैं, कौन जाने? उनके ही मुँह पर तमाचा मार रहे हैं। पर इन बेशर्मों को समझ कहाँ?”
उस्ताद शफ़ी अभी बात कर ही रहे थे, वही उस्ताद जो कुछ देर पहले और उस्तादों के सामने पहल कर रहा था, सामने आया और उनकी तक़रीर को रोकते हुए हेडमास्टर की ओर देखकर कहने लगा, “अब बहुत हो गया। हम ज़्यादा गालियाँ नहीं झेल पाएँगे। हम जा रहे हैं। अब आप दोनों बैठकर स्कूल चलाएँ।” चारों उस्ताद एक साथ तेज़ क़दमों से शोर करते हुए बाहर निकल गए। ग़ुलाम अली क्षीणशक्ति के कारण कुर्सी पर बैठ गए। उस्ताद शफ़ी मुहम्मद कुछ पल खड़े रहे, फिर एक टूटी कुर्सी पर बैठ गए। कमरे में ख़ामोशी विराजमान रही। दोनों चुप थे। ग़ुलाम अली कहने के लिए अधर खोलते, पर बिना कुछ कहे बंद कर देते। उस्ताद शफ़ी मुहम्मद छत को निरंतर घूर रहे थे। ऐसे में अचानक स्कूल के घंटे के साथ शान्ति भँग हुई। घंटे की आवाज़ इस बार इतनी तेज़ थी कि वे दोनों जैसे नींद से चौंक कर उठे हों।
उन्होंने एक-दूसरे की ओर देखा और सोचा कि अभी तो अंतराल रिसेस का समय भी नहीं हुआ है, फिर यह घंटा . . .? ऐसे में एक उस्ताद जो कार्यक्षेत्र का प्रतिनिधि भी था, भीतर आया, “साईं उस्ताद लोग बहुत ग़ुस्से में हैं। कोई बात सुनने को तैयार नहीं। उन्होंने ख़ुद घंटा बजाकर छुट्टी कर दी है। वे कह रहे हैं कि उस्ताद ने उनकी बेइज़्ज़ती की है। अगर उस्ताद आएँगे तो वे नहीं आएँगे।”
उस्ताद को चोट पहुँची। बच्चों के शोर और जोश वाली आवाज़ों ने उस्ताद शफ़ी को ज़्यादा हानि पहुँचाई। उनकी आँखों में पानी भर आया। प्रतिनिधि उस्ताद ने उन्हें रोता हुआ देखा तो पानी ले आया। उस्ताद ने दो घूँट पी लिए।
क्षण-भर में बच्चों की आवाज़ दूर होती गई और फिर चारों ओर नीरवता छा गई। वह धीरे-धीरे उठे और बिना बात किए हेड मास्टर के कमरे से निकल आए। बरांडे से नीचे उतरे तो देखा कि उसका बनाया हुआ छोटा बग़ीचा भी सूखकर वीरान हो गया था। किसी ने उसे पानी भी नहीं दिया था। फूल, पत्ते और घास सबके सब उजाड़ हो गए थे। कुछ पल खड़े उन्हें देखते रहे। आँखें फिर भर आईं। वे तेज़ क़दमों से मैदान पार करने लगे।
मैदान पार किया तो सामने घरों की गलियों का एक महाजाल बिछा हुआ दिखा। गलियों में गुम हो जाने के पहले उसने पीछे मुड़कर स्कूल की इमारत को देखा। कुछ देर वह उस टूटी-फूटी इल्म की इमारत को घूरते रहे। फिर उन्हें अहसास हुआ, “अब तो वहाँ जाने की भी उस पर पाबंदी लग गई है।” उन्होंने घूरना बंद किया।
उनकी आँखें फिर आँसुओं से तर थीं। अब उन्हें वह इमारत भी धुँधली नज़र आ रही थी। तुरंत ही स्कूल की इमारत को पीठ देते हुए एक गली में घुस गए।
