पंद्रह सिंधी कहानियाँ (रचनाकार - देवी नागरानी)
हृदय कच्चे रेशे सा!
लेखक: मदद अली सिन्धी
अनुवाद: देवी नागरानी
मदद अली सिन्धी
जन्म: 12 अक्टूबर 1950 हैदराबाद में। हैदराबाद से प्रारंभिक शिक्षा। गवर्नमेंट सचल सरमस्त आर्ट कॉलेज, हैदराबाद से बी.ए. करके सिंध यूनिवर्सिटी जामशोरो में पॉलटिकल साइंस के प्रवक्ता के पद पर नियुक्त हुए। लिखने की शुरूआत 1960 में हुई। उनकी पहली कहानी ‘दिन गुज़र गए’ थी। तत्पश्चात् वे निरंतर लिख रहे हैं। 1980 से सिंध न्यूज़ हैदराबाद में संपादक के रूप में अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। उनके कहानी-संग्रह 'दिल अंदर दरिया’, ‘नज़्मों की किताब’, ‘पुनर्मिलन’ प्रकाशित हुए हैं। उनकी अनेक कहानियों का अनुवाद हिन्दी व फ़्रैंच भाषा में हुआ है। क़रत अलीन हैदर की कहानियों का अनूदित संग्रह ‘कलंदर’ नाम से प्रकाशित हुआ है। 1972 में पाकिस्तान टेलिविजन कराची के लिए ड्रामा भी लिखा, जो उन दिनों टेलेकास्ट हुआ। 1970 में ‘अगिते कदम’ प्रकाशन शुरू किया, पर वह अधिक समय तक चल नहीं पाया। इस समय एक दैनिक समाचार-पत्र में संपादक के रूप में काम कर रहे हैं। पता-जेसन लक्जरी अपार्टमेंट, ई-6, क्लिफ्टन ब्लॉक सी, कराची (पाकिस्तान)
वह जाड़े की एक सर्द रात थी। आसमान पर कहीं-कहीं थोड़े सफ़ेद बादल तैर रहे थे। सर्दी भी रोज़ से अधिक थी। मैं अपने घर में बरांडे में गुड़ियों से खेल रहा था। कुछ दूर सिगड़ी में कोयले जल रहे थे। ऐसे में अम्मी और नानी अम्मा, तैयार होकर आईं और मेरे बग़ल में आकर खड़ी हुईं।
“नानी अम्मा, कहाँ जा रही हो, मुझे भी साथ ले चलो।”
मैंने गुड़िया को छोड़कर नानी के बुरक़े को पकड़ा।
“महनाज़ विलायत से लौट आई है, हम अभिवादन करने जा रही हैं,” अम्मी ने कहा।
जब मैंने आपा महनाज़ की विलायत से आने की बात सुनी तो रोने लगा, क्योंकि बहुत दिनों से महनाज़ आपा की बहुत सारी बातें सुनता रहा। अम्मी और नानी के मुँह से सुनते-सुनते उनके अनेक रूप मेरे ज़ेह्न में अंकित हो गए थे।
मुझे ज़मीन पर लेटते देख नानी ने मुझे उठाकर तैयार किया। नीली निकर और पटापटी बुश्शर्ट पहनकर मैं कूदता हुआ नानी और अम्मी से भी दो क़दम आगे चलते हुए जाकर विक्टोरिया गाड़ी में बैठा। विक्टोरिया चलने लगी तो मैंने गाड़ी की पिछली खिड़की का चमड़ा उठाया और रास्ते को देखने लगा। उन दिनों हैदराबाद के रास्तों की बात ही कुछ और थी। न इतना ज़्यादा ट्रैफ़िक, न साँस में घुटन पैदा करने वाला धुआँ, न रिक्शाओं का शोर-शराबा! मोटरें भी एक-आध दिखाई देतीं। रास्ते पर सिर्फ़ विक्टोरिया गाड़ियाँ, टाँगें और साइकिलें-फ़ुटपाथ रास्ते से काफ़ी ऊपर, जिनके दोनों तरफ़ पीपल और बरगद के घने पेड़, तिलक चढ़ाई से स्टेशन रोड उन पेड़ों से भरा रहता था। रसाला रोड के दोनों किनारों पर विशाल बग़ीचे (एक हैदर चौक तक, और दूसरा जहाँ अब गोल बिल्डिंग है) जिसमें ऊँचे-ऊँचे पेड़, हरी-हरी घास, पानी के तालाब और फव्वारे, रोज़ शाम के वक़्त हम उन दो बग़ीचों में सैर करने जाया करते थे।
बड़ी गाड़ी, सेशन कोर्ट से होती हुई, पीछे की तरफ़ से मुंबई बेकरी के पास से गुज़री तो मैं नानी अम्मा के साथ उतरकर भीतर चला गया। अम्मा लोग जब भी किसी अपने के पास चलते थे तो पहले आकर यहाँ से केक लिया करते थे। (मज़बूत सागौन की लकड़ी के बने कबर्ड, जिन पर लगे शीशे में रखे हुए केक नज़र आया करते। शीशे के बड़े-बड़े गोल मर्तबान हमेशा बिस्कुटों से लदे हुए होते।)
बड़ी गाड़ी फिर चलने लगी तो मैं फिर खिड़की से कैंटोनमेंट के रास्ते को देखने लगा। लंबे रास्ते पर सिवाय झाड़ों से गिरे सूखे पत्तों के, जो हवा में उड़ रहे थे, और कुछ भी नहीं था। गाड़ी अहाते से होती हुई एक लाल पत्थर से बने एक विशाल दो मंज़िलें मकान के पास खड़ी रही, तो हम उतरकर सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुँचे।
ये था आपा महनाज़ बानो का शाही घर, जो घर नहीं, पर महल था। सारा-का-सारा लाल पत्थर से बनाया हुआ था। उस स्थान पर सौ तो कमरे हुआ करते थे। ऊपर-नीचे इस जगह के दो दरवाज़े होते थे। एक का रुख़ दक्षिण और दूसरे का पूरब की ओर। बड़ी-बड़ी काठ की छतों वाले कमरे, बरांडे, संगमरमर की सीढ़ियाँ, बड़े-बड़े रोशनदान, जिसमें लगे रंगीन शीशे दिन की धूप में प्रतिबिंब पैदा करते। संगमरमर के सफ़ेद शेर, जो अपने कंधों पर उस जगह की ख़ूबसूरत दीवारों का बोझ उठाए आने-जाने वालों को देखा करते। ऊपर चबूतरे पर से बारादरी तो दूर से नज़र आती थी। इस विशाल दो मंज़िलेंं इमारत में पश्चिम की तरफ़ आँगन और पूरब की तरफ़ छोटा बग़ीचा था, जिसमें किनारों की तरफ़ नीम और गेदूड़े के पेड़ और उनके बीच में एक सुंदर फव्वारा था, जिसमें से पानी आबशार बनकर नीचे तालाब में गिरता रहता था।
“यह जादुई महल ज़रूर किसी शहज़ादी ने अपने रहने के लिए बनवाया होगा।” हर रोज़ रात को अम्मी और नानी अम्मा से गुल बकौली, मूमल राणे और फूलों की रानी वाली कहानियाँ सुनकर मेरे तसव्वुर में भी हमेशा सिर्फ़ महल, शहज़ादियाँ और देव बसे रहते थे। सुंदर और कोमल शहज़ादी, जिसे एक बड़ा देव, एक शाही महल में क़ैद कर बैठा था, जिसे अंत में एक शहज़ादा आकर मार देता है और शहज़ादी को आज़ाद करवाता है।
अम्मी, आँगन में किसी से गले मिलीं तो मैं उसे देखने लगा। अम्मी महनाज़ आपा की सास से बातें कर रही थीं। वह हमें बरांडे में लेकर चलीं, जिसमें सबसे पहले एक शाही कमरा था, जिसे ड्राइंग रूम करके संबोधित किया जाता था। (उन दिनों यह शब्द ड्राइंग रूम भी कितना आकर्षण भरा था) वह कमरा पुराने विक्टोरियन दौर के फ़र्नीचर से भरा था। कोच, काँच की तिपाहियाँ, मेज़ों (साइड टेबल), ऊपर छत पर झूमर-बल्ब (जिनकी तारें दिखाई नहीं देती थीं, फ़क़त काले लोहे के बटन दबाने से बत्तियाँ रोशन हो जाया करती थीं। उन्हें जलाने से सफ़ेद-सफ़ेद दीवारें रोशन हो जाती थीं। मैं जब भी उस ड्राइंग रूम में बैठता था तो हैरान हुआ करता था कि आख़िर ये बत्तियाँ बिना तारों के कैसे जलती हैं। उस समय तक अंडरग्राउंड बिजली की तारों का फ़ैशन नहीं था।
“महनाज़ कहाँ है?” अम्मी ने पूछा।
“बैठी है ऊपर कमरे में!” आपा महनाज़ की सास ने नाक को मरोड़ते हुए कहा।
“बुलवा लेती हूँ!” ऐसा कहकर वह फिर अम्मी के साथ बातें करने में व्यस्त हो गईं। वह अम्मी की बचपन की सहेली थी। उसके साथ स्कूल में पढ़ती थीं। इसीलिए उनकी बातें ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही थीं। मैंने उनकी बातें सुनने के बजाय नानी अम्मा को परेशान कर दिया। उनकी पोशान खींच-खींचकर उसके उठने के लिए मजबूर करता रहा। “चलो चलें मुझे आपा महनाज़ को देखना है।” आख़िर नानी अम्मा मुझे लेकर महनाज़ की ओर चल पड़ीं। ड्राइंग रूम के कोने से एक छोटा आँगन था, जिसे पार करते एक छोटे कमरे से होते, एक बड़े कमरे के दरवाज़े पर पहुँचे।
सामने मज़बूत सागौन का बना हुआ दरवाज़ा था, जिस पर रंगीन शीशे लगे हुए भीतर की जली रोशनी में दमक रहे थे। कमरा हमारी आँखों के सामने था। मेरे सामने डबल बैड पर एक गोरी ख़ूबसूरत औरत (शहज़ादी!) लेटी हुई, जिसके हाथों में कोई किताब थी, पर जिसके नयन उसके बाएँ तरफ़ वाली खिड़की के बाहर बिखरे हुए अंधकार को ताक रहे थे। मैंने अम्मी के मुँह से जो कहानियाँ सुनी थीं, उन कहानियों की शहज़ादी अपने संपूर्ण सौंदर्य, कोमलता शृंगार के साथ मेरे सामने थी। वह हमें देखते ही उठी और आकर स्नेह से नानी अम्मा से मिली। (भला क़द, लंबे काले बाल, गहरे नीले नयन, दमकता मुखड़ा, गुलाब के फूल जैसे लाल होंठ)।
मुझे यूँ गुमसुम ख़ुद की ओर ताकते देखकर बाँह से पकड़ते हुए कहा, “मासी शान्ति का बेटा है न?”
