प्रांत-प्रांत की कहानियाँ

प्रांत-प्रांत की कहानियाँ  (रचनाकार - देवी नागरानी)

देश में महकती एकात्मकता

 

हिन्दी भारत की जननी है, भाषाओं की जड़ है, और भारतीय संस्कृति की नींव व हर हिंदुस्तानी की पहचान है। बावजूद इसके प्रांतीय भाषाएँ भी अपनी अस्मिता चाहती हैं, जिनका संस्कार व आचरण प्रदर्शन करने का माध्यम सिर्फ़ प्रांतीय भाषाओं को ज़िंदा रखकर किया जा सकता है। भाषा संवाद का माध्यम है। हरेक प्रांतीय भाषा के साहित्य से भी उस प्रांत की सभ्यता की जड़ों तक पहुँचा जा सकता है। भाषओं के माध्यम से शब्दों की यात्रा शुरू होती है जो नदी की धार की तरह आपने आँचल में हर परिवर्तन को समेटते हुए प्रवाहित होती है।

भाषा के साथ ज्ञान जुड़ा हुआ होता है&एक नहीं अनेक भाषाओं का ज्ञान, उन भाषाओं की शब्दावली, उनके सुगंधित संस्कार जो परिवेश में पाये जाते हैं। चिंतन की अभिव्यक्ति, अनुभूति की अभिव्यक्ति लिखने और बोलने वाले व्यक्ति में समय के साथ बदलती हुई सोच में नवनिर्माण का बीज बोती है। प्रंतीय भाषाओं के संदर्भ में कहा गया सत्य दोहराते हुए यह मानना होगा कि ‘‘मौलिक चिंतन यदि अपनी मात्र भाषा में ही किया जाये तो उसका परिणाम अनुकूल होता है। भाषा की स्थिति जटिल तब होती है जब वह प्रयोग में नहीं आती हो या अपनी पहचान खो देती है।’’

जहाँ भाषा व सभ्यता की प्रगति दिन- ब-दिन बढ़ रही है, वहीं विविधताओं से युक्त भारत जैसे बहुभाषा-भाषी देश में एकात्मकता की परम आवश्यकता है और अनुवाद साहित्यिक धरातल पर इस आवश्यकता की पूर्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने में सक्षम है। अनुवाद वह सेतु है जो साहित्यिक आदान-प्रदान, भावनात्मक एकात्मकता, भाषा समृद्धि, तुलनात्मक अध्ययन तथा राष्ट्रीय सौमनस्य की संकल्पनाओं को साकार कर हमें वृहत्तर साहित्य-जगत् से जोड़ता है। अनुवाद-विज्ञानी डॉ. जी. गोपीनाथन लिखते हैं&‘‘भारत जैसे बहुभाषा-भाषी देश में अनुवाद की उपादेयता स्वयंसिद्ध है। भारत के विभिन्न प्रदेशों के साहित्य में निहित मूलभूत एकता के स्परूप को निखारने, दर्शन करने के लिए अनुवाद ही एकमात्र अचूक साधन है। इस तरह अनुवाद द्वारा मानव की एकता को रोकने वाली भौगोलिक और भाषायी दीवारों को डाहकर विश्वमैत्री को और भी सुदृढ़ बना सकते हैं।’’ 

यहीं से अनुवाद का अध्याय शुरू होता है। अनुवाद की अपूर्णता के बारे में चाहे कुछ भी कहा जाए, परन्तु सच्चाई यह है कि संसार के व्यावहारिक कार्यों के लिए उसका महत्व असाधरण और बहुमूल्य है। जब तक अनुवादक मूल रचना की अनुभूति, आशय और अभिव्यक्ति के साथ एकाकार नहीं हो जाता तब तक सुन्दर एवं पठनीय अनुवाद की सृष्टि नहीं हो पाती। मूल रचनाकार की तरह अनुवादक भी कथ्य को आत्मसात् करता है, इसलिए अनुवादक में सृजनशील प्रतिभा का होना अनिवार्य है।

