पंद्रह सिंधी कहानियाँ

पंद्रह सिंधी कहानियाँ  (रचनाकार - देवी नागरानी)

ज़िदादिली


मूल लेखक:शेख़ अयाज़
अनुवादक: देवी नागरानी

शेख़ अयाज़
(2 मार्च 1932–27 दिसंबर 1997)
उनकी शिक्षा शिकारपुर में हुई। उन्होंने दर्शनशास्त्र में बी.ए. की डिग्री प्राप्त की। सन् 1948 में उन्होंने एल-एल.बी. की उपाधि पाई और फिर कराची हाईकोर्ट में वकालत शुरू की। सिंध विश्वविद्यालय, जामशोरो में उपकुलपति
(1976-1979) रहे। उन्होंने शाह के रसाले का उर्दू में अनुवाद किया। उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं—नीम की छाँव पहले से घनी, जाकी बीजल बोलियो, कुलहे पातम कीनारो। उर्दू प्रकाशन में उनकी कृतियाँ हैं—बू-ए-गुल, नाला-ए-दिल, नीलकंठ और नीम के पत्ते। उनकी आत्मकथा ‘कहीं तो थकान तोड़ेंगे मुसाफ़िर’, बहुत ही विख्यात कृति है, जो चार खंडों में छपी है।

उसकी सादगी में चालाकी थी और चतुरता में सादगी। कभी बच्चे की तरह नाचती-कूदती आती और पीछे से आकर आँखें मूँदती, कभी अचानक मेरे सामने बाल बिखेरते हुए कहती, “देखो तो कैसे लग रहे हो?” और फिर आईना लेकर हाथ में दे देती। कभी मैं पैंसिल रखकर पानी पीने के लिए उठता तो उसकी नोक तोड़ देती और उसे लेने के लिए हाथ बढ़ाता तो उसकी हँसी फूट पड़ती। कभी चुनरी को पगड़ी की तरह बाँधकर आती और किताब मेरे हाथ से छीनते हुए कहती, “कहो, अब क्या कहते हो?”

कभी पिन लेकर मेरी गर्दन में चुभाती, कभी शर्बत में नमक डालकर ले आती, कभी भृंग फँसाकर, परों से पकड़कर मेरे सामने लाकर मुझे डराती। एक दिन हथेली पर बिच्छू ले आई। जाने कैसे उसका डंक निकाला था।

“देखो मैंने इसको वश में कर लिया है,” उसने कहा।

“तुम तो आदमी को भी वश में कर सकती हो,” मैंने शरारती नज़रों से उसकी ओर देखते हुए कहा। उसके चेहरे पर शर्म की परछाई छा गई। बिच्छू को लेकर मेरी गोद में डाल दिया। मैं चौंककर उठा। उसको चोटी से पकड़कर कहा, “कहो, फिर ऐसा करोगी?”

“ना बाबा ना, मेरी तौबा, मेरी माँ की तौबा!” उसने चोटी छुड़ाने का प्रयास करते हुए कहा।

एक दिन दोपहर के वक़्त मुझे आने में देर हो गई। वह खाना लेकर आई और मेरे लाख कहने पर भी एक-एक निवाला बनाकर मेरे मुँह में डालती रही।

“औरतें सब बेवक़ूफ़ होती हैं।” मैंने चिढ़ाते हुए कहा, “तभी तो तुम भी परीक्षा में सफल नहीं होती।”

“ठीक है!” उसने गोश्त का काँटा रोटी में छिपाकर मेरे मुँह में डालते हुए कहा। मैं उस सख़्त हड्डी को चबाते हुए मुँह बना रहा था, तो वह हँसती हुई वहाँ से भाग गई। मैंने ग़ुस्से में कहा, “बस अब आगे से यहाँ नहीं आओगी!”

“अरे देखूँ तो कितने दिन इस शोर में पढ़ पाते हो?” उसने अपना मुँह मरोड़ते हुए कहा।

“घर में अगर एक अक्षर भी पढ़ गए तो मैं मान जाऊँगी।” 

मैंने सोचा, कह तो सच ही रही है। हमारा घर छोटा था और बच्चे बहुत। इसलिए मैं उसके घर आकर पढ़ता। उसके घर में सिर्फ़ दो सदस्य थे, ‘मासी और वह’! पर इसने भी तो मेरी नाक में दम कर रखा है। हर रोज़ नई शैतानियाँ सामने आतीं। ख़ुद तो मैट्रिक में फ़ेल होकर पढ़ाई का ख़्याल ही छोड़ दिया था। अब मेरे पीछे पड़ी हुई है।

एक दिन मेरे हाथ में कैमरा देखकर ज़िद करने लगी कि मैं उसकी तस्वीर खीचूँ। बहुत वाद-विवाद के बाद जब मैंने उसकी तस्वीर खींची, तब उसने दुपट्टे से अपना चेहरा ढाँप लिया।

एक बार जब मैं अपनी पुस्तकें लेकर आया तो देखा, दो-चार लड़कियाँ बैठी हैं। मैंने कमरे में पाँव रखा ही था कि सब हँसने लगीं, और वह इतना हँसी कि आख़िर पेट पकड़कर बैठ गईं। मैंने उतरे हुए चेहरे से पूछा, “सब ख़ैरियत तो है?”