“हाँ बेटा, देखो न तुम्हें कैसे ताक रहा है। तुमसे मिलने के लिए बिल्कुल अधीर था,” नानी अम्मा ने उसे बताया।
“बिल्कुल अपनी माँ पर गया है,।” ऐसा कहते हुए मुझे अपनी गोद में लेकर बैड पर बैठी और नानी अम्मा से बातें करने लगी और मैं उनके कमरे में रखी चीज़ों को देखने लगा।
आपा महनाज़, बहुत बरस अपने पति के साथ विलायत में रहकर लौटी थीं, इसीलिए उनका कमरा भी अजीब-अजीब चीज़ों से सजा हुआ था। डबल बैड, साइट टेबल, दीवारों पर पेंटिंग्स, लकड़ी के बड़े फ़्रेम में बंद, एक कोने में शीशे की अलमारी, जिसके एक हिस्से में किताब, दूसरे में गुड़िया व और खिलौने, कुछ दूर तक निटिंग मशीन थी, जिसमें तारें लगी हुई थीं। (बाद में पता चला कि वह मशीन आपा महनाज़ हैदराबाद में सबसे पहले लंदन से लेकर आई थीं और वह 1957 का ज़माना था)।
कमरे के पूरब की ओर एक शाही गैलरी थी, जिस पर लटके लाल पर्दे, रेशमी रस्सी से बँधे हुए थे। उनमें से नीचे बाग़ में खड़े पेड़ों की डालियाँ हवा में हिलती हुई नज़र आ रही थीं। बाहर आकाश पर अँधेरा छा चुका था। खिड़की से जाड़े की ठंडी बयार आकर हमें छू रही थी और मैंने आपा महनाज़ की गोद में बैठे-बैठे उसे देखा। उसका चेहरा चौदहवीं की चाँद के समान रोशन था। उसकी नीली गहरी आँखों में अथाह गहराई थी (हाँ समस्त शहज़ादियाँ ऐसी ही होगी, शहज़ादी गुल बकावली फूलों की रानी, मूमल अम्मी की सभी सुनी हुई कहानियाँ और उन कहानियों की शहज़ादियाँ आकर मेरे सामने खड़ी हुई हैं!)
“क्या नाम है तुम्हारा?” उसने मेरी ठोढ़ी को अपने सुंदर हाथ से छूते हुए कहा।
मैंने देखा, उसके ख़ूबसूरत हाथों के नाख़ून खड़े हुए थे, जो लाल नेल पॉलिश के कारण चमक रहे थे। मैंने शर्माते हुए नाम बताया तो कहने लगी, “मैं तो तुम्हें मधु कहकर बुलाऊँगी . . . क्या कहकर बुलाऊँगी? . . . सुनाओ न बाबा?”
शर्म के मारे मैंने कुछ भी नहीं कहा, तो हँसने लगी। उसके मोती जैसे दाँत और गुलाबी होंठ-मैं गर्दन उठाकर उसे ताकने लगा और अम्मी की सुनाई फूलरानी की कहानी को याद करने लगा . . . (रात में अम्मी को सुनाऊँगा कि फूलरानी, देव के बंधनों से ख़ुद को आज़ाद करवाकर, अपने महल में लौट आई है)।
और यह थी आपा महनाज़ से मेरी पहली मुलाक़ात, जिसने मेरे कोमल हृदय पर उसके लिए, न समझ आने वाली एक जादुई ज़ज़्बात की झिलमिलाती झीनी रिदा (चादर) डाल दी। मेरी उम्र उस वक़्त लगभग सात-आठ साल की रही होगी। पर मुझे अभी तक उसकी शख़्सियत के सारे रंग और रूप याद हैं। आपा महनाज़ हैदराबाद की प्रमुख सोसाइटी की एक ज़हीन औरत थी। उस वक़्त की सभ्य सोसाइटी में मुश्किल से कोई दूसरी औरत फ़ैशन, सौंदर्य और शृंगार में उसका मुक़ाबला कर सकती थी। जिमख़ाने की महफ़िलों से लेकर सामाजिक दायरे तक उसकी सुंदरता के चर्चे थे। उसके मैके सिविल लाइन और ससुराल शहर में रहते थे। आपा महनाज़ का पति एक नामचीन डॉक्टर था, जो हाल में लंदन से नई डिग्री लेकर आया था। उसके ससुर को अँग्रेजों के ज़माने में ‘ख़ानबहादुर’ का ख़िताब मिला हुआ था। वह हमेशा उस जगह के बड़े और लंबे बरांडे में आराम कुर्सी पर लेटे चुरुट पिया करता था। हमारे उनके साथ पुराने पारिवारिक सम्बन्ध हुआ करते थे, इसीलिए आपस में ज़्यादा आना-जाना होता था। वह दिन ख़ाली नहीं होता था जब हमारे यहाँ से कोई और उनके वहाँ से कोई हमारी ओर न आता। अम्मा अगर चलती है तो पूरा दिन आपा महनाज़ वालों के यहाँ दिन गुज़रता और वे आते तो शाम ढले हमारे यहाँ से जाते (अजीब सा ज़माना था, ज़िन्दगी की समस्त बातों पर मशीनी ज़िन्दगी ने अपने रंग नहीं चढ़ाए थे और आज दुख फ़क़त इस बात का है कि वे प्यार भरे क़रीबी रिश्ते जाने किस तरफ़ मुँह मोड़कर चले गए हैं। उनका कोई पता नहीं पड़ता, जिनकी चाह थी, जिनसे स्नेह था उन लोगों के चेहरे एक-दूसरे को भले लगते थे!)
और जैसे-जैसे मैं आपा महनाज़ के पास अधिक जाने लगा, वैसे-वैसे हमारा आपस में सम्बन्ध भी गहरा होता गया। वह मुझे प्यार भी बहुत करती थीं। मैं एक दिन छोड़कर नित उससे मिलने जाया करता। नानी अम्मा अक़्सर उसके पति से दवा लेने चलती थी तो मैं भी उसके साथ जाता (आपा महनाज़ के पति का दवाख़ाना भी उसी शाही इमारत के निचले हिस्से में होता था!) नानी अम्मा उसके पति से दवा लेती थी और मैं आपा महनाज़ के पास ऊपर जाकर खेलता। आपा महनाज़ का कमरा, इमारत के आगे वाले भाग में रहता था, जिसके सामने फ्रांसिसी ढंग की एक शाही गैलरी थी, जिसे पेड़ों की शाख़ें छू लिया करती थीं। तेज़ हवा के झोंकों की वजह से उन पेड़ों के सूखे . . . और हरे पत्ते झड़कर नीचे फ़व्वारे में गिरा करते थे। लाल पत्थर की उस शाही गैलरी में मैं बैठकर खेला करता था और आपा महनाज़ मेरे क़रीब आराम कुर्सी डालकर बैठ जाती थी। गैलरी के नीचे छोटा बाग़ होता था, जिसमें दो-चार नीम और गेदूड़े के घने पेड़ और उनके बीच में संगमरमर का बना फ़व्वारा था, जिसमें से पानी निकलकर तालाब में जाकर पड़ता था। उसके चारों ओर हरी-हरी घास और थोड़ी दूर उस जगह का शीशम से बना काला दरवाज़ा था। दरवाज़े के सामने रास्ता था, जहाँ पीपल के पेड़ के नीचे कभी-कभार कोई टाँगा गुज़रता था तो उसकी आवाज़ भी वहाँ आती थी। कभी-कभी मैं और आपा महनाज़ उस गैलरी के कटहरे पर से झुककर नीचे तालाब को देखते थे। तेज़ हवाएँ हमारे पास से गुज़रकर, आपा महनाज़ के लंबे बाल उड़ाकर, झाड़ों के बीच शोर करती हुई चली जातीं। मैं उस वक़्त आपा महनाज़ के चेहरे की ओर निहारता, जो अपने दोनों हाथ अपने गालों पर रखकर, नीचे पानी को निहारती रहती।
एक बार मैं और आपा महनाज़ गैलरी में बैठे थे। वह जब भी चुप होती तो सिगरेट सुलगाकर ऊपर नीचे आसमान में निहारती थी। उस दिन भी वह सिगरेट को एक सुंदर होल्डर में डालकर लाइटर से जलाकर सिगरेट के छोटे-छोटे कश लेते हुए सामने पेड़ों की चोटियों को देखने लगी। मैं जो उसके बग़ल में खड़ा था। उसे सिगरेट पीते देख कहने लगा, “आपा, आप ये मत पिया करो?”
