पंद्रह सिंधी कहानियाँ

पंद्रह सिंधी कहानियाँ  (रचनाकार - देवी नागरानी)

प्रस्तावना

 

सिंध में ज़ुबानी तौर पर कहानियों और क़िस्सों की परंपरा प्राचीन समय से जारी है और पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती आ रही है। सिंधी भाषा क्लासिकल शायरी में समृद्ध है, पर गद्य लिखने की परंपरा बहुत देर से आरंभ हुई। सिंध हिंदुस्तान के छोटे खंड में एक स्वतंत्र देश रहा है, जिसे अँग्रेज़ों ने 1843 ई. में फ़तह किया। अँग्रेज़ी सरकार ने बाद में सिंध को मुंबई प्रेसिडेंसी में शामिल किया। सिंध के कमिश्नर सर बारटिल फ़्रेअर थे, जो बाद में मुंबई प्रेसिडेंसी के गवर्नर नियुक्त हुए।

उनकी निजी दिलचस्पी के कारण सिंध में शिक्षा की शुरुआत हुई। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सर बारटिल फ़्रेअर की कोशिशों से 1853 ई. में सिंधी लिपि तैयार हुई, जो आगे चलकर अरबी-सिंधी लिपि कहलाई जाने लगी। लिपि के आगमन से सिंध में छपाई के लिए प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना हुई। सिंधी ज़बान में पाठ्य-पुस्तकों के अतिरिक्त भिन्न-भिन्न विषयों पर भी किताबें लिखी जाने लगीं और छपने लगीं।

यूरोप और अमेरिका में लिखी मिनी कहानियाँ उस समय तक हिंदुस्तान की अलग-अलग भाषाओं में अनुवाद के माध्यम से पहुँच चुकी थीं। लघु कहानी की उस नई विधा को हिंदुस्तान की मुख्य भाषाओं के लेखकों ने भी अपनाया। सिंधी भाषा में मिनी कहानी का प्रारंभ अँग्रेज़ी, हिंदी, उर्दू और बंगाली भाषाओं में लिखी कहानियों के अनुवाद से हुआ। सिंधी भाषा में पहली मौलिक कहानी ‘हुर मखीअ जा’ लालचंद अमर दनोमल ने 1914 ई. में लिखी। अँग्रेज़ी साम्राज्य के ख़िलाफ़ हुरों की बगावत सिंध के इतिहास का एक अहम हिस्सा है। लालचंद
अमर की कहानी ‘हुर मखीअ जा’ इतिहास के परिप्रेक्ष्य में लिखी गई है।

मौलिक सिंधी कहानियों का पहला संग्रह ‘चमड़ा पोश की कहानियाँ’है। जेठमल परसराम की लिखी कहानियों का यह संग्रह 1923 में प्रकाशित हुआ। इन कहानियों में सामाजिक बुराइयों एवं समाज सुधार पर अधिक बल दिया गया था।

सिंधी कहानियों में यथार्थवाद का दौर 1930 ई. में प्रारंभ हुआ। जब अमरलाल हिंगोरानी, आसानंद मामतेरा और मिर्ज़ा नादिर बेग की कहानियाँ आनी शुरू हुईं। सिंधी भाषा के एक प्रख्यात लेखक प्रो. मंघाराम मलकाणी के मतानुसार अमरलाल हिंगोरानी की कहानी ‘अदो अब्दुल अलरहमान’ मोनोलॉग की तकनीक विधा में लिखी गई एक परिपक्व कहानी है, जो अँग्रेज़ी के सिवाय भारत की कई अन्य भाषाओं में अनूदित हो चुकी है।

1940 ई. तक हिंदुस्तान में मार्क्सवाद के दृष्टिकोण के आधार पर प्रगतिवादी साहित्य के इतिहास की नींव रखी गई और सामाजिक हक़ीक़त निगारी का दौर शुरू हुआ। सिंधी भाषा में उस इतिहास के प्रभाव से सामाजिक यथार्थवादी कहानियों का पहला संग्रह ‘रेगिस्तानी फूल’ 1944 ई. में प्रकाशित हुआ। इन अलग-अलग कहानियों में किसानों और उनके परिश्रम के साथ हो रहे अन्याय को विषयवस्तु बनाकर पेश किया गया। इस दौर में लेखू तुलसियाणी की कहानी ‘मंजरी कोलहण’ सिंधी की श्रेष्ठ कहानी मानी जाती है। इसका
अँग्रेज़ी और भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। सन् 1947 ई. में हिंदुस्तान के विभाजन के पहले शेख़ अयाज़ की ओर से प्रकाशित हो रही पत्रिका ‘अगते क़दम’ (आगे क़दम) में उनकी श्रेष्ठ कहानी ‘हँसोड़’ (खिलणी) छपी थी, जो चरित्र-चित्रण के दृष्टिकोण से उस दौर की मौलिक कहानियों में श्रेष्ठ मानी गई। ‘खिलणी’ कहानी का अनुवाद इस संग्रह में शामिल है।