“तुम पर थोड़े ही न हँस रही थीं हम,” उसने अपनी हँसी रोकते हुए कहा। “तुम ख़ुद ही बताओ कि क्या तुम्हारी सूरत ऐसी है, जिसे देखकर हँसी आए? तुम्हारी सूरत देखकर तो मुझे रोना आता है। फिर हँसी कैसे आएगी?”

“अब यह बकवास बंद करो।” मैंने भी उसे छेड़ा, “यूँ लोगों को देखकर तुम्हारा सर क्यों घूम जाता है?”

“सर तो तुम्हारा पढ़-पढ़कर घूम गया है,” ऐसा कहकर वह फिर हँसने लगी। “सच बताऊँ हम सब क्यों हँस रही थीं। मैंने शारा को बताया कि तुमने बी.ए. में दर्शनशास्त्र लिया है, जिस पर उसने तक फ़लसफ़ा सुनाया कि कैसे एक दर्शनशास्त्री ने दीवार पर गोबर के थेपले देखकर कहा था कि गाय ने गोबर दीवार पर कैसे थोप दी और इसी बात पर मुझे बहुत हँसी आई।

एक बार मैंने प्रजातंत्र के उसूल समझाने की कोशिश की।

“पर ख़ुदा तो हमें प्रजातंत्र नहीं सिखाते?” उसने कुछ सोचते हुए कहा, “ख़ुदा तो बहुत सारों को नर्क में डालता है और कुछ ही को, जिनमें मुल्ला, मौलवी हैं उन्हें स्वर्ग बख्शता है।” वह तक़रीर करने लगी, “पर भई, यह स्वर्ग-नर्क का मामला भी अजीब है। मैं तो सोचकर परेशान हो जाती हूँ। मैट्रिक में थी, तब मास्टर ने बताया था कि सूफी दरवेश कहते हैं कि इंसानी रूह में ख़ुदा का अंश है। अगर ऐसा है तो नर्क में भी सिर्फ़ रूह जाती है और इसका मतलब ये है कि नर्क में ख़ुदा जाता है।” वह मज़हब की बेमतलब, निरर्थक बातों पर हँसने लगी। मैं सोचता रहा कि उसे ये शरारत भरे ख़्याल क्यों आते हैं कि
वह ख़ुदा को भी नहीं बख़्शती!

उसकी हँसी में जीवन था। ज़िंदादिली थी। हँसते समय उसके गालों में जैसे सफ़ेद और सुर्ख़ गुलाब अपना सौंदर्य बिखेरते। उसके पतले-पलते होंठ शबनम में नम हो जाया करते। मैंने उसे मुस्कराते हुए तो कभी नहीं देखा; वह हमेशा हँसती थी और उसकी हँसी में जैसे सारी दुनिया का संगीत समाया रहता। उसके क़हक़हे में जैसे मासूमियत और शरारत हाथ में हाथ थामे नाचती और ग़ायब हो जाती। तन्हा होते हुए भी गीत गाते रहती। आदमी देखती तो हँस बैठती। जैसे सारे जहान की ख़ुशी उसकी रूह में घुली हुई थी। वह इतना हँसती थी कि उसकी आँखों से आँसू गिरने लगते। पता ही नहीं पड़ता था कि वह हँस रही है या रो रही है। उसकी हयात में आँसू और मुस्कान साथ-साथ घुले-मिले
थे। वह हर किसी को तंग करती थी पर कोई उससे ऊबता न था। मैं तो उससे नफ़रत इसलिए करता था क्योंकि मुझे उससे मुहब्बत थी और मुहब्बत इसलिए करता था, क्योंकि मुझे उससे नफ़रत थी—मीठी-मीठी नफ़रत, कसारी सी नफ़रत थी। दूर रहकर दूर रहना नहीं चाहता था। पास रहकर नज़दीकी से ऊब जाता था . . . मेरी ओर की दो चचेरी-मौसेरी बहनें थीं, पर कोई भी इस जैसी अनहोनी न थी। किसी की इतनी मज़ाल थी कि मेरे साथ ऐसी-वैसी मस्ती करे! सभी मुझे किताबी-कीड़ा समझकर मेरी इज़्ज़त भी करतीं और नफ़रत भी। पर यह जाने क्यों मुझे छेड़ती थी। मैं पुस्तक के किसी पन्ने में चिह्न डालकर बंद करके जाता तो वह पुस्तक-चिह्न किसी और पन्ने में रख देती। मैं फ़ाउंटेनपेन में स्याही भरकर रखता तो वह स्याही निकालकर पानी भरकर रखती। मतलब यह कि अजीब शामत थी। मैंने कई बार सोचा कि उसके घर नहीं जाऊँगा। पर
दो-ढाई घंटे घर में बैठता तो वह किसी को बहाने से मेरे घर भेजती। जैसे, ‘अम्मा को सर में दर्द है, दवा तो दो’ और मैं बस दर्द की दवा लेने जाता तो संदेश लाने वाला गुम हो जाता और लाचार मुझे दवा लेकर उसके घर जाना पड़ता। अभी पहुँचता ही हूँ कि हँसते हुए कहती, “देखो, कैसी चतुरता से बुला भेजा, पता चला?” और फिर रस्सी घुमाकर उछलने-कूदने लगती।

