प्रांत-प्रांत की कहानियाँ

प्रांत-प्रांत की कहानियाँ  (रचनाकार - देवी नागरानी)

कर्नल सिंह


पंजाबी कहानी 

मूल लेखक:बलवंत सिंह

 

सिख जाट की दो चीज़ों में जान होती है ‘उसकी लाठी और उसकी सवारी की घोड़ी या घोड़ा।’ अगर ये चीज़ें चोरी हो जाएँ तो उन्हें तलाश करने में ज़मीन-आसमाँ एक कर देता है। अगर कोई जाट से उसकी यह चीज़ें छीनने की कोशिश करे तो वह मरने मारने पर आमादा हो जाता है। अगर दुश्मन भारी पड़े और उसकी ये चीज़ें छिन जाएँ तो वह चुल्लू भर पानी में डूब मरता है। 

कर्नल सिंह के साथ यह एक पहेली क़िस्म का हादसा पेश आया था। उसकी ख़ूबसूरत तेज़ भागने वाली घोड़ी चोरी हो गयी थी। वह लंबी चौड़ी बाड़ियों का ज़मींदार था, किसी की क्या मज़ाल कि उससे मुक़ाबला करके घोड़ी छीन ले जाता। घोड़ी चोरी चले जाने पर उसकी आँखों में ख़ून उतर आया लेकिन वह लाचार था। 

चार-पाँच दिन गुज़र गए। उसने मुझसे इस हादसे के बारे में कुछ नहीं कहा। हालाँकि मैं उसका नौकर था और वह मुझसे बेहद बुरी तरह पेश आता था, फिर भी वह अहम मामलों में अक़्सर मेरी सलाह लेता था। 

वही बात हुई, सुबह का वक़्त था। मैं गाँव से आधा कोस दूर तबेले के क़रीब लगे हुए कोल्हू में सरसों पीस रहा था कि फत्ता खाँसता हुआ मेरे पास आकर बोला, “तबेले में सरदार तुझे बुला रहा है।” 

मैं असल मामला भाँप गया। मैं अभी तक सोच नहीं पाया था कि अगर वह घोड़ी के बारे में पूछे तो मेरा मशवरा क्या होना चाहिए? यूँ भी मैं उसके सामने जाने से कतराता था क्योंकि वह गाली-गलौच के बिना बात नहीं करता था। कभी मुझे बहुत ताव भी आता तो ख़ून का घूँट पिए बग़ैर कोई चारा नज़र नहीं आता था। उसका मुक़ाबला करना बेकार था। आख़िर शेर और बकरी का मुक़ाबला भी क्या? अगर नौकरी छोड़ देता तो मेरा लायलपुर या उसके आसपास में टिकना नामुमकिन हो जाता और अगर अपने गाँव ज़िला लुधियाना में जा बसूँ तो रोज़ी का सवाल हल नहीं हो सकता था। फत्ते की बात सुनकर भी उठने को जी नहीं चाहा, क्योंकि सुबह की ठंडी धूप में दिल को बड़ा सुकून महसूस हो रह था। लेकिन उठना ही पड़ा। कौन सरदार के मुँह लगे?         

मैंने फत्ते से कहा कि वह मेरी जगह बैठकर ज़रा बैल हाँकता रहे, मगर फत्ता बोला कि वह उस वक़्त खेतों पर जा रहा है, मैंने ज़ोर देकर कहा, “ले थोड़ी देर तो बैठ, मैं तबेले से लड़के को भेज दूँगा फिर चले जाना।” वह बैठ गया और पगड़ी उतारकर उसी के पट्टे पर हाथ फेरने लगा और फिर पगड़ी झाड़ कर उसे शान से सर पर लपेटने लगा। 

मैं तबेले के लम्बे चौड़े सहन में दाख़िल हुआ, कर्नल सिंह बड़े छकड़े की मरम्मत कर रहा था। दूसरे दिन घर की औरतें मेले में जाने वाली थीं, उसी सिलसिले में तैयारी हो रही थी। मिस्त्री अनवर उलटी तरफ़ से पहिए की ठुकाई कर रहा था और सरदार उसे बड़े ध्यान से देख रहा था। मैंने क़रीब पहुँचकर दोनों हाथ जोड़ कर कहा ‘सत श्री अकाल सरदार जी’, उसने मुझे कुछ जवाब नहीं दिया और न मेरी तरफ़ देखा। बल्कि यूँ मालूम होता था जैसे उसे मेरी मौजूदगी का एहसास तक न रहा। 

