प्रांत-प्रांत की कहानियाँ (रचनाकार - देवी नागरानी)
आबे-हयातपश्तू कहानी
नसीब अलशाद सीमाब
‘मैं अमर होना चाहता हूँ और मौत को किसी सूरत में भी क़बूल नहीं करूँगा...’ वह अकसर अपनी दिली ख़्वाहिश का इज़हार करता।
मैं उसकी बेतुकी बातों को हंसी में उड़ाते हुए छेड़-छाड़ के लहज़े में जवाब देता,‘अगर तुम अनश्वर दुनिया की ख़्वाहिश रखते हो तो आबे-हयात ढूँढो। उसको पीकर ही तुम अमर हो सकते हो, वरना मौत तो एक अटल हक़ीक़त है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता।’ यह सुनकर उसके चेहरे पर एक मासूम-सी मुस्कराहट ज़ाहिर होती और वह बड़ी ही अधीरता से पूछता,‘यार! उस दूत का कोई पता तो चले। मैं सच में उसे तलाश रहा हूँ ताकि चंद घूँट पीकर मौत के खौफ़ से निजात पा सकूँ।’
मैं उसकी अनश्वर ज़िन्दगी की ख़्वाहिश और मौत के मुंतज़र मंज़र में उसके विगत काल में झाँकता तो वह बेक़सूर नज़र आता। हक़ीक़त में वह अपनी माँ का इकलौता और लाडला बेटा था। उसकी पैदाइश के बाद उसके घर में मौत ने खेमे गाड़ लिये थे। सारे बहन-भाई पैदाइश के कुछ अरसे बाद ही मौत का निवाला बन जाते। उसकी कोख जली माँ उस ग़म से नीम पागल हो चुकी थी। वह अपने इकलौते बेटे को बाहों में ज़ोर से यूँ समेट लेती, जैसे मौत उसके दर पर खड़ी हो और उसे छीन कर ले जाना चाहती हो। वह दर्द भरे लहज़े में कहती.
‘बेटा तुम कहीं न जाना, अगर तुम भी बिछड़ गए तो मैं ज़िन्दा न रह सकूँगी।’ उसके तसव्वुर में अपनी माँ के चेहरे पर पड़े आँसुओं का गहरा असर था। उसके बहते हुए आँसू और बेअख़्तियार ख़ुद क़लामी ने उसके दिल और दिमाग़ पर सम्पूर्ण कब्ज़ा कर लिया था। तभी तो वह माँ के उन बहते आँसुओं की ख़ातिर नश्वर ज़िन्दगी के ख़्वाब देखता रहता और हमेशा मौत के खौफ़ से घिरा रहता।
हम दोनों एक ही कक्षा में थे और बचपन से हमारी गहरी दोस्ती थी। वह अपनी तनहाई की आदत और माँ पर कड़ी निगरानी रखने के कारण से घर से बाहर नहीं निकलता था। मैं हर रोज़ उनके घर जाता और हम मिलकर घंटों खेलते रहते। घर का आँगन हर शाम हमारी बातों और कहकहों से गूँज उठता। उसकी माँ मुझे अपने बेटे की तरह चाहती थी। कभी-कभार वह हमारे साथ मिलकर बच्चों की तरह भी खेलती।
यूँ वक़्त का पहिया घूमता रहा और हमने जवानी की दहलीज़ पर क़दम रखा। समय के साथ-साथ मेरे दोस्त के दिल में शाश्वत ज़िन्दगी की आरज़ू भी बढ़ती चली गई। आख़िर वह जुनून की शक्ल में तब्दील हो गई। उस एक ख़याल पर उसकी सुई हर वक़्त अटकी रहती, इसी कारण मुझे बहुत ज़्यादा दुख होता। वह जब बोलना शुरू करता तो उसके लहज़े में भरपूर यक़ीन और चेहरे पर एक निश्चित कठोरता के आसार दिखाई देते। उसके बात करने के अन्दाज़ से मेरे जिस्म में झुर-झुरी पैदा होती।
वह एक ऐसे सपने का पीछा कर रहा था जिसका वास्तविक दुनिया से कोई वास्ता न था। उसने इसे अपनी ज़िन्दगी का मक़सद बना लिया था। मुझे उसके बारे में यह डर लगा रहता था कि कहीं वह पागल न हो जाए। लेकिन दूसरी तरफ़ उसके मज़बूत इरादे को देखकर यह सोचने पर मजबूर हो जाता कि अगर किसी मक़सद की चाह में ईमान की सच्चाई की चाशनी शामिल हो तो आदमी अपनी मंज़िल ज़रूर पा सकता है।
स्कूल की पढ़ाई ख़त्म होने के बाद, आगे की पढ़ाई हासिल करने के लिये मैं शहर चला गया। उन दिनों मैं पढ़ाई और शहर की रंगीनियों में ऐसा खोया कि अपने घर और पुराने दोस्तों से मेरा वास्ता लगभग कटकर रह गया। कभी-कभार मेरे दोस्त का कोई ख़त मिलता, जिसमें हर बात ज़िन्दगी से शुरू होती और मौत पर ख़त्म होती। पढ़ने के बाद ऐसा महसूस होता जैसे वह पूरी दुनिया को जादुई ढंग से झाँसा देना चाहता हो। उस के अजीब-ओ-ग़रीब ख़यालात के बारे में सोचते हुए मैं परेशान हो जाता लेकिन उनकी सच्चाई को झुठला भी नहीं सकता था।
