प्रांत-प्रांत की कहानियाँ

प्रांत-प्रांत की कहानियाँ  (रचनाकार - देवी नागरानी)

आख़िरी नज़र

 

बराहवी कहानी 

मूल लेखक: वाहिद ज़हीर

मामा गिलू एक अरसे से नींद को तरस रहा था। सच में चौकीदारी नींद की दुशमन होती है। उतार की तरफ़ लुढ़कने वाला पत्थर भी आख़िर एक जगह पर आकर रुकता है। हाँ, बिलकुल उसी तरह सोच भी लुढ़कने वाले पत्थर की तरह कहीं न कहीं जाकर रुक जाती है। कुत्ते की चौकीदारी उसकी फ़ितरत की माँग है और उसकी वफ़ादारी की पहचान भी। लेकिन आदमी के लिये आदमी की चौकीदारी उसकी मजबूरी है। वक़्त कायनात का सबसे बड़ा चौकीदार है। आज यूँ महसूस हो रहा है जैसे वक़्त भी बूढ़ा हो चुका है क्योंकि उसकी रफ़्तार बहुत तेज़ हो चुकी है उस बूढ़े की तरह जो उम्र का आखिरी पड़ाव बहुत तेज़ी से तय करता है। गोया उसके बुढ़ापे ने वक़्त के चेहरे पर भी झुर्रियाँ डाल दी हैं&मामा गिलू ने सोचा। 

मामा गिलू अपनी अंधी बीवी राजी और नौजवान बेटी लाली की ज़रूरतें पूरी करने के लिये चौकीदारी करता था। दिन में वह चिलम के कश लगाता रहता, या फिर सो रहा होता। लाली जवानी की दहलीज़ पर क़दम रख चुकी थी और उड़ती हुई तितलियों की उड़ान से वाक़िफ हो चुकी थी। उसके लिये एक दो रिश्ते आए मगर मामा गिलू ने यह कहकर टाल दिया कि बच्ची अभी कम-उम्र है। वैसे भी उसे अपने और अपनी अंधी बीवी के लिये सहारे की ज़रूरत थी। 

रात की चौकीदारी के बाद जब घर लौटा तो यह देखकर उसे धक्का-सा लगा- रंग ज़र्द हो गया कि रात मेरे घर में कोई आया है। आँगन में जूतों के निशान और इत्र की ख़ुशबू फैली हुई है। औरत ज़ात पर उसका शक हमेशा की तरह आज भी क़ायम था, बल्कि आज तो उसने अपने शक को यक़ीन में बदलता हुआ महसूस किया। जब कभी वह अपनी बीवी को औरतों की मक्कारी के बारे में अपने विचार बताता तो बीवी फ़ौरन बोल पड़ती ‘शुक्र है कि मैं अंधी हूँ।’ 

यक़ीनन मेरी बीवी के अंधेपन ने किसी अजनबी के लिये मेरे घर के बंद किवाड़ खोल दिए है, मामा गिलू ने सोचा। वह गुस्से के आलम में अपनी बीवी के कमरे में आया&‘रात घर में कोई आया था?’

‘नहीं तो’, बीवी ने धीमे लहज़े में कहा। 

‘हाँ, तुम तो अंधी हो, तुम्हें क्या मालूम।’ मामा गिलू की यह बात सुनकर राजी की बेनूर आँखें तेज़ी से अपने स्याह दायरे में इधर-उधर फैलने और सिकुड़ने लगीं, यूँ लग रहा था जैसे गुस्से से उसकी आँखें बाहर निकल आएँगी। 

‘तो फिर आज एक अंधी से क्यों पूछा जा रहा हैं?’ बीवी के आख़िरी जुमले पर वह गुस्से में कमरे से बाहर निकला ताकि लाली से पूछ सके मगर लाली उस वक़्त सो रही थी। वह ज़िन्दगी में पहली बार औरत को औरत समझकर उसके हर चलन को मक्कारी समझने लगा था। उस वक़्त उसकी हालत बिलकुल उस बच्चे जैसी थी जो अपने मुँह से ज़मीन पर गिरे हुई लालीपाप को देखते हुए सोचता है कि वह उसे साफ़ करके वापस मुँह में रख सकता है, मगर उसे ख़याल आता है&किसी ने देख लिया होगा और फिर गुस्से में आकर लालीपाप को जूते के नीचे रौंद कर आगे बढ़ जाता है। मामा गिलू सोच रहा था क्या मैं भी ऐसा कर सकूँगा? नहीं, नहीं, हर्गिज़ नहीं, यह मेरी इज्ज़त का सवाल है। दूसरे दिन मामा गिलू शाम को ही घर से निकला लेकिन वह अपनी ड्यूटी पर नहीं गया बल्कि घर से कुछ फ़ासले पर दरख़्तों के झ़ुंड में बैठ कर उसने आँखें अपने घर के दरवाज़े पर टिका दीं। उसे चौकीदारी करते पंद्रह साल हो गए थे मगर आज उसने सही मायने में चौकीदारी के बोझ को महसूस किया। उसने मजबूरी की दीवार तोड़कर अपनी इज़्ज़त की दीवार बचाने की ठान ली। 

