प्रांत-प्रांत की कहानियाँ

प्रांत-प्रांत की कहानियाँ  (रचनाकार - देवी नागरानी)

सराबों का सफ़र

उर्दू कहानी

मूल लेखक: दीपक बुड्की

 

मुझे वह दिन याद आ रहा है जब मैं चंडीगढ़ जाने के लिए जम्मू के बस स्टैंड पर खड़ा था। मेरे सामने एक हॉकर गला फाड़-फाड़कर चिल्ला रहा था, “आज की ताज़ा ख़बर . . . आज की ताज़ा ख़बर . . . राहुल गाँधी ने दलित की झोपड़ी में रात गुज़ारी और उसके साथ ही रात को खाना भी खाया।”

मेरी हैरानी की कोई हद न रही। समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसे रईसज़ादे ने, जिसकी तीन पीढ़ियों ने हिंदुस्तान पर हुकूमत की थी, झोपड़ी में कैसे रात गुज़ारी होगी . . .? उसने रात भर मच्छरों और खटमलों से कैसे मुक़ाबला किया होगा? और फिर सूखी रोटियाँ, दाल और सब्ज़ी कैसे खाई होंगी? यह माना कि आज़ादी के बाद हमने लोकतंत्र को गले लगाया है, अपनी हुकूमतें ख़ुद ही चुन ली हैं, मगर आज भी हम राजा-महाराजाओं के सामने सर झुका कर चलते हैं और ‘हुकुम हुकुम’ कहते हुए हमारी ज़ुबान नहीं थकती। 

ख़ैर तजुर्बा कामयाब रहा। ग़रीबों की परेशानियों और समस्याओं का अंदाज़ा लगाने के लिए यह तरीक़ा फ़ायदेमंद साबित हुआ। भरी लोकसभा में कलावती और उसके क़समनामे का बयान ऐसे मनभावन अंदाज़ में पेश किया गया कि लोग क़ायल हो गए और सभी अपने ज़ख्मों को कुत्तों की तरह चाटते रह गए। इधर आम आदमी की हालत को सुधारने के लिए सब पार्टी वर्कर जुट गए। 

अख़बार ख़रीद कर मैं चंडीगढ़ वाली बस में बैठ गया। अभी बहुत सारी सीटें ख़ाली थीं। मैं उसी इंतज़ार में था कि कब गाड़ी भर जाए और चंडीगढ़ की तरफ़ रवाना हो। मेरा उसी रोज़ वहाँ पहुँचना ज़रूरी था, क्योंकि दूसरे रोज़ वोटर पहचान कार्ड बनवाने की आख़िरी तारीख़ थी। मैं उस बुनियादी हक़ से वंचित नहीं होना चाहता था। 

सामने वाले दरवाज़े से दस-ग्यारह बरस का लड़का कंधे पर पानी की बोतलों का झोला लटकाए अंदर दाख़िल हुआ और ‘ठंडा पानी, ठंडा पानी’ कहता हुआ बस के पिछले दरवाज़े की तरफ़ बढ़ता चला गया। 

“क्या ज़माना आया है बेटे। पहले तो हर स्टेशन पर साफ़-शफ़ाक़ पीने का पानी नलों में मुफ़्त प्राप्त होता था। अब तो पानी की भी क़ीमत वसूली जा रही है। कौन जाने कब हवा पर भी पहरे बिठाए जाएँगे। मालूम है बेटे, मेरी पहली तनख़्वाह बारह रुपये थी। उतनी ही जितनी आज इस बोतल की क़ीमत है,” बग़ल में बैठा हुआ बुज़ुर्ग आदमी मुझसे मुख़ातिब हुआ। 

“अंकल आप किस ज़माने की बात कर रहे हैं। यह भी तो सोचिए कि आज मामूली से मामूली क्लर्क की आमदनी 15000 से कम नहीं होती। मेट्रिक फ़ेल क्रिकेट खिलाड़ी भी साल भर में दो-चार करोड़ कमाता है। फ़िल्म एक्टर, मॉडलों, टीवी आर्टिस्टों एक्टरों, न्यूज़ पढ़नेवालों, और बिज़नेस मैनेजरों की तो बात ही नहीं। उनकी आमदनी का तो कोई हिसाब ही नहीं। आमदनी इतनी ज़्यादा बढ़ गई तो ज़रूरी है कि क़ीमतें भी बढ़ जाएँगी,” मैंने बूढ़े आदमी की झुर्रियों वाले चेहरे का मुआइना लेते हुए जवाब दिया। 

