पंद्रह सिंधी कहानियाँ

पंद्रह सिंधी कहानियाँ  (रचनाकार - देवी नागरानी)

अलगाव की अग्नि


लेखक: राजन मंगरियो
अनुवाद: देवी नागरानी 


राजन मंगरियो

जन्म: 12 अप्रैल 1968, हसनगुल गाँव में, संघार के पास, सिंध। अपनी पढ़ाई की शुरूआत संघार सिंध में की। वहीं से डिग्री कॉलेज से इंटरमीडिएट के पश्चात् सिंध यूनिवर्सिटी से बी.ए. किया। वे सरकारी नौकरी में कार्यरत हैं। उनका एक कहानी-संग्रह ‘रविया का चेहरा’ नाम से प्रकाशित है। टेलीविज़न पर तीन एकांकी व दो टेलीफ़िल्म प्रसारित। 

पता-शान कोंपोसेर्स, कियानी रोड, संघार, सिंध (पाकिस्तान) 

 

उस वारदात के बाद मैं वास्तव में बहुत परेशान हो गया। मैंने हमेशा उसे कामुक आचरण वाली लड़की समझा। अब मेरी बंद आँखें खुल गई हैं। इतना दूर दूसरे शहर में चलने के लिए भी मैंने ही मजबूर किया था। उस मासूम को तो शायद यह भी पता नहीं था कि कौमार्य क्या होता है और अब वह, वो भी गँवा बैठी थी।

वह मुझे कॉलेज से लौटती हुई लड़कियों के साथ नज़र आती थी। अक्सर लड़कियाँ चादरों की चारदीवारी में छुपी हुई नज़र आती थीं। पर वह अलबेली अपनी-अपनी रवायती नारंगी रंग की चादर में आया-जाया करती थी। उसके गोल गालों में पड़ने वाले गड्ढे मैंने उस वक़्त देखे थे, जब वह कॉलेज के गेट के भीतरी ओर खड़ी होकर क्लर्क से बात करते हुए किसी बात पर हँस रही थी। क़हक़हा पूरा करने के बाद जब उसने मेन गेट की खुली हुई खिड़की से मेरी ओर देखा था, तब मैं बहुत देर तक उसकी आँखों में देख न पाया था। जल्दी ही निगाहें हटा ली थीं। कॉलेज के भीतर खड़े अमलतास के इकलौते पेड़ पर कोयल कूक रही थी। कोयल की वह कूक मुझे उसके क़हक़हे की प्रतिध्वनि लगी।

उन दिनों मैं भी कोई अनाड़ी नहीं था। मैंने तो ज़िंदगी के बहुत सारे पहलू देखे थे। सियासी और सामाजिक माहौल से लेकर साहित्यिक कार्यों में भी भाग लेता रहा था। ‘ख़ुद ही आऊँगी पिया’ वाले फ़ार्मूले पर मेरी अटूट निष्ठा रही। मेरी ओर से पहल करना मेरे लिए कठिन था। इसका प्रमुख कारण ‘रहीमा’ कहा जा सकता है, जो मेरी ज़िंदगी के हर ख़ालीपन को भर बैठी थी।

रहीमा का पति बीते छह सालों से मुल्क के बाहर रह रहा था और मैं गुज़रे तीन सालों से उसका ख़ाली स्थान भरता आया हूँ। वह अपने पति के संदर्भ में बताती थी कि वह एक इंतहाई लुभावना, ज़िस्म से ताक़तवर और प्यार करने वाला नौजवान था। शादी के बाद वह उसके साथ तीन महीने रही। इस दौरान उसे पति की ओर से किसी भी तरह की तकलीफ़ नहीं मिली। वह तो उसे छोड़कर भी नहीं जाना चाहता था। पर उसकी मजबूरियाँ ही कुछ ऐसी थीं कि उसका जाना लाज़मी था। उसके न जाने से उसके समस्त परिवार को अपकृष्ट अहसास का शिकार होना पड़ता और बिरादरी में भी उनकी कोई इज़्ज़त नहीं रह पाती। रहीमा का यह भी कहना है कि उसके जाने के बाद वह निरंतर अलगाव की भट्टी में पिघल रही थी और इस बीच में तुम्हारा मिलना मेरे लिए नई ज़िंदगी का पैग़ाम रहा, क्योंकि उसके पति की पाँच साल के पहले आने की कोई संभावना नहीं थी।

