पंद्रह सिंधी कहानियाँ (रचनाकार - देवी नागरानी)
सूर्योदय के पहले
लेखक:अमर जलील
अनुवाद: देवी नागरानी
अमर जलील
जन्म: 8 नवंबर 1936, सिंध पाकिस्तान। उनका बचपन रोहड़ी व कराची में गुज़रा। सन् 1959 में नवाबशाह से बी.ए. करने के बाद अर्थशास्त्र के प्रवक्ता के रूप में कार्य आरंभ किया। बाद में रेडियो पाकिस्तान पर रिसर्च ऑफ़िसर बने। इसके बाद अल्लामा इक़बाल यूनिवर्सिटी इस्लामाबाद में नियुक्त हुए, जहाँ से कुछ दिनों पहले सेवानिवृत्त हुए हैं। उनकी पहली कहानी 1954 में ‘इंदिरा’ नाम के शीर्षक से छपी, बहुचर्चित रही। उनका पहला संग्रह ‘दिल की दुनिया’ प्रकाशित हुआ। अन्य संग्रह हैं ‘तीसरा वुजूद’ और ‘मेरा पता आसमान से पूछो’। ‘आखिर गूँगी ने बात की’ उनका प्रसिद्ध उपन्यास है। कुछ सिंधी फ़िल्मों की कहानियाँ व डायलॉग रेडियो एवं टेलिविज़न के लिए लिखे। सिंधी और अँग्रेज़ी में कई पत्रिकाओं के लिए कॉलम लिखते हैं। वे इस समय कराची में रहते हैं।
संपर्क: 1311, गली 12, सैक्टर 1-10/2, इस्लामाबाद।
मुझे देखकर हमेशा भाग जाता था। उस दिन भी मुझ पर नज़र पड़ी तो भाग खड़ा हुआ। क़दम तो पहले की तरह तेज़ और कसा हुआ बढ़ाया था, पर तब भी मैंने लपककर उसे पकड़ लिया।
“क्यों पहचानते हो?” मैंने पूछा।
“नहीं।”
“भोले-भाले मत बनो।”
“यक़ीन करो, मैं तुम्हें नहीं पहचानता।”
नफ़रत के जज़्बे ने मेरी आवाज़ को कठोर बना दिया। कहा, “पहले भी मक्कार थे, आज भी मक्कार हो।”
उसने जवाब नहीं दिया। सिर्फ़ अपनी जादुई निगाहों से मेरी ओर देखता रहा। आँखों में ऐसी आकर्षक कशिश रहती है कि एक ही नज़र से सामने वाले को ख़ामोश कर देता है। पर उस दिन मैं बहुत ग़ुस्से में था।
“तुम धोखेबाज़ और फ़रेबी हो।”
“इसलिए तो अपनी दोस्ती ख़त्म हो गई,” उसने धीमे से कहा।
“देखो आ गए न राह पर!” उस पर ठिठोली करते हुए कहा, “बहुत मासूम बनते फिरते हो . . . कि मैं तो तुम्हें पहचानता ही नहीं।”
“जो थे, उसी को पहचानता था,” निगाहों में सागर जैसी गहराई पैदा करते हुए कहा, “और अभी जो कुछ भी हो, उसे नहीं पहचानता।”
“बहुत चालाक हो,” उसकी निगाहों से अपनी नज़रें बचाते हुए कहा. “एक ही बात के दो अलग-अलग मतलब निकाले हैं।”
“मतलब वही है, पर तुम्हारी समझ में परिवर्तन आ गया है।”
“वाह। कभी कहते हो, पहचानता हूँ। कभी कहते हो, नहीं पहचानता। समझ तो तुम्हारी बदल गई।”
उसने झटपट जवाब दिया, “जब रतन ताऊ स्कूल के पीछे एक झुग्गी में रहते थे, तब मैं तुम्हारा दोस्त था।”
“और आज?”
“आज तुम वो रहे ही नहीं हो, तो भला हमारी दोस्ती कैसे रहेगी।” आगे कहा, “मैंने तो तुम्हें पहले ही बता दिया था कि मैं फ़क़त उनका दोस्त हूँ, जिनके पास . . .”