यह सुनकर उसने मुस्कुराते हुए मेरी ओर देखा। वह उसी समय नहाकर बाहर आई थी। उसके काले और लंबे बाल कंधे पर लटक रहे थे। उन्हें हाथ से हटाते हुए मुझे बाँहों में जकड़कर अपने क़रीब लाते हुए कहने लगी, “क्यों मधू, तुम्हें यह अच्छा नहीं लगता क्या?” मैंने सर हिलाकर हामी भरी तो मेरे बालों को अपनी सुंदर उँगलियों से सँवारते हुए कहने लगी, “अच्छा अब नहीं पिऊँगी।”
मैं गर्दन झुकाए उसके सुंदर पैरों को देखने लगा। आपा महनाज़ के हाथ पाँव बहुत ही सुंदर थे। (औरतें कहा करती थीं कि महनाज़ जैसा सुंदर हुस्न उन्होंने बहुत कम देखा है।) उसकी सुंदर लंबी उँगलियाँ, उन उँगलियों के बढ़ाए हुए नाख़ून, जिन्हें वह लाल नेल पॉलिश लगाती थी, रोशनी में हमेशा चमकते थे। अचानक मैंने उसके नाखूनों को देखते हुए कहा, “आपा, क्या अपने हाथों के नाखून भी विलायत से बनवाकर आई हैं?”
यह सुनकर वह हँसने लगी। “क्यों तुम्हें अच्छे लगते हैं क्या?” मैं उसके हाथों को बढ़ाए हुए लाल नाख़ूनों को देखते, अपने दोनों हाथ उसके सामने फैलाते हुए कहने लगा, “आपी मेरे नाख़ून भी आप जैसे बना दो। मैं घर जाकर उन्हें लाल करूँगा!” वह ज़ोर से हँसने लगी तो मैं शर्मिंदा हो गया। उसने हँसते हँसते कहा, “चलो तो तुम्हारे नाख़ूनों को पॉलिश लगाऊँ।” ऐसा कहते हुए वह मुझे अंदर बेडरूम में लेकर चली। उसकी ड्रेसिंग टेबल लाल रंग की थी, जिसके शीशे सामने अनेक क़िस्म की शीशियाँ थीं। एक शीशी लेकर कहने लगी। “कौन सा रंग लगाऊँ?”
“आपा आपको कौन सा रंग पसंद है?” मैंने कहा।
“लाल . . . मुझे लाल रंग पसंद है?” वह अपने रंगीन नाख़ूनों को देखते हुए कहने लगी।
“मुझे भी वही लगा दो!”
उसने तत्काल ही मेरे मुँह की ओर निहारा।
“मधू, तुझे यह रंग भी मेरे कारण अच्छा लगता है?”
मैंने गर्दन हिलाई फिर हँसकर कहने लगी, “चलो, अब आओ तो तुम्हारे नाख़ूनों को नेल पॉलिश लगाऊँ।”
ऐसा कहते हुए वह ड्रेसिंग टेबल के पास स्टूल पर बैठकर मेरे हाथ को अपने हाथ में पकड़कर नाख़ूनों को पॉलिश लगाने लगी। मैं सामने आईने में उसे और ख़ुद को देखने लगा।
अचानक एक शख़्स बेडरूम में तेज़ी से चला आया। सूट-बूट से सजा, बदन भरा हुआ, रंग साफ़, पर होंठ अधिक मोटे। आपा महनाज़, जिसके होंठों में अटके होल्डर का सिगरेट सुलगकर ख़त्म हो गया था, मेरे हाथों में नेल पॉलिश लगाते हुए, नज़र उस पर डाली फिर अपने काम में व्यस्त हो गई। बेडरूम के भीतर आने वाला शख़्स मुझे जाने क्यों अच्छा नहीं लगा-उस समय मुझे उस शख़्स से बहुत डर लगा। मैं डरी सहमी आँखों से उसे देखने लगा। वह कपड़ों की आलमारी में कुछ ढूँढ़ रहा था। अचानक उसने कोई चीज़ आलमारी से निकालकर जेब में डाली और आगे बढ़ हमारे पास आकर खड़ा हुआ तो मैं अधिक डरते हुए आपा महनाज़ से सटकर बैठ गया।
“क्या हो रहा है?” उसकी आवाज़ बहुत भारी थी (तेज़, तीखी और इंसानी जज़्बे से ख़ाली . . .)
“क्यों डॉक्टर साहब, कुछ चाहिए था क्या, जो इस वक़्त ऊपर आए हो?” आपा महनाज़ ने बिना सर उठाकर उसकी ओर देखने की बजाय मेरे दूसरे हाथ के नाख़ूनों को नेल पॉलिश लगाने में लगी रही।
“यह कौन है?” उसने पूछा
“मासी शान्ति का बेटा है?” आपा ने जवाब दिया।
“ठीक है . . . ठीक है . . .?” उसने तेज़ आवाज़ में कहा। “पर तुम सिगरेट कम फूँका करो।”
“मैं अपने भले-बुरे से भली भाँति वाक़िफ़ हूँ। आप मेहरबानी करके बिल्कुल चिंता न करें,” आपा महनाज़ ने मेरी छोटी उँगली के नाख़ून को निहायत ही ख़ूबसूरती से पॉलिश लगाते हुए कहा।
न जाने अचानक उस शख़्स को क्या हुआ, वह आपा महनाज़ के साथ तीखे स्वर में बात करने लगा। वह भी पलटकर उसे उसी लहजे में जवाब देने लगीं तो वह शख़्स ग़ुस्से में ज़ोर-ज़ोर से ज़मीन पर पैर पटकता हुआ नीचे चला गया।
औरे वही था आपा महनाज़ का पति, जिसे पहली बार मैंने इस हालत में देखा। आपा महनाज़ और उसके पति के स्वभाव में बहुत अंतर था, पर मेरा कोमल ज़ेह्न उस वक़्त उन फ़ासलों को समझ नहीं पाया।
एक बार हमारे घर आपा की सास आई थीं। अम्मी और वे, दोनों खाट पर बैठी बातें करती रहीं और मैं पास में पड़े झूले में बैठा था। मेरे हाथों में नानी अम्मा के हाथ का बना ‘गोल झूमर’ था (किसी ज़माने में छोटे पैदा हुए बच्चे के लिए रंगीन कपड़े में से बनाया जाता था। उसके भीतर कपास ठूँसी हुई होती, बाहर कशीदाकारी व चमकते सितारे टाँके जाते थे। यह बच्चे के पालने के ऊपर वाली डंडी पर टाँगी जाती थी) जो मैं पालने की डंडी पर बाँध रहा था। अचानक बैठे-बैठे मैंने महसूस किया कि आपा महनाज़ की सास के मुँह से महनाज़ का नाम निकला। बस मैंने तुरंत अपने कान उनकी बातों में लगा दिए। आपा की सास उनकी बुराई कर रही थी। वह कह रही थी, “भाई औरत हो तो ऐसी, इतने सुख दिए हैं तो भी उसे पति की सूरत बिल्कुल अच्छी नहीं लगती। अभागन को विलायत ले गया, तो वहाँ से भी अकेली-अकेली लौट आई। फिर उसे ले गया और अब इतने बरस वहाँ गुज़ारकर आई है, तो भी ज़रा ध्यान नहीं देती है उसकी ओर।”
“आपको ज़बरदस्ती शादी नहीं करवानी चाहिए थी,” अम्मी ने कहा।
“तो फिर क्या करते-चचेरे रिश्ते, लेन-देन के सम्बन्ध, हमें क्या पता था कि वह किसी और से प्यार करती है। मेरा बेटा तो विलायत में था। अब तो उसे भी हर बात का पता चल गया है,” ऐसा कहकर उसने दो-चार कड़वे शब्द आपा महनाज़ के लिए कहे। उसका ऐसा कहना और मैं, जो झूले पर बैठा था, वहीं से चिल्लाकर कह उठा, “आप सब आपी से जलते हो!”