शब्द का प्रयोग भी एक कला है। उन्हें कैसे, कहाँ, किस संदर्भ में प्रयोग करना है यह रचनाकार की अपनी रचनात्मक क्षमता है। इसके लिए भाषा ज्ञान का होना अनिवार्य है। भाषाई संस्कार परिवेश से पाया जाता है, जहाँ मातृभाषाई ज़बान में बाल शिशु को पहली पहचान मिलती है। वह किसी भी प्रांत की भाषा हो सकती है। भारत में अनेक भाषाओं का प्रचलन व प्रयोग है, जिनमें से कुछ दबी हुई हैं, कुछ उभरी हुई हैं, कुछ विलूप सी होती जा रही हैं। पर यह निश्चित है कि हर भाषा के साहित्य के भंडार का कुछ अंश लोगों को विरासत में मिला होगा, जो कितने ही कारणों से मध्य पीढ़ी व आज की नव पीढ़ी के पल्ले नहीं पड़ा है। इस का मूल कारण भाषा ज्ञान की कमी, या बालावस्था में पाठशालाओं में वह भाषा उस प्रदेश में न पढ़ाई जाती हो। यही बात हमारी सिंधी भाषा पर लागू होती है।

मानव का संबंध मानव से, भाषा का संबंध भाषा से है। एक भाषा में कही व लिखी बात अनुवाद के माध्यम से दूसरी भाषा में अभिव्यक्त करके, हिन्दी भाषा के सूत्र में बांधते हुए शब्दों के माध्यम से भावनात्मक संदेश पाठकों तक पहुँचाना ही इस अनुवाद की प्राथमिकता है। अनुवाद किया हुआ साहित्य पाठक को अनुवाद नहीं बल्कि स्वाभाविक लगे, यही अनुवाद की मौलिकता है, और अनुवाद किये गए साहित्य के सही बिम्ब अंकित करने में अनुवादक की सार्थकता होती है। 

भाषा की समृद्धि में शायद हम अपना विकास देख रहे हैं। आज प्रांतीय भाषाओं से हिन्दी में, और हिन्दी से अन्य भाषाओं में अनुवाद हो रहा है। इसी एवज़ साहित्य की समृद्धि निश्चित रूप से हो रही है। यही सबब है कि पाठक गण को सिर्फ़ एक परिवार नहीं, एक परिवेश, एक नए निर्माणित समाज, एक समृद्ध राष्ट्र की समृद्ध भाषाओं के माध्यम से पठनीयता का अधिकार मिलता रहे और चिंतन मनन के लिए खाद प्राप्त होता रहे! 

इसी प्रयास के महायज्ञ में एक छोटी सी कोशिश मेरी मात्रभाषा सिन्धी से हिन्दी में अनुवाद के माध्यम से हुई, और हिन्दी कथाकारों की कहानियाँ भी सिन्धी भाषा में संग्रह के रूप में आई हैं। इस संग्रह की कहानियाँ मैंने उर्दू, सिन्धी और अंग्रेजी भाषा से की हैं। बलूचिस्तान की भाषाओं&पश्तू, बराहवी और बलूची की कहानियाँ उर्दू से अनुवाद हुई हैं। इन कहानियों में वहाँ के परिवार व परिवेश की झलकियाँ मौजूद हैं। मेरी दिली ख्वाहिश है कि सिन्धी व अन्य प्रांतीय भाषाई सौहार्द अदब-अदीबों के बीच पनपता रहे और भाषाई सीमाएं सिमट कर एक आँचल तले फलते-फूलते मुक्त फिज़ाओं को महकाती रहे।

मैं प्रकाशक की तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ, जो इन प्रांतीय भाषाओं की खुशबू से सराबोर मेरे इस कहानी-संग्रह के प्रयास में अपना सहयोग देते हुए समय की अनुकूलता के साथ आप तक पहुँचाने में सक्रिय रहे हैं। संग्रह में योगदान देने वाले साहित्यकारों की कहानियाँ उनकी अनुमति से शामिल हैं!

इसी सद्भावना के साथ आपकी अपनी,

देवी नागरानी 
न्यू जर्सी (यू.एस.ए.)

<< पीछे : विश्व कथा-साहित्य का सहज अनुवाद आगे : ओरेलियो एस्कोबार >>

लेखक की कृतियाँ

साहित्यिक आलेख
कहानी
अनूदित कहानी
पुस्तक समीक्षा
बात-चीत
ग़ज़ल
अनूदित कविता
पुस्तक चर्चा
बाल साहित्य कविता
विडियो
ऑडियो