प्रांत-प्रांत की कहानियाँ

प्रांत-प्रांत की कहानियाँ  (रचनाकार - देवी नागरानी)

द्रोपदी जाग उठी

पंजाबी कहानी

मूल लेखक: रेणु बहल

 

ख़ामोश रात के साए बढ़ने लगे थे। गाँव की सरहद पर टीन की छत वाले देसी शराब के टीबे में अब भी गड़बड़ी थी। निहाल सिंह शाम ढलते ही चरण सिंह के साथ वहाँ आ गया था। चरण सिंह उसके बचपन का दोस्त उसकी तकलीफ़ से बख़ूबी वाक़िफ था। वह जानता था कि बेबे के चले जाने के बाद अपना ही घर उसे पराया लगने लगता था। वह अपनी ज़िन्दगी से बेज़ार हो गया है। शराब पीते-पीते वह उसे ज़िन्दगी की तरफ़ वापस लाने की कोशिश करता रहा। सब्र के साथ वह उसकी बातें सुनता रहा। नशा चढ़ने के बाद उसे चुप सी लग जाती थी। वहाँ से उठने से पहले एक बार फिर उसने निहाल को अपने साथ चलने का ज़ोर डाला। डगमगाते क़दमों और लड़खड़ाती ज़ुबान से कभी ऊँची तो कभी धीमी आवाज़ में कुछ कही, कुछ अनकही बातें कभी ख़ुद से तो कभी दूसरों को कहते-सुनाते दोनों गाँवों की तरफ़ रवाना हो गए। फिर एक मोड़ पर दोनों के रास्ते अलग-अलग हो गए। रात के उस पहर गाँवों की गलियाँ वीरान हो चुकी थीं। दूर से मेंढक के टर-टर की आवाज़ें चुप्पी को तोड़ रही थीं। बेतरतीबी से उठते क़दम नुक्कड़ पे सोये कुत्ते पर जो पड़े तो वह चूं-चूं करता हुआ उठकर पहले पीछे हटा, फिर उसे आगे चलते देखकर पीछे से भौंकने लगा। उसने रुककर पीछे देखा और मोटी सी गाली दी और फिर आगे बढ़ गया। घर का दरवाज़ा बंद था। दो-तीन बार ज़ोर-ज़ोर से खटखटाने के बाद दरवाज़ा पम्मो ने खोला। मुँह से कुछ बड़बड़ाती हुई रसोई की तरफ़ बढ़ गई। वह आँगन में बिछे तख़्त पर जाकर बैठ गया। उसकी बेबे तो हमेशा काम से फ़ुर्सत पाकर उसी तख़्त पर बैठती थी। उसने प्यार से बिस्तर पर हाथ फेरा और फिर आस्तीन से ही बहती आँखें साफ़ करने लगा। पम्मो दो मिनट के बाद थाली में दाल-रोटी लेकर उसके पास आई। बिना कुछ कहे तख़्ते पर थाली रखी और मुड़ने लगी तो उसने पम्मो की कलाई पकड़ ली और पूछने लगा, “मक्खनी सो गया क्या?”

अपने छोटे भाई मक्खन सिंह को वह प्यार से मक्खनी ही कहता था। पम्मो ने एक झटके से अपनी कलाई छुड़ा ली और बिना किसी बात का जवाब दिये रसोई की तरफ़ बढ़ गई। 

“तुझे अब मैं ज़्यादा तकलीफ़ नहीं दूँगा। चला जाऊँगा यहाँ से।” यह कहते हुए वह खाना खाने लगा। शराब पीकर वह गले तक तृप्त हो चुका था। दो निवाले ही मुँह में डाले बाक़ी खाना वहीं छोड़ वह सीढ़ी चढ़कर छत पर पहुँच गया। खुले आसमां के नीचे हर रोज़ की तरह उसका बिस्तर लगा हुआ था। वह जाते ही बिस्तर पर गिर गया। तारों भरे आसमां की तरफ़ देखा, तो उसे बादलों में बेबे की शक्ल नज़र आने लगी। आँखें खोलकर दोबारा देखना चाहा तो उसकी आँखें खोलने की ताक़त ही न रही। दो मिनट में ही वह बेसुध होकर सो गया। 