काफ़ी देर तक मैं हाथ पीठ पीछे बाँधे खड़ा रहा और सरदार की तरफ़ देखता रहा। वह पैंतालीस बरस के ऊपर हो चुका था। कुछ बाल ज़रूर पक गए थे, लेकिन उसके ज़िस्म के वज़न बराबर कहीं कमज़ोरी दिखाई नहीं देती थी। चौड़े नथुनों वाला मर्दाना नाक, होंठ भरपूर, दाढ़ी और सिर के बाल घने, रंग तपते हुए तांबे के समान। मैं उसके बड़े-बड़े हाथ और चौड़ी कलाइयाँ देखते हुए दिल में सोचने लगा कि काश! मैं उससे भी दुगने डील-डौल का मालिक होता तो उसे गेंद की तरह उछाल कर परे फेंक देता। यह सँभलने भी न पाता कि मैं अपना भारी भरकम बाज़ू उठाकर वह हाथ देता कि गर्दन मुड़ जाती, पगड़ी परे जा गिरती और उसका सर कचरे में धँस जाता। अगले चारों दाँत टूट जाते और नथुनों से ख़ून बहने लगता। मैंने यहीं तक नक़्श खींचा था कि सरदार अपनी मटके जैसी हलक़ से भारी आवाज़ निकाल करके बोला, “ओए भूतिया।” 

“जी सरदार जी,” मैंने हाथ जोड़कर जवाब दिया। 

वह मुझे हमेशा इसी नाम से पुकारता था। मेरे सर के बाल खड़े हुए क़ाबू में नहीं आते, दाढ़ी और मूछों के बाल भी अड़े-अड़े से रहते थे। मेरी यही हालत मद्देनज़र रखते हुए उसने एक रोज़ कहा, “ओए, तेरा नाम तो भूत सिंह होना चाहिए।” अब आप ही सोचिये भूत और भूतिया में कितना बड़ा फ़र्क़ है। 

“भूतिया, घोड़ी का पता नहीं चला?” मुझे कोई मुनासिब जवाब नहीं सूझा। अब तक मेरे ज़हन में कोई तरकीब नहीं आई थी। मुझे चुप देखकर सरदार बोला, “ओए बोलता क्यों नहीं भूतिना।” अब भूतिया से भूतिना बना दिया गया। 

मैंने हड़बड़ाकर सवाल किया, “आप ने थाने में रिपोर्ट नहीं लिखाई?” 

“भूतने वाह!” वह मेरी तरफ़ देखे बग़ैर हँसा, “पुलिस क्या कर लेगी? अगर मैं किसी की घोड़ी लाकर अपने तबेले में बाँध लूँ तो बता, पुलिस क्या कर लेगी? और फिर पुलिस को ख़बर करना क्या मर्दों का काम है? भूतिया! भूतिया, ओए भूतिने दा।” सच-सच गाली देने में सरदार को यह फ़न हासिल था। 

जैसे मैंने ऊपर लिखा है, सरदार अक़्सर ऐसे मामलों में मुझसे सलाह मशवरा करता था लेकिन मुझे ऐसा टेढ़ा मामला पहले कभी हल करना नहीं पड़ा था। लायलपुर के इलाक़े में इन दिनों चोर-डाकुओं की कमी नहीं थी। उस ज़माने में मुसलमान ख़ानाबदोश भी पाए जाते थे, जिनके मर्द बड़े रमणीय और औरतें बड़ी हसीन होती थी। इनका बस चले तो हाथ मार जाने में देर न करें। और ‘पहर बार’ का इलाक़ा भी क़रीब ही था, जहाँ के सिख इनसे भी बढ़े-चढ़े थे। वहाँ एक से एक धाकड़ मौजूद थे। कौन जाने इस काम में किसका हाथ था? दो बातें साफ़ ज़ाहिर थीं-अव्वल यह, कि घोड़ी का चोर शौक़ीन मिज़ाज था, वरना घोड़ी के अलावा और जानवर भी हाँक कर ले जाता। दूसरी बात यह कि चोर कोई मामूली आदमी नहीं था। कर्नल सिंह की इलाक़े भर में शोहरत थी और हर शख़्स पर उसकी धाक बैठी हुई थी। ऐसे में उस की घोड़ी चुराने का काम मामूली इन्सान का कारनामा हो ही नहीं सकता था। 

