प्रांत-प्रांत की कहानियाँ (रचनाकार - देवी नागरानी)
ओरेलियो एस्कोबारमेक्सिकन नोबल प्राइज़ विजेता कहानी
मूल लेखक:गर्शिया मारकुएज
सोमवार की गर्म सुबह बिना बरसात के शुरू हुई। सुबह जल्दी जागने का आदी ओरेलियो एस्कोबार भी 6:00 बजे उठकर अपने ऑफिस का कमरा खोलकर भीतर आया। बिना डिग्री के दाँत निकालना उसका पेशा था।
उसने शीशे की अलमारी से प्लास्टिक के ढांचे में पड़े कुछ नकली दाँत निकाले और मुट्ठी भर औज़ारों के साथ ढंग से मेज़ पर रख दिए। ओरेलियो एस्कोबार ने बिना कॉलर के कमीज़ पहन रखी थी जिसका गला सोने के बटन से बंद था। और उसकी पैंट गारटर्ज़, लंबे रबड़ वाली पट्टियों से अपनी जगह पर क़ाबू में रखी गई थी।
जिस्मानी तौर पर वह दुबला-पतला आदमी था जो अक़्सर सीधा ही खड़ा रहा करता था और उसके चेहरे पर हमेशा ऐसे भाव रहा करते, जैसे गूगों और बहरों के चेहरों पर हुआ करते हैं। हालाँकि उन भावों का असली सूरते-हाल से कोई तालमेल न था। औज़ारों को मेज़ पर तरतीब से सजाकर, वह दातों की सफ़ाई वाली मशीन को अपनी ओर खींच कर कुर्सी पर बैठ गया और नक़ली दाँतों को चमकाने लगा। उस समय उसका दिमाग़ सोच से ख़ाली था और वह पूरे ध्यान से मशीन के पायदान को अपने पैरों से चलाते हुए दाँतों को चमकाता रहा। आठ बजे वह कुछ देर ठहरा और खिड़की से बाहर आसमान का निरीक्षण करने लगा। पड़ोस के घर की छत पर बनी मीनार पर दो चीलें बैठी थीं। सूरज की तपिश में अपने पंख सुखा रहीं थीं। उसने यह अंदाजा लगाया कि दोपहर तक जरूर बारिश होगी। वह वापस आकर अपने कमरे में मसरूफ हो गया। उसके ग्यारह साल के बेटे की आवाज़ की गूंज उसके कानों पर पड़ी,
‘बाबा।’
‘हाँ।’
‘बाहर इलाके का मेयर आया है। वह पूछ रहा है कि आप उसका दाँत निकालेंगे?’
‘उसे कह दो कि मैं मौजूद नहीं हूँ।’ कहकर वह इत्मिनान से सोने वाला दाँत साफ करने में व्यस्त हो गया। एक हाथ के फासले पर रखे दाँत को एक आँख बंद करके उसने गौर से देखा तो उसे अपने बेटे की आवाज़ फिर सुनाई दी।
‘पापा वह कहता है कि आप मौजूद हो क्योंकि उसने आपकी आवाज सुन ली है।’
वह दाँत देखने में व्यस्त रहा, कुछ देर बाद साफ़ किया दाँत मेज़ पर अन्य दाँतों के साथ रख दिया।
‘पापा मेयर कहता है कि अगर आपने उनका दाँत नहीं निकाला तो वह आप को गोली मार देगा।’
उसने मशीन चलानी बंद की और इत्मीनान से मशीन दूर की, मेज़ का वह ड्राअर खोला जिसमें रिवाल्वर पड़ा था।
‘बेटा उससे कहो कि वह आकर मुझे गोली मारे!’