“बंद करो बकवास,” उसे गर्दन से पकड़ते कहा। “सारी दुनिया को बेवक़ूफ़ बनाया है।”
वह ख़ामोश रहा।
मैंने बात की . . . “उन पेचीदा बातों से दुनिया को उलझाया है।”
जवाब मिला, “जब ज़ुल्म और अँधेरे का पर्दा इंसान की अक़्ल पर पड़ जाता है, तब इंसान इंसानियत को भूल बैठता है। बिल्कुल तुम्हारी तरह।”
“फ़रेबी, इंसानियत का झूठा ढोंग रचाया है,” मैंने उसे दीवार की ओर धकेल दिया।
“इन्हीं बातों से दुनिया को ठगा है।”
बिना हिले-डुले उसने जवाब दिया, “मेरी बातों से बेज़ार थे, तभी तो तुम्हारे पास आना छोड़ दिया।”
“मुझे भी तो तुम्हारी दोस्ती की ज़रूरत नहीं है,” उसकी गर्दन पर पकड़ और मज़बूत करते कहा।
“तो फिर रोका क्यों?”
“यह बताने के लिए कि मैंने नहीं, तुमने इस दोस्ती का अंत किया।”
“जानता हूँ।”
“और आगे सुनो, पहले तुम्हारी दोस्ती में मैं, ग्रेजुएट होते हुए भी बेरोज़गार रहता था। भूखा मरता था। अब मैंने डिग्री सर्टिफ़िकेट को बेकार रद्दी काग़ज़ की तरह फाड़ दिया है। आजकल हमारे पास भूख नहीं है। सुखी और आबाद हूँ,” उसे उसी लहजे में सुना दिया।
“इसीलिए तो तुम्हारे पास आना छोड़ दिया है।”
“यूँ कहो न कि फ़क़त भूखे और बेरोज़गार लोगों के दरवाज़े पर धक्के खाते हो।”
मेरा वाक्य उसे शूल की तरह लगा। आँखें चमकने लगीं।
कहा, “जैसा समझो, पर चोर के साथ दामन नहीं उलझाऊँगा।”
अपनी तेज़ आँखों से मेरा हृदय ज़ख़्मी कर दिया। उसके शब्द भाले की तरह दिल में चुभने लगे। मैंने उसे छोड़ दिया। वह जैसे अचानक ही प्रकट हो जाता था, वैसे ही गुम भी हो जाता था। उस दिन भी पास वाली अँधेरी गली में ग़ायब हो गया।
मैं हैरान हो रहा था कि उसे कैसे मालूम हुआ कि मैं चोर था। जिस राज़ से मेरी माँ और बहन बेख़बर थीं, जिस राज़ से पड़ोसी अनजान थे, जिस राज़ से पुलिस नावाक़िफ़ थी, उस अज्ञात राज़ की उसे कैसे जानकारी मिल गई। उस वक़्त महसूस किया दुनिया में फ़क़त वो ही मेरे गुनाह का जानकार है या मैं ख़ुद था। मैंने उसे ख़त्म करने का फ़ैसला कर लिया। ऐसे ख़तरनाक गवाह का ज़िंदा रहना मेरे लिए मौत के बराबर था। वह मेरी ख़ुशियों का दुश्मन था। सोचा, मैं उसे ज़िंदा नहीं छोड़ूँगा।
मैंने रूमाल निकालकर हाथ पर लपेट लिया और फिर चाकू खोलकर मुट्ठी में कसकर पकड़ा। हाथ ओवरकोट की बड़ी जेब में डाल दिया। रात का पहला पहर था। वो जिस अँधेरी गली में ग़ायब हो गया था, मैं उस गली में चल पड़ा। वह मुझसे थोड़े फ़ासले पर पैदल जा रहा था। मैंने उसका पीछा किया। पेड़ों की ओट में और दीवारों की परछाइयों में छिपता-छिपाता मैं उसके पीछे चलता रहा। फ़ैसला किया कि उसे सूर्योदय के पहले क़त्ल कर दूँगा।
