पंद्रह सिंधी कहानियाँ

पंद्रह सिंधी कहानियाँ  (रचनाकार - देवी नागरानी)

किस-किसको ख़ामोश करोगे? 


लेखिका: नसीम थेबो
अनुवाद: देवी नागरानी 

नसीब थेबो

जन्म 1 अप्रैल 1948 मेहम दादू में। पढ़ाई की शुरुआत शिकारपुर में हुई।  सिंध यूनिवर्सिटी जामशोरो में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के स्थान पर कार्यरत। 1968 से लिखना शुरू किया। उनकी पहली कहानी ‘आँसुओं की रेखा’ थी और भी अनेक कहानियाँ अलग-अलग वर्षों में छप चुकी हैं।

 

पाँचवाँ पीरियड ख़त्म हुआ तो मैं अपने क्लास की लड़कियों के साथ नीचे उतरी, क्योंकि अब हमारा जीवविज्ञान का प्रयोगात्मक सत्र था। मेरे हाथ में डिसेक्शन बॉक्स और जीवविज्ञान का जर्नल था। गलियारे से गुज़रते, मेरी नज़र एक क़ैदी पर पड़ी, जो लॉन की दूसरी ओर गर्दन झुकाए पत्थरों को कूटकर मिट्टी में बदल रहा था। उसके क़रीब और भी क़ैदी खड़े थे। उनके भी पाँवों में ज़ंजीरें पड़ी थीं। 

हम सबको गुज़रते देखकर क़ैदियों ने मुँह ऊपर करके देखा। उनके होंठों पर घायल मुस्कान थी और आँखों में उदासी के साथ विडंबना भी थी। वे फिर अपने काम में लग गए और मैं भी प्रयोगशाला में आ गई। मेरा दिल न जाने क्यों उदास और वीरान हो गया। सोच रही थी कि मज़दूर जेल में भी सख़्त थकाने वाला काम करते हैं। पर बड़े आदमी क़त्ल करके भी जेल में आकर बी-क्लास, रेडियो, अख़बार और दूसरी सुविधाओं का उपयोग करते हैं। उन्हें ज़िन्दगी की वही सुविधाएँ उपलब्ध करवाई जाती हैं, जिनके वे आदी हैं। मतलब वर्गीकरण के फ़ासले जेल के भीतर भी क़ायम हैं। 

हाँ, तो मैं बात कर रही थी उस क़ैदी की, जो मुझे कुछ जाना-पहचाना-सा लगा। थोड़ा ज़ेहन पर ज़ोर दिया तो याद आया, वह तो हमारे अपने गाँव का किसान था, जिसे गाँव के लोग कॉमरेड सोढा करके बुलाया करते थे। 
पर वह जेल में कैसे आया, सोढा तो बहुत नेक क़िस्म का इंसान था। बुद्धिमान और इंसानियत से संपन्न! शायद मैंने सोढे को न पहचाना हो। काफ़ी साल गुज़र गए हैं, मुझे भी अपना गाँव छोड़े। 

कॉलेज से जब घर लौट रही थी तो मैंने सोढे को गेट के बाहर सिपाहियों के साथ जेल की ओर जाते देखा। 

ग्रीष्म ऋतु का अत्यंत ही तपता हुआ दिन था। सूरज की ऊष्मा जिस्म को जला रही थी। नेक मोहम्मद के लबों पर एक पाखंडी मुस्कराहट थी। वह रह-रहकर अपनी मूँछों को मरोड़ रहा था। जब रामू ने उसे सब-कुछ बताते हुए कहा कि सोढे ने न तो ‘ची’ कहा और न ‘चा!’

