प्रांत-प्रांत की कहानियाँ

प्रांत-प्रांत की कहानियाँ  (रचनाकार - देवी नागरानी)

उलाहना

ब्रिटिश कहानी

मूल लेखक: हेनरी ग्राहम ग्रीन

 

वे दोनों बग़ीचे की बेंच पर सटकर देर तक बैठे रहे . . . चुपचाप! 

वह गर्मियों की शुरूआत का बहुत ही उपयुक्त दिन था। आसमान में एकाध सफ़ेद बादल बिखरे हुए थे। पर मुमकिन था कि बादल बिखर जाएँ और आसमान साफ़ नीला दिखने में आए। 

दोनों अधेड़ उम्र के थे . . . पर दोनों में से किसी एक को भी बीती हुई जवानी को बनाये रखने की चाह न थी। वैसे वह मर्द अपनी रेशमी मूछों के कारण ज़्यादा सुकुमार नज़र आ रहा था, जैसा वह ख़ुद को समझता था। और औरत भी आईने वाले अपने अक्स से ज़्यादा प्यारी दिखाई दे रही थी। 

गंभीरता दोनों में थी और यही दोनों में समानता थी। उनके बीच बहुत कम फ़ासला रहा, जिससे लगा जैसे वे अरसे से शादी-शुदा हों, और लम्बे समय के साथ के सबब उनकी सूरतें भी आपस में मिलने लगी थीं। दोनों कभी-कभी अपनी घड़ी देखते, क्योंकि दोनों के पास यह एकाकी पल थोड़े वक़्त के लिए था। 

मर्द बदन में छरहरा और लम्बा था। नक़्श आकर्षक, चेहरा सादा पर सौंदर्य से भरपूर। पास में बैठी औरत पहली नज़र में देखने भर से अत्यंत ख़ूबसूरती, लुभावनी, व तराशी टाँगों वाली किसी कलाकृत औरत की तस्वीर की तरह लग रही थी। उसके चेहरे से आभास होता था जैसे उसके लिए वह गर्मी का एक उदास दिन हो, पर फिर भी वह घड़ी का कहा मानकर उठने को तैयार थी। 

वे शायद एक दूसरे से बात ही न करते, अगर उनके क़रीब से दो शरारती लड़के न गुज़रते। उनमें से एक के कंधे पर रेडियो लटका हुआ था और वे अपने ही ख़यालों में गुम होकर कबूतरों को उड़ा रहे थे, सता रहे थे, और मार रहे थे। एक कबूतर को शायद ज़्यादा मार लग गई, जिसके कारण वह फड़फड़ाकर नीचे आ गिरा और उन दोनों के सामने तड़पने लगा। वे लड़के उन कबूतरों को तड़पता हुआ छोड़कर आगे की ओर बढ़ गए। 
मर्द उठा। अपनी छतरी को चाबुक के समान पकड़ा:

“बदमाश!” उसके मुँह से निकला। 

“बेचारा कबूतर!” औरत ने थरथराते लबों से कहा। 

कबूतर की एक टाँग ज़ख्मी हो गई थी। उसने ज़मीन पर पलटने की कोशिश की, उछल कर छलाँग मारने की कोशिश की, पर उड़ने में फिर भी नाकामयाब रहा। 

“आप एक क्षण के लिए दूसरी ओर देखिये,” मर्द ने कहते हुए छतरी एक तरफ़ रखी। कबूतर को उठा लिया और तेज़ी से उसकी गर्दन सहलाने लगा। 

“यह एक ढंग है जो पक्षी पालने वालों के लिए ज़रूरी है।”

फिर उसने यहाँ वहाँ नज़रें घुमाकर एक कचरे का डब्बा ढूँढ़ा और धीरज से उस कबूतर को उसमें डाल दिया। 

“अब और कुछ नहीं हो सकता,” मर्द ने मुड़ते हुए पछतावे के लहज़े में कहा। 

“मैं वो भी न कर पाती . . .!”

