पंद्रह सिंधी कहानियाँ

पंद्रह सिंधी कहानियाँ  (रचनाकार - देवी नागरानी)

घाव


लेखक:तारिक़ अशरफ़
अनुवाद: देवी नागरानी

 

तारिक़ अशरफ़ 
जन्म: 1940 हैदराबाद सिंध में, 10 अप्रैल 1992 में देहांत हुआ। एक बेहतरीन कहानीकार और सिंधी पत्रिका ‘सुहिणी’ के संपादक रहे। उनके चार कहानी संग्रह एवं एक नॉवल ‘मैला डकैत’ प्रकाशित हुए। उनके संग्रह हैं: ‘वे हैं सौंदर्य’, ‘पत्थर-प्यार’, ‘बंद आँखों में कुछ यादें कुछ सपने’, ‘जेल डायरी’ दो खंडों में प्रकाशित। 

 

पॉलिश करते-करते मोची के हाथ क्षणभर के लिए रुक गए। उसकी नज़रें सामने मैले जूतों पर जैसे जम गईं। एक पल के लिए उसके दिल में ख़ुशी की तरंग उठी। उसने फ़ौरन पूछा, “पालिश करूँ?” और फिर ऊपर ख़ाली नज़र उठाई। सामने फैला हुआ हाथ और भी आगे आया, “एक पैसा।”

मोची के दिल में क्षणभर के लिए आई ख़ुशी लौट गई। उसने ग़ुस्से में कहा, “चल-चल पैसा चाहिए। यहाँ तो सिर्फ़ जूतों की मार है, चाहिए?” 

फ़क़ीर आगे बढ़ गया। 

एक क्लर्क के आगे उसने हाथ फैलाया; जिसके सूखे बाल पेशानी पर परेशान थे, “सुबह से भूखा हूँ। दो रोटियों का सवाल है।”

क्लर्क के ख़ुश्क होंठों पर मुस्कान फैल गई—एक कड़वी और कसारी मुस्कान। 

“भगवान करे सदा ख़ुश रहो . . . बहुत भूख लगी है,” फ़क़ीर फिर गिड़गिड़ाया। क्लर्क फिर मुस्कराया और मुस्कुराते हुए आगे बढ़ गया। 

फ़क़ीर सुबह से भूखा था और क्लर्क कल से! 

फ़क़ीर फिर आगे बढ़ा और एक बुढ़िया के आगे हाथ फैलाते कहा, “अम्मा, सदा सलामत रहें तेरे बच्चे, उनके सदके एक ‘आना’ दे दो (आना, रुपए का सोलहवाँ हिस्सा)।” 

बुढ़िया चलते-चलते रुक गई। ‘बच्चे’ उसके होंठ कँपकँपाने लगे और वह आगे बढ़ गई। फ़क़ीर की नज़रें काफ़ी देर तक बुढ़िया को जाते हुए देखती रहीं। उसे रख-रखकर उसकी आँखें याद आती रहीं, जिनमें बच्चे का मात्र लफ़्ज़ सुनते आँसू तैरने लगे और चेहरे पर दुख छा गया। फ़क़ीर ने सोचा, ‘क्या बुढ़िया को कोई बच्चा नहीं है।’

अचानक फ़क़ीर की नज़र मोटर में बैठे एक मोटे सेठ पर पड़ी। वह उस ओर बढ़ गया। “एक चवन्नी का सवाल है बाबा।”

“चल रे, चल यहाँ से,” सेठ ने ग़ुस्से में कहा, “एक तो पेट में दर्द देकर चला गया, ऊपर से यह पहुँच गया है।” और मोटर चली गई। 

“सेठ के पेट में दर्द?” फ़क़ीर ने सोचा। “दर्द तो मुझे भी है, पर . . .” उसकी भूख और ज़ोर से बढ़ने लगी। काफ़ी देर तक वह वहीं खड़ा रहा और फिर सामने वाले होटल की ओर बढ़ा। होटल का मालिक काउंटर पर पैसे गिनने में व्यस्त था। फ़क़ीर खिड़की के पास खड़ा होकर उसे देखता रहा और फिर बड़ी विनम्रता से कहा, “सुबह से भूखा हूँ। मालिक के नाम पर खाना खिलाओगे?” 