कुछ देर तक ख़ामोशी जारी रही। मिस्त्री के हथोड़े की ठक-ठक गूँजती रही, लेकिन, जब छकड़े की मरम्मत हो चुकी तो सरदार ने धीरे से मेरी गर्दन पंजे में दबोची और एकान्त में ले जाकर बोला, “यह काम किसी बड़े हरामज़ादे का है।” 

“हाँ जी, आप ठीक कहते हैं,” मैंने गले में फँसी हुई आवाज़ मुश्किल से बाहर निकालते हुए कहा। 

सरदार कुछ देर तक मेरी आँखों में आँखें डाले रहा, फिर बोला, “मामला टेढ़ा है इसलिए किसी टेढ़े आदमी की मदद से यह गुत्थी सुलझ सकती है, समझे?” 

मेरा गला बिलकुल ख़ुश्क हो रहा था हालाँकि मैंने कुछ कहे बग़ैर उस बात पर सर हिला दिया। 

सरदार की भारी आवाज़ गूँजी, “कल मेले में जाकर आँखें खुली रखोगे तो कोई न कोई असली हरामज़ादा तुम्हें नज़र आ ही जाएगा। जो काँटे पर पूरा उतरे उससे सौदा हो सकता है। ऐसे आदमी को, जो घोड़ी ले आए, मैं पाँच सौ रुपए इनाम देने को तैयार हूँ और अगर हरामज़ादे चोर का पता मिल सके तो पाँच सौ और इनाम दे सकता हूँ। बस एक बार चोर मेरे चंगुल में आ जाए तो साले की गर्दन मरोड़ दूँ ताकि आगे सबक़ो सबक़ मिल जाए, समझे?” 

अब मैंने बड़ी मुश्किल से जवाब दिया, “जी समझा।” मैं जानता था कि अब के भी मैंने फ़क़त सिर हिलाया तो गालियों की बौछार सहनी पड़ेगी। 

सरदार ने आख़िरी बार अपनी उँगलियाँ मेरी गर्दन पर और कसकर कहा, “भूतिया, यह काम जैसे भी हो करना होगा।” 

दूसरे दिन घर की औरतें और कुछ बिरादरी की औरतें, लड़कियाँ और बच्चे छकड़ों पर लद गए और मैं एक घोड़ी पर सवार हो गया। इस शान से हमारा क़ाफ़िला मेले रवाना हुआ। 

अहा! पंजाब के मेले भी कैसे प्यारे होते हैं! जंगल में मंगल का समां हो जाता है, दूर-दूर तक ख़ेमे लग जाते हैं। मिट्टी के रास्तों पर ख़ूब छिड़काव होता है। नाच-रंग, गाना बजाना, हर तरह की रौनक़ नज़र आने लगती है। रात के समय सैंकड़ों बल्बों की रोशनी में दुकानें अपनी बहार अलग ही दिखाती हैं। इन दुकानों पर सजने सँवरने का हर सामान मिल जाता है। 

यह मेला जिसका मैं ज़िक्र कर रहा हूँ, छः-सात दिन तक लगता था। हमारा प्रोग्राम भी चार-छः दिन तक रहने का था। इसलिए हम अपना ख़ेमा, आटा, दाल, घी और ईंधन वग़ैरह सबक़ुछ अपने साथ ले गए थे। चूँकि सरदार के घराने के लिये कई लोग हमराह थे, इसलिए हमारे ख़ेमे में ख़ासी चहल-पहल रहती थी। सबसे ज़्यादा रौनक़ सरदार की सबसे बड़ी लड़की लाल कौर की वजह से थी। उसे सब अक़्सर लाली के नाम से पुकारते थे। अपनी जवानी और हुस्न के बावजूद वह अपने बाप से कम शोहरत नहीं रखती थी। 

मेला क्या था, जंगल में एक छोटा-सा नगर बस गया था। मसालेदार चाट और मिठाइयों की दुकानें तो क़दम-क़दम पर मौजूद थीं। कहीं जयपुर और भरतपुर के तमाशाइयों के कमाल-करतब, कहीं हीर-रांझे का क़िस्सा सोज़ भरी आवाज़ में गाया जाता, कहीं क़व्वालियों पर झूम-झूम कर लोग सर घुमाते, कहीं बोलियाँ-ठोलियाँ। 