चाकू पर मेरी पकड़ और मज़बूत होती गई और मैं किसी ऐसी जगह की ताड़ में था, जहाँ उसकी आख़िरी हिचकी वीरानों में दफ़न हो जाए। वह बेख़बर चलता रहा और मैं परछाईं की तरह उसका पीछा करता रहा। रह-रहकर अफ़सोस भी हो रहा था कि बेवजह उसकी मौत मेरे हाथों हो रही है। अफ़सोस इसलिए हो रहा था कि एक बार मुझे ख़ुदकुशी करने से रोककर, ज़िन्दगी का उद्देश्य समझाया था। उन दिनों मैं बेहद मुश्किलात से घिरा हुआ था। भटकता रहा था। आख़िर वह मनहूस घड़ी भी आ पहुँची, जब भूख और बेरोज़गारी ने हमसे सुख-चैन छिन लिया। पहाड़ जैसे वे दिन मुझे हमेशा याद रहेंगे और वह दिन भी हरगिज़ भूल न पाऊँगा, जब दो दिनों की भूख ने हमें पागल कर दिया था। मरने के जो भी तरीक़े हैं, उन सबमें सबसे भयानक नमूना है भूख की यातना। मैं भूख के अज़ाब में सब-कुछ भूल बैठा था। सब-कुछ।
जब अम्मा ने लाचारी-भरे स्वर में पूछा, “अबा (बेटे), अब क्या होगा?”
तब इंतहाई मायूसी और बेज़ारी की हालत में उसे फटकारते कहा था, “क्या से क्या मतलब? तुम ज़रीना से कहो हार-शृंगार करके बैठे। मैं ग्राहक लेकर आता हूँ।”
“बेग़ैरत, बेहया,” अम्मा मरी हुई आवाज़ में चीख़ी।
“हाँ अम्मा, “उत्तर दिया था, “जवान औरत धंधा करके पेट पाल सकती है, पर मर्द कहाँ जाए। कहो मर्द कहाँ जाए?”
ज़रीना और अम्मा हैरत से मेरी ओर ताकने लगीं। उनके ख़ाली और परेशान ज़ेहन के लिए मेरा वाक्य बरदाश्त के बाहर था। ज़रीना तो अपनी बुझी आँखें मेरी आँखों से हटा ही न पाई। जैसे उन निगाहों से वह मेरी रूह छेद देगी। मुझे आकर बाँह से पकड़ा था। मैंने उसे घायल करते हुए कहा था, “तुम्हें वेश्या बनना पड़ेगा ज़रीना। इस दुनिया में ज़िंदा रहने के लिए तुम्हें यह क़र्ज़ चुकाना पड़ेगा। मुझ-जैसे बे-ग़ैरत भाई के लिए तुम यह क़र्ज़ सदियों से चुकाती आ रही हो।”
“शर्म नहीं आती बग़ैरत!” अम्मा ने फटकारा।
“भूख का भूत ग़ैरत को निगल जाता है अम्मा।”
“तुम्हारा दिमाग़ ख़राब हो गया है।”
“अम्मा सुना नहीं है?” मैं रो पड़ा था।
“भूख बुछड़ो टोल, दाना दीवाना करे।”
(भूख निगोड़ी डायन, दाने पर दीवानी)
अम्मा की और मेरी आँखों से आँसू बह निकले। जाने कहाँ से इतना पानी हमारी आँखों में आकर जमा हुआ था। ज़रीना विस्मित आँखों से मुझे घूर रही थी। अचानक घृणा-भाव से मेरे मुँह पर थूक फेंका था और फिर मेरी क़मीज़ को चिंदी-चिंदी करते हुए मेरे मुँह पर अनगिनत खराशें कर दीं। दोनों मुट्ठियाँ मेरे बालों में डालकर विलाप करते हुए रोने लगी। यह वही ज़रीना थी, मेरी छोटी बहन, जिसे मैं कंधे पर बिठाकर घुमाने ले जाया करता था। अपनी जेबख़र्ची से तिल के लड्डू लेकर दिया करता था और जिसके एक-एक आँसू पर ख़ुद भी बेचैन हो उठता था। उस दिन उसी ज़रीना के हाथ मेरे बालों में थे और सुबक रही थी, आलाप करती रही थी। मैंने उसे ख़ुद से दूर किया और स्काउट के दिनों वाला चाकू लेकर बाहर निकल गया था।
मुझे अँधेरे की तलाश थी। मुझे वीरानों की तलाश थी। जहाँ मैं आसानी से चाकू की तेज़ नोक उसके सीने में उतार सकता था। ज़रीना की सिसकियाँ और अम्मा की आहें मेरा पीछा करती आईं। दूर-दूर तक मुझे अँधेरे और वीरानी वाला मक़ाम मिल गया था और मैंने चाकू खोलकर सीने पर रखा था। चाकू को दिल में उतारने वाला ही था कि वह भी आकर वहाँ प्रकट हो गया। मेरा दामन पकड़ते हुए पूछा था, “इस चाकू के बारे में कुछ जानते हो?”