उस वक़्त उसके ज़हन में सोचों का एक सैलाब उमड़ आया था। अगर वह अजनबी नौज़वान आया तो मैं उसका क़त्ल करूँगा, उसके बाद लाली का ख़ून भी तो करना होगा, यही दस्तूर है ग़ैरत का...पर मैं अपनी बेटी का क़त्ल कैसे करूँगा? काश मेरा कोई बेटा होता तो वह आज यह फर्ज़ निभा भी चुका होता। बहन पर भाई का फर्ज़ और बेटी पर बाप का कर्ज़ उस बिल्ली की तरह है जो रात-दिन चूहों की ताक में रहती है। उस वक़्त उसका वहम हर राहगीर के साथ उसके दरवाज़े तक सफ़र करता और जब राहगीर आगे निकल जाता तो वह एक लम्बी सांस लेकर रह जाता। रात भर की बेचैनी और बेख़याली ने उसे गूँगा कर दिया।

सुबह होते ही वह आँखे मलता हुआ घर में दाख़िल हुआ। एक लमहे के लिये वह सकते में आ गया। कल के निशानो से कुछ अलग से निशान आज भी थे। एक लमहें के लिये उसे महसूस हुआ जैसे कोई डफली बजाकर उसे जगा रहा हो। उसे चक्कर आने लगे, एकदम से उसके ज़ेहन के परदे पर फ़िल्म चलने लगी, जिसमें उसे कई नौजवानों के किरदार पर शक हुआ। हो न हो यहाँ बाबुल आता होगा, क्योंकि उसका मिलना-जुलना लड़कियों से बहुत है। क्यों न जाकर उसे मार डालूँ...! मगर बग़ैर किसी सबूत के? उस वक़्त उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। कमरे में दाख़िल हुआ तो बेटी यूँ सोई हुई थी जैसे कोई फरिश्ता हो। सुना था कि इन्सान बुढ़ापे में ज़लील होता है, मैं भी तो वाक़ई ज़लील हो रहा हूँ, मगर कब तक? 

आज वह दिनभर घर से बाहर रहा कि शायद किसी होटल, खोखे या कहीं फुटपाथ पर, नौजवान उसकी बेटी का ज़िक्र कर रहे हों। हर आदमी को अपनी ओर देखता देखकर वह और ज़्यादा गुमान से भर जाता। आज उसने अपनी कुल्हाड़ी की धार तेज़ करवा ली थी, ताकि उसके कंपकंपाते हाथों की लरज़िश उस की धार में छुप जाए। अब वह पिछली रात की तरह घर से निकला और उसी पेड़ के नीचे बैठ गया। अंधेरा गहरा हुआ और वह आहिस्ता-आहिस्ता बिना किसी आवाज़ किये बग़ैर पिछली दीवार चढ़कर अपने घर की छत पर आ बैठा और हमलावार बिल्ली की तरह फ़िज़ा की जाँच-पड़ताल लेने लगा। 

अचानक उसने देखा, लाली अपनी चारपाई से उठकर इधर-उधर देखने के बाद कमरे में दाख़िल हुई। अब तो मामा गिलू का जिस्म बहुत तेज़ी से काँप रहा था। उसके पसीने छूट रहे थे और वह ज़्यादा चौकन्ना हो गया। दूसरे ही लमहे लाली के कमरे से निकलते हुए साए के साथ वह भी आहिस्ता से छत पर आगे खिसकने लगा और फिर...धड़ाम से घुटनों के बल गिरा, सिर्फ़ इतना देख सका कि लाली ने मर्दाना जूते पहन रखे थे!

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