अब के मेले में जो नई चीज़ देखने में आई वह था बोलता-चलता-फिरता बाइस्कोप। मैंने शहर के कई बाइस्कोप देखे थे जिनके मुक़ाबले यह बिलकुल निराला था। फिर भी इन्हें देखने के लिये शहर जाने का मौक़ा कम मिलता था। यह एक ही आश्चर्यजनक चीज़ थी। तारों भरा आसमान, उस बाइस्कोप की छत, चारों तरफ़ शामियाने-सा घेरा, पर वह यूँ दिखाई देता था जैसे कई धोतियाँ सीकर बनाया गया हो। एक झोंपड़ी में मशीन रखी थी। बाहर टिकट नहीं बिकते थे सिर्फ़ चार आने नगद देने पर आदमी को ज़मीन पर बैठने की इज़ाज़त होती थी और आठ आने देकर आदमी बग़ैर बाज़ुओं वाली लोहे की कुर्सी पर बैठ सकता था। खेल शुरू होने का कोई निश्चित वक़्त नहीं था। जब काफ़ी लोग जमा हो जाते थे तो खेल शुरू हो जाता, मशीन एक थी इसलिए हर दस-बारह मिनट बाद कुछ मिनट का इन्टरवल-सा हो जाता। 

एक शाम घर के सब लोगों ने बाइस्कोप देखने की ख़्वाहिश का इज़हार किया। इसलिए रात के खाने के बाद हम लोग रवाना हो गए। हम सब आठ आने की कुर्सियों पर जा बैठे। काफ़ी देर इन्तज़ार करने के बाद खेल शुरू हुआ। दो रील हो चुके तो मैंने देखा कि तीन-चार जवान बड़े बेधड़क से अंदर दाख़िल हुए और कुर्सियों पर बैठ गए। यह मालूम होने पर भी कि दो रील चल चुकी थी, उन्होंने गला फाड़-फाड़ कर आवाज़ें लगानी शुरू की। मालिक आया तो उसने खेल फिर से शुरू करने के लिये कहा। 

कुछ लोग ख़ुश थे कि उनके दाम फिर से वसूल हो रहे हैं। 

यह माजरा देखकर मैं ज़रा चौकन्ना हो गया। उनमें से कुछ दूर बैठे थे और कुछ रोशनी कम होने की वजह से पहचानने में नहीं आ रहे थे। लेकिन एक बात साफ़ थी कि वे धाकड़ लोग थे क्योंकि हर ऐरे-ग़ैरे के कहने पर खेल फिर से शुरू नहीं किया जाता था। 

मैं पिछले तीन रोज़ से अपने मालिक के कहे अनुसार ऐसे आदमी को ढूँढ़ता रहा, जो हमारे काम आ सके लेकिन अभी तक मुझे उसमें कामयाबी हासिल नहीं हुई थी। अब मैंने तय किया कि इन जवानों का पीछा ज़रूर करूँगा। मुमकिन है, इनमें से कोई काम का आदमी मिल जाए। 

शो ख़त्म होने के बाद बाहर मैंने गैस की तेज़ रोशनी में देखा, तब मुझे यक़ीन हुआ कि वह असली धाकड़ जवान है। यूँ तो सबके सब नौजवान लम्बे-तगड़े, मज़बूत और धाक्कड़ थे, लेकिन उनमें से एक ख़ास तौर पर मेरी नज़र में जंच गया। वह अपने साथियों में न सिर्फ़ सबसे ताक़तवर दिखाई पड़ा बल्कि बातचीत करने के ढंग से भी होशियार मालूम होता था। 

मैं मौक़ा पाकर बातों बातों में उसे टटोलना चाहता था। कुछ दूर जाने के बाद उनका गिरोह एक दुकान पर रुक गया। उसी वक़्त यकायक उस नौजवान ने इधर-उधर नज़र दौड़ाई। दूर से पेड़ की ओट से एक औरत की झलक दिखाई दी और वह अपने साथियों से विदा लेकर उधर चल दिया। मैं भी बीच में कुछ फ़ासला रखकर उसके पीछे-पीछे हो लिया। वे दोनों खेतों में बने हुए लोहे की एक सीट के क़रीब पहुँचकर रुक गए। मैं पौधों की ओट में लम्बा चक्कर काट कर उन के क़रीब पहुँचा ताकि उनकी बातें सुन सकूँ। लेकिन वह इतनी धीमी आवाज़ में बोल रहे थे कि कुछ समझना मुमकिन न था। मैं धुँधली रोशनी में आँखें फाड़-फाड़ कर देख रहा था। औरत या लड़की मेरी तरफ़ पीठ किये खड़ी थी। कुछ देर बाद जब उसने मुँह फेरा तो मेरे गले से चीख़ निकलते-निकलते रह गई। वह लाली थी। 