मैंने विस्मय से उसकी ओर निहारा था। हालाँकि अजनबी था पर तब भी लग रहा था जैसे मेरा जाना-पहचाना था।
“हाँ,” जवाब दिया था, “बहुत पैना है जल्दी मौत लाएगा।”
“पर जिस कारीगर ने यह चाकू बनाया था, उस कारीगर के तसव्वुर में मौत नहीं, ज़िन्दगी थी,” उसने चुंबकीय निगाहों से मुझे देखते हुए कहा।
मैं आश्चर्य से उसकी सागर जैसी गहरी ओर अगाह करती आँखों में देखता रहा।
पूछा था, “नौजवान हो। मेहनत-मज़दूरी क्यों नहीं करते?”
जवाब दिया था, “मैं ग्रेजुएट हूँ।”
“तालीम को पेट पालने का ज़रिया समझते हो? पेट तो कुत्ते भी पाल लेते हैं,” उसने आकर्षक लुभावनी आवाज़ में कहाः
“इलम है रोशनी और हाथों की मेहनत दुनिया का महान काम।”
उसकी आवाज़ बुलंद और स्पष्ट थी। जो काफ़ी देर तक मेरे ज़हन में प्रतिध्वनि होती रही। मुझे मौन में डूबा देखकर कहा था, “वो ज़िंदगी ही कैसी जिसमें जद्दोजहद न हो। दोस्त जद्दोजहद ज़िंदगी की देन है। हक़ीक़त में आज सिर्फ़ वे ही इंसान ज़िंदा हैं, जिन्होंने जद्दोजहद की थी।”
मेरे पास उसकी बातों का जवाब नहीं था। उसने तब कहा था, “कितनी सुडोल मांसपेशियाँ और चौड़ा सीना है! उनसे काम लो, मेरे दोस्त!”
और फिर वह मुझे हैरान और परेशान हालत में छोड़कर चला गया।
खुला चाकू हाथ में धरा रह गया। हालाँकि मेरे मन से मरने की ख़्वाहिश उसकी बातों से स्थगित हो गई। पर उसके बावजूद भूख की अग्नि भीतर भड़कती रही। उसके आख़िरी वाक्यांश की गूँज मुझे बेचैन करती रही।
“कितनी सुडौल मांसपेशियाँ और चौड़ा सीना है। उनसे काम लो। मेरे दोस्त।”
यहाँ-वहाँ देखकर, तुरंत पैडल पर पैर रखते हुए, साइकिल चलाता हुआ तीर की तरह वहाँ से गुम हो गया था। किसी ने भी मुझे साइकिल लेते हुए नहीं देखा था और यही मेरी जिंदगी की पहली चोरी थी। साइकिल एक कबाड़ी वाले को पचास रुपये में बेचकर होटल से नॉन, कबाब, कोरमा और बिरयानी लेकर जब घर के दरवाज़े पर पहुँचा था। तब उसे दरवाज़े के पास खड़ा देखकर हैरान हुआ था। कुछ देर पहले मुझे ज़िंदगी का पाठ सुनाते जो रोशनी उसकी आँखों में प्रकाशमान हुई थी वह बुझी हुई थी।
उसे यूँ खड़ा देखकर कहा था, “तुम्हारे कहे अनुसार सुडौल मांसपेशियों और चौड़े सीन से काम लिया है।”
“मुझे पता है मेरे दोस्त,” उसने धीरे से जवाब दिया था। उसकी आँखों से नाराज़गी ज़ाहिर हो रही थी। फिर आहिस्ते-आहिस्ते गर्दन झुकाए जाने कहाँ चला गया।