“किसी को मारना, हमारे दौर का एक आसान काम है,” मर्द की बात में कड़वाहट थी। 

अब जब वह वापस बेंच पर आकर बैठा तो उनके बीच में पहले सा फ़ासला न था। वे अब मौसम के बारे में छोटी-छोटी बातें कर पा रहे थे, जैसे पिछले हफ़्ते कँपकँपाती सर्दी पड़ी थी . . . उसके पहले वाले हफ़्ते . . .! 

औरत का अंग्रेज़ी लहज़ा उसे बेहद पसंद आया और ख़ुद फ़्रैंच में ठीक से बात न कर पाने के लिए उससे माफ़ी माँगी। उस औरत ने उसे बताया कि वह अंग्रेज़ी कहाँ और किस स्कूल में पढ़ी थी। 

“वह समुद्र किनारे वाला शहर . . .”

“समुद्र हमेशा मुझे धूसर लगता है।” (धूसर=भूरा) 

फिर दोनों बहुत देर ख़ामोशी में तन्हा-तन्हा बैठे रहे। बीते हुए समय के बारे सोचते हुए औरत ने उससे पूछा, “क्या तुम कभी फ़ौज में थे?” 

“नहीं! जब लड़ाई लगी तब मैं चालीस बरस का था।” मर्द ने बताया, “एक बार सर्जरी मिशन पर हिंदुस्तान गया था। मुझे हिंदुस्तान बहुत अच्छा लगा।” और बताते हुए मर्द की आँखों में याद की चमक आ गई। वह औरत को लखनऊ और आगरे की बातें बताने लगा। पुरानी दिल्ली के बारे में अपनी राय बताते हुए कहा, “मुझे सिर्फ़ पुरानी दिल्ली पसंद नहीं आई, क्योंकि वह किसी अंग्रेज़ ने बनाई थी। उसे देखते हुए मुझे वाशिंगटन का ख़याल आता रहा . . .”

“आपको वाशिंगटन पसंद नहीं?” 

“सच कहूँ, मुझे अपने मुल्क में मज़ा नहीं आता। मुझे प्राचीन चीज़ें अच्छी लगती हैं . . . जैसे अब फ़्राँस लगता है। मेरे दादा ब्रिटिश परिषद के नीस (Nice) . . .”

“तब वह बिलकुल नया शहर था . . .।”

“हाँ, पर अब वह कुछ पुराना हो गया है। हम अमेरिका के निवासी जो कुछ भी हासिल करते हैं, उस सौंदर्य के कारण बूढ़े नहीं होते . . .।” 

“आपने शादी की है या नहीं?” 

मर्द थोड़ा हिचकिचाया . . . फिर कहा, “हाँ!”

और उसने छाते को स्वाभाविक ढंग से पकड़ लिया, जैसे उस वक़्त उसे किसी सहारे कि ज़रूरत थी। 

“मुझे यह बात पूछनी नहीं चाहिए थी . . .”

“क्यों नहीं? और आपने . . .” मर्द ने औरत को कुछ राहत बख़्शने के लिए उससे पूछा। हालाँकि उसके हाथ में शादी की अँगूठी साफ़ दिखाई दे रही थी। 

“हाँ!”

अब मर्द को लगा कि उसे अपना नाम न बताना असामान्य होगा, इसीलिए कहा, “मेरा नाम ग्रीवज़ हेनरी है। हेनरी सी. ग्रीवज़ (Henry C. Greaves) ”

“मेरा नाम हेनरी क्लेयर हैनरी (Henry Clair)”

“आज की दुपहरी बड़ी सुहानी थी।”

“पर सूरज डूबने से थोड़ी ठंड बढ़ गई है।”

मर्द का छाता बहुत आकर्षक था। औरत ने उसके सुनहरे किनारे की तारीफ़ की और फिर उसे वह ज़ख्मी कबूतर याद आया। कहने लगी, “यह आपकी बहुत ही साहसी कोशिश थी, पर मुश्किल थी। मैं नहीं कर सकती थी। मैं बुज़दिल हूँ . . .।”

“हम कहीं न कहीं ज़रूर बुज़दिल हैं . . .”