अजीब बात थी, आख़िर इनकी मुहब्बत कब शुरू हुई? यह ज़रूर नया-नया प्रेम था क्योंकि अगर खिचड़ी पक रही होती तो अब तक यह बात मशहूर हो गई होती। अगर उस नौजवान का हमारे गाँव में आना-जाना रहा होता, मुझे ज़रूर पता चल जाता बल्कि सभी उसे जानने लगते। 

कुछ देर तक उनमें घुट-घुट कर बातें होती रहीं, फिर वह एकदम हाथ छुड़ा कर परे भाग गई और दूर से मुस्कराकर अँगूठा दिखाने लगी। नौजवान भी मुस्कुराता हुआ दूसरी ओर चल निकला। मैं भी उसके पीछे हो लिया। 

चलते-चलते मेले में दाख़िल होने से पहले, वह एकदम रुका और घूम कर मेरी तरफ़ देखने लगा। मेरे लिये भाग निकलना या छुप जाना नामुमकिन था, इसलिए मैंने फ़ैसला किया कि उसकी तरफ़ ध्यान दिये बग़ैर पास से गुज़र जाऊँगा। जब उसके सामने पहुँचा तो उसने अपनी लंबी लाठी आगे बढ़ाकर मेरा रास्ता रोक दिया। मैंने झुकी हुई आँखें धीरे-धीरे ऊपर उठाईं। कुछ देर की चुप्पी के बाद वह बोला, “क्यों उस्ताद यह हमारे पीछे हाथ धोकर क्यों पड़े हो? जाओ अपना काम करो। या, अगर अपनी ज़िन्दगी से तंग आ चुके हो तो बताओ, दूँ एक हाथ?”         

मैंने बात बनाकर जवाब दिया, “देखो सरदार, बिना वजह मुझे तुम्हारा पीछा करने की क्या ज़रूरत हो सकती है, लेकिन मैं फ़क़त उस लड़की की वजह से तुम्हारे पीछे लगा रहा।” 

उसके कान खड़े हो गए, “क्यों उस लड़की से तुम्हारा क्या मतलब है?” 

“क्या तुम जानते हो वह किसकी बेटी है?” 

“नहीं।” 

“ओए जिसके साथ प्रेम के झूले झूलते हो, उसके बारे में इतना भी नहीं जानते।” 

“ये तीन दिन की मुलाक़ात है। अभी इस तरह की कोई बात ही नहीं हुई। लेकिन तुम कौन हो?” 

“वह सरदार कर्नल सिंह की बेटी है और मैं उनका पुराना नौकर हूँ।”

वह लम्हें भर चुप रहा फिर खिल-खिलाकर हँस पड़ा। 

“अच्छा तो यह बात है। हाँ, कर्नल सिंह का नाम तो मैंने भी सुना है।” 

“ज़रूर सुना होगा, इलाक़े भर में उनकी धाक है।” 

उसने अपनी तनी हुई मूँछों को उँगली से छूते हुए कहा, “भाई तुम बड़े काम के निकले, आओ ज़रा ऊँटनियों का दूध पिलाएँ तुम्हें। वहीं खुलकर बात होगी।” 

हम दोनों साथ-साथ चल दिए। मैं ऐसे लम्बे-चौड़े आदमी के साथ क़दम-ब-क़दम चलते हुए डर महसूस कर रहा था कि कहीं ऐसा न हो कि एक हाथ दे और मैं यहीं पेड़ के तने के क़रीब ढेर हो जाऊँ। मगर वह ऐसा इंसान नज़र नहीं आता था। वह चाहता तो मुझे दिन दहाड़े ठिकाने लगा सकता था। 

मेले के एक सिरे पर पेड़ों के नीचे कुछ ऊँटनियाँ बिल-बिला रही थीं। इधर-उधर कुछ चारपाइयाँ बिछीं थीं। हम एक चारपाई पर बैठ गए। 

दूध पीकर उसने मूँछे साफ़ करते हुए कहा, “भई सच्ची बात यह है कि लाली ने तो मुझ पर जादू कर दिया है।” 