निहाल सिंह कोई शराबी नहीं था। साल में पाँच-छह बार ही शराब पीता, जब कभी ज़्यादा ग़म हो या फिर कोई ख़ास शादी-ब्याह का प्रोग्राम हो तो। हाँ, अगर कभी तीन-चार महीने बाद चरन सिंह के साथ शहर में नथनी वाली के पास जाने का प्रोग्राम बन जाता तो वह चुपचाप शराब गटका लेता था। मगर गाँव में बेबे के सामने पीकर जाने की उसकी हिम्मत न होती। घर में सिर्फ़ वही तो था जो बेबे की घुड़की से डरता था या यूँ कहो कि बेबे को तकलीफ़ नहीं देना चाहता था। उसको देखकर तड़प उठता था। उसके दो छोटे भाई मक्खन सिंह और बैसाखा सिंह डटकर शराब पीते थे और रोढा सिंह तो बेबे के क़ाबू में बिल्कुल नहीं था। वह तो नशे का आदी हो चुका था। हज़ारों नौजवानों की तरह उसे भी अफ़ीम-गाँजे की लत लग चुकी थी, उसे न किसी का खौफ़ था और न लिहाज़। 

रात भर वह बेसुध पड़ा रहा। सुबह सूरज सर पर चमकने लगा तो मक्खन ने आकर भाई को जगाया। निहाल तो पौ फटने से पहले ही उठने का आदी था। हर रोज़ सुबह बेबे की गुरबानी की आवाज़ रस घोलती हुई कानों में टपकती तो वह नींद से जाग उठता। उसे सुबह बहुत मीठी लगती थी जिसका अहसास उसे बेबे के गुज़र जाने के बाद हुआ। अब उसे ज़िन्दगी फीकी और बेरंग लगने लगी थी। घर सूना-सूना लगने लगा था। वह पहले कहाँ जानता था कि भरा-पूरा परिवार, घर की रौनक़ सिर्फ़ बेबे के दम से ही है। आँगन में तख़्त पर बैठी बेबे की नज़रें चारों ओर घूमतीं। आवाज़ इतनी दमदार कि पम्मो की आवाज़ उसके कंठ में ही अटक जाती। उसने तो पम्मी की आवाज़ भी कभी ढंग से नहीं सुनी थी। कभी पम्मो से बात करने की ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई। बेबे की एक आवाज़ पर उसके लिए खाने-पीने का सामान ले आती। सर पर दुपट्टा ओढ़े चुपचाप सब काम करती रहती और मन की बात ज़ुबान तक न आती। निहाल सिंह ने कई बार पम्मो को सुनाते हुए बेबे से बात की थी, वह भी कनखियों से उसे देखते, उसे महसूस होता कि वह उसकी बातें सुनकर मुस्कुरा रही है। एक रोज़ उसने पम्मो को सुनाते हुए बेबे से उसके बनाए खाने की तारीफ़ की तो वह सब सुन रही थी। तारीफ़ के दो बोल बेबे ने भी बोल दिए तो ख़ामोश मंद-मंद मुस्कुराती रही। निहाल ने बेबे से पूछा:

“बेबे कहीं मक्खन के साथ कोई ज़ुल्म तो नहीं हो गया?”

“वह क्या पुत्तर?” बेबे ने हैरानगी से पूछा। 

“यह गूँगी तो नहीं?”

“चल हट चंदरया। सयानी है सब सुनती भी है और बोलती भी है। मक्खन से पूछा लेना कितने कान भरती है उसके।”

“लगती तो नहीं बेबे,” उसने धीरे से कहा। 

वह चुपचाप सुनती रही और काम करती रही। बेबे ने बात बदलते हुए कहा। 

“मैं सोचती हूँ चानण से बात करूँ।”

“किस लिए?”

“उसकी बेटी का हाथ माँग लूँ तेरे लिए।”

“बेबे उसकी उम्र देखी है? कम से कम पंद्रह साल छोटी है वह मुझसे। चाचा कभी उस रिश्ते के लिए नहीं मानेगा। तू बस उम्मीद छोड़ दे।”

“हाय-हाय अकाल पड़ गया लड़कियों का?”

“बेबे क्यों फ़िक्र करती है, हम अकेले तो कंवारे नहीं हैं इस गाँव में। यहाँ नहीं होगी तो कहीं और होगी। अगर क़िस्मत ने लिखा होगा तो मिल ही जाएगी। हमारे मक्खनी को भी तो मिल ही गई तेरी पम्मो।”

“मैं हाथ पर हाथ धरे तो नहीं बैठ सकती। यह तो मैं ही जानती हूँ कि कैसे इसका बाप राज़ी हुआ था रिश्ते के लिए। मैं तो तेरा रिश्ता लेकर गई थी मगर उसे गोरा-चिट्टा मक्खन पसंद आ गया।”

