प्रांत-प्रांत की कहानियाँ (रचनाकार - देवी नागरानी)
दोषीउर्दू कहानी
मूल लेखक: खुशवंत सिंह
तारों भरी रात थी। दिलीप सिंह खाट पर सोया हुआ था। वह घुटनों तक लंगोट पहने हुए था, बाकी उसका सारा जिस्म बेलिबास था। उसके पूरे जिस्म पर सफेद निशान थे। धूप में जलती दीवारें गर्म हवाएं छोड़ रही थीं। गर्मी से बचने के लिए उसने अभी-अभी घर की छत पर पानी छिड़क दिया था। उससे सिर्फ यही महसूस हो रहा था कि उसके नथुनों में गोबर की बदबू भरी हवा दाखिल हो रही थी। गर्मी बहुत थी, पानी पीते पीते उसका पेट भर गया था, पर गला फिर भी खुश्क का खुश्क ही रहा। ऊपर से मच्छरों की मुसलसल भूं…भूं…! गुस्से में कुछ मच्छर जो उसके हाथों की गिरफ्त में आ गए, उन्हें हाथों से हथेली पर ही रगड़ दिया। जो कान में घुसे थे, उन्हें अनामिका की मदद से बाहर निकाल फेंका। कुछ उसकी दाढ़ी से उलझ गए थे, उसने उन्हें वहीं दबा कर चुप करा दिया। इसके बावजूद भी, कुछ मच्छर स्थान मिलते ही उसके बदन पर डंक लगाते रहे। और वह बेचारा गालियाँ देने और खरोंचने के सिवाय और कुछ न कर सका।
दिलीप सिंह और उसके चाचा के घर के बीच एक संकरी गली हुआ करती थी। चाचा की छत पर बिछाई खाटों की कतार को वह आसानी से देख सकता था। एक तरफ किनारे के पास उसका चाचा बंता सिंह पैर पसारे यूं सोया हुआ था जैसे किसी कपड़े सुखाने की रस्सी पर कपड़ा टंगा हो। खर्राटों के साथ उसका पेट ऊपर नीचे हो रहा था। खाटों की दूसरी ओर औरतों की टोली पंखा झुलाते हुए अपने आप में आहिस्ता आहिस्ता कचहरी करने में मशरूफ थीं।
दिलीप सिंह की आँखों में नींद ही न थी, वह बस लेटे लेटे आसमान को देख रहा था। न उसके दिल में चैन था, न आँखों में नींद। और फिर दूसरी छत पर उसका चाचा, उसके बाप का भाई और कातिल बेखब्री से सोया पड़ा था। उसके घर की औरतों के पास वक्त था, छत पर बैठकर सांस लेने का और कचहरी करने का, जब कि उस वक्त इसकी माँ अंधेरी रात में भी बर्तनों को राख से रगड़ रही थी, और आने वाले दिन के लिए जलाने के लिए गोबर जमा कर रही थी। चाचा बंता सिंह के पास करने के लिए कुछ न था, फ़क़त भांग घोटना और सारा वक्त सोना। नौकर चाकर थे, जमीन-जायदाद थी और खेतों की संभाल करने के लिए।
उसकी एक बेटी थी, बिंदु, चमकती आँखों वाली। उसे भी कामकाज कुछ न था, जापानी रेशम के कपड़े पहने यहाँ वहाँ खेलने के सिवाय, पर दिलीप सिंह के लिए तो काम ही काम था, हर वक्त काम!
नीम के पेड़ों में हलचल हुई, गर्म हवा का झोंका छत पर से गुज़रा और मच्छरों को साथ उड़ा ले गया। लोगों को पसीने से थोड़ी राहत मिली। दिलीप सिंह के गर्म जिस्म को भी कुछ आराम महसूस हुआ। आँखें उनींदा होने लगीं। बंता सिंह की छत पर औरतों के हाथों ने पंखा चलाना बंद कर दिया.
