पंद्रह सिंधी कहानियाँ

पंद्रह सिंधी कहानियाँ  (रचनाकार - देवी नागरानी)

काला तिल


लेखक: ग़ुलाम नबी मुग़ल
अनुवाद: देवी नागरानी

 

ग़ुलाम नबी मुग़ल

जन्म: 12 मार्च 1944 हैदराबाद में। पेशे से शिक्षा के साथ जुड़े हुए हैं। यहाँ से वे 1992 में सेवानिवृत्त हुए। लारकाणा, सिंध में एक शायर की हैसियत से मुक़ाम हासिल किया। उनकी पहली कहानी ‘तिल’ के नाम से 1965 में छपी, और उनका पहल कहानी संग्रह ‘नया शहर’ 1964 में प्रकाशित हुआ। उनके शायरी व कहानियों के 18 संग्रह प्रकाशित हुए हैं। उनके कुछ संग्रह हैं-नया शहर (1964), रात के नैन (1969), रात मेरी रूह में (1979), साठ, सत्तर, अस्सी (1988), दुआ के पैर (2002), मैं कौन हूँ (2004); उनका पहला उपन्यास ‘ओराह’ (1995) सिन्धी के बेहतरीन नॉवेल के तौर पर पुरस्कृत है। दूसरा उपन्यास ‘कोहरे भरी रातें और रोलाक’ (1997), मुझे साथ लेने दो (2002-पुरस्कृत), वतन व वेला (2008-पुरस्कृत) और हुम्माह मंसूर हज़ार (2012) में प्रकाशित हुए हैं। इसके अतिरिक्त फ्रेंचभाषा और पंजाबी भाषा के कुछ उपन्यासों का सिंधी में अनुवाद भी किया है। उन्हें अपने संग्रह ‘रात मेरी रूह’ में पर इंस्टीट्यूट ऑफ़ सिंधोलॉजी जामशोरो की ओर से बेहतरीन कहानीकार का अवार्ड मिला। 

पता-ए-45, मस्जिद रोड, गुलिस्तान-ए-साजिद, हैदराबाद सिंध (पाकिस्तान) 

 

खाना खाते अचानक उसकी नज़र रोटी के एक जले हुए छोटे गोल दाग़ पर जाकर अटकी। रोटी थी गेहूँ की। रंग था सफ़ेद। यह देखकर गिल्लू के दिल में बेचैनी बढ़ने लगी। नूरी की घुटनों तक खींची हुई, गोरी-गोरी टाँगें और दाईं टाँग की पिछली ओर वह चमकता काला तिल उसे याद आने लगा। निवाला गले के नीचे ही नहीं उतरा . . . बस कल की बीती बातों की याद में खोने लगा। 

नूरी के घुटनों तक चढ़ी हुई पजामी, सफ़ेद टाँगें, दाईं टाँग के पीछे चमकता काला तिल, उसके लेटने का अंदाज़ . . . पास में मटकी रखी हुई। एक टाँग घुटने तक पानी में डूबी, दूसरे किनारे की घास पर रखी हुई। आँखों में काजल, सजे हुए बाल, लाल होंठ, उन पर थिरकती मुस्कान बस यही बात थी जिसने गिल्लू को परेशान कर रखा था। मर्द का खाना-पीना हराम हो गया। आख़िर वह था तो इंसान ही और बड़ी बात यह कि नौजवान भी था। नूरी उसे बहुत भाने लगी। गिल्लू ख़ुद हैरान था कि ‘यह मुझे क्या हो गया है! नूरी जिसे मैं पलटकर भी नहीं देखता था, अब वह दिल में क्यों घर कर बैठी है?’ 

सोचते-सोचते गिल्लू इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि नूरी के काले तिल ने उसे दीवाना बना दिया है। उसे गुमसुम देखकर माँ ने पूछा, “तुझे क्या हो गया है? खाना भी ठीक से नहीं खाते।” इतने में उसका पिता भी घर आ गया। पत्नी की बात सुनी तो कह उठे, “पेट भरा हुआ है। मैं भी देख रहा हूँ . . . जिस दिन इसे ये रँग-रलियाँ करते देख लिया तो रही-सही कसर पूरी कर दूँगा।”

बाप को जो कुछ कहना था, कहकर चला गया। पर साहबज़ादे की नाराज़गी बढ़ गई। माँ बेटा . . . बेटा . . . करती रही, पर वह किसी की न सुनता, न परवाह करता, जूती पैर में, और अँगोछा कंधे पर, कुल्हाड़ी हाथ में लेकर चल पड़ा। 

घर से निकला लकड़ी लाने के लिए, पर सीने में सुलगती जो आग थी, वह आराम कहाँ करने देती। इतने में सामने से आती लतीफ़ा दिखाई दी। पाँव में पड़ी पायल की छम-छम को ज़्यादा छमकती वह उसके सामने आकर खड़ी हो गई। 
“कहाँ जा रहे हो गिल्लू?” लतीफ़ा ने नाज़ो-अदा से पूछा। 

“शहर,” गिल्लू ने आहिस्ते से कहा। 

“मेरे लिए क्या लाओगे?” 