मैंने हिम्मत से काम लेते हुए जवाब दिया, “पर मैं साफ़ कह दूँ कि तुम आग से खेल रहे हो।” 

वह बेपरवाही से हँसा, “यह आग-वाग की धमकियाँ मत दो, सीधी बात यह है कि उस लौंडिया को अपनी जोरू बनाने का इरादा है मेरा। अब चाहे सीधे उँगली से घी निकले या टेढ़ी।” 

मैंने एक बार फिर उसे सिर से पाँव तक देखा, उसमें गबरू जवानों वाली भी ख़ूबियाँ थीं। मैंने धीरे से कहा, “देखो सरदार बहादुर, हम तो बस इतना चाहते हैं कि आदमी काम यूँ करे कि साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।” 

“चलो यूँ ही सही,” वह मुस्कराया। 

मैं कुछ देर तक चुपचाप सोचता रहा फिर पैंतरा बदलकर बोला, “अगर तुम हमारे सरदार जी का एक काम कर दो तो आम के आम और गुठलियों के दाम वाली बात हो जाए।” 

“वह कैसे?” 

“बात यह है कि हमारे सरदार जी की घोड़ी चोरी हो गई है, उसका अब तक कुछ सुराग़ नहीं मिला। अगर कहीं तुम उसे ढूँढ़ निकालो तो पाँच सौ रुपये इनाम पाओ, अगर चोर को भी पकड़वा दो तो पाँच सौ और मिलेंगे। उसके अलावा मुझे यक़ीन है कि वह इतने ख़ुश होंगे कि उन्हें तुम जैसे गबरू जवान से लाली का रिश्ता करने से भी इन्कार न होगा।” 

“यह बात है अच्छी,” वह सोच में डूब गया, फिर बोला, “पर है ज़रा टेढ़ी खीर।” 

“टेढ़ी को सीधी करना तुम्हारे बाएँ हाथ का खेल होना चाहिए।” 

“यह तो ठीक है लेकिन . . .!” 

“लेकिन क्या? मैं तुम्हें घोड़ी का हुलिया बताए देता हूँ।” 

“ . . . . . . . . . . . .” 

“आखिर तुम किस चक्कर में पड़े हो? काम मुश्किल है तो इनाम भी तो बड़ा है। अगर तुम्हें रुपये की परवाह नहीं तो लाली की परवाह तो है!” 

वह मेरी तरफ़ देखकर हँसा और कहने लगा, “मुझे और सब काम छोड़ कर यह काम करना होगा।” 

“अच्छा, हुलिया बताओ घोड़ी का,” मैंने घोड़ी का हुलिया और मालिक का पूरा पता बता दिया। 

सब कुछ सुनकर वह बोला, “यार यूँ लगता है कि यह घोड़ी मैंने कहीं देखी है।”

फिर वह उँगलियों से माथा दबाने लगा, फिर आहिस्ते से बोला, “अच्छा उस्ताद हाथ मिलाओ। मुझे उम्मीद है कि काम बन जाएगा।” 

मैंने उसके हाथ पर हाथ रखते हुए कहा, “क्यों कुछ याद आया?” 

“हाँ आया तो।”

“तो फिर कब तक उम्मीद रखी जाए।”     

“देखो उस्ताद! इलाक़े में एक से एक धाक्कड़ पड़े हैं, पर हम शेर की मूँछ के बाल उखाड़ लाने वाले आदमी हैं। बस! अब यह तय कर लिया है कि यह काम करके लाली को हासिल करूँगा। लेकिन याद रखो अगर लाली का मामला खटाई में पड़ गया तो तुम्हारी ख़ैर नहीं।”

“हाँ, हाँ बेशक। लेकिन मैं मालिक को क्या बताऊँ कि तुम कितने दिन के अंदर काम कर सकोगे।” 

उसने कुछ देर ग़ौर किया, फिर बोला, “अच्छा सिर्फ़ दस दिन की मुहलत रहेगी।” 

यह तय हो जाने पर इधर-उधर की बातचीत के बाद हम विदा हुए, मैं बेहद ख़ुश था। मेले से वापस आकर मैंने सरदार को बताया कि घोड़ी का पता लगाने के लिए एक बड़े धाकड़ को गाँठ आया हूँ। सरदार की ख़ुशी का ठिकाना न रहा। वह उस जवान की शक़्ल सूरत और डील-डौल के बारे में सवालात करने लगा। मैंने उसकी ख़ूब तारीफ़ की और यह भी कह दिया कि अगर लाली से उसका रिश्ता हो जाए तो जोड़ी ख़ूब रहे, लेकिन मैंने उन पर इश्क़ का राज़ नहीं खोला। यह सुनकर सरदार ने मुझे घूर कर देखा और गाली देते-देते रुक गया। ज़ाहिर था कि वह रज़ामंद ही था वर्ना उसके मुँह में लगाम कौन डाल सकता था? 