अपनी खाट पर लेटे हुए बिन्दु ने थोड़ा सर को हिलाया और एक गहरी सांस ली, जैसे सारी हवा को सीने में समाना चाह रही हो। दिलीप ने देखा कि उसने अपनी छत पर टहलना शुरु किया। अब अपनी छत से बिंदु ने गांव की सारी छतों और आँगन में सोए लोगों का निरीक्षण करना शुरु किया। कहीं कोई हलचल न थी। वह अपनी खाट पर जाकर बैठ गई और घुटनों तक लटकते कुर्ते को दोनों हाथों से पकड़े ऊपर करके मुंह को हवा देने लगी। उसका जिस्म अब पाँव से लेकर गले तक साफ नजर आने लगा। ठंडी हवा उसके सख्त पेट और जवान सीने की तरफ सरसराहट करते हुए चलने लगी। उस वक्त कोई गुस्से में बड़बड़ाया। एकदम बिंदु ने कुर्ता नीचे कर दिया। वह अपनी खाट पर लेट गई और तकिए में मुंह छिपाकर सोने की कोशिश करने लगी।
अब ऐसे में दिलीप सिंह को भी नींद कहाँ? उसका दिल ज़ोर ज़ोर से धड़क रहा था। बंता सिंह का नफरत से लदा जिस्म उसके दिल में उतर आया। उसकी आँखें नम हो गईं, और वह बिंदु के तसव्वुर में खो गया, जिसे अभी अभी उसने तारों की रोशनी में देखा था। उसे बिन्दु से प्यार होने लगा था। खयालों ही खयालों में उसे हासिल करने की तमन्ना जागी। बिंदु तो हमेशा उसके करीब रहना चाहती थी। वह कई बार आग्रह भी कर चुकी थी पर दिलीप कभी भी राजी नहीं हुआ। बंता सिंह उसका दुश्मन जो था, और उसने हमेशा ही उसे नीचा दिखाने की कोशिश की थी।
प्रकट रूप में दिलीप सिंह की आँखें बंद थी, पर अब वह किसी और दुनिया में खुल रही थीं, जिसमें बिंदु रहती थी। उससे प्यार करने वाली बिंदु, खूबसूरत बिंदु, उसकी अपनी बिंदु।
अभी दिन पूरी तरह चढ़ा भी न था कि उसकी माँ ने उसे झकझोरते हुए कहा&‘‘ठंड में ही खेत को जोतना बेहतर होता है।’’ रात की काली छाया अब भी मौजूद थी, तारे भी चमक रहे थे। उसने तकिए के नीचे से अपनी कमीज निकाल कर पहन ली। फिर एक बार उसकी नजरें सामने वाली छत पर चली गईं जहाँ बिंदु बेखबर सो रही थी।
बैलों को हल में जोत कर हाँकने के बाद दिलीप सिंह तैयार फ़सल की ओर जाने लगा। वह गांव की सुनसान अंधेरी गलियों को पार करके तारों भरी चमकती रात में खड़ी फ़सल वाले खेत में आ पहुँचा। उसे बहुत थकान महसूस हो रही थी। बिंदु का ख्याल अब भी उसके दिल और दिमाग पर छाया रहा। दक्षिण की तरफ से आसमान धीरे धीरे काले रंग से भूरे रंग में तब्दील होता जा रहा था। कूँज पक्षियों की आवाजें खेतों में गूंज रही थी। पास में पेड़ों पर बैठे कौवे भी आहिस्ते-आहिस्ते कां…कां…करने लगे।
वह खेत जोत रहा था, पर उसका मन कहीं और था। बस हल को पकड़े, बैलों के पीछे पीछे चल रहा था। संभाग न सीधे पड़ रहे थे न गहरे। उसने आसमान की ओर देखा, उसके रंगों को देखा, और उसे अपने आप पर शर्म आने लगी। उसने खुद को संभालना चाहा। दिन में ख्वाब..नहीं...