प्रांत-प्रांत की कहानियाँ

प्रांत-प्रांत की कहानियाँ  (रचनाकार - देवी नागरानी)

फिर छिड़ी बात . . .

 

आज जिस तरह से प्रगति और विकास के नाम पर आदमी उड़ा जा रहा है उसमें गति तो है लेकिन लक्ष्य नहीं दिखता। जब लक्ष्य नहीं तो दशा और दिशा दोनों ही अपरिभाषित और अस्पष्ट रहती हैं। ऐसे में अपने मूल्यों से चिपटे रहना या उन्हें अपनी साँसों में बसाए रखना दीवानापन कहा जा सकता है। लेकिन दिल और दुनिया दोनों की अपनी-अपनी जिद हैं। 

आज शताब्दियाँ बीत जाने पर भी आदमी अपनी जड़ें ढूँढ़ता है। किताबों में रखे ख़त और गुलाब खोजता है। यही जुनून आदमी की ताक़त और यही उसकी कमजोरी है। भारत के इतिहास में विभाजन आज भी एक अविस्मरणीय त्रासदी है जिसे कोई भी प्रभावित व्यक्ति न तो जीवन भर भूल सकता है और न ही घटिया राजनीति उसे भूलने देगी। हाँ, दोनों के अनुभव अलग-अलग हैं। जिस तरह योरप का इतिहास और साहित्य दो विश्व युद्धों के इर्द-गिर्द घूमता रहा है वहीं इस उपमहाद्वीप का इतिहास और साहित्य भी विभाजन की त्रासदी के चारों ओर घूमता रहा है। यशपाल का दो भागों में लिखा विराट उपन्यास ‘झूठा सच’ इस त्रासदी का एक प्रामाणिक महाकाव्य है। टोबा टेक सिंह, मलबे का मालिक, सिक्का बदल गया, पानी और पुल आदि इस दर्द की कुछ प्रसिद्ध कहानियाँ हैं। आज भी उन यादों का दर्द, उन रिश्तों की खुशबू सारी पाबंदियों के बावजूद सरहदों के आर-पार बेखौफ आती जाती रहती है। 

धीरे-धीरे भाषाओं की भिन्नता मुखर होती गई लेकिन इसके बावजूद संवेदनशील लेखकों और अनुवादकों के इस सिलसिले को टूटने नहीं दिया और आज भी जोड़ने में लगे हुए हैं। सिन्धी और पंजाबी भारत और पाकिस्तान की दो ऐसी भाषाएँ हैं जो पाकिस्तान और भारत की सरहदों के आरपार हवाओं की तरह बहती हैं। दोनों देशों में विशेषकर भारत में पंजाबी और सिन्धी भाषी लेखकों ने कभी इसे अपनी मातृभाषा तो कभी अनुवाद के माध्यम से संजोने और एक पुल बनाने की कोशिश ज़ारी रखी है। 

आज इस क्षेत्र में जो लोग निरंतर सक्रिय हैं उनमें देवी नागरानी का नाम भी प्रमुख है। उन्होंने कविता, कहानी में मौलिक हिंदी और सिन्धी लेखन के अलावा दोनों भाषाओं में आपस में अनुवाद भी पर्याप्त किये हैं। दोनों देशों के साहित्यकारों के संपर्क में हैं और नैतिक मूल्यों पर आधारित रचनाओं का पारस्परिक अनुवाद कर रही हैं। भारत जैसे बहुभाषी देश में तो अनुवाद का महत्त्व सबसे ज्यादा है। इतनी भाषाओं में मूलरूप से सब कुछ पढ़ पाना तो किसी राहुल संकृत्यायन के वश का भी नहीं है। इसलिए अनुवाद का महत्त्व तो रहेगा ही। यदि अनुवाद का काम नहीं होता तो शायद यह दुनिया बहुत से ज्ञान से वंचित हो जाती। 

यह सच है कि अनुवाद में वह बात नहीं आ सकती जो मूल भाषा में हम अनुभव करते हैं। समीक्षक इसे किसी दुभाषिये के माध्यम से किया जाने वाला प्रेम कहते हैं। पर प्रेम की शुरुआत तो हो। फिर यदि इश्क में कशिश हुई तो अपने आप कोई और बेहतर रास्ता निकाल लेगा। लेकिन यह भी सच है कि यदि अनुवादक उसी भाषा का हो और दोनों भाषाओं का ज्ञाता हो तो यह काम इतने सुन्दर और परिपूर्ण ढंग से कर सकता है कि मूल और अनुवाद का फर्क ही मिट जाए। देवी नागरानी के साथ यह संयोग है कि वे दोनों भाषाओं पर समान अधिकार रखती हैं और स्वयं रचनाकार भी हैं। इसलिए उनके किए अनुवाद पाठकों को निश्चित रूप से मूल रचना का सा आनंद देंगे। 

उन्होंने इस कहानी संकलन के लिए जिन कहानियों का चयन किया है वह भी एक खास महत्त्व रखता है। इनमें नए और पुराने, बुज़ुर्ग और ज़वान दोनों प्रकार के कहानीकार शामिल हैं लेकिन एक समान बात सभी कहानियों में है कि ये कहानियाँ केवल लिखने के लिए नहीं लिखी गई हैं और न ही फैशन में आकर कोई विमर्श को इनमें ढोने का नाटक किया गया है। ये सब सरल मानवीय जीवन, संबंधों, आशाओं और आकांक्षाओं, उसकी कमजोरियों और ताक़तों की सजीव कहानियाँ हैं। 

तो फिर फूलों की बात छिड़ी है, खुशबू की बात छिड़ी है। गुलाबों की खुशबू की। जिसमें कांटें भी हैं तो न भूल सकने वाली गुलाबों की खुशबू भी। रिश्तों और साहित्य की यही तो लज्ज़त है कि वे हर रंग में मज़ा देते हैं।

मेरा विश्वास है कि ये कहानियाँ पाठकों को बहुत दिनों तक याद रहेंगी। मैं सोचता हूँ कि पाठक मूल लेखकों के साथ अनुवादक को भी याद रखेंगे जिसकी मेहनत और चुनाव के बिना वे कैसे सरहदों के आर पार यह साहित्यिक यात्रा करते। 

रमेश जोशी 

प्रधान संपादक ‘विश्वा’, 

अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति अमरीका की त्रैमासिक पत्रिका

4758, DARBY COURT, STOW., OH., U.S.A। 44224

फ़ोन (U.S.A.)011-91-330-688-4927

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