पंद्रह सिंधी कहानियाँ (रचनाकार - देवी नागरानी)
बिल्लू दादा
लेखक अयाज़ क़ादरी
अनुवाद: देवी नागरानी
अयाज़ क़ादरी
जन्म: (19 जनवरी 1927-15 दिसंबर 1997)
उन्होंने हिंदी साहित्य में पीएच. डी. की; कराची विश्वविद्यालय में सिंधी विभाग के प्रधानाचार्य रहे। वे एक अच्छे कहानीकार, कवि एवं निबंधकार थे। उनके दो कहानी: संग्रह बिल्लू दादा (1957), कहानी हर दौर की (2008) प्रकाशित हुए। उनकी अन्य पुस्तकें हैं: सिंधी ग़ज़ल का विकास (1984), दो संग्रह प्रतिष्ठित सिंधी समकालीन कवि शेख़ आयाज़ के लिखे: ‘शाह लतीफ़ की कविता’ (काव्य का गध्य में हिंदी अनुवाद) और ‘अब्दुल ज़ुल्फ़ अयाज़’ (शायरी 2007)
पता: महलो मियाँ की गड, लारकाणो सिंध, पाकिस्तान।
वह पूरे मुहल्ले में बदनाम था। हर कोई उससे किनारा करता, ऐरा-ग़ैरा तो उसका नाम भी डरते हुए लेता। पैसे वाले तो उसे गुंडा समझते। वह मुहल्ले का दादा समझा जाता था।
उसका नाम बिलावल था। मगर उसे बुलाते थे ‘बिल्लू दादा’। रंग का काला-कलूटा, घुँघराले बाल, छोटे पर सख़्त, कितना भी तेल लगाने से नर्म नहीं होते थे; और न ही कंघी करने से कभी ठीक होते। चेहरा बड़ा गोल, आँखें छोटी, अभद्र जिनमें हर वक़्त हरकत होती। नाक लंबा, पर नथुने चौड़े, होंठ मोटे, दाँतों के बीच रिक्त स्थान, मुसाक लगाने पर होंठ लाल और दाँत सफ़ेद हो जाते थे। अगर पाना खाता तो दाँत और होंठ दोनों लाल। छाती चौड़ी, बाज़ू सख़्त और मज़बूत, उसके चेहरे पर ऐसा रोब (दबदबा) रहता था, अगर किसी की ओर ग़ुस्से से निहारता भी था तो उस खंध को कँपकँपाहट महसूस हो जाती थी। कड़कती आवाज़ हर वक़्त गूँजती रहती। अगर बात करना शुरू करता तो फिर ख़ुदा ही उसे बख़्शे। फ़ुटबाल का चैम्पियन, ज़्यादातर खेल में सेंटर फ़ॉरवर्ड खड़ा रहता। मुक्केबाज़ी में प्रवीण, हर वक़्त इसी बात पर तवज्जोह कि दायाँ मुक्का कैसे लगाया जाए और बायाँ पंजा कैसे चूकना चाहिए।
मेरी उसके साथ पहचान कोल्हूबाड़ी में हुई थी। ज़्यादातर मकरानी की कैबिन में बैठा रहता था। जाँघें टेबल पर और पीठ दीवार के साथ सटी हुई। पानी और चाय के ग्लास, कभी भरे, कभी ख़ाली, हमेशा उसके आगे पड़े रहते थे। मैं गुज़रता तो ऊँची आवाज़ में कहता, “मास्टर आओ, चाय पी लो।”