विभाजन के कारण सिंधी लेखकों की बड़ी मात्रा हिंदू होने के कारण निर्वासित होकर भारत आ गई। सिंध में सिंधी कहानी पर कुछ सालों तक ठहराव सा आ गया। फिर आगे चलकर नौजवानों की एक पीढ़ी ने कहानियाँ लिखनी शुरू कीं। उनमें नज़म अब्बासी, जमाल अबरो, अयाज़ क़ादरी, ग़ुलाम रबानी, हफ़ीज़ शेख़, अ.क. शेख़, सिराज, बशीर मोरयानी, इबने हयात पंवार, रशीद भट्टी और शमीरा ज़रीन मुख्य नाम हैं। विभाजन के बाद सिंधी कहानी का वह पहला दौर था, जो प्रगतिवादी साहित्य का प्रभाव लिए हुए था। इस दौर में कहानी, उपन्यास और शायरी को जातिगत भेदभाव मिटाने का माध्यम समझा जाता था। सिंध के माध्यम से समाज की ग्रामीण ज़िंदगी के वातावरण और पात्रों को सिंधी कहानी में ज़्यादा महत्त्व दिया गया।

50 के दशक की समाप्ति पर सिंधी कहानी पर मार्क्सवादी प्रभाव घट चुका था। उसका एक कारण यह था कि पाकिस्तान अमरीकन लॉबी में शामिल था, इसलिए समाजतंत्रवादी (सोशियलिस्ट) एवं उदारपंथी (लिबरल) लोगों को शक की नज़र से देखा जाता था। सन् 1958 ई. में पाकिस्तान में पहली मार्शल लॉ हुक़ूमत क़ायम हुई, जिसमें तरक़्क़ीपसंद व आज़ादीपसंद सियासी लोगों और लेखकों को साम्यवादी समझकर बहुत ज़्यादा सख़्ती की गई। कितने ही कहानीकारों ने कहानियाँ लिखनी छोड़ दीं। सन् 60 के दशक में सिंधी कहानी का दूसरा दौर शुरू हुआ। उस दौर में जो नौजवान कहानीकार मैदान में आए, उनमें आग़ा सलीम, नसीम खरल, हमीद सिंधी, कमर शहबाज़, अमर जलील, माहताब महबूब, रशीदा हिजाब, मुहम्मद दाऊद बलोच, तारिक़ अशरफ़, ग़ुलाम नबी मुग़ल, अनीस अंसारी और अली बाबा जैसे नए कहानीकारों के पास सैद्धांतिक नज़र नहीं थी और न ही उनकी कहानियों में सामाजिक यथार्थवाद विकसित हुआ। ग्रामीण जीवन के साथ अक्सर कहानीकारों ने शहरी वातावरण से कहानियों की विषयवस्तु ली और रोमांस के नज़रअंदाज किए गए पहलू को फिर से कहानी में ले आए। 60 वाले दशक के बीच में एक नई पीढ़ी सिंधी कहानी में दाख़िल हुई। अब्दलगारी जोणेजो, शौक़त हुसैन शोरो, अब्दुल हक़ आलमाणी, माणिक जिन्होंने ज़िंदगी के भिन्न-भिन्न पहलुओं पर लिखकर सिंधी कहानी को विस्तार दिया। 70 के दशक में कई राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन आए। पूर्वी पाकिस्तान के अलग होने के बाद शेष बचे पाकिस्तान में उस दौर की सियासी, सामाजिक व खराब अर्थव्यवस्था की स्थितियों ने सिंध की नई पीढ़ी के लेखकों में मायूसी, प्रफस्ट्रेशन, बेदिली, बेबसी और तन्हाई के अहसास पैदा कर दिए। अस्तित्ववाद, काम की विसंगति और मन के अहसासात को ज़बान देने के लिए अक्सर सिंध में मौजूदा कहानी लिखी जाने लगी।