“इस बार पैसे पर्याप्त नहीं हैं . . . फिर कभी . . .”

“फिर नहीं, सिर्फ़ एक रेशमी रूमाल, इत्र की शीशी और कुछ सुपारी ज़रूर ले आना।”

इतना कहकर वह अपनी बकरियों के झुंड की ओर चली गई, क्योंकि गिल्लू की माँ भी वहाँ पर आ गई थी। 

“रूमाल और इत्र। सूरत भी है रूमाल और इत्र जैसी!”

गिल्लू ख़ुद से बातें करता हुआ हँस रहा था। 

जैसे-जैसे उसके क़दम आगे बढ़ते रहे, वैसे उसके ख़्याल तेज़ भागते रहे। गिल्लू को फिर नूरी की याद सताने लगी—काला तिल! गिल्लू को एक बात का रंज हुआ। शायद नूरी उससे बात करना भी पसंद न करे। उसने भी तो बहुत बुरी तरह से डाँटा था। बिचारी ने कितने संदेश भेजे, पर उसने मुड़कर भी नहीं देखा। उसे तो बस लतीफ़ा ही लतीफ़ा नज़र आती थी। दिल में लग गई थी। 

लतीफ़ा! 

“लतीफ़ा नूरी से अधिक सुंदर है। लतीफ़ा के होंठों पर गुलाब के फूल-सी ताज़गी है। उसकी बड़ी-बड़ी गोल आँखें, चौड़ी पेशानी, गुलाबी चेहरे पर दाएँ गाल पर तिल . . .! पर नूरी की गोरी-गोरी दाईं टाँग पर चमकता काला तिल, लतीफ़ा के चेहरे के तिल से ज़्यादा पुरकशिश था। नूरी का तिल, तिल नहीं था, जैसे किसी रेगिस्तान के बीचों-बीच एक मीठे पानी का चश्मा!”

लतीफ़ा को गिल्लू से मुहब्बत थी और मुहब्बत भी क्यों न हो। दोनों की शादी की बातचीत चल रही थी और लगभग तय ही थी, पर गिल्लू को अफ़सोस होने लगा था। 

इन्हीं ख़्यालों में गिल्लू आगे बढ़ता रहा। कुल्हाड़ी कंधे पर, अँगोछा कमर में बँधा हुआ था, पर सभी ख़्यालों का बिंदु रहा नूरी का काला तिल! 

चलते-चलते गिल्लू को बेर की झाड़ियों के पास नूरी नज़र आई। गिल्लू तो जैसे उसके इश्क़ में दीवाना हो गया था। उस तरफ़ वह भी झाड़ी को टेक दिए, कच्चे बेर तोड़ती रही और मुँह में इस अंदाज़ में उछालकर खाती रही कि गिल्लू उसकी ओर खिंचता ही चला गया। मन को बहुत समझाया, ख़ुद को फिर भी उसके पास जाने से रोक न पाया। 

“कौन, गिल्लू! यहाँ आए हो? लतीफ़ा तबेले में है।”

“तुम अब मुझे ताने दे रही हो।”

“मैं कौन होती हूँ, जो तुम्हें ताने मारूँ?” 

यह सुनकर गिल्लू ने एक ठंडी साँस ली। 

“ठंडी आहें भर रहे हो, क्यों? क्या लतीफ़ा ने कोई और ढूँढ़ लिया है क्या?” 

“बार-बार लतीफ़ा का नाम क्यों ले रही हो?” 

“तो और किसका नाम लूँ?” 

“उसका, जो मेरी आँखों में तुझे दिखेगी।”

इतने में एक बछड़ी आकर नूरी से खेलने लगी। खेलते-खेलते उसकी पजामी घुटनों तक खिंचती गई। यही तो गिल्लू की चाहत थी। गोरी टाँग पर चमकता काला तिल देखना। उसे अपनी टाँगों की ओर देखता देखकर नूरी शरमा गई और उसने जल्दी से अपनी पाजामी नीचे खींच ली। 

शाम होती गई। गिल्लू भी लकड़ियों की गठरी लेकर घर पहुँचा। बस आते ही माँ से आग्रह करने लगा कि किसी भी तरह उसकी शादी नूरी से करा दे। 

“मुर्दार, क्या मुझे बस्ती में बदनाम होना है? अभी कल ही लतीफ़ा की माँ ने इस बात को छेड़ा था!”