पैसे गिनते-गिनते होटल के मालिक के हाथ रुक गए। उसने नफ़रत की निगाह से फ़क़ीर को घूरा, जिसका सिर्फ़ चेहरा उसे नज़र आ रहा था। होटल के मालिक ने बड़बड़ाते हुए फिर से पैसे गिनने शुरू कर दिए। जब फ़क़ीर को तब भी वहीं खड़े पाया तो कहा, “हट्टे-कट्टे, बेशर्मी से आकर हाथ फैलाते हैं। काम के लिए कहो तो बुख़ार चढ़ जाता है।”

नोटों के बंडल मेज़ की दराज़ में डालते हुए फिर कहा, “हराम का मत खाओ, मेहनत करो। यहाँ मज़ूरी करोगे?” 

फ़क़ीर ख़ामोशी से खिड़की के पास से हट गया। होटल के मालिक ने ग़ुस्से में कहा, “काम के लिए कहा तो बुख़ार चढ़ गया . . . हरामख़ोर।”

फ़क़ीर होटल के पास से हटकर रास्ते पर आया। उसे होटल के मालिक पर बहुत क्रोध आया। उसका चेहरा तमतमाने लगा। पर कुछ देर बाद उसका ग़ुस्सा ठंडा हुआ और उसके होंठों पर फीकी मुस्कान उभर आई। ऐसी मुस्कान, जिसमें बेबसी और नाराज़गी समाई थी। ‘हट्टा कट्टा हूँ, मेहनत नहीं करता!’ वह ख़ुद अपने आप पर हँसने लगा। उसकी नज़र अपने दुर्बल जिस्म की बाईं बाँह पर पड़ी, जिसकी उँगलियाँ और कलाई कट चुकी है। उसका ध्यान टाँग की तरफ़ खिंचता चला गया, जहाँ घाव नासूर बनकर सदा बहता रहता था। फ़क़ीर ने सोचा, “भला होटल के मालिक को क्या पता?” 

अब उसे ज़्यादा थकान महसूस होने लगी थी और भूख भी बेइंतहा सताने लगी। वह एक बंद दुकान की सीढ़ी पर बैठ गया। सोचा, ‘सुबह से भूखा हूँ, कल भी डेढ़ दिन के बाद खाने को निवाला मिला।’ फिर उसे याद आया, सुबह से कितने लोगों के सामने हाथ फैलाया था, पर जवाब में सिर्फ़ गालियाँ, फटकार और धक्के मिले। उसे वह धक्का तो अब तक याद है, जो एक पैसा माँगने पर उस आदमी ने दिया था। वह ज़मीन पर गिर पड़ा था; गिरने की वजह से घाव पर ज़ोरदार पीड़ा के कारण वह तड़प उठा था, पर किसी को भी उस पर रहम न आया। उल्टा कुछ कहने लगे, “अच्छा हुआ उसकी यही सज़ा है।” जो खड़े थे सब हँसने लगे। अब उसने सोचा कि उसे भीख माँगनी बंद करनी चाहिए। इससे तो मर जाना बेहतर है। पर आख़िर पेट है, वो कैसे भरा जाए? मज़दूरी वो कर नहीं सकता, जो पूरा हाथ कारख़ाने में कट गया था और टाँग में कुत्ते के काटने की वजह से ज़ख़्म अब नासूर बनकर रिसने लगा था। अब इन सवालों से भी वह तंग आ गया था। काफ़ी देर के बाद उसने महसूस किया कि नासूर में पीड़ा हो रही थी—पर पीड़ा टाँग के नासूर में न थी, पेट के नासूर में थी। भूख के कारण उसने अपने जिस्म में कमज़ोरी महसूस की। उसे लगा कि उसका शरीर बेजान हो गया है। भूख अब बहुत सताने लगी। कुछ देर के बाद उसे अपना फ़ैसला बदलना पड़ा। एक ही सोच हावी रही, ‘पहले तो पेट की आग बुझानी पड़ेगी। फिर भीख न माँगने का फ़ैसला होगा।’ यह सोचकर फ़क़ीर दुकान की सीढ़ी से उठा। उठते ही उसकी नज़र एक सफ़ेदपोश वृद्ध पर पड़ी, जो आहिस्ते-आहिस्ते जा रहा था। उसके हाथ में जयमाला थी, जिसे फेरते हुए वह कुछ जाप करता जा रहा था। 