दिन गुज़रते गए। एक, दो, तीन यहाँ तक कि नौ दिन गुज़र गए और दसवां दिन आ पहुँचा। हम काफ़ी नाउम्मीद हो चुके थे। सरदार ने सुबह के वक़्त ही मुझे दो चार गालियाँ सुनाई लेकिन ज़्यादह करारी गालियाँ रात तक के लिए महफूज़ रखीं। 

आखिर वह आ पहुँचा, घोड़ी सहन में बाँधकर सरदार ख़ान का हाथ थामे दो कमरों में से बड़े वाले में आ गया। कमरे के एक कोने में टूटा-फूटा सामान पड़ा रहता था और छोटा कमरा सिर्फ़ मौसम की इस्तेमाल की चीज़ें बाँधने के काम आता था, बड़े कमरे में लोहे की चंद कुर्सियाँ और एक बड़ी-सी मेज़ पड़ी थी। यह सरदार की वरसे की निशानियाँ थीं। अक़्सर मेहमानों की महमान-नवाज़ी यहीं होती थी। उस वक़्त नौजवान की शक्ल व सूरत देखने के क़ाबिल थी। वह एक लंबा सिलक का कुर्ता पहने हुए था, उस पर सेब की शक्ल के बटनों वाली बास्केट। नीचे मूँगिया रंग की सलवार, पाँवों में तेल से चुपड़े हुए भारी भरकम देशी जूते, सिर पर कलफ़ लगी मरोड़ी पगड़ी, जिसकी वजह से वह लम्बा जवान और भी लम्बा दिखाई देता था। 

सरदार उसे देखकर बहुत ख़ुश हुआ और पाँच सौ रुपये की गड्डी मेज़ पर रख कर कहा, “नौजवान ये पाँच सौ रुपये की गड्डी। हाँ भूतिया ज़रा लस्सी शरबत का इन्तज़ाम तो करो।” 

नौजवान ने कहा, “देखिए लस्सी शरबत की तकलीफ़ न कीजिये क्योंकि मुझे फ़ौरन वापस जाना है। अलबत्ता मुझे आप से पाँच सौ रुपये और लेने हैं।”

सरदार बोला, “वो तो चोर को मेरे सामने ले आते या मुझे उसके पास ले जाते।” 

“मैं उसके लिए भी तैयार हूँ।” 

सरदार ने गर्दन हिलाई, फिर भारी आवाज़ में बोला, “अच्छा तो यह बात है, मैं समझा कि शायद चोर तुम्हारी जान पहचान का है और तुम उसका पता नहीं बताना चाहते।” 

नौजवान ने चमकदार आँखें ऊपर उठाईं। “यह ठीक है लेकिन ऐसे मामले में मैं किसी का लिहाज़ नहीं करता।” 

“तो ठीक है, गोया तुम हमें चोर के पास ले चलोगे?” 

“‘हाँ! आप के आदमी तैयार हैं क्या?” 

“हाँ! हमारे आदमी तैयार हैं।” 

“तो बस ठीक है, मैं चोर से आपका सामना करा दूँगा और अपनी राह चलूँगा, उसके बाद आप जाने और वह चोर।” 

“मंजूर है।” 

“बुरा न मानिए तो वह रुपया मेरे हवाले कर दीजिए क्योंकि मैं रुपया लेने के लिए वापस नहीं आऊँगा।”     

सरदार ने नोटों की दूसरी गड्डी निकाली और मेज़ पर रख दी और मुझसे कहा, “सब आदमियों से कहो, घोड़ियाँ कस लें।” 

मैंने दरवाज़े में से बाहर झाँककर सहन में खड़े हुए आदमियों से पुकार कर कहा, “सरदार कहते है घोड़ियाँ कस लें सब लोग।” 