“कहो कि बेटी को अपने पास रखे, हमें उसकी ज़रूरत नहीं। तुम आज ही नूरी के घर चली जाओ।”

“पागल हो गए क्या?” 

“बस, जो मैं कहता हूँ वही पत्थर की लकीर है।”

बिचारी माँ विचलित व परेशान हो गई। अब करे तो क्या करे? जान पर बन आई। पति से बात छेड़ी। वह तो पहले ही अपना संतुलन खो बैठा था। कुल्हाड़ी कंधे पर रखी और घर से बाहर निकलते हुए कहा, “अभी तो दिल्ली दूर है . . . गठरी भी भारी है। कल तुमसे कहेगा पूरे गाँव से शादी करवा दो। मैं तो कहता हूँ, उस हरामी को घर से ही निकाल दूँ! बेकार की चार लोगों के बीच शर्मसार हो जाओगी!” सुनकर माँ को तो जैसे लकवा मार गया। यहाँ गुल्लू भी उठते-बैठते लड़ता-झगड़ता। आख़िर ममता ने छीली मारी और एक दिन चली गई नूरी के घर। कुछ देर बाद घर लौटी तो गुल्लू को देखते ही कहा, “बेटा मुबारक हो, अगले बुधवार को तेरी मँगनी तय की है नूरी के साथ।” यह सुनते ही गुल्लू ख़ुशी से नाच उठा। “वाह रही अम्मा, वाह!” कहकर उसे गले लगाता रहा। 

लतीफ़ा ने जब मँगनी की ख़बर सुनी तो उसका माथा चकराने लगा। बहुत कोशिशें कीं, गुल्लू को समझाती रही। अनुनय-विनय करती रही, पर गुल्लू ने मुँह फेर लिया। कोई उत्तर नहीं दिया। 

अभी मँगनी को एक महीना भी नहीं बीता कि गुल्लू माँ के पीछे पड़ गया कि अगली पूर्णमासी पर उसकी शादी हो जाए। 

शादी को दो हफ़्ते गुज़र चुके थे। दूल्हा और दुलहन दोनों ख़ुश थे। माँ बेटे को ख़ुश देखकर सदका उतारती रही। गुल्लू के दिन ईद की तरह और रातें उसके ख़्वाबों की तामीर थीं। 

नूरी की गोरी-गोरी टाँगों पर चमकता काला तिल, तिल तो क्या, नूरी ही हमेशा के लिए उसकी हो चुकी थी। कई बार उसे देखता और मन-ही-मन बहुत ख़ुश होता। कभी वह नूरी से कहता, “नूरी बचपन में मैंने जो पत्थर तुम्हारी दाईं टाँग पर मारा था, उसका निशान तो दिखाओ!”

नूरी मुस्कराकर बड़ी नज़ाकत के साथ पजामा ऊपर की ओर उठाती गुल्लू पत्थर के निशान को तो देखता ही न था, पर उस चमकते हुए काले तिल को वह देखता ही रहता। उसे यूँ घूरते हुए देखकर पूछती, “क्या देख रहे हो?” 

गुल्लू जैसे नींद से जाग उठता और जल्दी में कहता, “नहीं नहीं, ऐसे ही देख रहा था।” यह सुनकर नूरी चुप हो जाती और हैरत से उसकी ओर देखती। 

एक दिन गुल्लू खाट पर बैठा था। बाजरे की रोटी और लस्सी का गिलास उसके सामने था। नूरी नीचे बैठकर हाथ-मुँह धो रही थी और फिर वह पैर धोने लगी। 

गुल्लू ध्यान से उस काले तिल को देखता रहा था। इतने में उसकी माँ आ गई और उसका ध्यान बँट गया। शायद वह न आती तो वह उठकर नूरी के उस चमकते तिल को चूम लेता। 

इस बीच नूरी ने घुटनों तक अपनी टाँगों को मल-मलकर धोया। गुल्लू को यह देखकर हैरानी हुई कि पानी पड़ने पर वह दाग़ की तरह मिटता गया। 

“अरे ये क्या हुआ?” 

“जी,” नूरी ने उसकी ओर देखकर कहा। 

“यह तिल कहाँ गया?” 

“तिल! ये तो बनावटी है। लतीफ़ा की ठोढ़ी के पास मैंने तिल देखा था। वह देखकर मैं भी बनाने लगी।”

यह सुनकर गुल्लू के तो जैसे होश उड़ गए। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? अभी वह वहीं बैठा था कि उसने देखा नूरी सामने की खाट पर बैठकर, काजल से अपनी गोरी गोरी टाँग पर वही तिल बनाने लगी। 

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