“पर आप नहीं हैं . . .!”

“मैं भी . . .” मर्द के मन में कुछ कहने की तत्परता थी। पर औरत ने जैसे उसके कोट के कॉलर को पकड़ा हो, और कह रही हो . . ., “कहीं से गीला रंग लग गया है आपके कोट पर।”

“आज मेरे घर की सीढ़ियों पर रंग लग रहा था . . .।”

“यहाँ आपका घर भी है?” 

“घर नहीं, चौथी मंज़िल पर एक छोटा फ़्लैट . . .”

“लिफ़्ट होगी?” 

“नहीं, वह एक पुरानी इमारत है।”

औरत ने जैसे मर्द की एक अनजान ज़िन्दगी की दरार में से झाँक लिया हो। जवाब में उसे अपने बारे में भी कुछ कहना था . . .। ज़्यादा नहीं, थोड़ा कुछ ही सही। इसलिए कहा, “मेरा अपार्टमेंट अभागा होने की हद तक नया है। दरवाज़ा बिजली पर खुलता है, बिना हाथ लगाए। हवाई अड्डे के दरवाज़ों की तरह . . .।”

फिर छोटी-छोटी बातें होती रहीं . . .। वह कहाँ से पनीर ख़रीदती है . . . वह चीज़ें कहाँ से ख़रीदता है . . .! 

“ठंड बढ़ती जा रही है, अब चलना चाहिए,” औरत ने कहा। 

“आप यहाँ इस पार्क में अक़्सर आती हैं?” 

“पहली बार आई हूँ।”

“कितना अजीब संयोग है। मैं भी यहाँ पहली बार आया हूँ, जब कि मैं यहाँ से बहुत क़रीब रहता हूँ। 

“और मैं यहाँ से बहुत दूर।”

क़ुदरत के राज़ भी गोपनीय होते हैं। दोनों बेंच पर से उठे। मर्द ने हिचकिचाते हुए कहा, “आपको वक़्त न होगा, नहीं तो रात का खाना अगर हम साथ खाते . . .!”

एक पल के लिए औरत जैसे अंग्रेज़ी बात करना भूल गई, फ़्रैंच में कहा, “आपकी पत्नी . . .”

“वह खाना किसी और जगह खाएगी, पर आपका पति . . .?” 

“वह ग्यारह बजे के पहले घर नहीं आएगा।”

कुछ मिनटों की दूरी पर एक होटल था। औरत को कोई ख़ास भूख न थी। पर खाने की लम्बी सूची पढ़कर, वक़्त गुज़ारते वह उसके और क़रीब होती गई। खाना सामने आया तो दोनों के मुँह से निकला, “मैंने ऐसा नहीं सोचा था . . .”

“कभी कैसे कुछ हो जाता है . . .” मर्द ने कहा। 

“अपने दादा के बारे में कुछ बताएँ।” 

“मैंने उसे लम्बे अरसे तक नहीं देखा था . . .”

“आपके पिता अमेरिका क्यों गए थे?” 

“शायद अभियान के लिए . . . शायद वही ख़्वाहिश मुझे यूरोप ले आई है। पर मेरे पिता के समय अमेरिका में सिर्फ़ कोको-कोला न थी।”

“आपने यहाँ यूरोप में शादी की होगी?” 

“नहीं, मैं अपनी पत्नी को अमेरिका से अपने साथ ले आया हूँ, बेचारी . . .।”

“बेचारी . . .?” 

“वह कोको-कोला नहीं भूल पाती।”

“पर वह तो यहाँ भी मिलती है,” औरत ने जानबूझकर उपयुक्त जवाब दिया। 

“वाइन?” वेटर आया। 

मर्द ने पूछा, “कौन सी वाइन?” 