“पर क्या हुआ बेबे मैं भी ज्येष्ठ हूँ और साल में एक महीना जेठ का भी होता है,” उसने शरारत से मुस्कुराते हुए पम्मो की तरफ़ देखकर कहा जो कपड़े धोने का पानी निकाल रही थी। उसने फिर बात सुनी-अनसुनी कर दी और बेबे ने उसके सर पर प्यार से चपत लगा दी। 

“छोटी भाभी है, मज़ाक मत किया कर।”

वक्त़ गुज़रता गया, बेबे की कोशिशें नाकाम होती रहीं। सच में लड़कियों का अकाल ही पड़ गया था। वह भी तो चार-चार बेटे पैदा करके कितनी ख़ुश थी। उसने भी तो जाने-अनजाने क़ुदरत के फ़ैसले को नकारा था। बग़ावत की थी क़ुदरत के फ़ैसले से। वह तड़प उठती मगर किसी से कुछ न कहती, अपनी तकलीफ़ अपने अंदर ही पी जाती। 

बेबे निहाल को बहुत मानती थी। चारों बेटों में वह उसे सबसे ज़्यादा अज़ीज़ था। शायद इसलिए कि वह उसकी पहली औलाद थी। नहीं, पहली औलाद को तो उसकी सास ने दुनिया में आने से पहले ही उसकी कोख में मरवा डाला था। उन्हें बेटी नहीं चाहिए थी, और उसका पति माँ के फ़ैसले के ख़िलाफ़ एक लफ्ज़ भी न बोला, बुत बना उसकी बेबसी देखता रहा। उसकी फ़रियाद को नज़रअंदाज़ कर दिया। उसके सामने दो रास्ते थे, या अपनी कोख को बचा ले या फिर अपनी शादी को। और उस वक़्त कमसिन, लाचार, बेबस केसरो ने अपनी शादी को बचाने के लिए अपनी पहली औलाद क़ुरबान कर दी। बहुत रोई थी, बहुत सिसकी थी पर उस चोट ने उसे तोड़ने के बजाय और मज़बूत बना दिया था। एक लंबे अरसे तक उसने अपने पति प्रीतम सिंह को अपने पास नहीं आने दिया। उसकी मर्दानगी चकनाचूर कर दी थी। हथौड़े की तरह केसरी की बात उसकी आन पर बरसी थी जब एक रात केसरो ने उसका हाथ अपने जिस्म से हिक़ारत से यह कहकर झटक कर पीछे धकेल दिया था, 

“अपनी बेबे से इजाज़त लेकर आया है कि नहीं? नहीं लाया है तो पहले पूछ ले अपनी बेबे से, फिर आना। माँ का मुरीद।” 

यह गाली उसने धीमी आवाज़ में दी थी जो पिघलते सीसे की तरह उसके कानों में पड़ी थी। 

इतना कहकर वह कमरे से निकल कर आँगन में आ गई थी। और उस रात प्रीतम सिंह अंगारों पर लोटता रहा। उस रात उसे अहसास हो गया था कि वह मर्द होकर भी उससे ज़्यादा कमज़ोर व ओछा है। उस रात उसने अपनी बेबे का पल्लू छोड़ कर बीवी का आँचल थाम लिया। बेबे तिलमिलाती रही और केसरो दिन-ब-दिन निखरती गई, सँवरती गई। एक के बाद एक केसरो ने चार बेटों को जन्म दिया। सबसे बड़ा बेटा पैदा हुआ तो दादा-दादी उसे देखकर निहाल हो गए। और दादी ने उसका नाम ही निहाल सिंह रख दिया। 

उसके दो साल बाद गोरा-चिट्टा बेटा पैदा हुआ तो केसरो ने उसका नाम मक्खन सिंह रख दिया। फिर उसके अलगे साल उसे एक और बेटा पैदा हुआ जिसे देखते ही दादी ने कहा था, “प्रीतम यह क्या? सरदार के घर रोढ़ा बच्चा?”