“आमदनी तो नौकरी करने वालों की बढ़ गई बेटे। किसानों, मज़दूरों और ठेले वालों का क्या? फिर उन लोगों को भी तो देखो जो कभी एक मिल में काम करते हैं और कभी दूसरी मिल में। कभी हड़ताल के सबब नौकरी छूट जाती है और कभी लॉक आउट की वजह से। बेटे मेरी तरफ़ देखो, मुझे न पेंशन मिलती है और न ही महँगाई भत्ता। बच्चे रोज़ी रोटी की तलाश में दूसरे शहरों में जा बसे। ख़ुद अपना पेट नहीं पाल सकते, मेरी मदद कैसे कर सकेंगे?” 

मैंने बहस को बढ़ावा देना मुनासिब न समझा। इसलिए अख़बार खोलकर काली लकीरों के भेद जानने में व्यस्त हो गया। अनकही बातों के धोखे से निकल कर चुप हो गया। 

जानी-पहचानी बस की इंजिन की आवाज़ मेरे कानों तक आने लगी और आहिस्ता-आहिस्ता तेज़ तर होने लगी। मेरी टाँगों में अजीब तसल्ली देने वाला अहसास पैदा होने लगा। चंद मिनटों में गाड़ी फर्राटे भरती हुई चंडीगढ़ की तरफ़ रवाना हो गई। 

बरबस मेरी नज़र सामने वाली सीट पर बैठी औरत पर पड़ी जिसका चेहरा जाना-पहचाना-सा लग रहा था। उसको देखकर मैं इतना ख़ुश हुआ जितना कोई छोटा बच्चा खिलौना देखकर हो जाता है। 

“अरे सुभद्रा तुम . . . तुम यहाँ कैसे?” 

“मैं पंचकुला अपने ससुराल जा रही हूँ। और तुम . . . तुम यहाँ कैसे?” 

“मैं दो साल से चंडीगढ़ में नौकरी करता हूँ। उससे पहले कटक उड़ीसा में पदस्थापित था।”

“सच, मुझे तो मालूम ही नहीं . . .”

सुभद्रा ने मुस्कुराते हुए बग़ल में बैठे हुए आदमी से अनुरोध किया कि वह मेरे साथ सीट बदल ले। वह आदमी चेहरे पर इच्छित मुस्कुराहट का ताब न लाकर यकायक खड़ा हो गया, और अपनी सीट ख़ाली कर दी। एक ज़रा सी मुस्कुराहट ने उसके इरादों पर पानी फेर दिया। 

“सुभद्रा, लगता है तुम माता के दर्शन करने गई थी।”

“हाँ मन्नत जो माँगी थी, तो उसे पूरा करने चली गई थी।”

“कैसी मन्नत . . .?” 

“कैलाश, तुम्हें तो मालूम ही है कि मेरी शादी एक सियासी ख़ानदान में हुई थी। तुम से बिछड़ने के बाद मैं पूर्ण रूप से सियासत बन गई। 

“ससुर जी पंजाब गवर्नमेंट में 10 साल मिनिस्टर रहे। घर में हमेशा दौलत की रेल-पेल रही। नौकर-चाकर, गाड़ी-बँगला सब कुछ उपलब्ध था। अगर कहीं कोई सूनापन था तो वह मेरी गोद में था। मेरे शौहर अपनी रंगरलियों में मस्त रहते, मगर मुझे हरदम खटका रहता कि कहीं किसी दिन वे मुझे छोड़कर दूसरी शादी न कर लें। इसलिए मैंने यतीम खाने से एक बच्चा गोद ले लिया, मगर उसकी रगों में न जाने किस नीच कुल का ख़ून दौड़ रहा था। उसने तो मेरी नाक में दम कर रखा है। अड़ोस-पड़ोस के सब लुच्चे-लफ़ंगे उसके दोस्त बन चुके हैं। पढ़ाई में उसका मन ही नहीं लगता। आधे सेशन के बाद ही कॉलेज जाना बंद कर दिया। बाप ने बिज़नेस में डालने की कोशिश की, वहाँ भी नाकाम रहा। भगवान का शुक्र है कि अब तक जेल की हवा नहीं खाई। बाप ने कई बार उसे पुलिस थाने से छुड़वा लिया। इसीलिए मैंने वैष्णव माता से मन्नत माँगी कि आने वाले इलेक्शन में उसे पार्टी की टिकट मिल जाए तो मैं साधारण शहर वालों की तरह उसके दरबार में हाज़री दूँगी।”

“तुम्हारा मतलब है कि उसे पार्लिमेंट इलेक्शन के लिए पार्टी में सीट मिल गई?” 