अब और नहीं....! उसने हल के खूंटे को जमीन में ज़्यादा गहरे उतारा, बैलों को लकड़ी की मदद से जोर से हकाला। बैलों पर मार पड़ी तो वे नथुने फुलाकर, दुम हिलाते हुए रफ्तार तेज करने लगे। ज़मीन को हल से चीरते हुए दिलीप सिंह दोनों पैरों से मिट्टी को दूर करने लगा, और इसी तरह लगातार काम करता रहा। अब सुबह भरपूर उजाले के साथ ज़ाहिर होने लगी। दिलीप ने हल चलानी छोड़ दी, बैलों को हाँकते हुए कुएं के पास पहुँचा, और कुएं के पास नीम के पेड़ की छांव तले उन्हें खुला छोड़ दिया। पानी की कितनी ही बाल्टियाँ कुएं से भरकर अच्छी तरह नहाने लगा और बैलों को भी छींटे मारने लगा। पूरा रास्ता बैलों के जिस्म से पानी टपकता रहा और वह उन्हें हाँकते हाँकते आखिर घर आ पहुँचा।
माँ उसके ही इंतजार में थी। ताज़ी पकी रोटियों पर मक्खन लगा हुआ था, पालक का साग भी उन पर रखा हुआ था। उनके साथ चांदी के ग्लास में भरी लस्सी! दिलीप को बहुत भूख लगी थी। वह खाने पर टूट पड़ा और माँ उसके सामने बैठी हाथ पंखे से मक्खियाँ उड़ा रही थी। रोटी और साग से पेट भरकर उसने लस्सी भी गटागट पी ली। खाट पर लेटते ही उसे नींद आ गई। माँ पास बैठी, प्यार भरी नजरों से उसे देखते पंखा झुलाती रही। दिलीप सिंह काफी देर तक सोया ही रहा। आँख खुली तो शाम हो चुकी थी। वॉटर कोर्स से पानी खोलने के लिए वह खेतों की ओर निकल पड़ा। उसके और उसके चाचा बंता सिंह के खेतों के बीच में पानी का एक वाटर-कोर्स था। वह उस के किनारे चलने लगा। चाचा के खेतों को खेतिहर ही जोतते थे। अपने भाई का कत्ल करने के बाद बंता सिंह ने शाम के समय खेतों में आना ही छोड़ दिया था।
दिलीप सिंह अपने खेतों को पानी देने के लिए वाटर कोर्स का दस्ता घुमाने लगा। काम समाप्त करके वह बड़ी सड़क के किनारे पहुँचा। हाथ मुंह धोए और किनारे की घास पर बैठ, बहते पानी में पैर डालकर माँ का इंतजार करने लगा।
सामने सूरज धीरे धीरे नीचे उतरने लगा था। आधे चांद के साए में शाम के सितारे भी चमकने लगे थे। गांव की तरफ कुएं के पास बैठी औरतें बातें कर रही थीं। औरतों की आवाजें, बच्चों का शोर, और कुत्तों का एक साथ भौंकना उसके कानों तक पहुँच रहा था। दिन तमाम उड़ने के बाद चिड़िया भी शोर मचाते हुए अपने-अपने घोसलों की ओर जा रही थीं। औरतों की टोलियाँ भी अपने जरूरी काम पूरे करके खेतों की झाड़ियों के पीछे से निकलकर प्रवाह में बहते पानी के पास जमा हो रही थीं।
दिलीप की माँ पानी देने वाला पाइप साथ लाई, और अब पानी देने की बारी दिलीप की थी। पाइप बेटे को देकर वह माल की संभाल करने के लिए वापस जा चुकी थी। बंता सिंह के खेतिहर पहले ही जा चुके थे। दिलीप सिंह ने बंता सिंह के खेतों की तरफ पानी का रास्ता बंद करके, अपने खेतों की ओर मोड़ दिया। और अब वह पानी के किनारे ठंडी नरम घास पर बैठ गया, फिर सुस्ताते हुए लेट गया और आसमान की ओर देखने लगा। गांव से आती मिली-जुली आवाजें रख रख कर उसके कानों पर पड़ रही थी। बंता सिंह के खेतों से औरतों के बतियाने की आवाज़ साफ सुनाई दे रही थी। अब वह भी चांदनी की ख़ामोशी में किसी दूसरी दुनिया में गुम हो गया।