उस रोज़ से प्रीतम ने उसे रोढ़ा ही कहकर बुलाना शुरू कर दिया। 

तीन साल लगातार इधर खेतों में फ़सल की कटाई होती तो उधर घर में केसरो की फ़सल भी तैयार हो जाती। सबसे छोटा बेटा बैसाखा, बैसाखी वाली शाम को ही पैदा हुआ था। उस साल बैसाखी की ख़ुशियाँ दुगुनी हो गईं। 

जैसे-जैसे केसरो के पैर जमते गए, सास के हाथों से गृहस्थी की डोर ढीली होती गई। दादी-पोतों की चहल-पहल देखकर ख़ुश थी मगर प्रीतम सिंह बेटों की जवानियाँ नहीं देख सका। 

निहाल जवान हुआ तो केसरो के दिल में बेटे के सर पर सेहरा देखने की ख़्वाहिश जवान होने लगी। उसने रिश्ते के लिए इधर-उधर हाथ-पैर मारने शुरू कर दिये। निहाल से बड़ी उम्र के जवान गाँव छोड़कर शहर जा बसे थे, सिर्फ़ इस वजह से कि उनको गाँव में शादी के लिए लड़कियाँ नहीं मिल रही थी। उसकी बेबे ने भी निहाल के लिए कई दरवाज़े खटखटाए, आस-पास के गाँवों तक जा पहुँची मगर उसके संजोग सोए रहे। बेबे ने तो ख़्वाब में भी नहीं सोचा था कि उसके हीरे जैसे बेटे के लिए दुलहन मिलना इतना मुश्किल हो जाएगा। जब ख़ाली झोली लेकर लौटती तो अक़्सर कहती: 

“लगता है लड़कियों का अकाल पड़ गया है। जिसके घर देखो लड़के ही लड़के हैं और अगर कहीं लड़की है तो उन लोगों के नख़रे ही बहुत हैं, ज़्यादा बड़े ज़मींदार चाहिए उन्हें।”

वक़्त गुज़रने लगा तो बेबे की फ़िक्र भी बढ़ने लगी। चार-चार जवान बेटे, वह भी बिना बाप के, न किसी का डर न किसी का लिहाज़। मुशटंडों की तरह सारे गाँव में दनदनाते फिरते। वक़्त गुज़ारने के लिए गाँव के किसी कोने में कभी दारू, कभी ताश, कभी तालाब के पास आती-जाती गाँव की लड़कियों, औरतों को सर से पाँव तक बेबाकी से देखते रहे तो कभी मोबाइल पर देखी फ़िल्मों पर आलोचनात्मक टिप्पणी करते। बेबे उनको पाँवों में ज़िम्मेदारी की बेड़ियाँ पहनाने को बेचैन थी। अब तो सिर्फ़ निहाल ही नहीं, बैसाखा तक की उम्र शादी के लायक़ हो चुकी थी। उसमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि उनकी जवानी को सँभाल पाती। उसे तो हर वक़्त यह डर लगा रहता कि कहीं कोई ऐसा काम न कर बैठें जिससे सभी को उम्र भर की शर्मिंदगी उठानी पड़े। 

वह अक़्सर अपनी बूढ़ी सास से कहती:

“देख लिया चार-चार पोतों का सुख? क्या इसे घर कहते हैं? न किसी के आने-जाने का वक़्त, न उन्हें उठने-बैठने का सलीक़ा, घर में बहन होती तो इस तरह नंग-धड़ंग बेशर्मों की तरह हमारे घर में न घूमते फिरते। गाँव की कोई भी औरत हमारे घर आना इसीलिए पसंद नहीं करती कि इन कमबख़्तों को ज़िन्दगी के तौर-तरीक़े नहीं आते। अब तो मैं सोचती हूँ किसी की भी शादी हो जाए। घर में एक लड़की आ जाने से कम-से-कम घर घर तो बन जाएगा। अब तो यह राक्षसों का अखाड़ा लगता है।”

बूढ़ी दादी पोते के सर पर सहरा देखे बिना ही पूरी उम्र भोग कर चल बसी। खेतों में काम चारों भाई सँभाल लेते थे। घर और घर के पालतू जानवरों की ज़िम्मेदारी बेबे के सर थी। अकेली जान घर का बोझ ढोते-ढोलते अब थक चुकी थी। वह सोच रही थी कि अब पीढ़ी आगे कैसे बढ़ेगी? उस रोज़ मंजीत बता रही थी कि चौधरी का लड़का गाँव की एक लड़की के साथ भाग गया। कल को अगर उसका कोई बेटा ऐसा निकला तो . . .? यह ख़याल आते ही वह भयातुर हो उठी। वह हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठ सकती। बहू तलाश करने की शिद्दत एक बार फिर तेज़ कर दी थी। इस बार वह कामयाब हो गई थी। रिश्ता तो वह निहाल के लिए माँगने गई थी पर पम्मो के घरवालों को मक्खन ज़्यादा पसंद था। न चाहते हुए भी निहाल को छोड़कर उसे पहले मक्खन के सर सहरा सजाना पड़ा। दुलहन के घर आ जाने से घर के रूप-रंग में कुछ सुधार तो हुआ था। 