मेरा ऐसा कहना जैसे भंभोर को आग लग गई। अम्मी ने मुझे फटकारा, “शर्म नहीं आती बड़ों के बीच में बात करते हुए।”
आपा की सास, जो यह संयोग देखकर दहल गई थी। कहने लगी, “अम्मा, अब छोड़ो भी, इसका भी कोई क़ुसूर नहीं।”
मैं नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए झूले से नीचे उतरा, गोल झूमर को वहीं फेंककर बाहर निकलने लगा, तो आपा महनाज़ की सास की आवाज़ सुनी, “इतने छोटे बच्चे को भी अपना मसीहा बना लिया है!”
बाहर आँगन में निकलकर अपनी हिरणी के पास बैठा। जब कभी-भी किसी से रूठता था तो जाकर उसी हिरणी के पास रोता था। उस वारदात के बाद जब भी आपा महनाज़ की सास हमारे घर आती तो मेरे सामने एक हर्फ़ भी बात नहीं करती थीं। जैसे-जैसे दिन गुज़रते गए, मेरी कशिश आपा महनाज़ के लिए बढ़ती रही। उसके कलात्मक आभा के अनेक रंग सामने आते रहे। उसके बेडरूम को देखकर उसकी प्रकृति का अंदाज़ा लग जाता था। उसे फूलों से, ख़ास करके मोतियों के फूलों से बेहद जुड़ाव था, जिन्हें वह ‘राबेल’ कहकर पुकारती और मैंने ‘राबेल’ शब्द भी पहली बार उसके मुँह से सुना। वह अक़्सर शाम के वक़्त अपने जूड़े में उन फूलों का गजरा लगाती थी। उसके बेडरूम में दाख़िल होते ही फूलों की ख़ूशबू स्वागत करती। वहीं दो कोनों में बड़े-बड़े इटालियन गुलदान रखे हुए रहते थे, जिनमें रोज़ उसकी नौकरानी फूल बदल देती थी। उस बेडरूम की सफ़ेद दीवारों पर अद्भुत पेंटिंग्स टँगी हुई थीं। जब भी उससे मिलने जाओ तो कभी वह निटिंग करती हुई मिलती, कभी किताब पढ़ते हुए तो कभी सितार बजाते हुए। वह सितार बजाना कब और कहाँ सीखी, यह तो याद नहीं और न ही मैंने उससे पूछा, पर उसे सितार बजाते कब सुना था, यह भली भाँति याद है।
पहली बार जब मैं ‘सेंट बोना वेंचर’ में दाख़िल हुआ (जो उसके घर के क़रीब होता था) तो पहले दिन ही रो-रोकर बुरा हाल कर दिया अपना। ऐसी हालत में मेरा नौकर ‘यारू’ मुझे आपा महनाज़ के पास छोड़ आया।
उस वक़्त सुबह के दस-ग्यारह बजे होंगे। मैं उसके बेडरूम में नम आँखों से दाख़िल हुआ तो वह नीचे क़ालीन पर बैठी सितार बजा रही थी। वह काले रंग की साड़ी पहने थी, जिस पर सितारे टँगे हुए थे। बेडरूम में अँधेरे और रोशनी के बीच का आलम था। खिड़कियों के पर्दे ऊपर उठे हुए नहीं थे, पर रोशनदान से आती रोशनी में काली साड़ी पर लगे सितारे चमक रहे थे। गुलदानों के ताज़े फूलों की सुगंध कमरे को महका रही थी। वह मुझे उस समय इतनी अच्छी लगी कि मैं अपना रोना भूलकर उसके पास जा बैठा। उसने नयन मूँदे हुए थे और समस्त वायुमंडल पर सितार की उदास और मनमोहक आवाज़ छाई थी। अचानक सितार बजाते-बजाते उसे किसी के होने का अहसास हुआ। आँखें खोलकर मेरी ओर देखा। सितार की आवाज़ थम गई और कमरे में एक अजब चुप्पी छा गई। मैं, जो उसके चेहरे को देख रहा था, उसे अपनी ओर देखते शरमा गया। उसने सितार एक तरफ़ रखा और मेरी ओर देखकर मुस्कुरा दी।
“आपी मैं नहीं पढ़ूँगा!” मैंने रोते हुए कहा।
मुझे स्कूल के कपड़ों में देखकर समझ गई कि मैं स्कूल से चला आया हूँ।
“नहीं मधू, ऐसे नहीं कहते!” उसने बाँहें आगे करते हुए अपनी ओर खींच लिया।
“तुम पढ़ोगे और एक दिन पढ़-लिखकर बड़े आदमी बनोगे।”
मैं, जो पहले से ही रोनी सूरत लिए बैठा था। अब सुबकते हुए उसकी गोदी में मुँह छुपाने लगा।
वह अपनी उँगलियों से मेरे बाल सँवारने लगी तो मैंने कहा, “आपी, मुझे स्कूल से डर लगता है।”
“पागल! क्यों, क्या हुआ है स्कूल को, अच्छा तो है स्कूल।”
“नहीं आपी, मैं नहीं पढ़ूँगा, बिल्कुल नहीं पढ़ूँगा।”
“नहीं पढ़ोगे?”
मैंने नकारात्मक ढंग से सर हिलाया तो मुस्कराकर कहने लगी, “नहीं पढ़ोगे तो बड़े आदमी कैसे बनोगे? नहीं मधू, तुम पढ़-लिखकर बड़े हो जाओ, तो फिर मैं तुम्हारे पास चलकर रहूँगी।” (एक बार मैंने उससे कहा था, “आपी आप चलकर हमारे पास रहो। यहाँ ये सभी आपसे झगड़ते हैं।”)
मैं चुपचाप उसकी गोद में मुँह छिापकर बैठा रहा। वह मेरे बाल बनाते हुए कहने लगी, “क्यों मधू पढ़ोगे न?”
मैं गर्दन हिलाकर कहने लगा, “हाँ आपी, मैं पढ़ूँगा और बाद में जब मैं बड़ा आदमी बन जाऊँ, तब आप चलकर हमारे साथ रहना।”
यह सुनकर उसने हँसते हुए मेरे माथे को चूमा और कहने लगी, “अच्छा, अब ऐसा क्यों न करें कि तुम रोज़ शाम मेरे यहाँ आकर पढ़ो, मैं भी तुम्हें A B C D सिखाऊँगी! सीखोगे न?”
“हाँ!” मैंने ख़ुश होते हुए कहा।
उसने हँसकर मेरे आँसू अपने हाथ से पोंछे, तब मैंने उससे पूछा, “आपी, आप ये क्या बजा रही हैं?”
“यह . . . सितार है!” उसके होंठों पर मुस्कान तैर आई। “क्यों, तुम्हें उसकी आवाज़ अच्छी लगती है?”
“सच आपी, आप बहुत अच्छा बजा रही थीं। उसे फिर बजाइए न?”
ऐसा कहकर मैंने बग़ल में रखे सितार के तारों को छुआ।
उसने पलभर कुछ सोचते हुए सितार उठाया और धीरे-धीरे एक धुन छेड़ी। आपा महनाज़ सितार भी अच्छा बजाती थी। मैं झूम-झूम-सा उसे सुनता रहा। वह सितार बजाती रही और मैं मुग्ध भाव से उसकी ख़ूबसूरत और नाज़ुक उँगलियों को तारों पर थिरकते देखता रहा। (आज उस बात को गुज़रे मुद्दत हो गई, पर मैं अब तक उन ख़ूबसूरत उँगलियों और सितार की उस उदास धुन को नहीं भुला पाया हूँ।)
अचानक सितार बजाते-बजाते उसकी आँखों में आँसू छलक आए, आँखों से निकलकर आँसू गाल पर ठहर गए। यह देख कर मैं डर-सा गया, तुरंत उठकर अपने हाथों से आँसू पोंछते हुए कहने लगा, “आपी मत रो, आपी मत रो!”
और उसने सितार बजाना बंद करते हुए मेरे छोटे हाथों को अपनी आँखों पर रखा और सुबकते हुए रोने लगी।
उस रात जब आकाश पर सितारों ने अपनी महफ़िल जमाई तो मैं अम्मी की बग़ल में लेटा टिमटिमाते सितारों को ताकता रहा। मुझे टकटक आकाश को तकते देखकर अम्मी कहने लगी, “बेटे, आसमान में यूँ नहीं देखना चाहिए, नहीं तो नींद में डर लगने लगता है।”
“क्यों भला? क्या है आसमान में? अभी तो घने साये भी आँगन पर नहीं छाए हैं। मैं तो नहीं डर रहा,” मैंने ज़िद करते हुए गुस्से-भरे स्वर में कहा।
“बेटे ज़िद नहीं करते,” अम्मी ने मेरे बाल सँवारते हुए कहा, “क्यों आज कोई कहानी नहीं सुनोगे क्या?”
मैंने अपने दोंनों हाथ सर के नीचे रखे और लगातार तारों को देखते हुए कहने लगा, “अम्मी तुम मुझे वह कहानी सुनाती हो जिसमें शहज़ादी को एक देव ने बड़े महल से उठाकर उसे बंदीगृह में रखा। वही फिर सुनाओ!”
“वह तो बहुत बार सुनी है!” अम्मी मुस्कराने लगी।
“बस वही कहानी अच्छी लगती है,” मैंने कुछ सोचते हुए कहा। “अम्मी, वह शहज़ादी देव की क़ैद से कब आज़ाद होगी?”