वह गलियों को फलाँगते चले। पर उन्हें लगा कि उनका मन इतना उलझा हुआ है कि धागों की तरह उलझी गलियाँ भी उसे राह नहीं दे रही थीं। ऐसे में एक गली के मोड़ पर वे अचानक चौंक उठे। दूर से एक लड़का तेज़ी से दौड़ता हुआ आया और उन्हें धक्का मारते हुए पास वाली गली में खींचकर ले गया। पहले तो उन्हें बात समझ नहीं आई; पर देखा तो वह उनका बेटा इमरान था। इमरान ने तुरंत दो छोटी पुड़ियाँ अपनी क़मीज़ की जेब से निकालकर उनकी सदरी की दोनों क़मीज़ की जेब में एक-एक पुड़ी दबाते हुए धीरे कहा, “बाबा, यह अमानत है। कोई आदमी आपसे लेने आएगा।” ऐसा कहते हुए वह आगे की ओर दौड़ता गया और छोटी गलियों के घेरे में गुम हो गया। उन्होंने उसे गुम होते हुए देखा और सामने देखा तो उसे सफ़ेद पोशाक में दो-तीन आदमी नज़र आए। वे भी दौड़ते हुए बड़ी गली में अदृश्य हो गए। वे कुछ पल खड़े रहे, फिर जेब में से एक पुड़िया निकाली। उस पुड़िया के भीतर कई छोटी-छोटी पुड़िया थीं। वे समझ गए, ये वही पुड़िया है, जिनका ज़िक्र गफूर ने उससे किया था।
बेटे के लिए कितने ख़्वाब सजाए थे उसने कि पढ़-लिखकर बड़ा ऑफ़िसर बनेगा। लाड़-प्यार ने उसे मैट्रिक फ़ेल की सीढ़ी पर खड़ा कर दिया। कुछ देर गली के बीच खड़े रहे। उनका बदन पसीने से तर हो गया था। वे बोझिल क़दमों से आगे बढ़े और चलते-चलते आजम साईं की दरगाह के क़रीब पहुँचे। सामने मुरली मवाली खड़ा था।
“साईं छापा पड़ा है। दिलवर इमरान ऐसी छलाँग लगाकर भागे कि फ़रिश्ते भी उसे न पकड़ पाएँ। इसी गली की ओर गया, आपसे मिला क्या?”
उस्ताद शफ़ी मुहम्मद चुप खड़े रहे। देखा कि मुरली निश्चिंत था। अब दरगाह के आँगन में कोई भी छोटा मवाली न था। उस्ताद के चेहरे पर फ़िक्र और परेशानी के आसार नज़र आने लगे। मुरली ने अपने पीले दाँत पसारकर उन्हें दिलासा दिया।
“उस्ताद, इस धंधे में ऐसा होता है। छापे लगते रहते हैं। इमरान भी दिलबर आदमी है। नया धंधा है। दलालों से कुछ हिसाब-किताब रखना पड़ता है। इस यार ने भी अँगूठा दिखा दिया। पहले भी पीछे पड़े थे, पर वह छू-मंतर हो जाता है। अगर हाथ भी आता है तो जेब ख़ाली, सुराग़ भी नहीं; पर आज ‘माल’ था। पकड़ा जाता तो बहुत बड़ा फँदा पड़ जाता। इमरान एक बार इन गलियों में घुसा, बस फिर पकड़ में आने वाला नहीं।”
उस्ताद ने जब ‘माल’ और ‘सुराग़’ की बात सुनी तो बहुत परेशान हो गए, तुरंत एड़ियों पर ज़ोर दिया। सीधे घर पहुँचकर साँस ली। मुरली ने उन्हें तेज़ी से जाते देखा तो हैरान हो गया।
उस्ताद शफ़ी ने जैसे दरवाज़ा खड़खड़ाने की कोशिश की तो पाया कि दरवाज़ा बंद ही नहीं था। हाथ के स्पर्श से खुल गया। वे आँगन में आए। कोई भी नज़र न आया, पर रसोईघर में नज़र फिराई तो उन्हें ग़फ़ूर का बेटा नज़र आया।
“साईं, दीदी लोग नानी के घर गईं हैं। मुझे देख रेख करने के लिए बिठा गईं हैं। आज तो छुट्टी भी जल्दी हो गई। पता नहीं क्यों . . .?”