रहीमा के साथ रहते मुझे किसी चीज़ की कोई कमी न रही। रहीमा जैसी ख़ूबसूरत औरत मैंने अपनी ज़िंदगी के तीस सालों में पहले कभी न देखी है। वह सिर्फ़ संभोग से संतुष्टि देने वाली औरत न थी, पर प्यार की शीतलता से संपूर्णता प्रदान करने का हुनर भी जानती थी। वह मुझसे नाराज़ तो होती थी, पर दूर नहीं होती थी। उसके सज़ा देने के अंदाज़ भी निराले हुआ करते थे। नाराज़गी के समय वह एक ताज़ा फूल जैसी औरत न होकर, बिना ख़ुशबू के, एक बासी गुलाब की तरह हो जाया करती थी। मैं भी उसकी ओर से मिली सज़ा को अपनी ओर से हुई ख़ता का ख़ामयाज़ा समझकर ख़ामोशी से सह जाता। वह छोटी-छोटी बातों पर मुझसे रूठती और बिना कोई अहसास दिलाए जल्दी मान जाया करती। वह अक्सर मुझसे कहती, “जबार, आख़िर मुझमें ऐसा क्या है कि तुम जब भी मेरे पास, मेरे घर में होते हो तो ऐसा लगता है जैसे तुम्हारी आँखें मेरा पीछा करती हैं। किचन से लेकर घर के आँगन तक, मेरे खाने-पीने, काम करने तक तुम्हारी आँखें मेरा पीछा करती हैं। आईने के सामने खड़ी होती हूँ तो भी तुम्हारी बाँहों के घेरे में होती हूँ! क्यों, आख़िर ऐसा क्या है मुझमें? चार-चार रातें मेरे साथ रहने के बावजूद तुम्हारे भीतर की प्यास नहीं बुझती!”

मैं कह उठता था, “हाँ, रहीमा, मैं सचमुच ही प्यासा हूँ। इतना प्यासा की एक दरिया का पानी मेरी प्यास नहीं बुझा सकता। इसीलिए मैं तुम्हारे अंग-अंग में दरिया तलाश करता हूँ। तुम्हारी हर अदा में एक नदी तलाशता हूँ। तुमसे जुदा होकर मैं मरुस्थल बन जाता हूँ। इसीलिए मैं चाहता हूँ कि तुम्हारे इतने पास रहूँ कि जब यहाँ से निकलूँ तो मेरे भीतर की मरुभूमि की धरातल बहुत देर तक छलकती रहे।

आख़िर वह वक़्त भी आ गया और वो रहीमा, जो मेरे सहराई शरीर के लिए दरियाओं और नदियों का सबब थी, मुझसे दूर हो गई। सहरा की रेत के ज़र्रे किसी ने लिफ़ाफ़े में बंद करके उसके पति को भेज दिए और वह बुलडोज़र बनकर वापस लौटा और हर इक चीज़ को बुलडोज़ करके बैठ गया।

साल-भर से उस रेगिस्तान में भटकता रहा हूँ। प्यास ने मुझे दुर्बल कर दिया है। जो कॉलेज की गेट पर खड़ी थी, उसका क़हक़हा मेरे लिए एक नए दरिया का पैग़ाम लेकर आया।

♦    ♦    ♦

अनीला के साथ मेरी दूसरी मुलाक़ात उस वक़्त हुई जब वह एक ऐसी शादी की बारात में साथ चल रही थी, जिसमें मैं भी शामिल था। मेरे हाथ में कैमरा था और शादी के हर एक लम्हे की तस्वीर लेना मेरी ज़िम्मेदारी थी। उस दिन वह मेहँदी रंग के जोड़े में थी। मैंने उसकी अनेक तस्वीरें खींची थीं। शादी में वह सभी लड़कियों के बीच का आकर्षण थी। उनमें से कई लड़कियाँ मेरे नज़दीक आने में लगी हुई थीं, पर मैंने हर एक से किनारा किया। यही बात उसको अच्छी लगी थी और उसका मेरी ओर झुकने का पहला सबब यह दिन ही बना। उसी दिन उसने अपना सेल नंबर मुझे दिया।