“मुझे ज़्यादा जानकारी नहीं, कोई भी . . .!” 

“मेरा ख़याल था सब फ़्रैंच . . .”

“यह चुनाव मेरे पति किया करते थे।”

अचानक जैसे दोनों के बीच में सोफ़ा पर कोई आकर बैठा हो, मर्द! समय शांत हो गया। जैसे दो परछाइयाँ वहीं जम गई होतीं अगर कुछ और बतियाने की हिम्मत न करती। 

“आपके बच्चे हैं?” 

“नहीं, आपके . . .?” 

“नहीं!”

“आपको इस कारण कोई कमी महसूस होती है?” 

“मेरे ख़याल में कोई न कोई कमी हर किसी में कहीं न कहीं रह जाती है,” औरत ने जवाब दिया। 

“ख़ैर आज मैं बहुत ख़ुश हूँ, जो इस पार्क में हम मिले।”

“मैं भी बहुत ख़ुश हूँ।”

उसके बाद का मौन मूक रहा। दोनों परछाइयाँ वहाँ से उठकर चली गईं, उन्हें अकेला छोड़कर। एक बार फल की प्लेट में उन की उँगलियाँ एक दूजे को छू गईं। उनके समस्त सवाल जैसे समाप्त हो गए। उन्होंने एक दूसरे को इतना समझ लिया, जितना किसी और को न समझा हो। यह अहसास ख़ुशगवार मंज़िल की तरह था, समझ और पहचान से परे। शर्त बँधी हुई दौड़ जैसे पीछे रह गई और अब जैसे वक़्त और मौत, दोनों दुशमन रह गए थे। 

कॉफ़ी आई . . .। बढ़ती उम्र की पीड़ा की तरह। और उसके बाद ब्रांडी का घूँट ज़रूरी था, उदासी को गले से नीचे उतारने के लिए। यह सब कुछ ऐसा था जैसे उड़ते परिंदे कुछ ही घंटों में उम्र के फ़ासले लाँघ आए हों। 

मर्द ने बिल भर दिया और दोनों बाहर आए, यह वक़्त मौत की पीड़ा के समान था और उसे सहन कर पाने के लिए दोनों नाज़ुक और कमज़ोर थे। 

“मैं आपको आपके घर छोड़कर आता हूँ।” 

“नहीं, इतनी दूर कैसे चलोगे?” 

“किसी होटल की खुली छत पर एक और ड्रिंक लें?” 

“अब ड्रिंक हमें उससे ज़्यादा क्या देगा? औरत ने कहा। 

“यह शाम अपने आप में मुकम्मल है। तुम सचमुच एक कोमल रूह हो . . .” यह वाक्यांश उसके मुँह से फ़्रैंच में निकला था, जिसमें उसने “तुम” शब्द को अपनाइयत और उल्फ़त के साथ उचारा था। पर अपने आप को दिलासा देने के लिए उसने सोचा कि मर्द को फ़्रैंच अच्छी तरह समझ में नहीं आती, शायद इसलिए उसने ध्यान न दिया हो। उन दोनों ने, न एक दूसरे का पता पूछा, न टेलीफ़ोन नंबर। दोनों समझ गए थे . . .। उनकी ज़िन्दगी में वह पल बहुत देर से आया था . . . बिलकुल आख़िर में। मर्द ने टैक्सी बुलाकर उसमें औरत को बिठाया और ख़ुद आहिस्ता-आहिस्ता अपने घर की ओर चलने लगा। जवानी में कुछ बुज़दिली होती है, वही बड़ी उम्र में बुद्धिमानी बन जाती है। पर उसी बुद्धिमानी के हाथों भी इंसान अफ़सोस का किरदार बन सकता है। 