“जब शहज़ादा देव को मारकर उसे क़ैद से आज़ाद करवाएगा।”
ऐसा कहकर, अम्मी ने सोज़-भरे अंदाज़ में कहानी सुनानी शुरू की और मेरी आँखें कहानी सुनते-सुनते न जाने कब मुँद गईं। उस रात मैंने कितनी बार डरावने सपने देखे और हड़बड़ाहट में उठ बैठा। सारी रात नींद में तड़पता रहा।
“कल रात मधू ख़्वाब में डर गया,” सुबह तड़के उठते ही अम्मी ने नानी अम्मा से कहा, जो दूध का ग्लास पकड़कर मेरे सिराहने खड़ी थी। नानी ने आगे बढ़कर मेरे माथे को हाथ लगाया तो वह उसे जलता हुआ महसूस हुआ। बुख़ार का नाम सुनते ही पूरे घर में हलचल शुरू हो गई। तुरंत पड़ोस वाले डॉक्टर अज़ीज़ अहमद को बुलवाया गया, जिसने आकर सूई लगाई और दवा दी। मेरा स्कूल जाना बंद हो गया। शाम को नानी अम्मा बुख़ारी शाह में से ‘माई बचल’ की दुआ माँगकर प्लेटें लिखवाकर आई (चीन की एक रवायत के अनुसार कुछ आयातें लिखी जाती हैं। रोज़ सुबह उनमें थोड़ा पानी डालकर, वह पानी पिलाया जाता था)
दो-चार दिन आपा महनाज़ के पास नहीं गया तो एक शाम वह हमारे घर आ पहुँची। मैं उस वक़्त ताज़ा बुख़ार से उठा था और इस ख़ुशी के एवज़ में ख़रीदी तितलियों वाली बुश्शर्ट और काली मख़मल की चड्ढी पहनकर आँगन में फिर रहा था। (हैदाराबाद शहर में उस वक़्त रेडीमेड कपड़ों की फ़क़त एक बड़ी दुकान हुआ करती थी, जिसमें तरह-तरह के बच्चों व बड़ों के रेडीमेड कपड़े और कास्मेटिक्स भरे हुए थे। वह दुकान तिलक चढ़ाव के ऊपर, जहाँ अब होटल जबीस है, उसके नज़दीक हुआ करती थी)
उसे देखते ही दौड़कर उससे लिपट गया। उसने आसमानी रंग की साड़ी पहन रखी थी, जिस पर हुरमच की सुंदर कारीगरी की हुई थी और पाँवों में बड़ी ऐड़ी वाली सैंडिल थी। मैं ख़ुश होते हुए उसे हाथ से लेकर अपने हिरणी के पास ले आया। अपनी सारी गुड़ियाँ, बच्चे की झूमर और बुख़ार के दौरान ख़रीदे खिलौने दिखाने लगा। वह मेरे लिए चॉकलेट का एक सुंदर डिब्बा ले आई थी, जो मैंने उसी वक़्त अपनी दराज़ में छुपाकर रखा। मुझे ख़ुश होता देखकर अम्मी आपा महनाज़ से कहने लगी, “इतने दिनों के बाद आज तुझे देखकर हँसा है।” यह सुनकर वह मुस्कराने लगी। उस शाम वह मुझे अपने साथ घुमाने ले गई। हमारे घर के सामने उसकी मोटर खड़ी थी। मैं कूदता हुआ उसके साथ चलने लगा। उसने कार का दरवाज़ा खोलकर मुझे आगे वाली सीट पर बिठाया और फिर ख़ुद ड्राइविंग सीट पर बैठी। मैं ख़ुशी के उन्माद में उसे कार चलाते हुए देखता रहा (उस वक़्त हैदराबाद शहर में एक-आधी मोटर-कारें हुआ करती थीं।)
हैदराबाद के रास्ते शाम के धुँधलेपन से घिरे हुए थे। फ़ुटपाथ पर लोग चहलक़दमी कर रहे थे। रास्ते पर लगे बिजली के खंभों में लगे बल्ब जलने शुरू हो गए। हमारी मोटर धीरे-धीरे डामर के रास्ते पर चलती जा रही थी। जब मोड़ पर मोटर मुड़कर पक्की सड़क पर चलने लगी तो उसने मुझसे पूछा, “मधू, कहाँ घूमने चलोगे?”
मैं, जो उस वक़्त खिड़की से बाग़ के ऊँचे पेड़ों को देख रहा था, गद्गद् होकर कहने लगा, “आपी, जहाँ भी ले चलो आपकी मर्ज़ी।” पीछे से आता चिड़ियों का शोर, शाम के अँधेरे में अजीब लग रहा था। मैं सीट पर टेक लगाकर बैठता तो कभी सीधा होकर सामने बाग़ को देखने लगा। मोटर जब सिंध यूनिवर्सिटी (नवविद्यालय) के पास से गुज़री तो टॉवर के घड़ियाल की ठन-ठन शुरू हो गई। बग़ल में सेशन कोर्ट की इमारत, बरामदे में उगे पेड़ों के कारण बहुत डरावनी लग रही थी। हमारी दाईं तरफ़ सेशन कोर्ट और बायीं तरफ़ सिंध यूनिवर्सिटी की इमारत का टॉवर, उसके सामने शाही बाग़ और उसका लोहे का झूला था—सब शमा के धुँधलके में घिरे हुए नज़र आ रहे थे। कोर्ट से कुछ आगे जाकर बाईं तरफ़ सिविल लाइंस का बँगला नंबर एक था, जिसके आँगन में बहुत सारी गायें बँधी थीं। मैं यह सारा दृश्य बड़ी उत्सुकता से देख रहा था। हमारे सामने डाक-बँगला और कुछ दूरी पर जिमखाना था, जिसकी बाहर की जलती बत्ती दूर से दिखाई दे रही थी। मोटर जब प्रेम पार्क के पास पहुँची तो मैंने आपी को बताया, “आपी, हम प्रेम पार्क एक बार घूमने आए थे।”
उसने हँसते हुए कहा, “अच्छा, फिर आज हम अपने मधू को क्लब घुमाएँगे।”
मैं ध्यान से प्रेम पार्क के पेड़ों तले चढ़ाव पर बनी पत्थर की बेंचों और सिविल लाइंस की तरफ़ जाते रास्ते पर पेड़ों की क़तारों को देखने लगा।
गाड़ी जब जिमख़ाना क्लब के भीतर पहुँची तो मैं क्लब की इमारत को देखने लगा, जिसके आगे कितने पेड़ थे और उनके बीच से शाम की ठंडी-ठंडी बयार आ-जा रही थी। इमारत के ऊपरी भाग में जल रहे बल्ब हवा में झूम रहे थे।
उसने मोटर चलकर नीम के घने पेड़ के नीचे खड़ी की और दरवाज़ा खोलकर नीचे उतरी। फिर मेरी ओर वाला दरवाज़ा खोलकर मुझे क्लब के अंदर ले जाने लगी। हमारे ऊपर रात का अँधेरा छाने लगा।
हम सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुँचे तो सामने एक शाही लॉन नज़र आया, जिसके ऊँचे-ऊँचे पेड़ों के नीचे बहुत सारी कुर्सियाँ और मेज़ें पड़ी थीं और वहीं बहुत सारे मर्द और औरतें बैठकर आपस में बातचीत कर रहे थे। हम लॉन लाँघकर भीतर बरांडे में दाख़िल हुए। एक तरफ़ बिलियर्ड रूम था, जिसमें कितने ही सूट-बूट पहने मर्द मुँह में सिगार पाइप और हाथों में लंबी लकड़ियाँ पकड़े एक शाही मेज़ के चारों ओर खड़े थे।
“ये क्या कर रहे हैं?” मैंने सहज ही आपा महनाज़ से पूछा।
“यह खेल है बिलियर्ड,” उसने उत्तर दिया और मुझे हाथ से पकड़कर बॉर रूम (जहाँ अब ड्राइंग हॉल है) से किनारा करते हुए औरतों के हाल में लेकर जाने लगी। लेडीज़ हॉल—एक शाही कमरा था, जो विक्टोरिया दौर के फ़र्नीचर से भरा हुआ था।
नीचे ग़लीचा, उस पर सोफ़ा, मेज़ें, तिपाइयाँ, कुर्सियाँ यहाँ-वहाँ गुलदान ताज़े फूलों से हॉल को महका रहे थे। हॉल में कितनी ख़ुश मिज़ाज़ औरतें सजी-धजी बैठी थीं। पूरा हॉल तरह-तरह की ख़ुशबुओं से सुगंधित हो रहा था। आपी मुझे लेकर एक कुर्सी पर बैठने का इशारा करने लगी, तो कितनी औरतें आकर उनसे मिलीं। वह औरतों को आदाब करते हुए मेरी बग़ल में पड़ी कुर्सी पर बैठी।
“बाहर चलो, लॉन में बैठते हैं!” उसने मुझे शरमाते हुए देखकर कहा। मैंने गर्दन हिलाकर हामी भरी तो वह मुस्कुरा दी। मैं सच में औरतों के इतने बड़े समूह में कतरा रहा था। वह मुझे हाथ से पकड़कर बाहर आई। बरांडे में कुछ बच्चे भी थे, जिन्हें देखकर वह कहने लगी, “देखो मधू ये बच्चे कैसे यहाँ-वहाँ फिर रहे हैं। खेल रहे हैं और तुम शरमा रहे हो!”