छुट्टियों के दौरान जब मैं घर लौटा तो पता चला कि वह न जाने कहाँ ग़ायब हो गया है। अगले दिन उसकी माँ की तबीयत पूछने गया तो वह ख़ौफ़ से डरी हुई हिरनी की तरह लगी, जिसके बच्चे को शेर उठा ले गया हो और वह बेबसी से चारों तरफ़ उसकी तलाश में भटक रही हो। उसकी तरसती आँखों में बेशुमार सवाल तैर रहे थे। आस भरी निगाहें मेरे चेहरे पर यूँ गड़ी थी जैसे मैं अपने दोस्त के बारे में कोई ख़ैर-ख़बर लाया हूँ। उसकी हालत देखकर मेरा दिल भर आया। वह ज़बान से कुछ न कह सकी पर डबडबाती आँखों से हाल बयाँ होता रहा। उसकी ख़ूबसूरत बड़ी-बड़ी आँखों से आँसुओं की लड़ी फूट पड़ी। ख़ामोशी से मेरी कलाई पकड़ी और अपने कमरे में ले गई। अलमारी से एक ख़ाली लिफ़ाफ़ा निकाल कर मुझे थमाया। लिफ़ाफ़े के अन्दर ख़त पड़ा था जो उसने अपनी माँ के नाम लिखा था। मैंने ग़ौर से देखा तो सफ़ेद कागज़ पर काले हर्फ़ो के बीच में मेरे दोस्त का मासूम चेहरा उभर आया जो रौशन लौ की तरह ज़हन के धुंधले आसमान पर बिखर कर गुम हो गया। उसकी माँ बेचैन निगाहों से मुझे घूर रही थी। मैं अपने जज़्बात को छुपाते हुए ठहर-ठहर कर ख़त पढ़ने लगा।
‘प्यारी माँ! मैं मौत के ख़ौफ़ से छुटकारा पाने के लिये एक सफ़र पर रवाना हो रहा हूँ जो मुझे वह शाश्वत ज़िन्दगी बख़्श दे जिसके भविष्य में न कोई हद और न कोई इन्तहा हो। उसके बाद मेरा नाम कभी भी मुर्दों की सूची में न आएगा, क्योंकि मैं उनमें शुमार होना नहीं चाहता। मैं अमर होना चाहता हूँ और मुझे यक़ीन है कि मैं अपने मक़्सद में ज़रूर क़ामयाब हो जाऊँगा। ज़िन्दगी भर मेरी यह ख़्वाहिश रही है कि मैं अमर बन जाऊँ। तुम्हारे हसीन चेहरे पर सदा बहते हुए आँसुओं की क़सम मैं तुम्हारी ख़्वाहिश हर हाल में पूरी करूँगा। फ़क़त तुम्हारी दुआओं का मुहताज,बेटा।’
ख़त पढ़ने के बाद मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं उसके बारे में क्या कहूँ? मेरा दोस्त एक ऐसी मृगतृष्णा के पीछे भाग रहा था जिसको हासिल करना पाँवों को छालों से लहूलुहान करना था। मेरे पास उसकी माँ को झूठी तसल्ली देने के लिए शब्द नहीं मिल रहे थे, इसलिए ख़ामोश और ग़मगीन होकर अपने घर वापस आया।
जिस दिन मेरी छुट्टियाँ ख़त्म हुईं, मैं शहर जाने की तैयारियों में लगा हुआ था। सुबह सवेरे मेरे दोस्त के घर से दिल दहलाने वाला शोर उठा। मैं घबराकर हाल जानने उस ओर दौड़ा। दरवाज़े से जैसे ही अंदर दाख़िल हुआ तो आँगन में एक ताबूत दिखाई दिया।
मेरे दोस्त की माँ उसके सिरहाने खड़ी थी। उनकी ख़ुश्क आँखें और विश्वासपूर्ण अन्दाज़ देखकर हैरत से चकरा गया। मैं उनके क़रीब पहुँचा तो एक अजनबी को अफ़सोस के साथ कहते हुए सुना ‘आपके बेटे ने बड़गाम में मर्दाना लड़ाई लड़ते हुए भारतीय फौजियों के हाथों शहादत का जाम पिया है। वह बे-इन्तहा दिलेरी से लड़ा और दुश्मन की सब गोलियाँ अपने सीने पर झेल गया।’
यह सुनकर उसकी माँ के मुँह से उफ़ तक न निकली। उसने आस उम्मीद के विपरीत गर्व से अपना सीना चौड़ा करते हुए पूरे विश्वास के साथ कहा,‘ख़ुदा ने उसकी ख़्वाहिश पूरी कर दी। मेरा बेटा अमर हो गया...शहीद कभी नहीं मरते...उसने शाश्वत ज़िन्दगी पा ली...! मेरा बेटा ज़िन्दा है..। मेरा बेटा नहीं मरा...मेरे बेटे ने मौत को शिकस्त दे दी! मेरा बेटा ज़िन्दा है!’
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