♦    ♦    ♦

हेनरी क्लेयर जब अपने घर स्वचालित दरवाज़ा लाँघकर अंदर गई तो उसे हमेशा की तरह हवाई अड्डे की बात याद आई। छह मंज़िल पर उसका अपार्टमेंट था। दरवाज़े के ऊपर लाल और पीले रंग की एक निराकार पेंटिंग थी, जो उसे अजनबी जैसी लगी। वह सीधे अपने कमरे में चली गई; और दीवार के परले छोर से अपने पति को सुन सकती थी। वह सोच रही थी, आज पति के पास कौन सी लड़की है, टोनी या दूसरी कोई? उसने दूसरे दरवाज़े पर निराकार पेंटिंग बनाई थी। और टोनी, जो एक बैले डांसर थी, उसने कहा था कि ड्राइंग रूम में रखी चित्रकला की मॉडल वह ख़ुद थी। 

वह सोने के लिए कपड़े बदलने लगी। पास वाले कमरे से आती आवाज़ें जाल बुनती रहईं। पर आज वाली बेंच का मंज़र उसकी आँखों के सामने आ गया। वह दबे पाँव क़दम उठाती रही, आगे रखती रही। उसके आने की आहट उसके पति के कानों में पड़ती तो उसके पति की तलब तेज़ हो जाती थी। दीवार के इस पार उसका वुजूद हमेशा उसकी ख़्वाहिश के लिए ज़रूरी होता था। आवाज़ आई, “प्यारे, प्यारे!”

आवाज़ बिखरी हुई थी। यह नाम उसके लिए नया था। उसने मेज़ की ओर हाथ बढ़ाया। कानों से उतारी बालियाँ मेज़ पर रखीं . . .। और उसे फल की प्लेट में किसी की उँगलियों का स्पर्श याद आ गया। पास वाले कमरे से हल्की हँसी की आवाज़ आ रही थी। हेनरी ने मोम की गोलियाँ अपने कानों में डाल दीं और आँखें मूँद कर सोचने लगी, ज़िन्दगी कुछ और तरह की होती अगर पंद्रह बरस पहले वह आज वाली बेंच पर बैठती और ज़ख्मी कबूतर की पीड़ा से छटपटाते मर्द को देख रही होती।

♦    ♦    ♦

दो तकियों का सहारा लिए ग्रीवज़ की पत्नी कह रही थी, “तुम किसी औरत के साथ घूमते रहे हो?” 

एक तकिये से जलती सिगरेट के कारण कई छेद हो गए थे। 

“नहीं, यह तुम्हारा बेकार का ख़याल है।”

“तुमने कहा था कि तुम दस बजे लौट आओगे!”

“फ़क़त बीस मिनट ही ज़्यादा हुए हैं।”

“तुम किस बार (bar) में . . .!”

“मैं पार्क में बैठा रहा और फिर जाकर खाना खाया . . .। तुम्हें नींद की दवा दूँ?” 

“तुम्हारा मतलब है कि मैं सो जाऊँ, मर जाऊँ, और तुम मेरे पास न आओ?” 

मर्द ने ध्यान से पानी में दवा की दो बूँदें डालीं। अब वह कुछ भी कहता तो उसकी पत्नी तक बात न पहुँचती। बालों को बाँधने के लिए उसकी पत्नी ने लाल रंग की क्लिप्स लगा रखी थीं। वह दवा पीने के लिए झुकी तो मर्द को उस पर दया आ गई कि वह अमेरिका से दूर आकर वहाँ के लिए उदास थी। आज अच्छा हुआ जो उसने बिना कुछ कहे दवा पी ली। आज की रात बीती हुई ख़राब रातों जैसी न थी। और वह अपने पलंग के किनारे बैठ कर सोचने लगा: कैसे अंदाज़ से होटल के बाहर उसे “तुम” कहा था। 

“क्या सोच रहे हो?” पत्नी ने अचानक सवाल किया। 

“सोच रहा था, ज़िन्दगी कुछ और तरह की हो सकती थी . . .!”

यह उस मर्द का सबसे बड़ा उलाहना था, जो ज़िन्दगी के खिलाफ़ आज पहली बार अभिव्यक्त किया और उसने सुना। 

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