बाहर लॉन में एक-दूसरे से थोड़े फ़ासले पर रखी मेज़ों के इर्द-गिर्द कुर्सियों पर कितने जोड़े बैठे थे। कुछ बच्चे भी उनके साथ थे। क्लब की समस्त बत्तियाँ जल चुकी थीं, जिनके ऊपर आकाश पर बिखरे हुए बादलों के बीच में से कहीं-कहीं कुछ भटके हुए तारे झाँककर हमें देख रहे थे।
आपा महनाज़ मुझे एक टेबल के पास कुर्सी पर बिठाकर ख़ुद मेरे सामने बैठकर सिगरेट सुलगाकर उसके छोटे-छोटे कश लेने लगी। सफ़ेद ड्रेस पहने सेवक हमारे सामने आकर खड़ा हुआ तो उसे चीज़ सैंडविच और आइसक्रीम का ऑर्डर देकर वह सिगरेट पीने लगी।
अचानक उसने पूछा, “मधू, तंग तो नहीं हो रहे हो।”
“नहीं आपी, मुझे बहुत मज़ा आ रहा है।”
हैदराबाद की ग्रीष्म ऋतु की रात अपनी समस्त महक से माहौल पर हावी रही। हवा में फूलों की ख़ुशबू थी। दूरी पर औरतें, मर्द और बच्चों की बातचीत की हल्की-सी आवाज़ हम तक आ रही थी। पर वह न जाने कौन-से ख़्यालों में गुम, सिगरेट के कश लगा रही थी। वह सिगरेट पर सिगरेट फूँकती, ऊपर आकाश को देख रही थी। ऊपर आसमान अब बिन बादलों के साफ़ हो चुका था, जिसमें मुस्कुराता चाँद और तारे टिमटिमा रहे थे। वह लगातार सिगरेट पीते खुले आसमान को तक रही थी (मैंने उस समय हल्की-हल्की रोशनी में उसके चेहरे की ओर देखते हुए सोचा था-बड़ा होकर मैं आपा महनाज़ से शादी करूँगा और उसे अपने पास रखूँगा!)
और फिर मैंने हर रोज़ शाम को आपा महनाज़ के पास जाना शुरू किया। वह मुझे शाम के वक़्त पढ़ाती थी। कभी उसके बेडरूम में तो, कभी ऊपर चबूतरे पर। उस अरसे में कितनी बार उसके पति से सामना हुआ। पर न उसने मुझसे बात की, न मैंने उसके क़रीब जाने की कोशिश की।
मुझे अच्छी तरह याद है, एक बार मेरी बाँह पर लाल दाग़ हो गया था (शायद चमड़ी की कोई बीमारी थी), अब महनाज़ ने वह दाग़ देखा तो पूछ बैठी, “मधू ये क्या हुआ है?”
“आपी, इसमें खुजली होती है। पाउडर भी लगाया है तो भी जलता है,” मैंने उसे बताया यह सुनते ही वह मुझे नीचे ले गई। उस वक़्त शाम के पाँच या छह बजे थे। नीचे आँगन में उसका पति वाश बेसिन के पास दातुन कर रहा था। आपा महनाज़ ने, तुरंत पति से कहा, “देखिए, छोटू को यह दाग़ हो गया है। इसे कोई दवा लिख दो।”
मैंने बाँह आगे की तो उसने दातुन करते हुए, निहायत ही ग़ुस्से से झिड़क देते हुए कहा, “मैं यहाँ किसी भी मरीज़ को नहीं देखता हूँ। दिखाना है तो सुबह इसे अस्पताल भेज देना!”
फटकार सुनकर मैं कुछ पीछे हट गया। आँखों से आँसू बह निकले। आपा महनाज़ ने उस वक़्त उसे कोई जवाब नहीं दिया। ग़ुस्से में मेरी बाँह पकड़ी और अपने बेडरूम ले चली। आलमारी से पाउडर निकालकर मेरी बाँह को लगाने लगी। मेरी आँखों में आँसू देखकर अपने हाथों से पोंछते हुए मुझे नीचे ले आई। फव्वारे के पास बैठकर हम उसमें से निकलते पानी को देखने लगे। उसका चेहरा ग़ुस्से से लाल हो रहा था। इससे पहले कभी मैंने उसे ग़ुस्से में न देखा था।
मुझे याद है कि आपा महनाज़ को सैर-सपाटे का बहुत शौक़ है। क़ुदरत के सुंदर नज़ारे देखने का तो उसे बेहद लगाव था। चाँदनी रातों में वह अक़्सर टेरेस पर चली जाया करती थी। सर्दी के मौसम में वह झील की ओर घूमने चली जाती, जहाँ उसका ममेरा भाई उसे शिकार करने ले जाता (मेरे ज़ेहन में अभी तक वह तस्वीर तैर आती है, जो उसके मैके के मकान के गोल कमरे की दीवार पर टँगी होती थी, जिसमें वह घुड़सवारी की पोशाक में घोड़े पर बैठी नज़र आती थी।) एक बार उसके मैके में कोई सुअवसर था। उनका घर सिविल लाइंस में था—बहुत बड़ा बँगला, जिसमें दोनों ओर लॉन और बाज़ू में अमरूद, आम और नीम के पेड़ हुआ करते थे। वह उत्सव रात के उसी खुले हुए शाही लॉन में था, जिसमें तंबू लगे हुए थे। बाहर हल्की ठंड थी। लॉन के एक तरफ़ टेबल कुर्सियाँ रखी हुई थीं, जिन पर सफ़ेद चादरें बिछी थीं। आपा महनाज़ के परिवार की लड़कियाँ, पड़ोस के बँगलों की लड़कियों के साथ मिलकर शीशे के गिलासों में सफ़ेद रूमाल लपेटकर रख रही थीं और मैं आपा महनाज़ के पीछे-पीछे फिर रहा था। अम्मी बग़ल के गोल कमरे में अपनी पुरानी सहेलियों से बातें कर रही थीं। कमरा औरतों से भरा था। आपा महनाज़ ने लाल साड़ी पहन रखी थी, जिस पर कशीदे का काम किया हुआ था। क़ुदरत ने उसे ऐसा सौंदर्य दिया था कि उस पर हर रंग फबता था। उस वक़्त भी वह लाल साड़ी में बहुत सुंदर लग रही थी। उसके लंबे काले बाल, जिनको उसने आज ज़ूड़े में नहीं बाँधा था, कमर तक लटक रहे थे।
“चल मधू, तो मैं तैयार हो लूँ,” उसने अपनी माँ के कमरे से बाहर निकलते हए कहा।
मैं जो उसके इंतज़ार में बरांडे में खड़ा था, उसका हाथ थामे उसके साथ चलने लगा। वह मुझे भीतर ड्रेसिंग रूम में लेकर चली, पिछला दरवाज़ा उसकी माँ के कमरे से निकलता था। भीतर उसकी माँ काठ के पलंग पर बैठी नमाज़ पढ़ रही थी। हमारे सलाम का सलाम से उत्तर देते हुए हमारी ओर देखा। ड्रेसिंग रूम पहुँचते ही उसने मुझे स्टूल पर बिठाया और ख़ुद आईने के सामने अपने बालों को सँवारने लगी। बाल बनाते-बनाते वह मधुर स्वर में शाह साईं की एक ‘काफ़ी’ गाने लगी।
“लाए त व्या, मुईअ खे लोरी
हीअ घोरी मुहिंजी जिन्दड़ी जतन तां।”
(जिनके साथ नेह की तार जुड़ गई। यह जान उन पर क़ुर्बान है) उसकी मधुर आवाज़ में मैंने पहली बार सिंधी कलाम सुना। वक़्त के बेरहम पलों में, वह पल और वह आवाज़ कभी-कभी मेरे कानों में अक़्सर गूँज उठती है।
मैंने दीवार की टेक लगाए, स्टूल पर बैठे-बैठे उसका यह राग सुना, अचानक कमरे का दरवाज़ा खोलकर शहनाज़ की माँ भीतर आई। आपा महनाज़ ने जब उसे देखा तो बाल बनाने बंद किए और आईने में से उसे देखने लगी, जो उसके पीछे आकर खड़ी हुई थी।
“महनाज़,” उसने आहिस्ता से आवाज़ दी।
“जी अम्मा,” आपा महनाज़ ने उनकी ओर देखते पूछा।
आपा महनाज़ की माँ की गंभीर आँखों पर ऐनक चढ़ी हुई थी, जिसमें से उसकी आँखें बेटी पर से होते हुए मुझ पर आकर ठहरीं।
“बेटा तुम चलकर बाहर बैठो, हम आ रहे हैं,” मेरे बालों को सहलाते हुए उसने कहा।
“नहीं अम्मा। यह बैठा रहे।,” आपा महनाज़ ने कुछ तेज़ स्वर में कहा, “आपको जो कुछ भी कहना है, इसके सामने कह दो।”
“तुम्हारे पीछे तो मधू जैसे साया बनकर घूम रहा है,” आपा महनाज़ की माँ ने मुस्कुराते हुए कहा, “उसकी माँ कहती है कि यह उसका धर्मनिष्ठ बेटा है। इसीलिए तो महनाज़ का उससे इतना लगाव है।”
“अम्मी यह मेरा असली साथी है। इसी से मेरा बहलाव होता है,” आपा महनाज़ ने मुझे प्यार भरी नज़र से देखते हए कहा।
कुछ पल ख़ामोश रहने के बाद माँ ने फिर आवाज़ दी, “महनाज़!”