पास में ही बहते पानी के छींटों की आवाज ने उसके ख्वाबों को तोड़ दिया। उसने चौंककर देखा, एक औरत कुछ कपड़े धोने में व्यस्त थी। धुलाई के बाद उसने ज़मीन से मिट्टी उठाई, हाथों पर मलकर बहते पानी से हाथ मुंह धोने लगी। कुल्ला करके अंचुली में पानी भरकर मुंह पर छींटे मारने लगी। उसकी सलवार पूरी तरह से भीग गई थी। चोली के आगे वाले हिस्से से मुंह साफ़ करने लगी। दिलीप ने उसकी ओर गौर से देखते हुए कहा&‘अरे यह तो बिंदु है।’
उस पर अजीब दीवानगी छा गई। वह लपक कर दूसरे किनारे पर पहुँचा और बिंदु की तरफ दौड़ने लगा। लड़की का मुँह दुपट्टे से ढंका हुआ था। जब तक वह मुड़ कर पीछे निहारती, उससे पहले ही दिलीप सिंह लिपटकर उसे प्यार करने लगा। चिल्लाने के पहले ही दिलीप ने उसे नरम घास पर गिराया और उसके हाथ पकड़ने लगा। बिंदु जंगली बिल्ली की तरह उससे लड़ने लगी। दिलीप की दाढ़ी को दोनों हाथों से पकड़कर, उसके गालों पर बेदर्दी से खुरचने लगी। उसके नाक को इतनी जोर से काटा कि उसमें से खून रिसने लगा। पर वह बहुत जल्द थक सी गई। अब उसमें हौसला बाकी न रहा, और वह चुपचाप ही लेटी रही। उसकी आँखें, आधी व बंद थीं, दोनों आँखों से आँसू एक लकीर की मानिंद कानों की ओर बहने लगी। चाँद की रोशनी में वह बेहद सुंदर लग रही थी। दिलीप के दिल में पछतावे की भावना जाग उठी। उसका इरादा बिंदु को दुखाना नहीं था। उसने अपने मजबूत हाथों से उसके बाल बनाए और प्यार से उन पर हाथ फिराने लगा। उसने झुककर प्यार से अपना नाक उसके नाक से रगड़ा। बिंदु ने अपने कजरारी आँखों से उसकी ओर प्यार भरी नजरों से देखा। दिलीप ने एक बार फिर प्यार से उसके नाक और आँखों को चूमा। बिंदु की आँखों में एक अजीब झलक थी, जिसे न नफरत कह सकते थे, न ही प्यार! आँसू उसकी आँखों से बाहर निकल आए।
उसकी सहेलियाँ उसे आवाज दे रही थीं। उसने कोई भी उत्तर नहीं दिया। उनमें से एक जो पास आई, उसे इस हालत में देखा तो उसकी मदद के लिए और सहेलियों को आवाज़ दी। दिलीप सिंह फुर्ती से उठा और प्रवाह के दूसरी ओर अंधेरे में गुम हो गया।
दूसरे दिन सारा गांव अदालत में मौजूद था। दिलीप सिंह पर केस दाखिल किया गया था। बरामदे में एक ओर दो पुलिसवाले हथकड़ी में जकड़े दिलीप सिंह को घेरे बैठे थे। पास बैठी माँ उसे हाथ पंखे से हवा दे रही थी, और रोते-रोते अपना नाक साफ कर रही थी। बरामदे के दूसरी ओर बिंदु, उसकी मां, और कुछ औरतें घेराव बनाकर खड़ी थीं। बिंदु रो भी रही थी, और नाक से सूं...सूं...की आवाज़ भी निकाल रही थी। सबसे ज्यादा केंद्र बिंदु रहा बंता सिंह, जो अपने यारों के साथ था, जिनके हाथों में बांस की लाठियाँ थी। वे लगातार बड़बड़ा रहे थे।