ऐसा भी नहीं है कि वह मुझे सिर्फ़ शरारत के लिए बुलाती है। मुझे याद है कि गर्मियों में मुझे पढ़ते-पढ़ते नींद आ जाया करती थी और तेज़ गर्मी के कारण मैं करवटें बदलता तो किसी वक़्त ठंडे हवा के झोंके से आँख खुल जाती तो देखता कि वह पंखा झलती होती। मेरी आँख खुलते ही पंखा मेरी पीठ पर दे मारती और यही कहते हुए उठ जाती, “नींद में बात क्यों करते हो? हमारी नींद ख़राब होती है।”

जब मिलकर खाना खाने बैठते तो कहती, “देखना, आज तुम्हें कैसे भूख से तड़पाती हूँ।” और फिर ठहाका मारती। पर मैंने देखा है कि वह बहुत कम खाती है। अच्छी-अच्छी चीज़ें मेरे लिए रखा करती।

एक दिन मुझे सख़्त बुखार हो गया। सर फटा जा रहा था। मैंने बहन से माथा दबाने के लिए कहा। ठुनककर बोली, “लगातार दो घंटे बैठकर मौसेरी बहन ने दाबा है। अभी भी और दबाने को कह रहे हो।” मुझे पता न पड़ा कि बेहोशी की हालत में उसने मुझे राहत बख़्शी। ऐसे कई मौकों पर मैंने महसूस किया कि उसको मुझसे हमदर्दी थी।

मैंने बी.ए. का इम्तिहान पास किया और उसके पास गया। उसने कहा, “मिठाई खिलाओ” और ठहाका मारकर कहने लगी, “चल दिवालिए, तुम क्या खिलाओगे!” मेरी मँगनी हो गई। वह आई और कहने लगी, “मिठाई खिलाओ” और फिर “चल दिवालिए, तुम क्या खिलाओगे” कहकर ठहाका मारकर हँसने लगी। “मेरी शादी हो गई।” वह आई और कहने लगी, “मिठाई खिलाओ” और फिर उसी तरह “चल दिवालिए तुम क्या खिलाओगे” कहते हुए हँसने लगी। मुझे बेटा हुआ। वह आई और फिर वही अल्फ़ाज़ कहे, “मिठाई खिलाओ” और फिर “चल दिवालिए तुम क्या खिलाओगे” कहकर हँस पड़ी। उसमें अभी भी वो मासूम शरारत थी। अभी भी ज़िंदादिली थी। अब भी हँसते-हँसते आँसू लुढ़क आते थे।

कल वह मेरे बेटे के साथ खेल रही थी। उसके साथ उसका अगाध स्नेह था। बच्चा घुटनों के बल थोड़ा-बहुत घूमना सीख गया था। जब वह उसके साथ खेल रही थी, मैं ऑफ़िस से लौटा। मुझे देखकर बच्चा ‘बा . . . आ . . . बा . . . आ’ करने लगा। मैंने उठाने के लिए बाहें फैलाईं पर बेटे ने गर्दन से ‘ना’ करते हुए, उसकी छाती से लिपटते हुए कहा, ‘अम . . . माँ’ और मैंने मज़ाक में कहा, “अरे तेरी अम्मा तो रोटी पका रही है। ये है तेरी बुआ।” बच्चे ने जैसे मेरी बात को अनसुना करते हुए, उसकी छाती से मुँह निकालकर उसकी ओर देखते हुए कहा, ‘अम्मा’ अचानक मैंने देखा कि उसका चेहरा उतर गया और आँसू उसकी आँखों से लुढ़ककर गालों पर आए। मैंने हैरत से पूछा, “क्यों, ख़ैरियत तो है?”

उसने बच्चे को चूमा और उसके चोले में मुँह छुपाकर सुबकने लगी। मैं हैरान रह गया। आज शायद पहली बार क़हक़हे और आँसू दोस्ती तोड़कर जुदा हुए थे। ज़िंदगी हँसी का सहारा न ले सकी। आँसुओं ने ज़ाब्ता पा लिया था। ख़ुशी ने ग़म को चूमते हुए अलविदा ली।

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