पंद्रह सिंधी कहानियाँ

 

कोई कहानी क्यों लिखता है? इंसान जब दुनिया में आँख खोलता है, तो अपने साथ कुछ स्वाभाविक संस्कार भी ले आता है। उम्र के साथ साहित्य की चाह से सृजनात्मक निर्माण का लावा सहज प्रकृति से प्रवाहित होता है और फूट पड़ता है। ज़ाहिर है, किसी रचनात्मक तत्त्व का चिंतन, मनन, मंथन उसे बाह्य स्वरूप देने को छटपटाता रहा होगा। लेखक अपने आस-पास पनपती बेवाजिबी, बे-इंसाफ़ी, बेग़ैरती और जुल्म को गवारा न कर पाया होगा, इसीलिए अपने ख़ास हथियार ‘कलम’ को उनके ख़िलाफ़ इस्तेमाल करता है। शायद कहानी लिखने का एक सबब यह भी है।

जीवन के पथ पर चलते चलते हर नए मोड़ पर जहाँ एक प्रसंग की परतें खुलती हैं, वहीं दूसरे मोड़ पर एक अन्य कथा जन्म लेती है। कहानी में लेखक अपने रचनात्मक संसार में विलीन हो जाता है, अपने पात्रों के साथ उठता-बैठता है, उन्हीं की तरह सोचता है, सक्रिय रहता है और यहीं आकर कल्पना यथार्थ का रूप धारण करती है। इन्हीं कहानियों के माध्यम से लेखक अपने ही मन की बँधी हुई गाँठें और मानव-मन की परतों को भी उधेड़ता है। वैसे देखा जाय तो दुनिया की कोई भी कहानी नई नहीं है। हर दिन ज़िंदगी एक नया मोड़ लेती है और अनेक अनुभव के दरवाज़े खोलती है। हर क़िस्सा पुराना होने के बावजूद जब दर्द से नम होता है तो लगता है दिल के तहख़ानों में सन्नाटा भर जाता है, और उसी सन्नाटे भरी सुरंग से हमें अपना भविष्य दिखाई देता है। आज की कहानी, पुरानी कहानी की ही एक कड़ी है, जो नए परिवेश, नई संस्कृति की छत्रछाया में पली है। प्रेमचंद ने कहानी के प्रमुख लक्षणों को बताते हुए लिखा है, ‘कहानी ऐसी रचना है, जिसमें जीवन के किसी एक अंग या किसी एक मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य होता है। उसके चरित्र, उसकी शैली तथा उसका कथाविन्यास सभी उसकी इस भाव को पुष्ट करते हैं।’ हर कहानी एक नया दृष्टिकोण लेकर उभरती है। ये कहानीकार जिस समाज, जिस माहौल में रहते हैं, वहीं की दिक्कतों, समस्याओं पर अपनी क़लम को आज़माते आ रहे हैं। बस अपने हिस्से का संघर्ष कर रहे पात्रों की कहानियाँ हैं—कहीं स्त्रीपात्र जो कहीं न कहीं कुंठित हैं, उसकी दशा व दिशा का चित्रण पढ़ा जा सकता है, महसूस किया जा सकता है। कहीं ग़रीबी की दलदल में धँसे हुए पात्रों की विवशता, कहीं अनैतिक हालातों के शिकंजों में जकड़े हुए इंसान की बेबसी, तो कहीं सृजनात्मकता में गाँवों और समाज के कुरीतियों का उल्लेख भी बेबाकी से हुआ है।

सिन्धी भाषा की ये कहानियाँ भी मन की पीड़ा, घुटन और अंतर्द्वंद्व का दस्तावेज़ हैं, जहाँ परतंत्र नारी की मर्यादा, उसकी चाहतें, अरमान, मनोभावनाएँ और अभिलाषाएँ मर्द की झूठी शान की चौखट पर बलि चढ़ जाती हैं। बस रह जाते हैं रिश्तों के खंडहर। स्वार्थ का शातिरपन रिश्तों के जंगल में भभकती आग लगा देता है, जहाँ भूख की ललक बुझने की बजाय भड़क उठती है, राख के तले दबी हुई चिंगारियों की तरह। मानवता अपनी नादानी की क़ीमत इससे ज़्यादा क्या दे सकती है?