नई नवेली दुलहन को घर में घूमते देख निहाल को कुछ अटपटा सा लगा था। वह घर का बड़ा बेटा था, अगर उसकी शादी पहले हो जाती तो यह चूड़ियों की खनक, यह पाजेब का मद्धम संगीत, वह बेझिझक उस रस में डूब जाता। पर अब वह इन सबसे कतराने लगा था। ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त वह घर से बाहर ही गुज़ारता। पम्मो के आने से पहले वह गर्मियों में आँगन में बिस्तर बिछाकर अपने भाइयों के साथ सो जाता था मगर अब इन्होंने आँगन के बजाय छत पर सोना शुरू कर दिया था। पहले तीन भाई छत पर सोते थे फिर दो रह गए। रोढ़े की रातें अक़्सर घर से बाहर गुज़रने लगी थीं। उसे नशे की ऐसी लत लग चुकी थी कि बेबे और निहाल कोशिशों के बावजूद उसे उस जंजाल से निकाल नहीं पाए थे। फिर वह दिन भी आया जब लाख कहने के बावजूद उसने खेतों पर आना तो छोड़ ही दिया था, ऊपर से अपने हिस्से का तक़ाजा भी करना शुरू कर दिया। सब जानते थे उसे अपना हिस्सा किसलिए चाहिए। उसके परदादा के पास पचास एकड़ ज़मीन थी जो बँटते-बँटते उसके पिता के हिस्से में दस एकड़ ही रह गई थी। अब उस दस एकड़ के भी चार हिस्से लाज़मी थे। बेबे ने जब उसे प्यार से, डाँट से, ग़ुस्से से मनाना चाहा, और वह फिर भी अपनी ज़िद पर अड़ा रहा तो बेबे ने चार की जगह ज़मीन में पाँचवाँ हिस्सा माँग लिया। वह पाँचवाँ हिस्सा ख़ुद उसके लिए था। दो एकड़ का हिस्सा लेकर वह घर से अलग हो गया। 

पम्मो ने बहुत जल्द घर के सभी काम अपने हाथ में ले लिए। बेबे आँगन में बैठी-बैठी उसके कामों में हाथ बँटाने लगी थी। काम भी करती जाती, पाठ भी करती रहती, बहू से बातें भी करती और निहाल और बैसाखा की हर ज़रूरत का ख़याल भी रखती। एक बार नहीं हज़ार बार उसने यह बात सुनाकर पम्मो को पक्का कर दिया था कि:

“देख नूह रानी यह बात पल्ले बाँध ले। जब तक तेरे जेठ और देवर की शादी नहीं हो जाती, उनके सब काम तू ही देखेगी, इनकी हर ज़रूरत का ख़याल तूने ही रखना है। जब उनकी बीवियाँ आ जाएँगी तो वह जानें या न जानें तू अपने फर्ज़ से पीछे मत हटना।”

वह सर को एक अंदाज़ में हिलाकर “हाँ” की हामी भरती। 

एक रात निहाल और बैसाखा खाना खाकर छत पर सोने के लिए पहुँच गये। दोनों देर तक बातें करते रहे फिर बैसाखा ने कुछ रुककर कहा:

“वीरे मैंने ज़रूरी बात करनी है तुझसे।”

“इतनी देर से ग़ैर ज़रूरी बातें कर रहा था,” करवट उसकी ओर बदलते हुए कहा। 

“सोचता था कहूँ या न कहूँ।”

“ऐसी भी कौन सी बात है, अब कह भी दे। नींद आ रही है मुझे, जल्दी से बता क्या बात है?”

“बुध को जगतार ट्रक लेकर कलकत्ता जा रहा है। मुझे भी साथ चलने को कह रहा है। मैं सोचता हूँ मैं भी चला जाऊँ।”

जगतार और कलकत्ते का ज़िक्र सुनकर उसका माथा ठनका। नींद तो बस ग़ायब हो गई और वह उठकर बैठ गया। 

“तूने उसके साथ जाकर क्या करना है?”

“मैं . . . ” वह हकलाने लगा। 

“देख बैसाखे, मुझे साफ़-साफ़ सब बता दे। मैं जगतार को भी जानता हूँ और तेरे इरादे भी मुझे ठीक नहीं लग रहे। बता क्या बात है?”