नौजवान ने सलवार की दाईं जेब में एक गड्डी और बाईं जेब में दूसरी गड्डी रख ली। फिर उसने अपनी लम्बी मज़बूत लाठी पर नुकीली छुरी चढ़ाई और दीवार की तरफ़ पीठ करके सीधे सिपाहियाने अंदाज़ से खड़ा हो गया। मूछें उँगलियों से छूकर भरपूर आवाज़ में बोला, “आप की घोड़ी का चोर आप के सामने खड़ा है।” 

उसकी यह बात सुनकर मुझे यूँ लगा जैसे बम का गोला फट गया हो। मुझे ताज्जुब हुआ, क्या वाक़ई? लेकिन सचमुच हमारे सरदार की घोड़ी चुराना मामूली आदमी का काम नहीं हो सकता था? दूसरे ही लम्हे मुझे ख़ुशी का अहसास हुआ। देखना यह था कि अब सरदार क्या करते हैं, क्योंकि इतने बरसों में मैंने किसी को इस क़दर ज़ुर्रत के साथ सरदार को ललकारते नहीं देखा था। 

उधर सरदार बुत बना खड़ा था। ऐसे दिखाई देता था जैसे उसके सारे बदन का लहू उसकी आँखों में दिख रहा हो। ग़ुस्से के मारे उसके होंठ लरज़ रहे थे लेकिन मुँह से बात नहीं निकलती थी। 

सरदार दूसरे आदमियों को बुलाने के लिए दरवाज़े की तरफ़ बढ़ा। उधर नौजवान बड़ी दिलदारी से पानी के घड़े की तरफ़ बढ़ा। क़रीब पड़ा हुआ काँसे का कटोरा उठाकर उसमें पानी भरा और इत्मीनान से घूँट-घूँट पीने लगा। 

सरदार दरवाज़े के क़रीब खड़ा उसकी यह हरकत देख रहा था लेकिन कुछ बोला नहीं। नौजवान ने पानी पीकर अँगोछे से मूछें पोंछी और छुरी वाली लाठी हाथ में लेकर दरवाज़े की तरफ़ बढ़ा, जिधर सरदार खड़ा था क्योंकि उस दरवाज़े के सिवा बाहर जाने का कोई और रास्ता नहीं था। सरदार की मुट्ठियाँ बंद होकर खुल रही थीं और खुल-खुल कर बंद हो रही थीं। नौजवान उसकी आँखों में आँखें डाले धीरे-धीरे क़दम-ब-क़दम उसके पास पहुँचा, ठिठक कर रुका, लम्हे भर को दोनों की आँखें मिलीं। मैं सोच रहा था कि अब वार हुआ कि अब, लेकिन सरदार ने हाथ ऊपर नहीं उठाया। 

नौजवान आगे बढ़ा और तबेले के सहन से होकर बड़े दरवाज़े से बाहर निकल गया। सरदार उसके पीछे गया और तबेले के सहन के बड़े दरवाज़े पर जाकर रुक गया। हमारे लाठीबाज़ सरदार के हुक्म के मुंतज़र थे। नौजवान होशियारी व सावधानी से चलता हुआ अपने घोड़े के पास पहुँचा और सवार होने से पहले, उसने घूम कर मेरी तरफ़ देखा। मुझे यूँ लगा जैसे उसके होंठों पर अल्हाड़-सी मुस्कराहट फूट रही थी, और वह मुझे मेरा वादा याद दिला रहा हो। उसके बाद एक ही छलाँग में घोड़े पर सवार हो गया। 

सरदार ने लाठीबाज़ों से अब भी कुछ नहीं कहा। यहाँ तक कि घुड़सवार मद्धिम धूप में खेतों से होता हुआ बहुत दूर निकल गया। 

मैं सरदार के पीछे खड़ा था। सरदार एक कंधा बड़े दरवाज़े की चौखट से टेके चुपचाप खड़ा था। मुझे उसका चेहरा नज़र नहीं आ रहा था, इसलिए यह जानना मुश्किल था कि उसके चेहरे के जज़्बात क्या हैं? थोड़ी देर बाद उसने मेरी तरफ़ देखे बग़ैर भारी आवाज़ में सवाल किया, “क्या तुम इसी नौजवान का रिश्ता लाली के साथ करने को कह रहे थे?” 

मेरे होंठ और ज़्यादा ख़ुश्क हो गए और मैं डर के मारे कुछ जवाब नहीं दे सका। सरदार ने घूम कर मेरी तरफ़ देखा, उसके मोटे होंठों पर घनी मूछों की छाँव तले एक मासूम मुस्कराहट जन्म ले रही थी। 

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