नई पीढ़ी के इन मुख्य कहानीकारों में मुश्ताख़ शोरो, माणिक, शौक़त हुसैन शोरो, मुमताज़ सहर, मदद अली सिंधी, आलम अबरो, कहर शौक़त, साँवल और इख़्लाक़ अंसारी शामिल हैं। जदीद कहानी में विषयवस्तु और
कहानीपन ख़त्म हो गए। किरदारों की सूरतें, नाम गुम हो गए। नई कहानी में प्रतीकों एवं अमूर्तता को ज़्यादा अहमियत दी गई। नई कहानी और आम पाठकों के बीच संवाद न होने के कारण नतीजा यह निकला कि नई कहानी को वह लोकप्रियता हासिल न हो पाई। सिंध में सिंधी कहानी में आधुनिकता का प्रवाह रहा। 80 वाले दशक में धीरे-धीरे वह कम होता हुआ अंतिम चरण पर पहुँचा। सिंधी की कहानी फिर वापस अपने प्लॉट व वर्णनात्मक स्वरूप की ओर लौट गई।

देवी नागरानी इससे पहले भी सिंध और हिंद की सिंधी कहानियों का हिंदी अनुवाद कर चुकी हैं, पर इस संग्रह में ख़ास तौर पर केवल सिंध के कहानीकारों की कहानियों का अनुवाद प्रस्तुत किया गया है। इस संग्रह की विशेष बात यह है कि देवी नागरानी ने सिंध की सिंधी कहानी के ऊपर वर्णित सभी परिक्रमणकाल के कुछ विख्यात कहानीकारों की कहानियाँ अनूदित की हैं। शेख़ अयाज़ और अयाज़ क़ादिरी विभाजन के बाद सिंधी कहानी के मुख्य कहानीकारों में शामिल रहे। उनके बाद देवी नागरानी ने सिंधी कहानी के दूसरे दौर के प्रतिनिधि कहानीकारों का चुनाव किया। नसीम खरल उस दौर के श्रेष्ठ कहानीकार माने जाते हैं। उसकी कहानी काफ़िर का अँग्रेज़ी अनुवाद हो चुका है। इस कहानी में मज़हब के झूठे और पाखंडी पक्ष को प्रकट किया गया है।

रज़ीदा हिशाब, हमीद सिंधी, अमर जलील, तारिक़ अशरफ़, ग़ुलाम नबी मुग़ल, हक़ीक़त पसंदगी के इस दूसरे दौर से संबंध रखते हैं। इन्होंने अपनी कहानियों में सिंध के ग्रामीण व शहरी जीवन के अलग पहलुओं पर कहानियाँ लिखी हैं। सिंध में नई कहानी का प्रारंभ करने वाले मुश्ताक़ शोरो की कहानी भी इस संग्रह में शामिल है।

हलीम बरोही को इस लिहाज़ से विशिष्टता हासिल है कि उनकी कहानी में एक तेज़ तंज और मिज़ाज के बयान का एक ख़ास दर्जा है।

देवी नागरानी ने सिंध के नामवर कहानीकारों के साथ मौजूदा दौर के नई पीढ़ी के कहानीकारों—अनवर शेख़ और राजन मंगरियो की कहानियाँ भी चुनी हैं। सिंध की सिंधी कहानियों में पिछले दस सालों में नवीन कहानीकारों की एक बड़ी संख्या दाख़िल हुई है, जो सिंध में सिंधी भाषा की चुस्ती, विकास व सिंधी कहानी की प्रगति को क़ायम रखने के लिए प्रयत्नशील हैं। देवी नागरानी ने कोशिश करके सिंधी की अच्छी कहानियाँ हिंदी में अनुवाद करने के लिए चुनी हैं, पर यह बात स्पष्ट करनी शरूरी है कि इस संग्रह में शामिल कहानियों के संबंध में यह दावा नहीं किया जा सकता कि ये सिंधी अदब की प्रतिनिधि या बेहतरीन कहानियाँ हैं। हक़ीक़त में यह अनुवादक की मर्ज़ी पर निर्भर है कि वह कौन-सी कहानी का चुनाव मुनासिब समझता है। इसमें अनुवादक की अपनी पसंद का दख़ल होता है।

देवी नागरानी ने सिंध की कहानियों का अनुवाद करके हिंदी पाठकों को जो तोहफ़ा पेश किया है, आशा है कि यह तोहफ़ा पाठकों को अच्छा लगेगा।

— शौकत हुसैन शोरो
हैदराबाद (सिंध)

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