उसने कुर्सी को दरवाजे की ओर मोड़ा और ठीक उसी वक़्त मेयर दरवाज़े से भीतर आया। उसका दायाँ गाल सूजा हुआ था, इसी कारण उसने पांच दिनों से शेव भी नहीं किया था। दाँत वाले डॉक्टर ने मेयर की आँखों में नाउम्मीदी और बेबसी देख ली। उसने दरवाजा बंद करके मेयर को बैठने के लिए कहा।
‘शब्बा खैर,’ दाँत वाले डॉक्टर ने कहा।
औज़ार गर्म पानी में उबल रहे थे। मेयर ने कुर्सी की पीठ का सहारा लिया। उसे काफ़ी आराम महसूस हुआ और वह पूरे कमरे का निरीक्षण करने लगा। उसे आभास हुआ कि कमरा बहुत ही सादा और मुफलिसी का प्रतीक था। पुरानी लकड़ी की कुर्सी, पायदान वाली मशीन, शीशे की अलमारी...! उसी वक्त दातों वाला उसके पास आया। मेयर ने एड़ियों के बल पर अपने आप पर काबू पाकर मुंह खोल दिया।
ओरेलियो एस्कोबार ने उसका मुंह रोशनी की ओर करते हुए दाँत का निरीक्षण किया। फिर कहा -‘तुम्हें बेहोश किए बिना दाँत नहीं निकाल पाऊंगा।’
‘क्यों?’ मेयर ने पूछा।
‘इसलिए कि दाँत के नीचे पस भर गया है।’
मेयर ने डॉक्टर की आँखों में देखते हुए कहा, ‘ठीक है!’
डॉक्टर उबले हुए औज़ारों को बिना चिमटे के बाहर निकालकर टेबल पर रखने लगा फिर हाथ धोकर औज़ारों की ओर मुड़ा।
इस बीच उसने एक बार भी आँख उठाकर मेयर की ओर नहीं देखा, और मेयर ने एक लम्हे के लिए भी उस पर से नज़र नहीं हटाई। खराब दाढ़ हक़ीक़त में अक्ल दाढ़ थी। अपने दाँत भींचकर डॉक्टर ने पैर जमाये और औज़ार से दाँत को मज़बूती से काबू कर लिया। इस वक़्त मेयर पूरी ताक़त से दोनों हाथ कुर्सी की बाँहों से थामे रहा और वह सीधा तनकर बैठ गया।
डॉक्टर ने मेयर की ओर देखते हुए कहा कि ‘इस वक्त तुम हमारे बीस आदमियों के क़त्ल का हिसाब दोगे।’ मेयर ने कुछ बेआरामी महसूस की और उसके आँसू निकल आए। उसने जैसे अपनी सांस रोक ली। जब उसने दाँत को बाहर निकलते देखा तो पिछली पांच रातों की तकलीफ और पीड़ा और इस पल के दर्द का मुक़ाबला करने में वह नाकाम रहा। वह पसीने से तर था और डॉक्टर उसके ऊपर झुककर सफाई कर रहा था। एक साफ कपड़ा मेयर की ओर बढ़ाते हुए कहा कि वह अपने आँसू साफ कर ले।
मेयर का पूरा जिस्म कांप रहा था। डॉक्टर ने उसे आराम करने की हिदायत दी और नमक पानी से कुल्ले करने की सलाह दी। मेयर ने उठकर उसे फौजी ढंग से सेल्यूट किया और बाहर निकल आया।
‘बिल भेज देना!’ उसने कहा।
‘किसके नाम, तुम्हारे या टाउन कमेटी के नाम?’
मेयर ने बिना डॉक्टर की ओर देखे ही क्लिनिक का दरवाज़ा बंद किया। जाली के दरवाजे से, बाहर की ओर से उसकी आवाज आई, ‘कोई फर्क नहीं पड़ता, एक ही बात है!’
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- फिर छिड़ी बात . . .
- अहसास के दरीचे . . .
- विश्व कथा-साहित्य का सहज अनुवाद
- देश में महकती एकात्मकता
- ओरेलियो एस्कोबार
- आबे-हयात
- आख़िरी नज़र
- बारिश की दुआ
- बिल्ली का खून
- ख़ून
- दोषी
- घर जलाकर
- गोश्त का टुकड़ा
- कर्नल सिंह
- कोख
- द्रोपदी जाग उठी
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- अब ख़ुशी की हदों के पार हूँ मैं
- उस शिकारी से ये पूछो
- चढ़ा था जो सूरज
- ज़िंदगी एक आह होती है
- ठहराव ज़िन्दगी में दुबारा नहीं मिला
- बंजर ज़मीं
- बहता रहा जो दर्द का सैलाब था न कम
- बहारों का आया है मौसम सुहाना
- भटके हैं तेरी याद में जाने कहाँ कहाँ
- या बहारों का ही ये मौसम नहीं
- यूँ उसकी बेवफाई का मुझको गिला न था
- वक्त की गहराइयों से
- वो हवा शोख पत्ते उड़ा ले गई
- वो ही चला मिटाने नामो-निशां हमारा
- ज़माने से रिश्ता बनाकर तो देखो
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