“अम्मी, कहो ना क्या कहना चाहती हैं आप!” आपा महनाज़ ने ब्रश के तारों पर हाथ फेरते हुए कहा।
“बेटा तुम अपना भला और बुरा ख़ुद समझती हो। मैं तुमसे और क्या कहूँ,” उसकी माँ ने धीरे-धीरे कहना शुरू किया।
“कहना तो बहुत कुछ चाहती हूँ, पर फ़क़त इतना कहूँगी कि जो कुछ हुआ, सो हुआ। अब हालात से सुलह कर लो!”
“सुलह!” आपा महनाज़ के चेहरे का रंग फीका पड़ता गया। “अम्मी सुलह किससे करूँ? अपने आपसे। हालात से या ज़िन्दगी से?”
“महनाज़ तुम समझती क्यों नहीं?” माँ ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।
आपा महनाज़ ने माँ की ओर देखते हुए कहा, “अम्मी, मैंने आपसे पहले भी कहा है और यह बात आज फिर भी आपको बताए देती हूँ कि उस शख़्स से शादी करवाकर आपने मेरी ज़िन्दगी तबाह कर दी, मर जाऊँगी फिर भी यह बात आपकी याद जाएगी!” उसकी आवाज़ ग़ुस्से और दर्द से भर आई। फ़ौरन उसकी माँ ने आगे बढ़कर उसे गले लगा लिया तो वह माँ की छाती में मुँह छिपाकर किसी छोटे बच्चे की तरह सुबककर रोने लगी। माँ चुप कराने की कोशिश करने लगी।
मैंने स्टूल पर बैठ यह सारा मंज़र देखा। कुछ समय चुप्पी छाई रही, जिसमें सिर्फ़ आपा महनाज़ की सिसकने की आवाज़ थी। जो रुक-रुककर गूँज रही थी।
“महनाज़, अब हो भी क्या सकता है?” उसकी माँ कहने लगी।
“तुम कोशिश करके अपने घर को बर्बाद न होने दो बेटी। उस मुर्दार से भी फोन पर बात न किया कर। तुम्हारी सास एक-एक बात तेरे पति को सुनाती है।”
आपा महनाज़ ने कोई जवाब नहीं दिया। अचानक, उसने दाएँ हाथ से अपनी आँखों से बहते आँसू पोछे और मेरी तरफ़ देखकर कहा, “आओ मधू, बाहर चलें!” उसने मेरे कंधे को पकड़ते हुए स्टूल से उतरने के लिए कहा। मैं पहले ही उस वायुमंडल में सहम गया था। तुरंत हाथ पकड़कर उसके साथ बाहर निकल आया।
“कहाँ जा रही हो महनाज़?” उसने धीरे से कहा और मुझे बाहर ले आई। बाहर बरांडे में रैफ्रीजरेटर रखा हुआ था, जिसमें से ठंडे पानी की एक बोतल निकालकर पानी पीने लगी। मैं अजब से उसकी ओर देखने लगा, जो इतनी सर्दी में भी वह इतना ठंडा पानी पी रही थी।
बाहर लॉन में लड़कियों का शोर था, जो नैपकिन बनाते आपस में ज़ोर से बतिया रही थीं। नौकर लॉन में फिर रहे थे। औरतों का आना शुरू हो गया था। कुछ दूर तंबू में गायिका छुम्मी शेदाणी अपनी पार्टी के साथ आ बैठी थी। दिन अभी पूरा नहीं हुआ था, जिस कारण सूरज की रोशनी अभी बाक़ी थी। पर लॉन के पेड़ों में लगी बल्बों की झालर अभी से जला रखी थी।
हम बरांडे की सीढ़ियाँ उतरकर नीचे लॉन में आए तो आपा महनाज़ को लड़कियों ने घेर लिया . . . वह उनसे बातें करती, लॉन से गुज़रकर जल्दी-जल्दी मुझे अपने साथ लिए बँगले की लोही गेट की ओर चलने लगी। तो मैंने पूछा, “आपा, कहाँ चल रही हो?”
“बाहर चलते हैं। ऊँचाई पर हवा खाने, मधू, यहाँ तो मेरा दम घुटता है,” उसने कहा।
और मैं चुपचाप उसके साथ चलता हुआ बँगले की गेट से बाहर निकल आया।
बाहर सिविल लाइंस के रास्तों पर, शाम आहिस्ते-आहिस्ते ढल रही थी और मैं आपा महनाज़ के साथ पैदल चलता रहा। समूचे वायुमंडल पर शाम अपने सभी रंगों से हावी होने लगी। और वह सामने ‘टंडो झानियाँ’ वाली पहाड़ी की ओर धीमी रफ़्तार से क़दम बढ़ाती चल रही थी।
हम पैदल चलते जा रहे थे और मैं आसमान के वातावरण को ग़ौर से देख रहा था। दोनों ओर बने बँगलों में से किसी वक़्त लोगों की आवाज़ आकर फिर लुप्त हो जाती। कुछ आगे चलकर हम पहाड़ी पर पहुँचे (टंडो झानियाँ वाली वह शाही पहाड़ी, सिविल लाइंस के छोर पर हुआ करती थी और आज वह पहाड़ी वीरान हो गई है। उस समस्त पहाड़ी पर बँगले बन गए हैं) वह वहीं खड़ी पश्चिम की ओर डूबते सूरज को देखने लगी।
हमारे चारों ओर शाम का अँधेरा फैल रहा था। उस स्याह शाम में मैंने आपा महनाज़ की साड़ी का पल्लू पकड़ा, जिसकी उसे भनक तक नहीं पड़ी। मैंने गर्दन उठाकर उसकी ओर देखा। वह बहुत उदास थी और पीड़ा की रेखाएँ शायद उसके मन के भाव चेहरे पर लगा रही थीं। मैंने उस वक़्त आसमान के अनेक रंगों की रोशनी में उसके चेहरे पर एक उदासी महसूस की और मन-ही-मन सोचने लगा, “समस्त शहज़ादियाँ, देवों की क़ैद में ऐसे ही दुखी और मलूल रहती होगी। मूमल, सूमल, फूलरानी!”
अचानक उसने मुझसे पूछा, “मधू, डर रहे हो क्या?”
“नहीं आपी!” मैंने झूठ कहा। “आप जो मेरे साथ हैं।”
मैंने सर उठाकर उसे उत्तर दिया और फिर वह सामने असमान के रंगों को देखने में गुम हो गई—-ढलते सूरज की किरणें ठीक हमारे सामने थीं। कुछ ही पलों में सूरज पश्चिम की ढलान में ग़ायब हो गया। सारे माहौल में डर जैसा मौन छा गया। पक्षीगण सभी चुप हो गए थे। ठंडी-ठंडी हवा हमारे पास से गुज़रती जा रही थी, जिसमें आपा महनाज़ के खुले बाल उड़ रहे थे और आकाश से उतरता धुँधलका, अँधेरे के साथ सुरमई शाम को निगलता रहा . . .
उसने एक लंबी साँस ली और मेरी बाँह थामकर पीछे की ओर लौटी। उसका हाथ मेरे कंधे पर था। सामने सिविल लाइंस के रास्तों पर लगी स्ट्रीट लाइट्स की लंबी क़तार रोशन थी। उसकी रोशनी में भी सारा रास्ता सुनसान था। हवा के तेज़ झोंकों से झड़े हुए पत्ते उड़ रहे थे। दूर किसी ने सूखे पत्तों के ढेर को जला दिया था। जिसका धुआँ शाम के स्याह रंग में घुलमिल रहा था। जलने की गंध हवा में शामिल होकर हम तक आ रही थी। आसपास के बँगलों में धीरे-धीरे बत्तियाँ जलने लगीं और वह गर्दन झुकाए चलती जा रही थी।
जब हम वापस बँगले की गेट के पास पहुँचे तो आसमान के सुरमई रंग में रात के सितारे डूबते नज़र आए। भीतर लॉन में औरतों और बच्चों का शोर था। जगमग रोशनी के बीच बिछे हुए ग़लीचे पर मशहूर गायिका छुम्मी अपने दीर्दीली आवाज़ में डोहीअड़ा गा रही थी (सिंधी लोकसंगीत की चौपाई)।
“लड़यो मिजु लकन में, रासियूँ रताईं,
मूखें मार्माईं, आयल ऊँधाई करे!”
(सूरज खाइयों में ढलता हुआ रासलीला करता रहा। मुझे बेमौत मारा अँधेरा करके!)
