याद कर रहे हैं बस, वो लज़्ज़त-ए-आह-ए-सहर-गही
संजय कवि ’श्री श्री’गुमनाम, बदनाम, ज़िन्दगी चाहे जहाँ, जैसे रही,
दर्द पे भारी पड़ी, कशिश उनकी जो हमने सही।
बेशक निकल नहीं पाये हों, बचकाने ख़्याल से,
और बात भी उनकी भूली नहीं हो, मुद्दतों पहले कही।
मग़र कोई ये ना समझे, कि हम कहीं मायूस हैं,
याद कर रहे हैं बस, वो लज़्ज़त-ए-आह-ए-सहर-गही।
लज़्ज़त-ए-आह-ए-सहर-गही = प्रातःकाल में भोगी आह का आनन्द
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