मुझे कभी वह ‘मास्टर’ और कभी ‘साईं’ कहकर संबोधित करता। धीरे-धीरे हमारा नाता गहरा होता गया। मुझे उसका सिंधी में बात करने का लहजा बहुत अच्छा लगता था। चाहता था कि वह क़िस्से सुनाता रहे। अगर उसके क़रीब जाता तो प्यार से उसके गाल पर थाप देते हुए पुचकारता और उसके हाथ में अपना हाथ दे देता। मेरे दूसरे दोस्तों को हमारा साथ न भाता। पड़ोसियों को भी रंज था। रिश्तेदार भी तंग थे। मास्टरजी भी ठीक नहीं समझते थे। शागिर्द कुछ कहते तो नहीं थे, मगर बिल्लू दादा की दादागिरी के क़िस्से बढ़ा-चढ़ाकर बयान करते थे।
एक दिन हेड मास्टर ने भी आख़िर कह ही दिया, “आपको अपने जैसे पढ़े-लिखे लोगों की सोहबत करनी चाहिए।” रिश्तेदारों ने कहा, “तुम्हें दूसरा कोई नहीं मिला, जो इस शेख़ीबाज़ के साथ दोस्ती कर ली।”
दोस्तों ने तो डाँटते हुए कहा, “यार, अगर तेरा साथ ऐसे गुंडों के साथ है तो हमारी ख़ुदाहाफ़िज़ है।”
मैंने भी किसी की कोई परवाह नहीं की। आख़िर दोस्ती जो ठहरी।
एक दिन जैसे मैं कोल्हूबाड़ी पहुँचा, देखा तो भीड़ जमा थी। शेार मचा हुआ था। बिल्लू की गालियों की बौछार पड़ रही थी। मैंने सोचा, अब ख़ैर नहीं। जाने क्या हुआ है? भीड़ को चीरते हुए आगे बढ़ा। देखा तो एक कार खड़ी थी। उसके सामने बिल्लू एक मोटे सेठ को गर्दन से पकड़कर खड़ा था।
“साला हरामी, अगर तुझे कार चलानी नहीं आती तो क्यों चलाता है?”
सेठ मछली की तरह फड़फड़ा रहा था। “क्या तुम सेठ लोग दुनिया के नशे में इतने अंधे हो गए हो कि आँखें बंद करके ग़रीबों के ऊपर कार चढ़ा लेते हो।”
मैंने जाकर बिल्लू को पीछे से कसकर पकड़ा। मेरी ओर पलटकर कहा, “साईं देखो, यह हरामख़ोर कैसी बेपरवाही से कार चलाता है। ग़रीब लड़की पर कार चढ़ा दी। उसे अस्पताल पहुँचाने की बजाय, कार भगाकर ले जा रहा था।” ऐसा कहते हुए एक ज़ोरदार मुक्का उसे मारा। मैंने उसके हाथ को रोका। जब उसका जोश कुछ ठंडा हुआ तो सेठ से कहने लगा, “ले चल इस छोकरी को कार में।” उसे कार में लेकर अस्पताल आए। डॉक्टर की फ़ीस के अलावा, लड़की के माँ-बाप को भी पचास रुपये दिलाए। तब जाकर सेठ की जान बख़्शी।
एक दिन, जैसे ही स्कूल में क़दम रखा, लड़कों ने कहा, “साईं, कल रात हमारे मुहल्ले में बड़ा झगड़ा हुआ।” मैं समझा, ज़रूर बिल्लू ने तीन-चार शरीफ़ों की खाल उधेड़ी है। बेचारों की ख़ूब पिटाई की और उन्हें अधमरा कर दिया।”
मुझसे अब पढ़ाया नहीं गया। बेचैनी ने घेर लिया कि कल रात न जाने कौन-सी वारदात हुई। जैसे-तैसे समय बीता। जब स्कूल से छुट्टी मिली तो सीधे उसी ओर गया। देखा तो झाँगिया की कैबिन में भला आदमी सूजी हुई आँख लिए बैठा है। जाकर उसके पास बैठा तो उसने होटल के लड़के को चिल्लाकर कहा, “चाय लेकर आओ।”
मैंने कहा, “मैं तुम्हारी चाय नहीं पिऊँगा।”
“आख़िर क्यूँ?”