“थक गया हूँ मैं लोगों की बातें सुनते-सुनते। कल के छोकरे ताने देते हैं। अपने ही यार दोस्त जिनके साथ बचपन में खेलकर जवान हुए, हमें देखकर रास्ता बदल लेते हैं। और अगर उनके घर चले जाओ तो बाहर दरवाज़े से ही भगा देते हैं। वीरे हमारी शादी नहीं हुई, उसका मतलब यह तो नहीं कि हमारी कोई इज़्ज़त ही नहीं।”

“यह इज़्ज़त वाली बात कहाँ से आ गई? बेबे ने कितनी बार कोशिश की हमारे लिए लड़की देखने की। अगर क़िस्मत में नहीं ब्याह लिखा तो कोई क्या कर सकता है? और फिर हम अकेले ही तो इस गाँव में कँवारे मलंग नहीं हैं। और भी तो हैं हमारे साथी।”

“मुझमें तुम जैसा सब्र नहीं . . .!”

“क्या मतलब? तू कहना क्या चाहता है साफ़-साफ़ बता।”

“मैं जगतार के साथ कलकत्ता जाऊँगा और मैं वहीं से अपने लिए दुलहन ले आऊँगा। वह कहता था वहाँ आसानी से लड़कियाँ मिल जाती हैं।”

“ओ . . . तो यह बात है। तू दुलहन ख़रीदकर लाएगा।”

“ऐसा ही समझ लो।”

“अगर बेबे उसके लिए भी राज़ी न होगी। किसी बंगालिन को वह अपनी बहू कभी नहीं मानेगी। और यार सोच तो कल तेरे बच्चे होंगे। सरदार के बच्चे, जट के बच्चे बंगाली सूरत वाले,” सोचते हुए उसे बनावटी हँसी आ गई। 

“जो भी होगा ठीक होगा। होंगे तो मेरे ही बच्चे,” वह झुँझलाकर बोला। 

“देख बैसाखे यह तेरी ज़िन्दगी है, तू अपनी मर्ज़ी का मालिक है। मगर मैं जानता हूँ कि बेबे कभी राज़ी न होगी। वह तो नाई की कमलेशो का सुनकर भड़क उठी थी। तो क्या हुआ अगर वह नाई की बेवा बेटी थी, थी तो अपने इलाक़े की। अगर तू बंगालिन ले आया तो उसकी बात कौन समझेगा?”

“कुछ भी हो, अच्छा है न वो किसी की बात समझे और न कोई उसकी बात समझे। कम-से-कम मेरा घर तो बस जाएगा। लोगों के मुँह तो बंद हो जाएँगे।”

“सोच ले एक बार फिर। और सुन, बेबे से बात कर लेना। उसे मनाकर ही जगतार के साथ जाना।”

“ये ही तो मुश्किल काम है। देखता हूँ बेबे से बात करके। वीर तू ही बेबे से मेरी सिफ़ारिश कर देना।”

“अगर मुझे कभी बात करनी होगी तो मैं अपने लिए करूँगा, तेरे लिए क्यों करूँ?”

“बड़ा भाई नहीं तू मेरा?”

“चल अच्छा सो जा, सुबह होते ही देखते हैं क्या होता है?”

जिस बात का उन्हें डर था वही हुआ। बेबे को पता चला तो उसने सारा घर सर पर उठा लिया। वह किसी भी क़ीमत पर राज़ी नहीं हुई। निहाल बीच में पड़ा तो बेबे ने रोना शुरू कर दिया। आँसू और वो भी बेबे की आँखों में। निहाल ने हथियार डाल दिए और बैसाखा ग़ुस्से से पैर पटकता निकल गया। उस रात वह घर नहीं आया। निहाल उसे तलाश करता जगतार के अड्डे पर जा पहुँचा, उसे समझा-बुझाकर घर तो ले आया मगर उसने अपनी ज़िद नहीं छोड़ी और बुधवार की सुबह वह बैग लेकर घर से निकल गया। बेबे रोती-चिल्लाती रह गई मगर वह रुका नहीं। तीन महीने उसकी कोई ख़ैर-ख़बर नहीं आई और फिर एक रोज़ अचानक एक बंगाली दुलहन को साथ लेकर घर लौट आया। आते ही बेबे के क़दमों में गिर गया। 

“बेबे तेरी बहू . . . आशीर्वाद दे दे!”

वह हक्की-बक्की उस आधी पसली की मरियल सी लड़की, जिसके साँवले चेहरे पर दो बड़ी-बड़ी काली आँखें खौफ़ और बेबसी की दुहाई दे रही थी। जिसे देखते ही बेबे ने अपना सर पकड़ लिया और अनमने मुँह से निकला:

“वे जी जोगेया ऐ क्या ले आया? जिसकी शक्ल न सूरत!”