उस्ताद ने लड़के के सर पर हाथ फेरा। रसोईघर में देखा। आज तो दोपहर के लिए चूल्हा भी न जला होगा। राख तो चूल्हे में थी। वहाँ से हल्की-सी तपिश आ रही थी। वह समझ गया। वे दोपहर का खाना टालने के लिए नानी के घर गई हैं। वह चुपचाप बढ़ा और अपनी कोठरी में जा पहुँचा।
“साईं मैं जाऊँ!” लड़के ने कोठरी के दरवाज़े के पास खड़े होकर पूछा।
उस्ताद शफ़ी ने ‘हाँ’ में गर्दन हिला दी। फिर अपनी पुरानी आराम कुर्सी पर बैठ गए। वे पसीने से भीग गए थे। सदरी खींचकर उतारी और खाट पर फेंक दी। सदरी की जेब में पड़ी पुड़िया बाहर गिर पड़ी। वह पुड़िया तो बेजान थी, पर उनके जिस्म में जान पड़ गई। वह कँपकँपाने लगे। कुछ पल तो उसकी हालत अजीब रही। वे सारे दिन की चर्या पर सोचते रहे। यह भी उनके मन में आया कि उस्तादों ने उसे निकाल दिया, क्योंकि वह अब तक उस लकड़ी के समान था, जो कभी भी कोई तोड़ न पाया था। वह हुनर की क़द्रदानी की परख रखने वाला माहिर उस्ताद था। पर आज ये क्या हो गया? उसके ही घर से आग के शोले उठे थे। उसने इमरान को दोष देने के बजाय ख़ुद को गुनहगार समझा। माँ का लाड़ला तो वह था ही, ऊपर से इकलौता होने के कारण उसने भी उसे कुछ छूट दी और आज यह ज़हर उसके सामने पड़ा है। वे उठ खड़े हुए। मुट्ठी में पकड़ी हुई छड़ी हवा में फिराने लगे।
“आज इमरान आए तो उसकी चमड़ी उधेड़ दूँगा।”
वे ग़ुस्से से लाल-पीले होते रहे। ऐसे में बाहर के दरवाज़े पर खड़खड़ाहट हुई। वे चौंक गए और ग़ुस्सा लुप्त हो गया। ये ज़हर की पुड़ियाँ उनके पास पड़ी थीं। कहीं छापा मारने वाले तो नहीं हैं। वह खड़ा रहा। दरवाज़ा फिर से खड़खड़ाया गया। वह नहीं गया। दरवाज़ा फिर खड़का। उसने महसूस किया कि खड़क में वह ज़ोर नहीं था। छापा मारने वाले होते तो घर में घुस आते, क्योंकि दरवाज़ा खुला था। वे धीरे-धीरे चलते हुए आँगन में आए। दरवाज़ा खोलकर फटे टाट के परदे से झाँककर देखा। उन्हें ख़ातिरी हुई। मुरली मवाली खड़ा था। वे टाट हटाकर बाहर आए। अब उन्हें ग़ुस्सा आ रहा था कि यही बदमाश है, जिसने इमरान को ख़राब किया और अब दरवाज़े तक पहुँच गया है। उन्होंने नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए पूछा, “अब क्या है?”