बंता सिंह ने सरकारी वकील के सिवाय एक और मददगार वकील किया था। वकील ने गवाहों को एक-एक बात समझा दी थी। विरोधी वकील की ओर से पूछे गए सवालों के जवाब भी सुने और उसने अदालत के चपरासी तक को भी बंता सिंह के साथ मिला दिया था। सरकारी वकील को भी नोटों की गड्डी दी गई थी। इंसाफ के हर पहलू को अपने साथ जोड़ लिया था।
दिलीप सिंह ने न तो सफाई पेश करने के लिए कोई वकील किया और न ही कोई गवाह था।
चपरासी ने अदालत का दरवाजा खोला और केस की कार्रवाई शुरु करने का ऐलान किया। उसने बंता सिंह और उसके सभी साथियों को अंदर दाखिल होने की इजाज़त दे दी। दिलीप सिंह को सिपाहियों की निगरानी में अन्दर लाया गया, पर उसकी माँ को चपरासी ने भीतर आने से रोक दिया। यह इसलिए कि उसने उसकी जेब गर्म नहीं की थी। जब अदालत के अंदर सब कुछ ठीक-ठाक हो गया तब क्लर्क ने दोषी के बारे में बयान पढ़ना शुरू किया।
दिलीप सिंह ने निर्दोष होने का दावा किया। मैजिस्ट्रेट मिस्टर कुमार ने सब इंस्पेक्टर को, बिंदु को हाज़िर करने के लिए कहा। शॉल में मुंह लपेटे बिंदु कटहरे में दाखिल हुई। वह अब भी नाक से सूं...सूं....की आवाज निकाल रही थी। इंस्पेक्टर ने, उसके पिता और दिलीप सिंह की दुश्मनी के बारे में बताया, और फिर, बिंदु के कपड़े अदालत में पेश किए गए। सफाई देने वालों की ओर से कहने के लिए कुछ भी न था। सबूतों के साथ बिंदु की गवाही ने केस को बिल्कुल साफ और साबित कर दिया था। कैदी से कहा गया कि वह अपनी सफाई में कुछ कहना चाहे तो कह सकता है।
‘मैं बेगुनाह हूँ, साहब।’ दिलीप सिंह ने कहा।
मैजिस्ट्रेट मिस्टर कुमार बेचैन हो रहे थे। कहने लगे&‘तुमने सबूत तो सुने ना? अगर तुम्हें लड़की से कुछ भी नहीं पूछना है तो मैं फैसला सुनाऊँ।’
‘साहिब, मेरे पास तो कोई वकील भी नहीं है। गांव में तो कोई ऐसा दोस्त भी नहीं है, जो मेरे लिए गवाही दे। गरीब आदमी हूँ मालिक, पर मैं बिल्कुल बेकसूर हूँ।’ दिलीप सिंह ने फिर याचना की।
मैजिस्ट्रेट को अब गुस्सा आ गया। उसने रीडर की ओर देखते हुए कहा&‘लिखो, कोई भी सफाई नहीं दी गई।’
‘पर साहब...’ दिलीप सिंह ने मिन्नत की।
‘मुझे जेल भेजने के पहले ज़रा एक बार इस लड़की से पूछो तो सही, कि क्या वह रजामंद न थी? मैं उसके पास इसलिए गया था कि वह खुद भी मेरे करीब आना चाहती थी। मैं बेकसूर हूँ।’
मजिस्ट्रेट ने फिर भी रीडर की ओर ध्यान दिया और कहने लगे&‘दोषी की तरफ से सफाई लिखो कि लड़की खुद अपनी मर्ज़ी से मुलज़िम के पास गई थी।’
फिर उसने बिंदु की ओर मुखातिब होते हुए पूछा&‘जवाब दो, क्या तुम अपनी मर्जी से दोषी के पास गई थी?’
बिंदु सिर्फ रोती रही और नाक से सूं...सूं...की आवाज करती रही। एक अजीब खामोशी अदालत में छाई रही। मजिस्ट्रेट के साथ-साथ भीड़ अब उसके जवाब का इंतजार कर रही थी।
‘तुम खुद गई थी या नहीं? जल्दी जवाब दो! मुझे और भी काम हैं।’
शॉल की कई परतों में छिपे चेहरे को बाहर निकालते बिंदु ने जवाब दिया&‘जी हाँ, मैं अपनी ही मर्जी से गई थी!’
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