“पीरल साईं, कुछ दिमाग़ ठंडा कीजिए। तुम्हें क्या हक़ है किसी ग़रीब को बेइज़्ज़त करने का। पर साईं याद रखना, आज तुम हम श्रमिकों को बिना किसी दोष के मार रहे हो। कल इन जैसे, ज़लील बुज़ुर्गों की गर्दनें काटेंगे।”

“अरे . . . सोढा, तुम्हारी ये मजाल,” फिर नेक मोहम्मद की ओर देखते हुए कहा, “नेक मोहम्मद देख रहे हो, उतारो कमीने की पगड़ी।”

“वहीं रुको। आगे मत आना। यह कुल्हाड़ी तुम्हारे ख़ून से लाल कर दूँगा,” सोढे ने कुल्हाड़ी को सीधा करते हुए कहा। 

“ये हमारे हाथ तुम्हें और नेक मोहम्मद जैसे चापलूस को तख़्ते पर लटका देंगे—ये मत भूलना,” कहते हुए सोढा वहाँ से चला गया। 

इस वारदात को हुए थोड़ा ही समय बीता तो पीरल साईं ने सोढे को ख़ून के केस में पकड़वाया। 

तुरंत ही ‘सालह’ और शार्गिदों की जद्दोजेहद के एवज़ में सेंट्रल जेल में क़ैद किया गया। उन दिनों मैं ‘सालह’ से मुलाक़ात करने सेंट्रल जेल गई थी। जेल के भीतर काफ़ी क़ैदी काम कर रहे थे। कहीं-कहीं पेड़ों तले अकड़े हुए सिपाही बैठे थे। जेल का लेडीज़ वेटिंग रूम पूरा औरतों से भरा पड़ा था। कई औरतें सर्दी के कारण बाहर धूप में बैठी थीं। उजड़ी और वीरान . . . सबकी आँखों में आँसू थे। कुछ के सुहाग क़ैद थे तो कुछ के भाई। औरतें सभी ग्रामीण थीं। एक सुंदर जवान औरत अपनी छोटी मासूम बेटी को गोद में उठाए एक तरफ़ बैठी थी। 

“अम्मा-आज बाबा आज़ाद होंगे?” बच्ची ने अपनी माँ से पूछा। 

“हाँ बेटा, आज तुम्हारे बाबू की आज़ादी का दिन है।”

“अम्मा, बाबा हमारे साथ ईद मनाएँगे?” 

“हाँ मेरी बच्ची, वह हमारे साथ मिलकर ईद मनाएगा,” और फिर वह औरत ज़्यादा बरदाश्त नहीं कर पाई। सिसककर रोने लगी। 

“दीदी, आप रो क्यों रही हैं?” मैंने क़रीब जाते उसे गले लगाते हुए पूछा—वह सोढे की पत्नी थी, जिसे मैंने दूर से अँधेरा होने के कारण नहीं पहचाना। 

वह रुआँसी आँखों से मुझे देखने लगी। 

“आज पौ फटते सोढे को फाँसी दी गई है। वह ईद हमारे साथ मनाएगा। कुल्हाड़ियों ने मेरे साथ ज़ुल्म किया है।”

“सोढे के, नहीं, नहीं, नहीं!” मेरी चीख़ निकल गई। सेंट्रल जेल में मुलाक़ात करने आई थी, पर सोढे के बेबस क़ैदी जिस्म को देखकर घुटन होने लगी। इस समाज के लिए मन में सख़्त धिक्कार पैदा हुई। सोढा तो बहुत सादा, समझदार, बहादुर और ईमानदार किसान था। कैसे चोरी कर सकता था? नहीं . . . नहीं . . . ऐसा हरगिज़ नहीं होगा? वह क़ातिल और डकैत हो ही नहीं सकता! ज़रूर किसी ग़लत इल्ज़ाम में फँस गया होगा। मैं सोचते-सोचते घर आ पहुँची। बेदिली से किताब आकर मेज़ पर फेंकी। 
 
“सालह, तुम्हें सोढा याद है?” 

“कौन सा सोढा?” 

“गोरी का पति और सुबहान का पिता,” जिसे गाँव के लोग ‘कामरेड सोढा’ पुकारा करते थे।”

“अरे हाँ . . . सोढा, भला उसे क्या हुआ?” 