मुरली सरककर उनके पास आया और कान में कुछ कहता रहा।
“साईं ख़ैर है। इमरान महफ़ूज़ जगह पर है। अब धावेदार या पुलिस भले ही सर फोड़े, कुछ नहीं होगा। हाँ एक संदेश भेजा है कि जो अमानत दी है, वह दीजिए।”
उस्ताद सोच में पड़ गया। पहले विचार आया कि छड़ी उसे दे मारे। फिर कुछ सोचते हुए पीछे लौटकर दोनों पुड़िया उठा लीं।
“इस मुसीबत से जान छूटे।”
उसने दरवाज़े पर खड़े होकर टाट को हटाया। मुरली को बाँह से भीतर खींचा। वह एक झटके में भीतर चला आया। “आओ अपनी अमानत ले लो, फिर इस ओर कभी न आना। नालायक़! तुमने ही इमरान को ख़राब किया है। यह एक शरीफ़ का घर है समझे। आओगे तो टाँगें तोड़ दूँगा। मुरली मवाली ने एक पुड़िया ली और रबड़ में बँधे हुए नोटों की गड्डी उनके हाथ में थमा दी और फिर वही पीले-काले दाँत दिखाते हुए यह कहते हुए भागाः
“उस्ताद आज इतना ही ‘माल’ चाहिए।” कल फिर आऊँगा। इमरान भी तीन दिन तक नहीं आएगा। यह घर तो हमारे लिए बहुत सुविधाजनक है। उस्ताद डरना मत और किसी तरह की चिंता न करना।”
उसे लगा कि इमरान के जाने के बाद वह अब अफ़ीम बेचने वाला दलाल बन गया है। उसे ख़ुद से नफ़रत होने लगी। उन्होंने ग़ुस्से में दरवाज़ा बंद किया और आँगन में टहलने लगे। ख़ुद को बेहद कमज़ोर पाया, पर चलने की कोशिश करते रहे। जब रसोईघर के पास पहुँचे तो देखा चूल्हा बुझा हुआ है। उन्होंने ज़ोर से ठहाका मारा और दो लकड़ियाँ चूल्हे में डालकर बैठे चूल्हे को फूँकने। वह तब तक फूँकते रहे, जब तक चिंगारी नहीं भड़क उठी। उन्होंने नोटों की गड्डी आग के शोलों में झोंक दी। जैसे आग भड़की, उन्होंने अपने भीतर भी एक आग भड़कती महसूस की। फिर प्लास्टिक का पुराना जग उठाया और बढ़कर पुराने मटके से पानी उड़ेलने लगे। फिर वह पानी पीने लगे। सारा पानी पी गए, पर उन्हें लगा, उनके भीतर की प्यास बुझी नहीं है। उन्होंने फिर से जग में पानी भरा और खाट पर बैठकर उखड़ी साँसें लेने लगे। अचानक उनकी नज़र सामने रखी पुड़ियों पर गई।
“यह ज़हर कोई तो पिएगा?”
उठते ही लिफ़ाफ़े में से पुड़िया निकाली और जल्दी-जल्दी उनको जग में ख़ाली करते रहे। उनके हाथ काँप रहे थे। फिर उन्होंने जग में हाथ डालकर उसे घुमाया और फिर जल्दी-जल्दी अफ़ीम मिले पानी को पीने लगे। वे कह रहे थे:
“यह ज़हर कोई तो पिएगा?”
पीते पीते, फिर बार-बार कहने लगेः “यह ज़हर कोई तो पिएगा . . . यह ज़हर कोई तो पिएगा . . .?”
उन्होंने चूल्हे की तरफ़ देखा। वहाँ आग बुझ चुकी थी और उन्हें लगा कि ज़हरीली कमाई के साथ उनके अंदर की आग भी बुझ गई है। फिर वह निर्बल से होकेर दीवार के सहारे बैठ गए।
उनकी आँखें बंद होने लगीं। वे बड़बड़ाने लगे, तड़पने लगे। “मुरली, इस घर की तरफ़ अब कभी मत आना, टाँगें तोड़कर रख दूँगा।”
फिर उन्होंने देखा कि इमरान सूट-बूट पहने घर में दाख़िल हुआ। उनकी लड़कियाँ अच्छे ख़ासे कपड़ों में सजी, हाथों में पकवान लिए उनके पास आकर खड़ी हैं। अचानक गफ़ूर भी पीछे से आयाः साथ में मज़दूर और हाथों में . . . और . . . उस्ताद घर को मरम्मत कर रहे हैं।
और देखा हेडमास्टर घर में आया और कहने लगा, “उस्ताद पेंशन भी आ गई है।”
उस्ताद गद्गद् होने लगे। फिर उन्होंने आँखें खोलीं, पर वहाँ तो कोई भी न था। दरवाज़े की ओर देखा, बंद था। फिर उन्होंने आँखें बंद कर दीं।
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