सिन्ध के कहानीकारों ने बोलचाल की भाषा को प्राथमिकता देते हुए उस परिवेश के जनजीवन और समाज से जुड़ी जीवंत शैली व भाषा का इस्तेमाल किया है । इसीलिए उनकी कहानियों में अपनी भाषा के मौलिक शब्दों का प्रयोग भी नज़र आता है। उनकी रचनाओं में रचनात्मक अभिव्यक्ति, कथ्य एवं शिल्प से निभाने की अदायगी, जो एक पराकाष्ठा पर पहुँचाती है, वह कमाल की है। कई कहानियों के कथानक, किरदारों की गुफ्तार, शब्दों का चयन-दक्षता का प्रमाण बनकर सामने आते हैं। कहानी में किरदारों के जज़्बात अलग-अलग हालात के संघर्ष से लदे हुए हैं, और वही इज़हार करते हुए शब्द भी कहीं-कहीं लहूलुहान हुए दिखाई देते हैं। उन पात्रों के जज़्बे कहानी में धड़कते हैं, बतियाते हैं।

हमीद सिन्धी की लिखी कहानी ‘यह ज़हर कोई तो पियेगा’ आज के समाज की इस क्रूर समस्या का एक अनोखा त्यागमय समाधान ले आई है। इस कहानी की पठनीयता मुझे अन्य संवेदनात्मक जज़्बों से बुनी हुई कहानियों तक ले आई, जो इस संग्रह में अनुवाद के रूप में शामिल हैं। इन कहानियों में कुछ तेज़ाबी तेवर, भाषा और भाव से भीने हुए अहसास महसूस किए जाते हैं। कहीं बेबसी की दास्तान, कहीं सोच में स्थापित होता हुआ अपने ही अरमानों का स्वप्निल संसार नज़र आता है, तो कहीं रिश्तों की बुनियादी फितरतें अलग-अलग स्वरूपों में सामने आई हैं। सच मानिए ये कहानियाँ मानव-मन पर एक गहरी छाप छोड़ जाती हैं।

अब मैं कथा, कथानक और पात्रों के इस मंच को आपके सामने खुला छोड़ते हुए यही आशा करती हूँ कि शायद किसी कहानी का कोई पात्र आपको अपनी ही संवेदनात्मक स्थिति का प्रतीक लगे, या वह आपकी मनोदशा में शामिल होकर मार्गदर्शक बन पाए, तो निःसंदेह इस अनुवाद के प्रयास को सार्थकता हासिल होगी। मैं श्री शौकत हुसैन शोरो की बेहद आभारी हूँ, जिन्होंने मेरा परिचय इन कहानियों से, उनके लेखकों से एवं उनकी क़द और हैसियत से करवाया और सिन्ध के सभी महबूब क़लमकारों की, जिन्होंने ईमेल के ज़रिये मुझे अपनी जानकारी व इजाज़त दी। उनके इस योगदान के एवज़ में आज यह संग्रह आपके हाथों में है। मैं बेहद शुक्रगुज़ार हूँ सुधा ओम ढींगरा, मंजू नेचाणी, संतोष श्रीवास्तव जी की, जिन्होंने अपने विचार अभिव्यक्त करके मेरे अनुवाद के इस प्रयास को पंख फैलाने की हिम्मत बख़्शी है।

मैं हिंदी साहित्य निकेतन के निदेशक डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल की तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ, जिन्होंने समय की परिधि में रहते हुए उस पार की इन सिन्धी कहानियों को इस पार की आज़ाद फिज़ाओं में लाकर सिन्धी साहित्य को हिंदी के रचनात्मक संसार से जोड़ने में मदद की है। अब मैं ये दस्तावेज़ कहानियाँ अपने सुधी पाठकों को सौंप रही हूँ।

—देवी नागरानी
14, सितंबर 2014


 

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