इस वारदात के कुछ महीनों के बाद अचानक बाबा की बदली लाहौर में हुई तो हमें वहाँ जाने की तैयारी करनी पड़ी। मेरा दिल बुझ सा गया। हैदराबाद शहर में दिन खेलते गुज़ारे थे। उन पलों को और आपा महनाज़ को छोड़ते मन उदास हो रहा था। मैंने तो बिल्कुल ज़िद पकड़ ली कि मैं लाहौर नहीं चलूँगा। आपा महनाज़ के पास रहकर पढ़ूँगा। मुझे यहीं छोड़ जाओ।
मुझे याद है, आपा महनाज़ हमें अलविदा कहने हमारे घर आई तो मैं दौड़कर उसके आलिंगन में रोने लगा। आपा महनाज़ मेरे आँसुओं को पोंछते हुए कहने लगी, “मधू, तुम पढ़-लिखकर बड़े आदमी बन जाना तो फिर मैं आकर तुम्हारे पास रहूँगी। देखो तुम्हें मेरा वादा याद नहीं है?” वह मुझे चुप कराते हुए भीतर जाने लगी तो मैं और अधिक रोने लगा।
और इस तरह पूरे दस बरस जल्दी-जल्दी आँखों के सामने से गुज़र गए। गर्मियाँ गईं और सर्दियाँ आईं। सावन, फागुन। मैंने ये सभी मौसम लाहौर की महक भरी फ़िज़ाओं में गुज़ार दिए। वर्ष 1968 की बात है, मैं उस ज़माने में मैट्रिक में पढ़ता था और बाबा सरकारी नौकरी से रिटायर हुए। फिर हम वापस हैदराबाद लौट आए। हैदराबाद आए, तो अशुभ समाचार मिला कि आपा महनाज़ को कैंसर हो गया है (अचंभे की बात है कि उसका सितारा भी ब्ंदबमत था। उसका जन्म 3 जुलाई को हुआ था) और उसने इलाज के लिए विदेश जाने से इंकार कर दिया है। वह मेरे छुटपन की आदर्श थी। मेरे बचपन की यादों के सारे रंग भरे सपने, उसके रंगों से चित्रांकित थे। मैं उसे पहली बार देखने आया।
(दस-बाहर सालों में हैदराबाद का नक़्शा ही बदल गया था। रास्तों पर दिल दहलाने वाले ट्रैफ़िक का शोर, रास्तों से पेड़ ग़ायब! फुटपाथों के नामों निशान का पता ही नहीं पड़ता था। सिविल लाइंस की ओर रसाला पेड़ से दोनों सुंदर बाग़ ग़ायब हो गए थे—हैदर बाग़ के स्थान पर एक छोटा पार्क और दूसरी जगह पर गोल बिल्डिंग खड़ी थी। सिविल लाइंस के रास्तों से डोडेना की हरी क़तारें, बेंचों के साथ किसी और जहान में जा पहुँची थी और सबसे सुंदर प्रेम पार्क में फ़्लैट और दुकानें बन रही थीं!)
वही सिविल लाइंस थी। वही हैदराबाद था। पर जाने क्यों सब-कुछ अजीब-अजीब लग रहा था। उसके बँगले में पाँव रखा तो चुप्पी छाई हुई थी। दरवाज़े के पास आपा महनाज़ की माँ मुझे मिल गई। झुककर उसके पैरों पर हाथ रखते हुए नाम बताया तो गले लगाकर मेरे माथे को चूमते हुए सुबकने लगी—मेरी आँखों में भी आँसू तैर आए। कितने वर्षों के बिछोह के पश्चात् मैं अपने बचपन की उस आदर्श को देखने जा रहा था, जिसने मेरे ज़ेहन के कैन्वास पर अजीब-अजीब रंगों से सपने उकेरे थे। जिसके लिए मैंने मन-ही-मन में न जाने कितने रेत के महल बनाकर फिर चूर कर दिए। मैं सर झुकाए आपी की माँ के पीछे चलता रहा। वह मुझे अपने कमरे में ले गईं, जहाँ आपा महनाज़ ठहरी हुई थी।
कमरे के सामने वही लकड़ी का संदल पड़ा था, जिस पर बैठकर उसकी माँ नमाज़ पढ़ा करती थी। उसी पर आज आपा महनाज़ का पति बैठा था। उसकी गर्दन नीचे, वह किसी ख़्याल में गुम था। उसने मेरी ओर देखा ही नहीं और मैं उसके पास से होता हुआ अंदर गया।
भीतर आपा महनाज़ खाट पर लेटी थी। उसके ऊपर अजरक पड़ी हुई थी। दोनों हाथ सर के नीचे टिकाए वह लगातार ऊपर छत में निहार रही थी।
“महनाज़, देख कौन आया है?” उसकी माँ की आवाज़ कमरे में गूँजी और वह चौंककर मेरी ओर देखने लगी (ख़ूबसूरत चेहरा, वही क़द, गहरे काले नैन, सुंदर और दूध जैसे सफ़ेद हाथ, लंबी उँगलियाँ और पद्म जैसे पैर) मुझे पहचानने की कोशिश करने लगी तो मैंने झुककर उसके पैर छू लिए।)
“मधु हो न?” उसने उठने की कोशिश की।
“हाँ आपी!” मैं रोनी-सी भारी आवाज़ में कहा।
उसके ज़र्द चेहरे पर मुस्कान और ख़ुशी उभर आई। एकदम मेरे बालों पर हाथ फेरते, मेरे ललाट पर चुंबन देते, माँ से कहने लगी, “अम्मा, देखो ना, मधू कितना बड़ा हो गया है?”
मैंने सर उठाकर उसकी ओर देखा जैसे चौदहवीं के चाँद को ग्रहण लग गया है। उसकी गहरी, नीली आँखों के नीचे काले निशान थे। न वो पहले-सा चेहरा, न मुस्कान, न वो रंग, न वो रूप! मैं नम आँखों से उस बचपन वाली आपा महनाज़ को ढूँढ़ने लगा।
उसने एक बार मुझे देखते हुए पूछा, “मधू, पढ़ तो रहे हो न?”
“हाँ आपी!” मैंने उसकी खटिया पर बैठे-बैठे निगाहें नीची कर लीं।
“मधू, मुझे वहाँ याद करते थे?”
मैंने शरमाकर जवाब नहीं दिया। तो मुस्कुराहट कहने लगी, “हमारा मधू इतना बड़ा हो गया है, पर लड़कियों की तरह अब भी शरमा रहा है।”
ऐसा कहकर वह फिर तकिये पर सर रखकर लेट गई। कमरे में एक मौन छाया हुआ। बाहर के अँधेरे में हवा की सरसराहट सुनने में आ रही थी। सामने खिड़की खुली हुई थी, जिसमें से जुलाई के महीने का स्याह आकाश दिखाई दे रहा था, जिसमें दक्षिण की ओर से सितारे टिमटिमा रहे थे। दूर कहीं किसी कुत्ते की विलापती आवाज़ आ रही थी। फिर मैं हर रोज़ सुबह उसे देखने आया करता। चमेली के फूलों का अपने हाथ से बनाया गुलदस्ता रोज़ जाकर उसके हाथों में देता था, जिसे वह अपने सिरहाने रखते हुए मुस्कुरा देती।
आख़िरी बार उसे देखने गया तो वह जुलाई की ही एक उदास और सुनसान शाम थी। उसकी हालत पहले से ख़राब हो गई थी। वह ऐसे ही उसी खाट पर लेटी थी। उसके सिरहाने बैठी उसकी माँ उसके बाल सँवार रही थी। उसकी आँखें नम थीं। कुछ दूर कुर्सी पर उसका पति बैठा था। आपा महनाज़ के परिवार के सभी सदस्य कमरे में आ-जा रहे थे।
मैंने गीली आँखों से ध्यान से आपा महनाज़ को देखा, जो आँख मूँदे सो रही थी। मेरे पैरों की आहट से मूँदे नैन खोलकर मेरी ओर देखा। गहरी व नीली आँखों में जलते दीप, जो कभी उसकी आँखों में देखे थे, वे अब मंद पड़ रहे थे। उसने मुस्कुराकर मेरी ओर देखा। यह मुस्कान भी हैरत-भरी थी, जैसे सर्दी में धूप की एक किरण।
अपने बचपन के उस सपने को मैंने देखा। उस सपने का सच होना मैंने सिर्फ़ सपने में ही देखा था। मेरे लिए वह एक अद्भुत सौंदर्यपूर्ण आदर्श थी। किसी खिलौने के समान। मैंने सोचा था: बड़ा होकर उसे क़ैद से आज़ाद कराऊँगा। उसने मुझे पढ़ाया था, A B C D सिखाई थी। हाथ पकड़कर ऊँची सोसाइटी दिखाई थी।
अचानक वह फिर से आँखें बंद करके सो गई। मैंने झुककर उसके पैरों को छुआ। कहते हैं कि उस्ताद माँ-बाप के बराबर होते हैं। उसने भी मुझे जीवन के रंग के अनेक दृश्य दिखाए थे। आँखों में आँसू लिए मैं भारी क़दमों से बरांडे को लाँघकर गेट खोलते हुए बाहर निकल आया।
बाहर सिविल लाइंस के रास्तों पर सुरमई शाम अपने रंग बिखेर रही थी। स्ट्रीट लाइट्स की धीमी रोशनी में समस्त रास्ता सुनसान और उदासी से घिरा हुआ था। शाम की हवा सरसरारहट करती पेड़ों के सूखे, झड़े हुए पत्ते उड़ा रही थी।
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