फ़क़ीर वृद्ध की ओर बढ़ा, जो उसके काफ़ी आगे चल रहा था। फ़क़ीर की टाँगों में ताक़त नहीं थी। पर भूख ने अपना क़दम बढ़ाया। तेज़ी से बढ़ते हुए वह वृद्ध के क़रीब आया। उसकी साँस धौंकनी की तरह चल रही थी, पर तन निढाल हुआ जा रहा था। कुछ पल वह ख़ामोशी से वृद्ध के पीछे चलता रहा। फिर तमाम ताक़त लगाकर कहने लगा, “सुबह से भूखा हूँ। भगवान के नाम पर खाना खिला दो।”

माला रुक गई। “माफ़ करना।” माला फिर चलने लगी। 

फ़क़ीर ने हिम्मत नहीं हारी। एक बार फिर उसने मिन्नत की, “ख़ुदा तुझे हज नसीब करेगा।”

वृद्ध के क़दम रुक गए और एक उपहास-भरी मुस्कराहट उसके होंठों पर फैल गई। 

“हज की दुआ करते हो। इसलिए कि बूढ़ा हूँ, ख़ुश हो जाऊँगा। अगर बच्चा होता तो इम्तिहान में उत्तीर्ण होने की दुआ करते . . .! ठग कहीं के।”

और वह आगे बढ़ गया। 

फ़क़ीर ग़ुस्से में दाँत कटकटाने लगा और दिल में कहने लगा, “ठग मैं हूँ या तुम? अल्लाह की इबादत करते हो . . . पर उसके नाम पर एक पैसा भी नहीं देते।”
उसने सोचा, ‘अल्लाह के नाम पर देना उसके बंदे पसंद नहीं करते। उनका विचार है कि जो कुछ उनके पास है, वह सिर्फ़ उनकी मेहनत का फल है। कोई भी कुछ देना पसंद नहीं करेगा—भला अपनी मेहनत की कमाई वे क्यों किसी को दें?’ 

फ़क़ीर आगे बढ़ा। एक बिजली के खंभे के नीचे बैठे फ़क़ीर पर उसकी नज़र गई। उसके क़दम वहीं रुक गए और आँखें फ़क़ीर के आगे रखे हुए झोले पर गड़ी रह गईं, जिसमें बिरयानी पड़ी थी। उसने सोचा, ‘अब मेहनत करनी होगी। अल्लाह के नाम पर कोई नहीं देगा, क्यों न यह झोला लेकर भाग जाऊँ,’ पर फिर दिल को तसल्ली दी कि फ़क़ीर के सामने लकड़ी की घोड़ी रखी हुई है, जिससे ज़ाहिर होता है कि वह लँगड़ा है। उसका पीछा नहीं कर पाएगा। रात भी काफ़ी हो चुकी है। रास्ते में कोई आदमी भी नहीं। यह सोचकर वह आगे बढ़ा। उसकी टाँगें काँपने लगीं। साँस फूलने लगी, पर जब उसने देखा कि फ़क़ीर ने मैले कपड़े से हाथ पोंछकर बिरयानी खानी शुरू की तो उसके बदन में फ़ुर्ती आ गई। वह बढ़कर उसके पास आया। अभी झुककर वह झोला उठाने को ही था कि फ़क़ीर ने कहा, “आओ भाई, बिसमिल्लाह करो!”

उसका संपूर्ण बदन काँप उठा। उसे लगा जैसे किसी ने उसके नासूर को खींचकर चीर डाला है। उसने काँपती ज़बान से कहा, “खाओ बाबा।” और वह आगे बढ़ गया। 

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