प्रांत-प्रांत की कहानियाँ

प्रांत-प्रांत की कहानियाँ  (रचनाकार - देवी नागरानी)

घर जलाकर

उर्दू कहानी

मूल लेखक: इब्ने कंवल

बस्ती में हाहाकार मची हुई थी। आग फैलती चली जा रही थी, आसमान धुएँ से भर गया था। आग पर क़ाबू पाने की कोशिश के बावजूद आग क़ाबू से बाहर थी। औरतें सर पीट-पीटकर चीख रही थीं। बच्चे ख़ौफ़ से चिल्ला रहे थे और मर्द आग बुझाने की कोशिश में लगे हुए थे। पास और दूर, ऊँचे ऊँचे पक्के मकानों के आवासी तमाशाई बने धुएँ और तपिश से बचने के लिए अपने घरों की खिड़कियाँ दरवाज़े बंद कर रहे थे। शहर के बीच में रामलीला ग्राउंड के नज़दीक क़रीब-क़रीब 500 झुग्गियों की यह बस्ती न जाने कब से आबाद थी और किस तरह आबाद हो गई थी, किसी को याद नहीं था, लेकिन अक़्सर लोग उसे शहर की ख़ूबसूरती पर बदनुमा दाग़ कहा करते थे, जबकि झुग्गियों में रहने वाले उन्हीं हाथों से शहर की गंदगी साफ़ करते थे। उन्हीं के दम से आलीशान घरों में चमक दमक क़ायम थी। यहाँ के रहने वालों का गंदापन ग़ायब हो गया था।  
शायद सबसे पहले यहाँ एक छोटी-सी झोपड़ी थी। फिर एक और . . . एक और . . . फिर एक मुकम्मल बस्ती। छोटी सी इस बस्ती में सब कुछ था, बिजली हर जगह मौजूद थी। छोटे–बड़े ब्लैक एंड वाइट टीवी भी इन झुग्गियों में हर वक़्त चलते रहते थे। गंदे-गंदे बच्चे, नालियों में गंदा और सड़ा हुआ पानी, कूड़े के ढेर, मक्खी, मच्छर, कुत्ते सब कुछ था। वे सब उसके आदी थे। यहाँ मज़हब वतन का बँटवारा न था। हर सम्प्रदाय के लोग इन्सानियत के रिश्ते में बँधे हुए थे। दुख-सुख में एक-दूसरे के साथी, मौत पर सब एक साथ शोक मनाते और ख़ुशी में सब एक साथ मस्त व ख़ुशी से झूमते गाते। शहर के विस्तार में उनकी मौजूदगी सियासी पनाह का सबब भी थी। हर नेता उन्हें वोट बैंक समझता था, सियासी जलसों में भीड़ बढ़ाने और नारे लगाने के लिए उन्हें लोगों की ज़रूरत पड़ती थी। कई बार उस बस्ती को हटाने की कोशिश की गई लेकिन हर बार कोई न कोई उनकी मदद के लिए आ जाता।  

लेकिन अचानक आग लगने से सारा मंज़र बदल गया, आग एक झुग्गी से शुरू हुई थी और देखते-देखते गर्मी और हवा की शिद्दत के कारण पूरी बस्ती उसकी लपेट में आ गई। उसकी वजह यह भी थी कि झुग्गियों में जलने का सामान मौजूद था: फूंस, सूखी लकड़ियाँ, प्लास्टिक, टायर और केरोसिन। आग जहन्नुम का मंज़र दर्शा रही थी। फ़ायर ब्रिगेड की गाड़ियाँ आते-आते सब कुछ ख़त्म हो गया। अजीब भागम-दौड़ी का आलम था। जलते हुए शोलों से लोग कभी ख़ुद को निकालते, कभी सामान निकालने की कोशिश करते, कोई अपने बच्चों को झुग्गी से बाहर धकेल रहे थे, तो कोई बूढ़े माँ-बाप को उठाकर आग के शोलों से दूर ले जा रहा था। चारों तरफ़ एक कोहराम मचा हुआ था। 

तमाशाइयों की भी एक भीड़ इकट्ठी हो गई थी। अख़बारों के रिपोर्टर और टीवी के कैमरे से उस ख़ौफ़नाक मंज़र की तसवीरें खींची जा रहीं थीं। मुसलसल कई घंटों की जद्दोजेहद के बाद जब आग पर क़ाबू पाया गया तो लोग अपनी जली हुई झुग्गियों की सुलगती हुई राख से अपने खोए हुए संबंधियों और सामान को ढूँढ़ने के लिए पहुँचे। लेकिन वहाँ कुछ नहीं था, सिवा जले हुए सामान और लाशों के कुछ नहीं मिला। किशोर की बूढ़ी माँ जो कमज़ोरी की वजह से भाग नहीं पाई जल गई थी। रामू काका का छोटा बेटा जल गया। वह अपनी बीवी के साथ अपनी बड़ी बेटी के दहेज़ को बचाने में लगा रहा। लगभग दस लोगों की मौत आग में जलने से हो गई। बहुत से लोग झुलसकर अस्पतालों में पहुँचाए गए। शोले दब गए थे लेकिन राख से धुआँ उठ रहा था। तमाशाइयों की एक अच्छी ख़ासी भीड़ इकट्ठी हो गई थी। लोग मदद भी कर रहे थे और बातें भी हो रहीं थीं। समाज के ठेकेदारों और सियासी लोगों का आना जाना शुरू हो गया था।  