“बेबे तेरी बहू है, शादी कराके लाया हूँ।”

“कितने में ख़रीदी?”

“बेबे ख़रीदी नहीं! ग़रीब बाप की बेटी है। उसके बाप की नहीं अपने ससुर की सिर्फ़ मदद ही की है।”

“ओए, उसे ख़रीदना ही कहते हैं और बिकी हुई औरत की कोई इज़्ज़त नहीं होती। न घर में न समाज में, न ही लोग उसकी इज़्ज़त करेंगे, और न ही कल तू उसकी इज़्ज़त करेगा।”

“बेबे बीवी है मेरी। ऐसा मत कह। घर बसाना है उसके साथ। तू बस आशीर्वाद दे दे!”

“एक बात तू मेरी सुन ले! तूने अपनी मरज़ी की, हमारी एक न सुनी। तू अपनी मरज़ी का मालिक, उसे लेकर अपनी अलग से घर-गृहस्थी बसा ले। अब इस घर में तेरे लिए कोई जगह नहीं।”

“मगर बेबे मैं उसे लेकर जाऊँगा कहाँ?”

“यह तो तुझे पहले सोचना चाहिए था। तेरे बड़े ख़ैरख़्वाह हैं, यह सलाह भी दे देंगे।”

अब तक बात सारे गाँव में फैल चुकी थी और निहाल भी यह ख़बर सुनकर घर की तरफ़ लपका। अपने घर के बाहर लोगों को उचक-उचक कर अंदर देखते भड़क उठा, “तमाशा हो रहा है कोई? भागो अपने-अपने घरों में जाओ।”

उसकी ज़ोरदार आवाज़ सुनकर लोग तितर-बितर हो गए। 

“बेबे यह क्या कर रही हो? क्यों तमाशा बना रही हो? ब्याहकर लाया है भगाकर नहीं लाया,” बेबे के कंधे पर प्यार से हाथ रखकर उसे समझाने लगा। 

“मगर देख तो क्या गुल खिलाया है चन्दरे ने,” बेबे की आँखें बरसने लगी थीं। 

“चुप कर बेबे, मत रो। जो हो गया सो हो गया। तू बस शांत हो जा,” माँ को सीने से लगाकर चुप कराने लगा। 

बैसाखा अपनी दुलहन के साथ वहीं परेशान खड़ा रहा। पम्मो रसोई में काम करते-करते बाहर देख रही थी। 

“चल ओए बैसाखिया ले जा अपनी दुलहन को अंदर। जा मुँह हाथ-धोकर कुछ खा-पी ले।”

यह सुनते ही बैसाखे ने राहत की साँस ली और बीवी को पीछे आने का इशारा करते हुए जल्दी-जल्दी कमरे में चला गया। 

“पम्मो, जाकर देख उन्हें क्या चाहिए?” बहुत कम वह उसके नाम से बुलाकर कोई काम कहता था। 

पम्मो को उसने कमरे में उनके पीछे जाते देखा और ख़ुद वह बेबे को मनाने की कोशिश करने लगा। बैसाखे का इस तरह बंगाली लड़की ब्याह कर ले आना उसे भी अच्छा न लगा था। उसका दर्द, उसकी चाहतें, उसकी ख़्वाहिशें, उसकी ज़रूरतें उसकी तिश्नगी को महसूस कर सकता था। वह भी तो उसी कश्ती का मुसाफ़िर था, फर्क़ सिर्फ़ इतना था कि वह बेबे को दुख देकर कोई काम नहीं करना चाहता था। जी तो उसका भी चाहता था कि कोई उसकी राह देखे, उसके सब काम करे, थक-हार कर जब खेतों से लौटे तो दो बोल प्यार के बोले। उसके भी घर में बच्चों का शोर हो। वह सिर्फ़ ठंडी आह भरकर रह गया। 

बहुत जल्दी आठ एकड़ ज़मीन के फिर हिस्से हो गए। दो एकड़ अपने हिस्से की ज़मीन लेकर बैसाखा अपनी बीवी को लेकर अलग घर बसाने के लिए दहलीज़ पार कर गया। 

ज़मीन और घर के बँटवारे तो सब ने देखे मगर बेबे के दिल के कितने टुकड़े हुए, कितने अरमान सिसक-सिसक कर टूटे, यह किसी को दिखाई नहीं दिया। उसे जिस्मानी तकलीफ़ कोई नहीं थी बस मोह का रोग लग गया। बेटों का मोह दीमक की तरह उसे अंदर से खोखला करता रहा। अपने सबसे आज्ञाकारी लाड़ले बेटे का घर न बसा सकने की नाकामयाबी उसे तड़पाती रही और एक रोज़ यह अरमान लिए वह इस दुनिया से कूच कर गई। 