“हाँ, किशोर के पिताजी ने उच्चतम अधिकारी से साफ़-साफ़ कह दिया कि अगर मेरे बेटे को सीट न दी गई तो वह पार्टी के लिए काम नहीं करेगा। पार्टी मजबूर थी, क्योंकि पंजाब में उनकी साख दाव पर लगी हुई है।”

“लेकिन सुभद्रा उसको पार्टी की सीट मिली है न कि उसका चुनाव हो चुका है। अभी तो असली पड़ाव पार होना बाक़ी है।”

“ऐसा नहीं है कैलाश। वह पंजाब यूथ ब्रिगेड का सदस्य है। मेरे पति श्याम चौधरी ने अपनी सारी ताक़त इलेक्शन में लगा दी है। रुपया-पैसा, आदमी जो कुछ भी उसके पास है सब दाँव पर लगा दिया है। एक बार किशोर के पाँव सियासत में जम जाएँ तो फिर कोई परेशानी नहीं रहेगी।”

“सुभद्रा, परेशानियों के बारे में कोई कुछ नहीं कह सकता। इनका कोई अंत नहीं होता। ख़ुद अपनी तरफ़ ही देखो। माँ-बाप ने यह सोच कर शादी की थी के अमीर घराने में वारे-न्यारे हो जाएँगे। फिर यह रिक्तता, यह सूनापन कहाँ से उदित हुआ।”

“तुम सच कहते हो, परेशानियों का कोई अंत नहीं होता। बाहर से यह सब सियासतदान कितने ख़ुश नज़र आते हैं, मगर इनकी जाति ज़िन्दगी में झाँको तो हैरत होती है। किसी की लड़की भाग जाती है और किसी की बहू ज़हर खा लेती है, किसी का बेटा नशा करते हुए पकड़ा जाता है और किसी का भाई गुंडागर्दी के परिणामस्वरूप जेल की हवा खाता है।”

“सुना है उच्चतम अधिकारी ने हुक्म दिया है कि सारे उम्मीदवार अपने परिधि में ख़ास-तौर पर आम लोगों के साथ रहकर उनकी कठिनाइयों के बारे में फ़र्स्ट हैंड मालुमात हासिल करेंगे। उनकी झोपड़ियों में दो-चार दिन गुज़ार कर उनके साथ का तजुर्बा हासिल करेंगे।”

“तुमने ठीक सुना है लेकिन इस से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। दो-चार रोज़ में कौन-सा पहाड़ टूट जायेगा। उम्मीदवार हुक्म की तामील ज़रूर करेंगे मगर साथ में जंगल में मंगल मनाएँगे। उनके लिए पहले ही खाने-पीने का इंतज़ाम किया जाएगा, बस्तियों में बिसलरी की बोतलें पहुँचा दी जाएँगी। जिन झोपड़ियों में रहना होगा वहाँ अच्छे बिस्तर का इंतज़ाम किया जाएगा, मच्छरदानियाँ लगाईं जाएँगी, मच्छर मारने की दवाई छिड़की जाएगी। बिजली न हो तो जेनरेटर से टेबल फ़ैन चलाए जाएँगे। बस दो-चार दिन यह असुविधा उठानी ही पड़ेगी, फिर 5 साल ऐश करो। एयर कंडीशन मकानों में रहो, एयर कंडीशन गाड़ियों में घूमो, फ़ाइव स्टार होटलों में खाना खाओ और ग्रीन टर्फ में गोल्फ़ खेलो।”

“यह सब इंतज़ाम कौन करेगा?” 

“‘कौन करेगा? ज़िला अधिकारी तब तक करेंगे जब तक इलेक्शन का एलान नहीं होगा। एलान हो गया तो पार्टी वर्कर इतने बेवक़ूफ़ तो होते नहीं कि ये छोटे-मोटे प्रबंध नहीं करवा सकेंगे।”

“मदिरा-पान का भी इंतज़ाम होगा क्या?” 