फोन के ज़रिये हमारी गुफ़्तगू होने लगी। मैंने रहीमा की कमी को पूरा करने के लिए अनीला को चुना। पर मेरी तरफ़ से कोई भी छोटी-मोटी अनचाही बात हो जाती तो अनीला नाराज़ हो जाती। कितने ही दिन वह बात करना छोड़ देती। फिर सौ-सौ माफ़ी के संदेश फोन पर भेजने के बाद जाकर राज़ी होती। एक दिन मैंने जान-बूझकर रहीमा के साथ गुज़ारा हर लम्हा उसके सामने बयान करना शुरू कर दिया। पहले तो उसे इस बात पर भी ऐतराज़ था, पर धीरे-धीरे उन बातों में दिलचस्पी लेनी शुरू की, तब उसे अहसास हुआ कि मैं रहीमा की मुहब्बत का क़ैदी हूँ और यही बात उसे बर्दाश्त नहीं हुई। इसीलिए कई महीनों तक वह पहले सिर्फ़ फोन पर संभोग के बारे में बातें करती, जानकारी लेती, फिर ऑनलाइन सेक्स का भी आनंद लेने लगी। आख़िर एक दिन मैं उसे यह बात समझाने में क़ामयाब हो गया कि संभोग मेरी एक ऐसी मजबूरी है, जिसके सिवाय शायद मेरे लिए जीना भी मुश्किल है। मेरी इन कल्पनाओं का उस पर असर हुआ और मैं उसे इस बात के लिए राज़ी करने में क़ामयाब हो गया।

हम दोनों ने शहर से दूर दूसरे शहर जाने का प्रोग्राम बनाया। उस दिन वह कॉलेज नहीं गई। कॉलेज वाली ड्रेस अपने तन पर ओढ़कर, नोट बुक हाथ में, पर्स को कंधे पर लटकाकर, बताई गई जगह पर आ गई। हम सवारी पर सवार होकर दूसरे शहर पहुँचे। वहाँ से दोस्त के साथ उसके घर पहुँचे। कमरे में मुलायम रोशनी थी। दोनों अकेले, मैं और वह। हम दोनों को वहाँ बिठाकर दोस्त चला गया। उसके चेहरे पर मैंने डर की रेखाएँ ढूँढ़ने की कोशिश की, पर क़ामयाब नहीं हो सका।

मैं हमेशा यही समझता रहा कि अनीला एक तजुर्बेकार लड़की है और इससे पहले भी शायद . . .! इसीलिए ही वह संतुलित और शांत है।

कमरे का माहौल बहुत लुभावना और रोमानी था। ख़ूबसूरत सजा हुआ कमरा था, जिसमें कम्प्यूटर पर मधुर धुन चल रही थी। अनीला की मौजूदगी में माहौल और भी ज़्यादा आकर्षक हो गया था। हम दोनों सोफ़ा पर बैठे थे कि मेरे दोस्त का संदेश आया कि वह दो-ढाई घंटे के बाद आएगा। तुम दोनों विश्राम करो। मैंने वही संदेश अनीला को भी पढ़कर सुना दिया। सिर्फ़ इसलिए कि वह किसी तनाव में न रहे। मैंने उठकर कमरे को भीतर से लॉक कर दिया। टेबल पर पड़े पानी से गिलास भरकर पहले उसे दिया और फिर ख़ुद पी लिया।

मैं उसके बिल्कुल क़रीब होकर बैठा। उसके बदन को छूते हुए उसके होंठों तक आया, उसे आग़ोश में कसकर भरते हुए लगा कि उसके वजूद में कोई लर्ज़िश ही नहीं थी, पर मैंने लगातार उसे प्यार करते हुए उसके हर अंग को चूमा।

मुझे लगा कि उसकी आँखें मुझे ख़ुद ही निमंत्रण देंगी, पर आधे घंटे की कोशिश के बावजूद ऐसा कुछ नहीं हुआ। मेरी आँखों में रहीमा का चेहरा उतर आया, और मुझे महसूस हुआ कि जैसे रहीमा अनीला का नया रूप धारण करके मेरी बाँहों में चली आई है और फिर मैंने . . .।

मेरे ज़ह्न का पर्दा एक ज़ोरदार धक्के से तब खुला, जब मैंने देखा उसके कौमार्य की धारा बह रही थी और उसके पवित्र रक्त ने बैड की सफ़ेद चादर पर लाल निशान स्थापित किया। अब वह रहीमा से अनीला हो गई थी।

सफ़ेद चादर पर ख़ून के लाल निशान को तो मैंने उसी समय धोकर साफ़ कर दिया, पर मेरे दिल पर उसके प्यार की जो मुहर लग गई थी, उसे मिटाना या उसे भुलाना मेरे लिए बहुत कठिन हो गया। इसीलिए ही मैंने उसके साथ शादी करने का फ़ैसला कर लिया।