मैं फ़ौरन घर के भीतर दाख़िल हुआ था। दिये का तेल ख़त्म होने को था। नॉन? कबाब के पैकेट जब खाट पर रखे तब अम्मा और ज़रीना हैरानी से कभी मुझे और कभी पैकेट को देखने लगीं। पैकेट चिकनाई से सना हुआ था। कबाबों और कोरमों की ख़ूशबू भूख को और भड़का गई। फिर अचानक अम्मा एक क़दम आगे बढ़ आई और उसने अपने कमज़ोर हाथों से मेरे गाल पर एक ज़ोरदार तमाचा दे मारा।
“बेहया अपनी बहन का सौदा करके ये हाराम ले आए हो?”
“नहीं, नहीं मैं तो मरने गया था पर रास्ते में नौकरी मिल गई,” जवाब दिया।
“नौकरी?”
“हाँ, नौकरी।”
फिर हम खाने पर झपट पड़े। खाते-खाते अम्मा ने नौकरी के बारे में पूछा था; और मैंने उससे कहा था, “एक अख़बार का प्रतिनिधि बन गया हूँ।”
“अख़बार के?”
“कौन-सी अख़बार के प्रतिनिधि बने हो?”
“बस, है एक अख़बार!” उसे कहा था, “तुम कोई और चिंता मत करो, चुपचाप बैठकर खाना खाओ।”
उसके बाद मैंने और कई साइकिलें चुराईं और देखते ही देखते मैं शहर की चुराई गई साइकिलों का सबसे बड़ा ‘डीलर’ बन गया। मेरा कारोबार जैसे-जैसे बढ़ता गया, वैसे-वैसे वह मुझे दूर होता गया। उस पूरी अवधि में मैंने कभी भी न सोचा था कि मेरे सिवाय कोई दूसरा भी मेरे गुनाह से वाक़िफ़ था और मुझ पर नज़र रखे हुए था। फिर जब वह यूँ कहकर चला गया कि “चोर से दामन नहीं उलझाऊँगा।” तब मैंने उसका ख़ून करने का फ़ैसला किया और उसका पीछा भी।
रात का पहला पहर ख़त्म होने को था। मेरी बेचैनी बढ़ती रही। मैंने उसे सूर्योदय के पहले ख़त्म करना चाहा। वो चलता रहा और मैं परछाईं की तरह उसका पीछा करता रहा।
आख़िर वह एक गंदी गली की ओर मुड़ गया। मैंने भी मुबारक मौक़ा समझा। चाकू को मुट्ठी में भींच लिया। वह चलते-चलते एक कच्चे घर के बाहर खड़ा हो गया। दरवाज़ा खटखटाया। मैं पेड़ की आड़ में खड़ा रहा। सोचा, जब लौटेगा तब पीठ में चाकू खोंप दूँगा। मैं आड़ से उसकी ओर देखता रहा। विश्वास था कि वह किसी ग़रीब के घर के बाहर आकर खड़ा होगा, क्योंकि वह सिर्फ़ मुसीबत के मारों के दरवाज़े पर दस्तक देता है। कुछ देर बाद दरवाज़ा खुला और एक नौजवान बाहर आया। नौजवान की वेशभूषा सादी थी, पर साफ़-सुथरी। हैरत सिर्फ़ यह देखकर हुई कि नौजवान के हाथ में छड़ी थी। दरवाज़ा बंद करने के लिए एक वृद्ध औरत आई जिसने नौजवान से कहा, “बेटे, भाई के लिए किताब और एक टेबल-लैंप ले आना।”
“हाँ, अम्मा . . .” नौजवान ने शांत स्वर में जवाब दिया।
मुझे उसकी आवाज़ सुनकर हैरत हुई, क्योंकि नौजवान की आवाज़ उस जैसी थी, और आत्मविश्वास से भरपूर थी।
सोचा, आज कमबख़्त ने बड़ा हाथ मारा है।