“नहीं यह मुमकिन नहीं। कुछ मान मर्यादा भी तो होती है। माना कि मौजूदा नस्लें गाँधी जी के नाम से भी वाक़िफ़ नहीं है, पब्लिक स्कूलों में सिर्फ़ जींस (jeans) और जैज़ (jazz) से परिचित हुई हैं, एयर कंडीशन कारों में सफ़र करती हैं, सारी रातें क्लबों में भेंट करती हैं, फिर भी सियासत में रहना है तो जनता को प्रभावित करने के लिए कुछ गांधीयाई ढब तो सीखने ही पड़ेंगे।”

“तुम्हारी बातों में दम है सुभद्रा। गाँधी और उस के उसूल उस नस्ल के लिए सिर्फ़ खिलौने हैं, जिनसे वो आम आदमी को बेवक़ूफ़ बना सकते हैं। अलबत्ता मुझे तुमको देखकर हैरत हो रही है, कहाँ वह आदर्शवादी सुभद्रा और कहाँ यह अवसरवादी मिसेस चौधरी।”

“कैलाश, आदमी को ज़माने के साथ बदलना पड़ता है वर्ना ज़माना उसको रौंद कर चला जाता है। मैंने अपनी ग़ुरबत से तंग आकर अपने तन-मन का सौदा कर लिया। तुम को छोड़ कर मिसेज़ श्याम चौधरी बन गई। अब मैं उसी ग़ुरबत को फिर से गले नहीं लगाना चाहती।”

“सुभद्रा मुझे तुम्हारे वो महान आदर्श याद आ रहे हैं। तुम रवींद्रनाथ टैगोर को अपना आदर्श मानती थी। तुम्हारे कमरे में जहाँ नज़र पड़ती थी वहाँ गुरुदेव की तस्वीर लगी होती थी। तुमने बार-बार दर्शकगण को रवींद्र संगीत से बहुत प्रसन्न किया। कभी छाँव में बैठकर गीतांजलि के छान्दोपद सुनाया करती थी। कैसे कैसे ख़्वाब बुने थे तुमने और अब यह सब क्या है?” 

“अपना मन मार कर बिल्कुल बदल गई हूँ। अब यही ख़्यालात मेरा ओढ़ना-बिछोना है। उन्हीं के सहारे मुझे बाक़ी सफ़र भी तय करना पड़ेगा। मेरी ज़िन्दगी से संगीत विलीन हो चुका है। अब उन विचारों में कहीं कोई सराब भी नज़र नहीं आता।”

रास्ते में गाड़ी कई बार रुकी। कभी नाश्ते के लिए और कभी लंच के लिए हम दोनों नज़दीकी रेस्टोरेंट में बैठते ही एक-दूसरे का जाँच-परख लेते हुए न जाने किन ख़्यालों में गुम हो जाते। लग रहा था कि हम दोनों बचपन के वो लम्हे दोबारा जी रहे हैं, जो हमसे क़िस्मत ने छीन लिए थे। 

बातों-बातों में न जाने कब हम चंडीगढ़ पहुँच गए। वक़्त गुज़रने का कोई एहसास भी न हुआ। एक बार फिर हमने एक दूसरे को नम आँखों से अलविदा कहा। 

चार महीने के बाद इलेक्शन के नतीजे निकलने वाले थे। जब कि सुभद्रा की याद अभी मेरे दिल में ताज़ा थी, इसलिए मैं टीवी पर इलेक्शन के नतीजों का शिद्दत से इंतज़ार करने लगा। सुबह 7:00 बजे वोटों की गिनती शुरू हुई। 11:00 बजे से परिणाम आने शुरू हो गए। किशोर चौधरी अपने प्रतिद्वंद्वियों से कभी आगे निकल जाता और कभी पीछे रह जाता। वक़्त के साथ-साथ मेरी जिज्ञासा भी बढ़ने लगी। आख़िरकार दिन के 2:00 बजकर 10 मिनट पर उसके नतीजे का एलान हुआ। किशोर चौधरी जीत का परचम लहराता हुआ मेम्बर पार्लिमेंट बन गया। 

उधर पार्लिमेंट के अहाते में पलथी मार कर सुकून से बैठा हुआ महात्मा गाँधी का पुतला बेसब्री से नई नस्ल के गांधियों का इंतज़ार कर रहा था। 

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