एक महीने में ही मेरी अनीला के साथ मँगनी हो गई। मँगनी के बाद तीन महीनों में हमारी तीन-चार मुलाक़ातें हुईं, इस बीच बड़े भाई की कोशिश से मेरा दुबई जाने का इंतज़ाम हो गया। मैंने कोशिश करके अनीला से दुबई जाने की अनुमति ली। वहाँ जाकर मुझे एक महीना भी नहीं हुआ तो अनीला ने फोन पर उसे बताया कि वह गर्भवती हो गई है, सुबकते हुए कहने लगी, “जब्बार अब तुम वापस लौट आओ ताकि हम निक़ाह कर लें।”

पर मेरे लिए मेरा भविष्य बहुत अहम था। मेरे लिए अनीला भी बहुत अहम थी, पर मैं जैसे किसी कठिन मोड़ पर आ गया था। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ? अगर वापस जाता हूँ तो परिवार वाले नाराज़ होते हैं, मुझ पर लगाया पैसा भी व्यर्थ जाता है। अगर नहीं जाता हूँ तो अनीला की नाराज़गी झेलनी पड़ेगी और बदनामी अलग होगी। इसलिए कुछ दिन सोचने के बाद एक तीसरे निर्णय पर पहुँचा। अनीला को फोन करके उसके बारे में बताया। पर वह ज़िद पर अड़ गई। कहती रही, “नहीं, मर जाऊँगी पर ‘अबॉर्शन’ नहीं कराऊँगी।”

निरंतर प्रयासों से आख़िर उसे मनाया और अपने छोटे भाई पर वह भार डाला कि वह इस मामले में अनीला की मदद करे। मेरा भाई अपने सब कामकाज एक तरफ़ करके अनीला की मदद के लिए उसे किसी लेडी डॉक्टर के पास ले गया और उसके हर पल की ख़बर मुझे देता रहा।

♦    ♦    ♦

अबॉर्शन के चार दिन बाद मुझे फोन आया कि अनीला की तबियत ख़राब हो गई है और उसके माता-पिता उसे अस्पताल ले गए हैं। मैंने भाई को वहाँ जाकर जानकारी हासिल करने को कहा। मेरे माता-पिता को भी इस बीच यह ख़बर लग गई। वे भी अस्पताल गए। अम्मा और बाबा को किसी तरह इस बात का पता पड़ा कि लड़की ने अबॉर्शन कराया है तो उन्होंने तुरंत मुझे फोन पर नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए उस रिश्ते को ख़त्म करने की सलाह दी। पहले तो मैंने उनकी बात मानने को इंकार कर दी, पर उनके निरंतर ज़ोर देने पर मैंने रिश्ते की हक़ीक़त उनके सामने बयान की।

अम्मा-बाबा दोनों कुछ ढीले पड़ गए और उन्होंने इस मामले पर सोचने के लिए कुछ समय लेना चाहा, उससे पहले कि वे मुझे अनीला के रिश्ते के हवाले से कुछ फ़ैसला सुनाए मुझे सुबह के पाँच बजे अनीला के भाई का फोन आया। उस वक़्त मैं नमाज़ पढ़कर उठा था। फोन पर पहली आवाज़ जो मेरे कानों से टकराई, वह थी औरतों के रोने की। विलाप करती, सिसकती, सुबकती आवाज़। मैं हैलो-हैलो करता रहा, पर उसका भाई एक लफ़्ज़ भी न कह पाया। कुछ देर तक यूँ ही फोन पकड़े खड़ा रहा, फिर बंद करके दोबारा काल किया। घंटी बजती रही पर किसी ने फोन नहीं उठाया। बावजूद इसके मुझे उस रूदाद के बीच खाट पर पड़ी अनीला की लाश का मंजर साफ़ दिखाई देने लगा था। मुझे यह विश्वास हो गया था कि अनीला अब इस संसार में नहीं है।
इस बात को पूरे तीन साल हो गए हैं। बावजूद इसके मैं अब तक यह फ़ैसला नहीं कर पाया हूँ कि मैं दुबई में ही रहता आऊँगा या कभी लौटकर भी जाऊँगा। मैं वापस लौटूँ या न लौटूँ, पर मुझे यह यक़ीन है कि अनीला से अलगाव के बाद मेरे देह दंड के दिन शुरू हो गए हैं, जो मुझे लम्हा-लम्हा अलगाव की अग्नि में शीशे की तरह पिघलते रहने में अग्रसर कर रहे हैं और मैं यूँ ही ज़र्रा-ज़र्रा होकर पिघलता रहूँगा।

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