“सोढे को मैंने अपने कॉलेज में देखा। उसके पाँवों में ज़ंजीरें जकड़ी हुई थीं। शायद सेंट्रल जेल में क़ैद होकर आया था।”

“हाँ सच में, उस दिन यूनिवर्सिटी में सोढे का रिश्तेदार मिला,” उसने बताया कि . . . सालह को . . . कुछ याद आया। 

“एक दिन पीरल साईं की बैठक में लोग जमा थे। कुछ धरती पर तो कुछ बेंचों पर और कुछ मोड़ पर। दोस्त नेक मोहम्मद पीरल साईं के बग़ल में बैठा था। उसकी लाल आँखें जैसे मक्क़ारी और फ़रेब के लाल प्याले लग रही थीं। पीरल साईं भी बहुत परेशान लगे। पीरल ने नेक मोहम्मद को भेजकर ‘होत’ को ‘बेगारी’ (वितममकूवता) के लिए बुला भेजा, पर होत ने इनकार कर दिया। इसी बात पर पीरल उत्तेजित हो गया। गालियों की भरमार के बीचों-बीच ‘होत’ को बुलवाकर उसे थप्पड़ें लगाईं। पगड़ी उतारकर उसे बहुत बेइज़्ज़त किया। उसी वक़्त सोढा भी आकर बैठक में हाज़िर हुआ। सोढे ने पास में बैठे रमू से पूछा कि माजरा क्या है? रमू ने जो सच था, वह बता दिया। पीरल साईं ने अपनी धाक जमाए रखी। बेगुनाह को गुनहगार बनाकर ही छोड़ा।” 

मैं मुलाक़ात वाले कमरे में जाकर बैठी। सामने वाली कुर्सी पर सी.आई.डी. ऑफ़िसर और जेल के प्रबंधक बैठे थे। थोड़ी देर के बाद ‘सालह’ मुस्कुराते हुए कमरे में दाख़िल हुआ। 

“जिये सिंध!” उसने कहा

“जिये सिंध!” मैंने भी हँसते हुए कहा। 

“बाबा, सियासत पर बातचीत न करना,” सी.आई.डी. ऑफ़िसर ने कहा। 

हम दोनों यहाँ-वहाँ की बातें करते रहे। मैंने सालह को सोढे की फाँसी के बारे में बताया। सालह की आँखें आँसुओं से तर हो गईं। 

“हाँ जेल में मुझे क़ैदियों से ख़बर मिली कि चार लोगों को पौ फटते ही फाँसी दी गई है। पर सोढा मरा नहीं है, वह अपने पीछे एक नहीं बल्कि हज़ारों सोढे हर गाँव में छोड़कर गया है।”

“सालह तुम्हारा यह साल तो ख़राब हो जाएगा। परीक्षाएँ चल रही हैं और तुम यहाँ बैठे हो . . .”

“अरी पगली, लोगों की जानें बेकार हो जाती हैं। तुम सालों की बात कर रही हो। साल गया तो गया, सदके सिंघड़ी के सर, तुम चिंता मत करना।”

“नहीं, नहीं, मैं चिंता क्यों करूँगी?”

“मुलाक़ात का वक़्त पूरा हो गया।” जेलर ने हमें वक़्त याद दिलाते हुए कहा। 

“अच्छा, ज़िन्दगी है तो फिर साथ हैं। जिये सिंध।”

“जिये सिंध!” और फिर मैं वहाँ से चली आई।

<< पीछे : मज़ाक़ आगे : अलगाव की अग्नि >>

लेखक की कृतियाँ

साहित्यिक आलेख
कहानी
अनूदित कहानी
पुस्तक समीक्षा
बात-चीत
ग़ज़ल
अनूदित कविता
पुस्तक चर्चा
बाल साहित्य कविता
विडियो
ऑडियो