वह नौजवान के साथ वापस लौटने लगा। मैं उस पर हमला करने के लिये तैयार रहा। दोनों जब मेरे क़रीब आए। तब ग़ौर से देखा तो पाया कि वह नौजवान अंधा है। वह अंधे नौजवान के कंधे से कंधा मिलाकर चल रहा था। जाने क्यों, उस वक़्त उसके क़त्ल करने के इरादे को टालकर, दोनों का पीछा करने लगा।
रात का पिछला पहर भी बीत गया और पूरब से रोशनी की किरणें उभरने लगीं। अँधेरा विलोप होने लगा। वे दोनों फ़र्नीचर की एक दुकान के बाहर आकर खड़े रहे। नौजवान क्षण भर में दुकान में चला गया। वह दरवाज़े के पास खड़ा होकर नौजवान को दुकान में दाख़िल होते देख रहा था और उसकी पेशानी से जैसे नूर के प्रकाश की धारें निकल रही थीं। सोचा, यह ज़रूर कोई जादूगर है।
मैं दीवार की ओट में छुपा हुआ था। मेरे बाज़ू से गुज़रते कहा, “जो चाकू जेब में पड़ा है, वो लोहार ने ख़ून-ख़राबे के लिए नहीं बनाया था।”
मैं सचमुच ही काँप गया।
मेरे सामने आकर खड़ा हुआ कहा, “वह नौजवान अंधा है, पर तब भी कुर्सियाँ बुनकर अपना, अपनी माँ और भाई का इज़्ज़त के साथ पेट पालता है।”
मैं ख़ामोश, लाजवाब खड़ा रहा।
कहा, “मेहनतकशी की कमाई, दुनिया की सबसे महान पेशे की कमाई है।”
जब कोई भी जवाब नहीं सूझा तब बेशर्मी से जवाब दिया, “मैं भी तो मेहनत करता हूँ?”
“वह पेशा ही ज़लील है, जिसमें ख़ौफ़, भय, निराशा, त्रास ही हासिल हो,” उसकी सागर जैसी नीली आँखें मेरे अंदर में उतर गईं। उसने कहा, “इस नौज़वान की आँखें नहीं हैं, पर उसके भीतर रोशनी है। इज़्ज़त से कमाता है और गर्व के साथ जीवन बसर करता है।”
मेरी गर्दन झुक गई। झुकी नज़रों से दुकान की ओर देखा, जहाँ अंधा नौज़वान सच में कुर्सियाँ बुन रहा था।
उसकी आवाज़ पर मेरा ध्यान उसकी ओर गया।
“मैं इस इंसान का और दुनिया के हर मेहनती इंसान का दोस्त हूँ।”
और फिर अचानक मेरी निगाहों से ओझल हो गया।
उस दिन के पश्चात् मैंने, ख़ौफ़, त्रास, गुनाह और भय से मुँह मोड़ लिया। शहर में साइकिल के एक मशहूर कारख़ाने में फिटर बनकर रोज़गार कमाने लगा।
एक दिन जब चिकनाई से लदे कपड़ों और थकान से चूर बदन से कारख़ाने से काम के बाद बाहर निकला, तब उसे अपने पास खड़ा पाया। चेहरे से नूर छलक रहा था। बेहद ख़ुश नज़र आया।
कहा, “आज मैं बेहद ख़ुश हूँ।”
उससे पूछा, “पर तुम हो कौन? कहाँ से आते हो, कहाँ गुम हो जाते हो।”
उसने बाँहें आगे करके मेरे हृदय के स्थान पर हाथ रखा और देखते ही देखते आँखों से ओझल हो गया। मैंने उसके वुजूद को महसूस कर लिया और महसूस करता आ रहा हूँ।
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