सरकार ने मरने वालों को एक-एक लाख और ज़ख्मियों को 50, 000 देने का एलान किया। आग लगने के कारण की पूछताछ के लिए कमिशन बिठाया गया। जबकि सब जानते थे कि आग सबसे पहले बरपा की झुग्गी में स्टोव फटने से लगी थी, लेकिन सब अपनी-अपनी राय पेश कर रहे थे: 

“ये सब ज़मीन ख़ाली करने का चक्कर है, यह ज़मीन सेठ दौलतराम की है। सुना है उसने इसे जसल बिल्डर के हाथ बेची है।”

“मैंने तो सुना है कि इसमें कोई राजनैतिक चाल है, इलेक्शन होने वाला है।”

“आग लगाकर मदद करके हर पार्टी हमदर्दी और वोट हासिल करने की कोशिश करेगी।”

“कारण कुछ भी हो लेकिन मरने वाले अपने ख़ानदान को लखपति बना गए।”

“हाँ भाई, किशोर की माँ तो मरे बराबर ही थी, चल फिर भी नहीं सकती थी और दीनू का बाप भी अपाहिज था।”

“हरे मियाँ एक लाख रुपया कभी देखा भी नहीं होगा। यह तो मरा हाथी सवा लाख वाली बात हो गई।”

बहुतों को इस बात का अफ़सोस था कि उनके घर का कोई सदस्य जल क्यों नहीं गया। दामाद अपनी साँसों के न जलने, और बेटे अपने बूढ़े माँ-बाप के बचने पर अफ़सोस कर रहे थे। 

“बुढ़िया मर जाती तो घर में ख़ुशहाली आ जाती।”

“ऐ यार, मेरा बुड्ढा आग देखकर लौंडों की तरह झुग्गी से बाहर भागा, वैसे उठकर पानी भी नहीं पीता था।”

इस हादसे पर कई दिन तक मेला सा लगा रहा। दूर दूर से तमाशाई जली हुई बस्ती को देखने आ रहे थे। खोमचेवाले भी वहाँ पहुँचे हुए थे, कोई छोले-पूरी बेच रहा था, कोई आइसक्रीम का ठेला लिए खड़ा था, कहीं भुट्टे भूने जा रहे थे, कोई पान-बीड़ी सिगरेट बेचने में व्यस्त था। वह गंदी झुग्गियों वाली बस्ती आग लगने से सबके लिए प्रकाश बिंदु बन गई थी। बड़े-बड़े लोग, बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ वहाँ आकर रुक रही थीं। असीम उदारता का दिखावा करते हुए बेघर लोगों की सूची के अनुसार ज़रूरी सामान मौजूद करा रहे थे। उसमें मदद का जज़्बा कम और उसके बदले ख़ुदा के यहाँ से 10 लाख लेने का लालच ज़्यादा था। दो तीन दिन में इतना घरेलू सामान और खाना जमा हो गया, जितना उन ग़रीबों ने पूरी ज़िन्दगी नहीं देखा था। पहले से अच्छे कपड़े उनके बदन पर थे। पहले से अच्छा खाना बग़ैर किसी मेहनत के मिल रहा था। ज़िन्दगी की यह बदली शक्ल देखकर वे शोलों की तपिश भूल गए। फिर झुग्गियाँ बन गईं, ज़िन्दगी उसी रफ़्तार से चलने लगी। वक़्त गुज़रता गया। आहिस्ता-आहिस्ता ज़िन्दगी की वही गन्दगी, बदबूदार और लाचार शक्ल फिर उभर आई। अभाव और बेचारगी का अहसास फिर उस बस्ती में लौट आया। सबकी वक़्ती हमदर्दियाँ ख़त्म हो गईं। फिर वह बस्ती शहर का बदगुमां दाग़ कहलाई जाने लगी। चूल्हे फिर ठंडे हो गए, बदन पर फिर फटे पुराने कपड़े नज़र आने लगे। सबकुछ पहले जैसा हो गया। 

नज्जू ने बड़ी हसरत भरी आवाज़ में अपनी माँ से पूछा, “माँ हमारी झुग्गियों में फिर कब आग लगेगी?”

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