“तुमने कितनी बार मुझसे वादा किया है कि तुम दादागिरी नहीं करोगे। मगर दिन दुगुनी, रात चौगुनी तरक़्क़ी करते जा रहे हो।”
“साईं, पहले मेरी बात तो सुन लो। रात क्या हुआ? तीन हरामज़ादे सूट-बूट में सजे हुए आए और पड़ोस की लड़कियों के आगे-पीछे फिरने लगे। ऐसे में तुम ही कहो साईं कि बिल्लू चुप करके बैठे? दो-तीन थप्पड़ लगाकर सालों को सबक़ सिखा दिया।”
एक दोस्त की शादी में, मलीर जाने की दावत आई। बिल्लू दादा से कहा कि मिलकर चलेंगे। प्रोग्राम बनाया कि यहाँ से शनिवार को, दिन के समय कोल्हूबाड़ी से निकलकर ‘ली’ मार्केट के पास से बस पकड़कर मलीर चलेंगे। निश्चित दिन, अभी कोल्हूबाड़ी से सौ क़दम भी नहीं चले तो दीवार के किनारे किसी दरिद्र की लाश नज़र आई। समझ में तो यही आया कि कोई परदेसी बीमार है, जिसे रात की सर्दी ने जकड़ लिया है। देखते ही कहा, “साले को आज और इसी जगह ही मरना था।”
पल दो रुककर बोला, “साईं! पहले इसे ठिकाने लगाएँ।” मैं कुछ कहूँ उससे पहले ही बोल उठा, “किसी की शादी में जाने के बजाय किसी की मौत में जाया जाए तो भला है।”
मैं चुप होकर खड़ा रहा। बग्गीवाले को बुलाया। बग्गीवाला साफ़ जवाब दे गया, यह कहकर कि मैं अपनी बग्गी पर लाश नहीं ले जाऊँगा। पर सामना बिल्लू से हुआ था, जिसने उसे क़मीज़ से पकड़कर नीचे उतारा। लाश को बग्गी में रखा। बग्गीवाला कुछ न कहकर दीवार की तरह मौन रहा। आख़िर बग्गी में मस्जिद तक पहुँचे। बिल्लू के पास पैसे नहीं थे। मेरी भी तंगी थी, क्योंकि महीने की आख़िरी तारीख़ें चल रही थीं। कफ़न-दफ़न का ख़र्च कहाँ से आए?
“बिल्लू, अब क्या होगा?”
“साईं ये काले धंधे वाले,” सीमेंट की बनी खड़ी इमारत की ओर इशारा करते हुए कहा, “हमारे ही पैसों से धनवान बने हैं। आज हमारी मौत पर उन्हें पैसे देने ही होंगे।” मुझे लाश के पास खड़ा करके, ख़ुद सीमेंट वाली इमारत में घुस गया। थोड़ी देर के बाद लौट आया। इसके एक हाथ में दस-दस के दो नोट थे और दूसरे हाथ में खुला हुआ चाकू।
“बिल्लू यह चाकू!”
“साईं, पहले तो वे आनकानी करते रहे, मगर इसे देखकर राह पर आ गए।”
जैसे ही छुट्टियाँ ख़त्म हुईं, मैं कराची चला गया। लौटने पर बहुत उत्सुक था कि बिल्लू से मिलूँ। जब झाँगिया की कैबिन के पास पहुँचा तो देखा वहाँ बिल्लू न था। झाँगिया ने बताया कि बिल्लू मकरान चला गया है।
“क्यों?” मैंने तत्परता से पूछा।
“साईं,” सीमेंट की इमारत की ओर इशारा करते हुए कहा, “सेठ साहब ने बिल्लू को गुंडा एक्ट के तहत निर्वासित घोषित करा दिया।”
मैं सोच में पड़ गया। क्या बिल्लू सचमुच गुंडा था?
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