बेबे के गुज़र जाने के बाद मक्खन और पम्मो उसका पूरा ख़याल रखते। मक्खन खेतों में उसके साथ काम करता। मंडी भी एक साथ जाते और कोशिश करता कि वह कहीं दोस्तों के साथ रुक न जाए। सीधे उसके साथ ही घर चले आते। पम्मो भी उसकी हर ज़रूरत का ख़याल रखती, वक़्त पर खाना देना, उसके कपड़े धोना, उसका बिस्तर छत पर लगाना, सब वह बिना कहे ही करती। फिर भी निहाल को वह अपना घर नहीं लगता था। वह उसे पम्मो का घर कहने लगा था। बेबे के जाते ही उसके सर का पल्लू भी ढलक गया था। अपने घर का अहसास शायद बेबे अपने साथ ही ले गई थी। रोढ़ा तो अपनी ज़मीन बेचकर न जाने कहाँ निकल चुका था। बैसाखा अपनी बंगालन के साथ ख़ुश था। बस वह ही तन्हा रह गया था। उसे चरन सिंह की बात बार-बार याद आ रही थी। सुनते ही जिस को उसने इंकार कर दिया था, अब वही बात उसे भली लगने लगी थी। वह सोचने लगा कब तक वह ऐसे ही बेमकसद ज़िन्दगी जीता रहेगा? कब तक वह चोरों की तरह नथनी वाली के पास अपनी ज़रूरतें पूरी करने जाता रहेगा? उसे अभी कोई अपना चाहिए। बैसाखा भी तो ख़ुश है। लोग एक दिन बातें करेंगे, दो दिन करेंगे, फिर ख़ामोश हो जाएँगे। बच्चे काले-पीेले पैदा हो भी गए तो क्या? होंगे तो उसी के। जब यही बात बैसाखा ने उससे कही थी तो वह कैसे खिलखिलाकर हँसा था। अब वह भी थक गया है। 

रात आँगन में तख़्त पर बैठे दोनों भाई खाना खा रहे थे और पम्मो रसोई से एक-एक करके गरम-गरम रोटी उनको परोस रही थी। निहाल ने बातों-बातों में चरन सिंह का ज़िक्र छेड़ दिया। 

“मक्खन यार चरन सिंह बड़ा ज़ोर डाल रहा है साथ चलने को।” 

“क्या?”

“कह रहा है कुछ दिनों के लिए उसके साथ बाहर चलूँ।” 

“बाहर, वहाँ क्या है?”

“उसके कुछ रिश्तेदार रहते हैं। उनकी बहुत जान-पहचान है। हो सकता है कोई लड़की पसंद आ जाए।”

“वीरे तू भी . . .?” उसने हैरत से भाई को देखा। 

“क्या करूँ यार? मेरी भी तो कुछ ज़रूरतें हैं, कुछ अरमान हैं। अब अकेले ज़िन्दगी नहीं कटती। पंजाब की ज़मीन तो हमारे लिए बंजर हो गई,” उसकी आवाज़ में मायूसी और बेज़ारी ज़ाहिर थी। पम्मो के हाथ रोटी सेकते रुक गए। उसने कान उनकी बातों की तरफ़ लगा दिये। 

उस रात न जाने क्यों पम्मो सो न सकी। बेबे की बातें उसे रह-रह कर सताने लगीं। उसने तो वादा किया था बेबे से कि वह उसकी हर ज़रूरत का ख़याल रखेगी। उसे कोई तकलीफ़ नहीं होने देगी। साथ सोया मक्खन सिंह खर्राटे भरता रहा और वह करवटें बदलती रही। 

पता नहीं वह ज़मीन के एक और बँटवारे, घर के बँटवारे, अपनी हुकूमत के बँटवारे या फिर मर्द के बँटवारे, न जाने किस के खौफ़ ने उसके अंदर की सोई ही हुई द्रोपदी को जगा दिया। वह सोचने लगी कि अगर कल की तरह उसने, दोबारा उसकी कलाई पकड़ ली तो वह उसे छुड़वाएगी नहीं और न ही भगवान कृष्ण को अपनी मदद के लिए पुकारेगी। उसे तो अपने फ़र्ज़ पूरे करने हैं, उसे तो बेबे से किया हुआ वादा पूरा करना है। 

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